मैं शरारती हूँ
कहानी का शीर्षक आपको कैसा लगा?
मैं वाकई शरारती हूँ। मुझे शरारत
करना बहुत अच्छा
लगता है। कभी भोजन न मिले
तो चल सकता
है किन्तु शरारत
किए बिना नहीं
रहा जाता है।
मेरी मनपसंद शरारते हैं- ‘पानी
से खेलना, बरसात
के दिनों में पानी से छप-छप करना, स्कूल
की कॉपी में कार्टून बनाना, पेड़ पर चढ़ना, किसी
के पीछे से चुटकी काटना, घर में चोरी से फ्रिज से मिठाई
निकाल कर खाना
आदि।
अगर आप भी मुझे कोई नई शरारत बतायेंगे तो बड़ी कृपा
होगी क्योंकि आजकल
मैं ‘शरारत के नुस्खे’ नामक
पुस्तक का सृजन
कर रहा हूँ।
इस पुस्तक के सृजन करने के कई कारण हैं।
मैं ऊब चुका
हूँ-बड़ों के आदेशों से, मैं ही क्यों? ....मुझे
लगता है....सभी बच्चे बड़ों के आदेशों से त्रस्त हो चुके हैं।
घर में माता-पिता की बात मानो, स्कूल
में अध्यापकों की, पड़ोस में आँटी-अंकल की। अगर बड़े भाई-बहन हैं तो उनकी
भी बात मानो।
उफ....हमारा तो जीना ही मुश्किल हो गया है। इस पूरे संसार
में....कोई भी तो ऐसा नहीं
है, जो यह कहे कि....थोड़ी
सी शरारत भी तो कर लो।
सभी अध्यापक कहते हैं....चुप रहो, शान्त रहो।
कोई तो यह नहीं कहता है....शोर मचाओ, उछलो-कूदो, शरारत करो।
हिन्दी की मैडम
पढ़ाती हैं - कन्हैया शरारती था, माखन
चुराता था, अपने
मुख पर लपेटता था, शोर मचाता
था, लेकिन देखिए
तो हमारा दुर्भाग्य! कन्हैया की बातें
भी हमें केवल
पढ़ाई जाती हैं ।
ऐसा कहा जाता
है कि जो पढ़ो, उसे आचरण
में लाओ....किन्तु-अगर हम भी कन्हैया की तरह शरारत करना चाहें,
पेड़ पर चढ़ें,
फ्रिज से मिठाई
निकाल-निकाल कर खावें। दिनभर अपने
दोस्तों के साथ खेलें तो....हमें
रोक दिया जाता
है।
आखिर कब करेंगे शरारत....मैं सोच रहा हूँ आगामी रविवार को बच्चों की एक रैली निकालें। हर बच्चे के हाथ में एक बैनर
होगा, उस पर लिखा होगा- ‘हम शरारती हैं, हमें
शरारत करने की पूरी छूट दो।’
आपको पता है, इस समय मेरी आयु दस वर्ष है। मैं कक्षा छह का छात्र हूँ। मुझे
तीन वर्ष की आयु में एक प्ले-स्कूल में भर्ती करवा दिया
गया था।
जब मेरी
माँ मुझे प्ले-स्कूल में भर्ती
करवाने के लिए ले र्गइं, तब मैंने देखा- वहाँ
पर झूले लगे थे, रंग-बिरंगे खिलौने रखे थे और मेरे बराबर
आयु के बच्चे
थे। मेरी माँ ने बताया- ‘प्ले
स्कूल में दिन भर खेल होता
है।’ मेरी
खुशी का ठिकाना न रहा।
किंतु....दूसरे
दिन जब स्कूल
गया तो पता चला कि खिलौने केवल सजाने के लिए हैं-खेलने
के लिए नहीं।
दिन भर रटो....‘ऊपर आती नीचे
आती, प्यारी-प्यारी मेरी गेंद।’
किन्तु गेंद
खेलने के लिए नहीं दी जाती,
हमारी मैडम कहती
थीं- ‘गेंद से चोट लग सकती
है।’झूले झूलने
की भी मनाही
थी कि चोट लग सकती है।
दिन भर में एक पीरियड बाहर मैदान में खेल के लिए होता था। वहाँ
भी मैडम के निर्देशन में गोला
बना कर खेलते
थे।
जरा सोचिए
तो सब बच्चे
अपनी मर्जी से आपस में मिलजुल कर खेलें, शरारत
करें, चिल्लायें तो कितना अच्छा लगे,
आनन्द आवे। खैर....इसी तरह ‘प्ले
स्कूल’ से पीछा छूटा।
...हाँ तो मेरे
प्यारे दोस्तों! तैयार
हो जाओ, आगामी
रविवार की रैली
के लिए....
‘शरारत हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
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