‘सारे कुटीर–उद्योग तो मशीनीकरण के आगे समाप्त होते जा रहे हैं। मैं तुम्हें कौन सा रास्ता बताऊँ घरेलू काम का।’
‘क्यों? पहले औरतें बड़ी, पापड़ बना–बना कर पूरी गृहस्थी चलाती थीं।’
बीच में बात काटते हुए अनन्त अपनी पत्नी वसुधा से बोला–‘यही तो मैं कह रहा हूँ। अब तो बड़ी–पापड़ भी मशीन से बनने लगे हैं, मशीन के बने बड़ी–पापड़ आदि देखने में साफ–सुथरे व अच्छे भी लगते हैं और हाथ के बने बड़ी–पापड़ों से सस्ते भी बैठते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि घर के बने बड़ी–पापड़ कौन खरीदेगा? गाँधी जी इसीलिए तो मशीनीकरण का विरोध करते थे। उनकी कुटीर–उद्योग की अवधारणा भारत के लिए वरदान थी, किन्तु अत्यन्त दु:ख के साथ
कहना पड़ता है कि-अब तो टेरीखादी तक बनने लगी है।’
अनन्त एक सरकारी कार्यालय में लिपिक के पद पर कार्यरत था। उसके पिता का देहान्त हो गया था। घर में माँ व दो छोटे भाई थे, अनन्त के भी दो छोटे बच्चे थे। कुल मिलाकर सात लोगों का परिवार था। भाई अभी पढ़ ही रहे थे। पिता की प्राइवेट नौकरी होने के कारण पेन्शन का कोई प्रावधान नहीं था। खाने के अतिरिक्त भाइयों व बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी था। यूँ तो मितव्ययता से खर्च करने पर सभी खर्च आराम से चल रहे थे, किन्तु आगे आने आने वाले खर्चों की चिन्ता स्वाभाविक ही थी।
वसुधा कह रही थी–‘अभी तो सब ठीक–ठीक चल ही रहा है किन्तु तुम्हारे भाई विपुल और वैभव पढ़ाई में अच्छे हैं। आगे पढ़ाई का खर्च बढ़ेगा, उसके लिए भी तो अभी से व्यवस्था करनी है।’
‘भाभी! तुम परेशान मत हो। हम लोग ट्यूशन कर लेते हैं। कम से कम पढ़ाई का खर्च तो निकलेगा ही।’–विपुल ने कहा ।
‘बेवकूफी की बात मत करो। तुम लोगों का काम सिर्फ पढ़ाई करना है। दिन भर ट्यूशन करोगे तो पढ़ोगे कब? मैं चाहती हूँ कि तुम लोग पढ़–लिखकर किसी अच्छे पद पर पहुँच जाओ।’
‘लेकिन भाभी’
‘लेकिन–वेकिन कुछ नहीं। तुम्हें घरेलू समस्याओं व खर्च से कोई मतलब नहीं है। जाओ तुम अपने कमरे में जा कर पढ़ो।’आदेशात्मक स्वर में वसुधा बोली।
विपुल उठ कर अपने कमरे में चला जाता है।
‘बहू! मैं सोच रही हूँ कि गाँव की खेती बेच दें, करने वाला भी कोई नहीं है। खर्च की भी सुविधा हो जाएगी।’माँ जी बोलीं।
‘हाँ माँ कह तो ठीक रही हैं।’अनन्त ने माँ की बात का समर्थन करते हुए कहा।
‘माँ जी! खेती, जमीन–जायदाद व जेवर आड़े वक्त के लिए होते हैं। वैसे भी खेती तो हमारे पुरखों की विरासत है। कब क्या जरूरत पड़ जाए? हम और खेत न भी खरीद सकें तो कम से कम जो हैं उसे तो रहने दें। मेरी सम्मति तो खेती बेचने की नहीं है, आगे आप लोगों की इच्छा।’ वसुधा ने कहा ।
‘बहू तू कहती तो ठीक है, लेकिन तू विपुल और वैभव को ट्यूशन भी नहीं करने देना चाहती, पढ़ाना भी चाहती है, आखिर गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलेगी?’
‘माँ जी! मैं मेहनत करूँगी। मैं किसी घरेलू–उद्योग के बारे में विचार कर रही हूँ।’
इस प्रकार बहुत से घरेलू–उद्योगों के बारे में सोचती रही वसुधा और योजनाएँ बनती गर्इं, बिगड़ती गर्इं। अन्तत: एक दिन वसुधा ने कहा–‘अभी सिलाई के काम का तो पूरी तरह मशीनीकरण नहीं हुआ है। घर में सिलाई मशीन तो है ही, कल से ही बोर्ड लगाकर सिलाई का काम शुरू कर देते हैं। मोहल्ले के लोगों से भी कह देंगे, धीरे–धीरे प्रचार भी हो जाएगा। अच्छी सिलाई होगी तो लोग आवेंगे ही।’
और––––शुरू हो गया सिलाई का काम।
शाम को अनन्त ने आकर पूछा–‘आज कितना काम आया?’
‘आज पड़ोस का एक सलवार सूट सिलने आया था। दिन भर लग कर सिला व तैयार करके दे भी आई। पचास रुपए मिले, क्या बुरा है?’
‘हाँ! शुरूआत तो अच्छी है । हाँ! एक काम करो, अभी जो कमाई हो, उसे घर–खर्च में मत लगाओ, अलग जमा करती जाओ।’
‘क्यों ?’
‘जब कुछ पैसे इकट्ठे हो जाएँगे, तब एक नई मशीन ले लेना, जिसमें पीको भी होता है । तब तुम आसानी से
साड़ी के फाल भी लगा सकोगी।’
धीरे–धीरे वसुधा के पास इतने पैसे इकट्ठा हो गए कि उसने एक नई मशीन खरीद ली। अब वह पीको का काम भी करने लगी। उसने एक पार्ट–टाइम दर्जी भी रख लिया। वह पैन्ट, शर्ट, कोट आदि सिल लेता था।
अनन्त ने भी साथ दिया। वह अपने ऑफिस के लोगों का काम व दुकानों से भी काम लाने लगा।
इस प्रकार धीरे–धीरे काम बढ़ने लगा और रेडीमेड दुकानों के आर्डर भी मिलने लगे। अब यह लोग थान कि थान कपड़े खरीद कर रेडीमेड कपड़े बना कर थोक–सप्लाई करने लगे । माँ जी भी घर के काम में पूरा सहयोग देती थीं, ताकि वसुधा को अपने काम के लिए अधिक समय मिले।
अब वसुधा के यहाँ कई दर्जी काम कर रहे थे। इस प्रकार जो बीज उसने घर की सिलाई–मशीन से काम करके डाला था, वह अब विशाल–वृक्ष के रूप में पुष्पित–पल्लवित हो गया था।
आज अनन्त के घर में सब लोग बहुत प्रसन्न थे। घर में उत्सव जैसा वातावरण था। अनन्त के भाई विपुल का चयन आई.आई.टी. में इंजीनियरिंग के लिए हो गया था। वसुधा आगन्तुकों का स्वागत मिठाई से कर रही थी और विपुल की पढ़ाई के लिए आर्थिक समस्या तो थी ही नहीं।
और––––विपुल ने भाभी के चरणों में बैठ कर कहा–‘भाभी! अगर सभी महिलाएँ आपकी तरह हों तो हर घर स्वर्ग बन
जाए।’
त्याग, प्रेम व परिश्रम ही जीवन के सर्वोच्च गुण हैं।
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