Tuesday, December 11, 2018

नई कहानियाँ नई दिशाएँ

नई कहानियाँ नई दिशाएँ 

(Kindle Edition)


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Monday, December 3, 2018

समय–बोध से सम्बन्धित कविताएँ

गोपू भैया
घड़ी पहनकर गोपू भइया, ले बस्ता स्कूल गए , मिला राह में एक मदारी, गोपू जी सब भूल गए । ।
गोपू जी रुक गए घड़ी ने, तब बतलाई बात , रुको नहीं चल पड़ो कि जैसे मैं चलती दिन रात । ।

घड़ी
टिक–टिक–टिक–टिक चलती है, घड़ी कभी न रुकती है ।
हमको है यह पाठ सिखाती, कितनी अच्छी बात बताती । ।
काम समय से करना सीखो, हरदम आगे बढ़ना सीखो । ।

पशु–सम्बन्धित कविताएँ

चूहा मुन्ना
चूहा मुन्ना जाग रहा था, माँ के आगे भाग रहा था ।
तेज दौड़ कर माँ ने रोका, दूध लिए तब माँ ने टोका ।।
चीं–चीं चूहा मुन्ना बोला, नहीं पिऊँगा दूध मैं अम्मा । 
रबड़ी और मलाई लाओ, मुझे मिठाई खूब खिलाओ ।।

बिल्ली
बिल्ली आई एक अनोखी, लाई साथ में सीटी चोखी ।
सीटी खूब बजाती है, दूध मलाई खाती है । ।
अम्मा डाँट लगाती हैं, भाग के वह छिप जाती है । ।

अनुशासन से सम्बन्धित कविताएँ

सोच समझ कर मुख को खोलो, कभी न गन्दी बातें बोलो ।
सदा बड़ों की बातें मानो, अनुशासन में रहना जानो । ।

प्यारे बच्चे
पढ़ते लिखते रहते जो, प्यार दुलार  पाते वह ।
खाते खेलते भी जो, आँखों के तारे हैं वह । ।
अनुशासन में रहते जो, टीचर के प्यारे हैं वह ।
माँ की बात मानें जो, सबसे ही न्यारे हैं वह । ।

अच्छे बच्चे
सूरज से हम चम चम चमकें, चन्दा से शीतल मन होवें ।
पुष्पों की खुश्बू से हम सब, महकें अपने घर आँगन में ।
कोयल सा हम मीठा बोलें, चिड़िया सा हम हँस कर खेलें ।
कुत्ते सी हम आज्ञा मानें, मोर समान नाचते डोलें । ।

भावप्रधान कविताएँ

प्यारे भइया
प्यारे–प्यारे भइया, राजदुलारे भइया ।
सबसे प्यारे भइया, आँखों के तारे भइया । ।


प्यारी गुड़िया
प्यारी–प्यारी गुड़िया, शक्कर की पुड़िया ।
शक्कर मीठी नहीं है, जितनी मीठी गुड़िया । ।


शैतान गुड़िया
देखो मेरी गुड़िया रानी, करती है कितनी शैतानी ।
पूड़ी सब्जी खूब बनाती, फेंके बर्तन, डाले पानी । ।


बन्दर राजा
बन्दर राजा घूम रहे हैं, डाल–डाल पर कूद रहे हैं ।
भूख लगी तो तोड़े आम, डण्डा पड़ा भूल गए नाम । ।

वातावरण से परिचय

बादल
टहल रहे हैं बादल सारे, कितने सुन्दर कितने प्यारे ।
पानी लाते रिमझिम कर हैं, बच्चों की आँखों के तारे । ।

तारे और मुन्ना राजा
टिम–टिम तारे चमक रहे हैं, आँख मिचौली खेल रहे हैं ।
चंदामामा देख रहे हैं, मुन्ना राजा सोच रहे हैं । ।

रेल
छुक–छुक, छुक–छुक खेलें खेल, देखो कितनी सुन्दर रेल ।
राजू , पिंकी, मुन्ना, भइया, सब चलते हैं ठेलम ठेल । ।
इंजन बना हुआ है राजू , गार्ड बना है प्यारा पप्पू ।
छुक–छुक करती भागे रेल, दिल्ली आया रुक गई मेल । ।

तारे
आसमान में निकले तारे, कितने सुन्दर कितने प्यारे ।
चम–चम चमक रहे हैं तारे, लगते अच्छे तारे न्यारे । ।

संस्कृति का ज्ञान

रक्षाबन्धन
रक्षाबन्धन का त्योहार, भाई बहन का अनुपम प्यार ।
राखी बाँधे बहन, भाई दे उसको रक्षा का उपहार । ।


महीने के दिन
अप्रैल, जून, सितम्बर, नवम्बर इनके दिन हैं तीस ।
अट्ठाइस दिन की फरवरी, बाकी सब इकतीस । ।

स्वच्छता से सम्बन्धित कविता

साफ सुथरे बच्चे
सबके मन को भाते बच्चे, फूलों से मुस्काते बच्चे ।
साफ सुथरे रहते जो, रोज ही नहाते जो । ।
दाँत साफ रखते जो, कपड़े साफ रखते जो ।
सबके मन को भाते वो, फूलों से मुस्काते जो । ।

स्वास्थ्य (आहार) से सम्बन्धित कविताएँ

डॉक्टर बन्दर
बन्दरिया जी की शादी में, दूल्हा डॉक्टर बन्दर ।
बर्फी, लड्डू , हलवा, पूड़ी, थाली आयी सज कर । ।
तिनक उठ खड़ा दूल्हा बोला, नहीं खाऊँगा ये सब ।
मुझे चाहिए पौष्टिक भोजन, रोटी, दाल और पालक ।
पत्ते वाली सब्जी हो और लाल चुकन्दर गाजर । ।

इसी प्रकार समभाव की कविता
डॉक्टर दूल्हा
दीदी जी की शादी में, दूल्हा आया डॉक्टर ।
पकवानों से सजे थाल को, लेकर आया नौकर । ।
जीजा बोले तब गुस्से में, लाये हो ये क्यों कर ।
रोटी, सब्जी, दाल, दूध ही भोजन होता रुचिकर । ।

चना–मूँग
चना, मूँग और मोठ भिगोकर, जिसने–जिसने खाया ।
टीका हँस–हँस कर जिसने भी, डॉक्टर से लगवाया । ।
मट्ठा, सब्जी, दालें खाकर, स्वस्थ शरीर बनाया ।
खेलकूद में और पढ़ने में, अव्वल नम्बर पाया । ।

करेला
सुन्दर प्यारा–प्यारा, लगता सबसे न्यारा ।
हरा करेला आया, सबके मन को भाया । ।
सब्जी जिसने खाया, फुड़िया दूर भगाया ।
सुन्दर प्यारा–प्यारा, लगता सबसे न्यारा । ।

पौष्टिक आहार
खाएँ हम सब ऐसे, खिल जाएँ फूल जैसे ।
चने की दाल के साथ, मक्का की रोटी , पालक के शाक के साथ चने की रोटी ।
खाएँ हम सब ऐसे, खिल जाएँ फूल जैसे , हरे पत्ते की सब्जी, रोटी मोटी–मोटी ।
पालक की सब्जी, रोटी छोटी–छोटी , खाएँ हम सब ऐसे, खिल जाएँ फूल जैसे । ।

नीम
चैत की बयार में, कोपल है नीम की ,शुद्ध करे रक्त को, है बहुत कीमती ।
 रोगों को दूर करे, फोड़ों को नष्ट करे , रोज खाओ, न कोई जरूरत हकीम की । ।

तुलसी
नित्य चार पत्ती तुलसी की, जो कोई है खाता ।
सब रोगों को दूर भगाकर, लम्बी सैर लगाता । ।

चरित्र निर्माण से सम्बन्धित कविताएँ

बत्ती
हुई रात तब मुन्ना पढ़ते, बत्ती वहीं जलाते हैं ।
पढ़–लिख कर जब सोने जाते, बत्ती बन्द कर जाते हैं । ।

खाना
अपनी माँ जो खाना देती, सबसे अच्छा खाना देती ।
गोलू की पूड़ी मत देखो, पिंकी की चूड़ी मत देखो । ।
अपना घर है छोटा प्यारा, सबसे सुन्दर सबसे न्यारा । ।

फूल
कितने सुन्दर कितने प्यारे, फूल खिले हैं न्यारे–न्यारे ।
नहीं तोड़ कर उन्हें गिराओ, उन जैसे तुम भी मुस्काओ । ।

समयबद्धता
उठो सवेरे शीश नवाओ, दाँत साफ कर रोज नहाओ ।
करो कलेवा, पढ़ने जाओ, विद्यालय से न कतराओ । ।
पढ़ना सीखो, लिखना सीखो, कभी नहीं तुम लड़ना सीखो ।
भेदभाव को दूर भगा कर, मिल जुल कर तुम रहना सीखो ।

Sunday, December 2, 2018

सुमति



‘सिर दर्द के मारे फटा जा रहा है। समझ में नही आ रहा है कि क्या करूँ?’
‘करोगे क्या? कुछ झाड़–फूँक करवाओ या देवी का अनुष्ठान करो, लगता है, देवी नाराज़ हो गई हैं।’ पत्नी निर्णायक स्वर में बोली।
‘देवी तो नाराज़ है किन्तु मैं कैसे कह दूँ कि घर के किसी एक सदस्य का सर्वनाश कर दो।’ व्यथित होते हुए रामकिशन बोले।
बात यह थी कि आज प्रात: पूजा करते समय उन्हें लगा था कि देवी कह रही हैं कि ‘मैं तुमसे नाराज़ हूँ। घर के किसी एक सदस्य पर विपत्ति आएगी। तुम बता दो कि किस पर विपत्ति आए कल तक का समय देती हूँ।’ तबसे ही पूरा घर परेशान था।
नवविवाहिता पुत्रवधू ने कहा–‘पिताजी मैं एक सलाह
दूँ।’
रामकिशन पुत्रवधू से कुछ बोल तो नहीं पाए किन्तु उन्हें बहुत बुरा लगा कि उनसे आधी उम्र की बहू प्रिया क्या सलाह देगी, फिर भी बोले–‘बताओ क्या बता रही हो, तुम्हारी भी सुन लूँ।’
‘आप देवी जी से कह दीजिए कि आप चाहे घर के जिस सदस्य पर विपत्ति लावें, केवल घर में परस्पर सुमति रहे।’
‘क्यों।’
‘पिता जी! आप देवी जी से इतना कहिए, हमारे ऊपर विपत्ति नहीं आएगी क्योंकि जहाँ पर सुमति होती है, वहीं पर आनन्द होता है।’ बहू विनती के स्वर में बोली।
खैर––––दूसरा दिन आया। देवी जी आयीं, अन्य कोई विकल्प न देखकर रामकिशन जी ने देवी जी को प्रणाम करके कहा–‘भगवती! आप इतना आशीर्वाद दीजिए कि घर के सदस्यों में परस्पर सुमति बनी रहे। अब आपकी इच्छा है, यदि आवश्यक ही है किसी पर विपत्ति आना तो घर के किसी भी एक सदस्य पर विपत्ति आ जावे।’

देवी जी ने मुस्कराते हुए कहा– ‘रामकिशन!
जहाँ सुमति  तहँ सम्पति  नाना ।
जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना ॥
अत: मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ कि तुम्हारा परिवार सदा सुख समृद्धि से भरा रहेगा। तुमने सुमति की कामना की है। अत: तुम्हारे परिवार में कभी विपत्ति आ ही नहीं सकती, क्योंकि सुमति होने पर एक व्यक्ति के ऊपर विपत्ति आने पर पूरा परिवार मिलजुल कर उस समस्या को सुलझा लेता है।’
सुमति से ही समृद्धि मिलती है।
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समस्या–समाधान


‘सारे कुटीर–उद्योग तो मशीनीकरण के आगे समाप्त होते जा रहे हैं। मैं तुम्हें कौन सा रास्ता बताऊँ घरेलू काम का।’
‘क्यों? पहले औरतें बड़ी, पापड़ बना–बना कर पूरी गृहस्थी चलाती थीं।’
बीच में बात काटते हुए अनन्त अपनी पत्नी वसुधा से बोला–‘यही तो मैं कह रहा हूँ। अब तो बड़ी–पापड़ भी मशीन से बनने लगे हैं, मशीन के बने बड़ी–पापड़ आदि देखने में साफ–सुथरे व अच्छे भी लगते हैं और हाथ के बने बड़ी–पापड़ों से सस्ते भी बैठते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि घर के बने बड़ी–पापड़ कौन खरीदेगा? गाँधी जी इसीलिए तो मशीनीकरण का विरोध करते थे। उनकी कुटीर–उद्योग की अवधारणा भारत के लिए वरदान थी, किन्तु अत्यन्त दु:ख के साथ


कहना पड़ता है कि-अब तो टेरीखादी तक बनने लगी है।’

अनन्त एक सरकारी कार्यालय में लिपिक के पद पर कार्यरत था। उसके पिता का देहान्त हो गया था। घर में माँ व दो छोटे भाई थे, अनन्त के भी दो छोटे बच्चे थे। कुल मिलाकर सात लोगों का परिवार था। भाई अभी पढ़ ही रहे थे। पिता की प्राइवेट नौकरी होने के कारण पेन्शन का कोई प्रावधान नहीं था। खाने के अतिरिक्त भाइयों व बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी था। यूँ तो मितव्ययता से खर्च करने पर सभी खर्च आराम से चल रहे थे, किन्तु आगे आने आने वाले खर्चों की चिन्ता स्वाभाविक ही थी।
वसुधा कह रही थी–‘अभी तो सब ठीक–ठीक चल ही रहा है किन्तु तुम्हारे भाई विपुल और वैभव पढ़ाई में अच्छे हैं। आगे पढ़ाई का खर्च बढ़ेगा, उसके लिए भी तो अभी से व्यवस्था करनी है।’
‘भाभी! तुम परेशान मत हो। हम लोग ट्यूशन कर लेते हैं। कम से कम पढ़ाई का खर्च तो निकलेगा ही।’–विपुल ने कहा ।
‘बेवकूफी की बात मत करो। तुम लोगों का काम सिर्फ पढ़ाई करना है। दिन भर ट्यूशन करोगे तो पढ़ोगे कब? मैं चाहती हूँ कि तुम लोग पढ़–लिखकर किसी अच्छे पद पर पहुँच जाओ।’
‘लेकिन भाभी’
‘लेकिन–वेकिन कुछ नहीं। तुम्हें घरेलू समस्याओं व खर्च से कोई मतलब नहीं है। जाओ तुम अपने कमरे में जा कर पढ़ो।’आदेशात्मक स्वर में वसुधा बोली।
विपुल उठ कर अपने कमरे में चला जाता है।
‘बहू! मैं सोच रही हूँ कि गाँव की खेती बेच दें, करने वाला भी कोई नहीं है। खर्च की भी सुविधा हो जाएगी।’माँ जी बोलीं।
‘हाँ माँ कह तो ठीक रही हैं।’अनन्त ने माँ की बात का समर्थन करते हुए कहा।
‘माँ जी! खेती, जमीन–जायदाद व जेवर आड़े वक्त के लिए होते हैं। वैसे भी खेती तो हमारे पुरखों की विरासत है। कब क्या जरूरत पड़ जाए? हम और खेत न भी खरीद सकें तो कम से कम जो हैं उसे तो रहने दें। मेरी सम्मति तो खेती बेचने की नहीं है, आगे आप लोगों की इच्छा।’ वसुधा ने कहा ।
‘बहू तू कहती तो ठीक है, लेकिन तू विपुल और वैभव को ट्यूशन भी नहीं करने देना चाहती, पढ़ाना भी चाहती है, आखिर गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलेगी?’
‘माँ जी! मैं मेहनत करूँगी। मैं किसी घरेलू–उद्योग के बारे में विचार कर रही हूँ।’
इस प्रकार बहुत से घरेलू–उद्योगों के बारे में सोचती रही वसुधा और योजनाएँ बनती गर्इं, बिगड़ती गर्इं। अन्तत: एक दिन वसुधा ने कहा–‘अभी सिलाई के काम का तो पूरी तरह मशीनीकरण नहीं हुआ है। घर में सिलाई मशीन तो है ही, कल से ही बोर्ड लगाकर सिलाई का काम शुरू कर देते हैं। मोहल्ले के लोगों से भी कह देंगे, धीरे–धीरे प्रचार भी हो जाएगा। अच्छी सिलाई होगी तो लोग आवेंगे ही।’
और––––शुरू हो गया सिलाई का काम।
शाम को अनन्त ने आकर पूछा–‘आज कितना काम आया?’
‘आज पड़ोस का एक सलवार सूट सिलने आया था। दिन भर लग कर सिला व तैयार करके दे भी आई। पचास रुपए मिले, क्या बुरा है?’
‘हाँ! शुरूआत तो अच्छी है । हाँ! एक काम करो, अभी जो कमाई हो, उसे घर–खर्च में मत लगाओ, अलग जमा करती जाओ।’
‘क्यों ?’
‘जब कुछ पैसे इकट्ठे हो जाएँगे, तब एक नई मशीन ले लेना, जिसमें पीको भी होता है । तब तुम आसानी से
साड़ी के फाल भी लगा सकोगी।’

धीरे–धीरे वसुधा के पास इतने पैसे इकट्ठा हो गए कि उसने एक नई मशीन खरीद ली। अब वह पीको का काम भी करने लगी। उसने एक पार्ट–टाइम दर्जी भी रख लिया। वह पैन्ट, शर्ट, कोट आदि सिल लेता था।
अनन्त ने भी साथ दिया। वह अपने ऑफिस के लोगों का काम व दुकानों से भी काम लाने लगा।
इस प्रकार धीरे–धीरे काम बढ़ने लगा और रेडीमेड दुकानों के आर्डर भी मिलने लगे। अब यह लोग थान कि थान कपड़े खरीद कर रेडीमेड कपड़े बना कर थोक–सप्लाई करने लगे । माँ जी भी घर के काम में पूरा सहयोग देती थीं, ताकि वसुधा को अपने काम के लिए अधिक समय मिले।
अब वसुधा के यहाँ कई दर्जी काम कर रहे थे। इस प्रकार जो बीज उसने घर की सिलाई–मशीन से काम करके डाला था, वह अब विशाल–वृक्ष के रूप में पुष्पित–पल्लवित हो गया था।
आज अनन्त के घर में सब लोग बहुत प्रसन्न थे। घर में उत्सव जैसा वातावरण था। अनन्त के भाई विपुल का चयन आई.आई.टी. में इंजीनियरिंग के लिए हो गया था। वसुधा आगन्तुकों का स्वागत मिठाई से कर रही थी और विपुल की पढ़ाई के लिए आर्थिक समस्या तो थी ही नहीं।
और––––विपुल ने भाभी के चरणों में बैठ कर कहा–‘भाभी! अगर सभी महिलाएँ आपकी तरह हों तो हर घर स्वर्ग बन
जाए।’
त्याग, प्रेम व परिश्रम ही जीवन के सर्वोच्च गुण हैं।
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मान–प्रतिष्ठा की सही परिभाषा


ठाकुर दानबहादुर सिंह के दिन तंगहाली में गुज़र रहे थे। ज्यादातर जमीन भाई बहनों व बच्चों की शादी की भेंट चढ़ गयी थी। थोड़ी सी जमीन बची थी, उससे सारे खर्चे नहीं निकलते थे।
थक हार कर वह शहर आ गए व रिक्शा चलाने लगे। लेकिन अधिक दिन तक रिक्शा नहीं चला सके क्योंकि इतनी मेहनत की आदत तो थी नहीं। शहर में ही एक मंदिर में शरण मिल गयी थी। रात में वह वहीं सो जाते थे। उनके अच्छे आचरण से प्रभावित होकर मन्दिर के ट्रस्टी श्री कुमार साहू जी ने उन्हें एक कपड़े की दुकान में नौकरी दिलवा दी। वह अपने खाने–पीने में बहुत थोड़ा खर्च करते थे। कोशिश यह करते थे कि अधिक से अधिक पैसा बचा कर घर में दिया जाय।
उनके छोटे बेटे की शादी थी। पास में पैसा नहीं था। उन्होंने ठकुराइन से कहा–‘अपने पास थोड़ी सी ज़मीन बची है, उसे बेच दिया जाए क्या?’
ठकुराइन ने माथा ठोकते हुए कहा–‘शादी–ब्याहों में पानी की तरह पैसा बहाने के परिणामस्वरूप ही तो हमारी ये दशा हो गयी है। अब बाकी बची जमीन मैं नहीं बिकने दूँगी।’
‘ठकुराइन! आखिर शादी में दावत देनी होगी, बहू को जेवर कपड़ा देना होगा। बारात का खर्च आदि कहाँ से आएगा?’
‘आजकल सभी वर्गों में सामूहिक विवाह का प्रचलन हो गया है। इसमें आदमी अपनी सामर्थ्यानुसार अंशदान करता है। आप ठाकुर शमशेर सिंह जी से मिलिए न।’
शाम को वह ठाकुर शमशेर सिंह जी के यहाँ इस प्रस्ताव को लेकर गए। ठाकुर शमशेर सिंह धनी तो थे ही, उनसे आयु में भी बहुत बड़े थे। अत: ठाकुर दानबहादुर सिंह ने उनके पैर छूते हुए कहा–‘ठाकुर साहब! आपसे तो हमारी माली हालत छिपी नहीं है। ठकुराइन कह रही थीं कि छोटे लड़के का विवाह सामूहिक–विवाह में कर दिया जाए।’
  ‘बिल्कुल ठीक! बहुत अच्छा सोचा है। लेकिन सामूहिक विवाह किसी मजबूरीवश न किया जाए तो अच्छा है। मैं भी अपने लड़के का विवाह इसी पच्चीस मार्च को होने वाले सामूहिक विवाह में कर रहा हूँ।’
‘ठाकुर साहब! आपको क्या आवश्यकता पड़ गयी, सामूहिक विवाह में लड़के की शादी करने की?’ दानबहादुर सिंह ने आश्चर्य से पूछा।
‘दानबहादुर! ठाकुरों ने अपनी सारी सम्पत्ति झूठी शान–प्रतिष्ठा में खत्म कर दी। उससे न तो अपना हित हो पाया, न ही दूसरों का। यदि हमारे पास सामर्थ्य है तो हम दूसरों का हित क्यों न करें?’
‘मैं अपने बेटे की शादी में चार–पाँच लाख तो खर्च करता ही। मैं अभी भी चार–पाँच लाख ही खर्च करूँगा, लेकिन उससे केवल मेरे लड़के की शादी न होकर अन्य निर्धन जोड़ों का भी विवाह होगा। सबका विवाह एक ही स्तर से होगा। यह मैं अपनी मान–प्रतिष्ठा मे लिए नहीं कर रहा हूँ, वरन् समाज को सही दिशा दिखा रहा हूँ क्योंकि खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र बनाती हैं।’
जब दानबहादुर सिंह ठाकुर शमशेर सिंह जी के यहाँ से लौट रहे थे तो उन्हें मितव्ययिता और मान–प्रतिष्ठा की नई परिभाषा समझ में आ गई थी।
मितव्ययिता कर दूसरों की मदद करो।
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