Sunday, August 12, 2018

वेदों में सत्यव्रत का संदेश

वेदों में सत्यव्रत का संदेश
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि, तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् ।
इदमहमनृतात्             सत्यमुपैमि । ।
यजुर्वेद 1/5
हे अग्नि रूप परमेश्वर! हे व्रत के पालक! मैं निश्चय किए हुए व्रत का आचरण करूँगा । ऐसी कृपा करो कि मैं उस व्रत को पूरा कर सकूँ । मेरा वह व्रत सिद्ध हो, पूरा हो । मैं आज से अनृत, असत्य से हट कर सत्य के व्रत को प्राप्त होता हूँ ।
मैं सदा सत्य ही बोलूँगा    
इदं विद्वानाञ्जन सत्यं वक्ष्यामि नानृतम् ।
सनेयमश्वं माहमात्मानं तव पूरुष । ।
अथर्ववेद4/9/7
हे संसार को व्यक्त करने वाले ब्रह्म! तुझे जानता हुआ मैं सत्य बोलूँगा, असत्य नहीं । हे परमेश्वर! तेरे दिए हुए घोड़े, गौ आदि सभी संसाधनों का मैं सेवन करूँ ।
हमें असत्य से बचाओ
बह्नीइदं राजन्वरुणानृतमाह पूरुष: ।
तस्मात् सहस्त्रवीर्य मुञ्च न: पर्यंहस: । ।
अथर्ववेद 19/44/8
हे पापनिवारक परमेश्वर! हे सच्चे राजा! मनुष्य बहुत झूठ बोलता  है । हे अपरिमित वीर्य वाले! तू हमें उस पाप से बचा । तू हमें सब तरफ से मुक्त कर दे । तुम हमें सदा असत्य से छुड़ाते रहो, असत्य से हमें सब तरफ से मुक्त करते रहो ।
सत्य वचन मुझे सारे विषय–विकारों से बचावें
सामांसत्योक्ति:परिपातुविश्वतोद्यावचयत्रततनन्नहानिच ।
विश्वमन्यंनिविशतेयेदेजतिविश्वाहापोविश्वाहोदेतिसूर्य: । ।
ऋग्वेद 10/37/2
वही सत्य वचन है, जिसका अवलम्बन करके आकाश और दिन वर्तमान हैं । सारा संसार और प्राणिवृन्द जिस पर आश्रित हैं, जिसके प्रभाव से प्रतिदिन जल प्रवाहित होता है और सूर्य उदित हैं । वे सत्य वचन मुझे सारे विषय–विकारों से बचावें ।
सत्य में श्रद्धा 
दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत् सत्यानृते प्रजापति: ।
अश्रद्धामनृतेऽदधाच्छ्र द्धां  सत्ये  प्रजापति; ।
ऋतेन             सत्यमिन्द्रियम् । ।
 यजुर्वेद 19/77
प्रजापति ने देखकर ही सब रूपों को सत्य और असत्य इन दो विभागों में स्पष्ट रूप से अलग–अलग कर दिया है । उस प्रजापति ने असत्य में अश्रद्धा को रखा है और सत्य में श्रद्धा को रखा है ।
सत्य की प्राप्ति 
व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम् ।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते । ।
यजुर्वेद 19/30
व्रत से, सत्यनियम के पालन से मनुष्य दीक्षा को प्राप्त करता है । दीक्षा से दक्षिणा को, वृद्धि को प्राप्त करता है । दक्षिणा से श्रद्धा को प्राप्त करता है और श्रद्धा द्वारा सत्य को प्राप्त किया जाता है । 
सत्य की नियामक सम्पत्तियाँ 
ऋतस्य हि शुरुध% सन्ति पूर्वी:, ऋतस्य धीतिर्वृजिनानि हन्ति ।
ऋतस्य श्लोको बधिराततर्द, कर्णा बुधान: शुचमान आयो: । ।
ऋग्वेद 4/23/8
सत्य की शोकनिवारक सम्पत्तियाँ सनातन हें । सत्य का धारण करना पापों का तथा वर्जनीय वस्तुओं का नाश कर देता है । सत्य की जगाने वाली और दीप्यमान आवाज बधिर मनुष्य के कानों में भी जबर्दस्ती पहुँच जाती है ।
असत्यवादी का हनन 
न वा उ सोमोवृजिनं हिनोति, न क्षत्रियं मिथुया धारयन्तम् ।
हन्ति रक्षो हन्त्यासद् वदन्तं उभाविन्द्रस्य प्रसितौ शयाते । ।
ऋग्वेद 7/104/13
सोमरूप परमेश्वर दोहरी बात या झूठ को धारण करने वाले बलवान को नहीं बढ़ाता है । वह तो पापरूपी राक्षस का हनन करता है और असत्य बोलने वाले का भी हनन करता है । ये दोनों ही बन्धन में पड़ते हैं ।
सत्यपालक की रक्षा परमेश्वर करता है
सुविज्ञानं चिकितुषे जनाय, सच्चासच्च वचसी पस्पृधाते ।
तयोर्यत्सत्यं यतरद्ऋृजीय:, तदित्सोमोवति हन्त्यासत् । ।
ऋग्वेद 7/104/12
उत्तम ज्ञान को जानने वाले विवेकीजन जानते हैं कि सत्य और असत्य वचन या ज्ञान परस्पर स्पर्धा करते हैं । इन दोनों में से जो सत्य, सरल, अकुटिल व छलरहित है, उसे ही परमेश्वर रक्षा करता है और असत् का नाश करता है ।

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