Sunday, August 12, 2018

वेदों में आलस्य का त्याग एवं पुरुषार्थ

हम आलस्परहित हों
इच्छन्ति देवा: सुन्वन्तं न स्वप्नाय स्पृहयन्ति ।
यन्ति      प्रमादम      अतन्द्रा: । ।
ऋग्वेद 8/2/18
देव लोग शुभ कर्म की इच्छा करते हैं । (जो भी शुभकर्म हैं, वह सब यज्ञकर्म ही हैं ।) वह निद्राशील आलसी लोगों को नहीं चाहते हैं । यह देवता लोग स्वयं आलस्यरहित होकर गलती करने वालों का नियमन करते हैं । (भूल, गलती, अनुचितता, अपराध और पाप का ठीक नियमानुसार हमें दण्ड मिलता रहता है, बेचैनी, रोग, व्यथा, वेदना, क्लेश आदि द्वारा हमें शिक्षा दी जाती है कि हम परमात्मा की आज्ञाओं का उल्लंघन न करें ।) 
आलस्य का त्याग
यो जागार तमृचः कामयन्ते यो जागार तमु सामानि यन्ति।
यो जागार तमयं सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः।।
 सामवेद
जो मनुष्य जागता है उसे ऋग्वेद मन्त्र वाहते हैं । जो जागता है उसे ही सामवेद वचन प्राप्त होते हैं । जो जागता है उसको यह सोमादि औषधगण कहते हैं कि मैं तेरी मैत्री में हूँ ।
अर्थात् जो लोग आलसी, निद्रालु, बहुत सोने वाले पुरुषार्थ न करने वाले हैं, उनको न तो ज्ञान प्राप्त होता है, न ही सोमादि औषधियाँ काम देती हैं । जो निरालस्य पुरुषार्थी, जागरूक पुरुष हैं, उनको वेद फलीभूत होते हैं । इसलिए मनुष्यमात्र को आलस्यरहित और पुरुषार्थी होना चाहिए ।   
आलसी के लिए कहीं स्थान नहीं है
मा स्रेधत सोमिनो दक्षता महे, कृणुध्वं   राय     आतुजे ।
तरणिरिज्जयति क्षेति पुष्यति, न    देवास:   कवत्नवे ॥
ऋग्वेद 7/32/9
अर्थात् हे सौम्य गुण वाले मनुष्यों! तुम पथभ्रष्ट न हो, महान् लक्ष्य के लिए पुरुषार्थ करो । धन प्राप्ति के लिए प्रयत्न करो, पुरुषार्थी ही विजयी होता है । सुखपूर्वक निवास करता है और धनादि से पुष्ट होता है । देवगण अकर्मण्य के सहायक नहीं होते, आलसी के लिए कहीं स्थान नहीं है ।
धन को अपने बल से अर्जन करें
वृजनेना गोभिष्टरेमामतिं दुरेवां यवेन क्षुधं पुरुहूत विश्वाम्।
वयं राजभिः प्रथमा धनान्यस्माकेन जयेम।।
अथर्ववेद 20/17/10
हे पुरुहूत! अर्थात् बहुतों से बुलाए गए परमेश्वर! हम विद्याओं से दुर्गति वाली कुमति को ओर अन्न से विश्व की भूख को हटावें । हम राजाओं के साथ प्रथम श्रेणी वाले हो कर अनेक प्रकार के धनों को अपने बल से अर्जन करें । 
मेरे हाथ कल्याणकारी हैं
अयं मे हस्तो भगवान्, अयं मे भगवत्तर: ।
अयं में विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शन: ॥
ऋग्वेद 10/60/12
अर्थात् यह मेरा (दाहिना हाथ) ऐश्वर्यशाली है, यह मेरा (बायाँ हाथ) उससे भी अधिक सौभाग्यशाली है । यह मेरा हाथ सभी रोगों को दूर करने वाला है और यह हाथ स्पर्श से कल्याण करने वाला है ।
प्रात:काल सोना ठीक नहीं है
अध स्वप्नस्य निर्विदेऽभुञ्जतश्च रेवत: ।
उभा   तावस्त्रि     नश्यत: ।
ऋग्वेद 1/191/12
  प्रात:काल का स्वप्न अच्छा नहीं होता (प्रात:काल सोना ठीक नहीं है) है, जो धन का उचित उपयोग नहीं करते हैं । वे दोनों शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । अर्थात् प्रात:काल उठ कर पुरुषार्थ करें । वैसे भी प्रात:काल की प्राणदायिनी वायु स्वास्थ्य के लिए भी उत्तम है ।   
पुरुषार्थ से उन्नति की ओर बढ़ो
अनुहूत:    पुनरेहि  विद्वानुदयनं  पथ% ।
आरोहणमाक्रमणं जीवतो जीवतोऽयनम् । ।
 अथर्ववेद 5/30/7
ऊपर और आगे बढ़ना प्रत्येक जीव का स्वभाव है । अत: हे मनुष्य! मार्ग के उदयन अर्थात् चढ़ाव को जानता हुआ, प्रीति से बुलाया गया तू फिर आ कर ऊपर और ऊपर आगे बढ़ । अर्थात् उन्नति की ओर अग्रसर हो ।
कर्म करें
कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहित: ।
गोजिद्भूयासमश्चजिद् धनंजयो हिरण्यजित् । ।
अथर्ववेद 7/50/8
हे प्रभु! कर्म मेरे दाहिने हाथ में और जीत मेरे बाँये हाथ में स्थिर हो । मैं भूमि जीतने वाला, धन जीतने वाला, घोड़े जीतने वाला और स्वर्ण जीतने वाला होऊँ । 
हम विद्यावान हों 
यथा वृक्षं लिबुजा समन्तं परिषस्वजे ।
एवा  परिषस्वजस्व  मां यथा मां
कामिनीमसो यथा मन्नापगा अस: । ।
अथर्ववेद 6/8/1
जैसे बेल वृक्ष से सब ओर से लिपट जाती है । वैसे ही हे विद्या! मुझसे तू पूरी तरह लिपट जा । जिससे तू मेरी कामना पूर्ण करे और तू मुझसे बिछुड़ने वाली न हो । अर्थात् विद्यार्थी पूरी मेहनत से विद्याध्ययन करें तो सदा परिणाम सुखद ही होगा ।
हम पुरुषार्थी हों
आधत्त पितरो गर्भं कुमारं पुष्करस्त्रजम् ।
यथेह                पुरुषोऽसत् । ।
यजुर्वेद 2/33
विद्यादान से रक्षा करने वाले विद्वान् पुरुषों! आप जैसे ब्रह्मचारी विद्या और पुरुषार्थ से युक्त हों । गर्भ के समान विद्या ग्रहण के लिए फूलों की माला धारण किए हुए बह्म्रचारी को अच्छी प्रकार स्वीकार कीजिए । 
हम अहिंसक हों
मा  चिदन्यद्  वि शंसत  सखायो मा रिषण्यत ।
इन्द्रमित् स्तोता वृषणं सचा सुते मुहुरुक्था च शंसत । ।
सामवेद 
हे मित्रों! मन शुद्ध करके धर्मार्थ कार्य के पूरा करने पर परमात्मा की  ही सब मिल कर स्तुति करो । स्तोत्रों को बारम्बार पढ़ो तथा हिंसा मत करो । 
कदा चन स्तरीरसि  नेन्द्र  सश्चसि दाशुषे ।
उपोपेन्नु मधवन् भूय इन्नु ते दानं देवस्य पृच्यते । ।
 सामवेद
हे परमेश्वर! हे परमधनवन! आप कभी हिंसक नहीं होते वरन् विद्यादि दान करने वालों के लिए समीप–समीप ही शीघ्र ही कर्मफल पहुँचाते हैं । इस जन्म और पुनर्जन्म में भी प्रत्येक प्राणिवर्ग कर्मानुसार ही फल का भागी बनता है ।

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