माता-पिता के लिए पाठशाला
सन्तोष बड़ी परेशान थी। उसके
माता-पिता उससे
मोबाइल तथा कम्प्यूटर में काम करवाते रहते थे। सन्तोष ने कई बार कहा- ‘आप लोग भी सीख लीजिए। कम से कम मोबाइल में नाम फीड करना और संदेश (मैसेज) भेजना
आदि तो सीख ही लीजिए।’
वह लोग कहते- ‘क्यों सिखा रही हो बूढ़े
तोतों को।’
सन्तोष ने अपने स्कूल के और मोहल्ले के बच्चों से बात की। अधिकतर अभिभावकों का यही हाल था। सभी बच्चे
चाहते थे कि उनके अभिभावकगण मोबाइल में नाम फीड करना और संदेश
(मैसेज) भेजना अवश्य
सीख लें। इसी प्रकार कम्प्यूटर से मेल भेजना और मेल देखना तो सीख ही लें।
गर्मियों की छुट्टियाँ होने वाली
थीं। अब बच्चों को खेलने का अधिक समय मिल सकेगा। सभी खुश थे। एक दिन शाम को पार्क
में खेलते समय सन्तोष ने सब बच्चों से कहा-
‘तुम लोगों को मालूम ही है कि एक सप्ताह बाद हम लोगों
की छुट्टियाँ हो जाएँगी। हम लोगों
के पास खेलने-कूदने के बाद भी काफी समय बचेगा। मैं सोच रही हूँ कि माता-पिता के लिए पाठशाला खोल
दें’
कई बच्चों के मुँह से एक साथ निकला-
‘माता-पिता के लिए पाठशाला?’
‘हाँ! माता-पिता के लिए पाठशाला। पूरी बात सुनो। हमारे अधिकांश माता-पिता मोबाइल और कम्प्यूटर के आवश्यक फंक्शन भी नहीं जानते और न ही जानना
चाहते हैं। हम इन छुट्टियों में उनके लिए पाठशाला लगा कर उन्हें पढ़ाएँगे।’
सब बच्चे
मुस्कराने लगे। आरती
हँसते हुए बोली-
‘अध्यापिका जी! विचार
तो अच्छा है किन्तु इसमें कई परेशानियाँ है। क्या
माता-पिता हमारी
बात मानेंगे? यदि मान भी लें तो इतने लोगों
को पढ़ाने के लिए जगह और संसाधन भी तो चाहिए।’
‘वह रूपरेखा मेरे मन में है। सबसे अच्छी
बात है कि मेरी नानी इस सम्बन्ध में मेरा
साथ दे रही हैं। तुम लोगों
की सहमति चाहिए। जगह की बात तो सामुदायिक भवन से हल हो जाएगी। सबसे बड़ी समस्या है-माता-पिता को राजी
करना।’
रीता ने कहा- ‘इसके लिए हमें मुहिम छेड़नी
होगी। आज से ही हमें अपने-अपने माता-पिता
से बात करनी
होगी। अगर एक बच्चे के माता-पिता भी तैयार
हो गए तो वह बाकी लोगों
को मना लेंगे।
सामुदायिक-केन्द्र की तुम्हारी क्या योजना है, विस्तार से बताओ। सामुदायिक-केन्द्र आरक्षित करने
के लिए भी तो हमें बड़े लोगों की ही मदद लेनी पड़ेगी
न।’
सन्तोष बोली-
‘बिल्कुल ठीक है। सामुदायिक भवन में कई कमरे हैं।
मेज-कुर्सियाँ आदि भी हैं। अगर उसके संचालक अनुमति देते हैं तो एक छोटे कमरे
में उतनी कुर्सियाँ डलवा देंगे, जितने
हमारे विद्यार्थी (माता-पिता) होंगे। वहीं
पर शाम को उनकी कक्षाएँ लगेंगी।’
बसन्त बोला-
‘छोटे कमरे में कुर्सियाँ डलवाने की क्या आवश्यकता है। जिस
हॉल में सब कार्यक्रम होते हैं, उसमें
तो माइक भी है और बहुत
सी कुर्सियाँ भी हैं।’
ज्ञान ने कहा- ‘दिमाग से काम लो। यदि हम हॉल लेते
हैं तो हमारी
कक्षाएँ तो नियमित रूप से चलेंगी। बीच में कभी कोई कार्यक्रम हुआ तो वह कैसे
होगा? सन्तोष ने ठीक सोचा है। छोटा कमरा ही ठीक रहेगा।’
‘तो ठीक है दोस्तों! आज से अपनी मुहिम
में जुट जाओ।
माता-पिता को मनाओ, पाठशाला में भर्ती होने के लिए।’ सन्तोष ने जोश से कहा।
‘अरे यह लोग बड़े शरारती हैं। इतनी आसानी
से थोड़ा ही पाठशाला जाएँगे।’ मोहन
शरारत से बोला।
सन्तोष ने कहा- ‘कल रविवार है। सुबह नाश्ता करने के बाद ही सब बच्चे
नौ बजे पार्क
में आ जाना
और अपनी-अपनी
रिपोर्ट सुनाना।’
और....सब बच्चों ने अपने-अपने घर में इस योजना को बताया। कुछ बच्चों को घुड़की मिली
तो कुछ के अभिभावकों ने कहा-
‘सोचेंगे, केवल नितिन
के माता-पिता
ने इसे अच्छा
व साहसिक कदम बताया।
दूसरे दिन सुबह सब बच्चे
पार्क में आए। सब बच्चे उदास
थे। कह रहे थे- ‘कोई तैयार नहीं हो रहा है। उल्टे हमें
डाँट और पड़ गई।’
इतने में नितिन आता हुआ दिखाई दिया। वह बहुत खुश और उत्साहित था। वह आते ही बोला-
‘दोस्तों! तीर मार लिया। मेरे माता-पिता ने इसे अच्छा और साहसिक कदम बताया।’
सब बच्चों ने ताली बजाई।
सन्तोष ने कहा- ‘नितिन! अब तुम्हारे माता-पिता
अर्थात् हमारे चाचा-चाचीजी ही आशा का केन्द्र हैं।
क्या यह सम्भव
है कि शाम को चाचा-चाची
जी पार्क में आ जाएँ।’
रीता ने कहा-
‘बेवकूफी की बात मत करो। हम सब शाम को नितिन के घर चलेंगे और चाचा-चाची से बात करेंगे।’
सब बच्चों ने कहा- ‘बिल्कुल ठीक कहा है तुमने।’
सन्तोष बोली-
‘सब लोग आज शाम को छह बजे नितिन के घर चलेंगे।’
नितिन ने घर जाकर बताया-
‘माँ! आज शाम को छह बजे सब बच्चे हमारे
घर आ रहे हैं।’
माँ बोलीं-
‘अच्छी बात है, कोई खास कारण?’
‘हाँ! वही माता-पिता की पाठशाला के लिए बात करनी
है।’
माँ ने बच्चों के लिए पकौड़े बना लिए।
जब बच्चे आए तब माँ ने एक बड़े थाल में पकौड़े रख दिए। गर्मागर्म पकौड़े देखकर बच्चे बहुत
खुश हुए।
बच्चों ने अपनी बात कही।
नितिन के पिता
ने कहा- ‘मैं आज ही सामुदायिक केन्द्र के संचालक जी से बात करूँगा। तुम लोग बहुत अच्छा कार्य
करने की योजना
बना रहे हो।’
सन्तोष बोली-
‘चाचाजी! एक समस्या और है। सारे
अभिभावकों में केवल
आप ही तैयार
हुए हैं।’
नितिन की माँ बोलीं- ‘यह कार्य भी हम लोग करेंगे। मैं कल से दोपहर
को माताओं को मनाऊँगी।’
‘और मैं कार्यालय से आने के बाद शाम को पिताओं को।’ नितिन के पिता बोले।
नितिन गर्व
व शरारत से बोला- ‘देखो साथियों! हमारे
दो विद्यार्थी तो कितने अच्छे हैं।’
बच्चों के साथ ही माता-पिता ने भी ठहाका लगाया।
और....बच्चों की गर्मियों की छुट्टियाँ प्रारम्भ हो गईं। दूसरी ओर सामुदायिक केन्द्र में माता-पिता की पाठशाला। समय रखा गया सुबह छह से सात बजे ताकि सभी अभिभावक आ सकें। शाम का समय रखना
उचित नहीं था क्योंकि अभिभावकों को कार्यालय से लौटने
में देर हो सकती थी।
पाठशाला का प्रारम्भ
निश्चित दिन व समय से पाठशाला का प्रारम्भ हुआ। शिक्षक अधिक
थे व विद्यार्थी कम। शिक्षक (सिखाने वाले बच्चे) संख्या में सात थे व विद्यार्थी (सीखने वाले अभिभावक) संख्या में चार।
शिक्षकों (बच्चों) ने विद्यार्थियों (अभिभावकों) के लिए मिठाई का इन्तजाम किया था। नवनीत बोला- ‘प्यारे विद्यार्थियों! शिक्षा और शिक्षण एक सुखद
कला है। इसलिए
इसका प्रारम्भ मिठास से होना चाहिए।’ कह कर बच्चों ने अपने विद्यार्थियों के मुँह में मिठाई
खिलाई, विद्यार्थियों ने तालियाँ बजाईं।
अब नितिन
बोला- ‘प्यारे विद्यार्थियों! आप लोग अपने मोबाइल, पेन व कॉपी लाये
हैं?’
मोबाइल तो सभी के पास थे। पेन व कॉपी केवल दो ही लोग लाए थे।
नितिन ने कहा- ‘आज तो पहला दिन है, छूट है, लेकिन
कल से पेन और एक सादी
कॉपी अवश्य लाइएगा। जो कुछ भी आप सीखेंगे, उसे कॉपी में लिख लेने से लाभ यह होगा कि सीखी हुई चीज भूल जाने पर आप पुनः समझ सकते हैं।’
विश्वेश्वर जी बोले- ‘यस सर!’
सब हँसने
लगे।
सन्तोष ने कहा- ‘आज विद्यार्थी कम हैं और सिखाने वाले अधिक। इसलिए
हम लोग हर विद्यार्थी को अलग-अलग सिखाएँगे।’
बच्चों ने अभिभावकों को सबसे
पहले मोबाइल में नाम दर्ज (फीड)
करना सिखाया। जिनके
पास कॉपी नहीं
थी, उनको दूसरों की कॉपी से दो-दो पृष्ठ
दिए, पेन बच्चों ने अपने पास से दे दिए।
कक्षा का समय समाप्त होने पर नितिन ने कहा-
‘समय मिलने पर आप लोग अभ्यास करिएगा। आज पहला
कदम-आप लोगों
को लिखना सिखा
दिया गया। जो कठिनाई आए वह कल हल की जाएगी। कल अन्य
विद्यार्थियों को भी बुला कर लाइएगा ताकि हम लोगों
के समय का सदुपयोग हो सके।’
प्रभा जी बोलीं- ‘धन्यवाद सर! हम लोग लगन के साथ अभ्यास करेंगे। आज की तकनीक
के हिसाब से हम लोग साक्षर हो रहे हैं।’
बच्चे तालियाँ बजाते हैं।
॰ ॰ ॰
दूसरे दिन विद्यार्थियों (अभिभावकों) की संख्या भी सात हो गई। इसी तरह बढ़ते-बढ़ते
विद्यार्थी (अभिभावक) बीस हो गए। लगभग
पन्द्रह दिन के अभ्यास से सब विद्यार्थी (अभिभावक) मोबाइल में नाम लिखना,
मैसेज भेजना, व मैसेज रिसीव करना
अच्छी तरह सीख गए। थोड़ी बहुत
बातें कम्प्यूटर के बारे में भी बता दीं।
अधिकांश अभिभावकों ने कहा- ‘लैपटॉप चलाना अगली छुट्टियों में सीखेंगे।’
‘क्यों?’ सब बच्चों के मुँह
से एक साथ निकला।
प्रभा जी ने कहा- ‘अरे मास्टर लोगों! कितना
पढ़ाओगे, अब ऊब गए हम पढ़ने
से।’
नितिन बोला-
‘अब पता चला पढ़ना कितना कठिन
है।’
विश्वेश्वर जी ने हाथ जोड़कर
हँसते हुए कहा-
‘जी सर! समझ गए! हम लोगों
ने कल ही निर्णय कर लिया
था कि आज तक ही पढ़ेंगे। आज कक्षा का आखिरी दिन है। हम लोग आप लोगों के लिए गुरुदक्षिणा लाए हैं व नाश्ता भी।’ कहते हुए उन्होंने नाश्ते के पैकेट निकाले। सबको
पैकेट बाँटे गए।
सब नाश्ता करने
लगे। जब सब नाश्ता कर चुके
तब प्रभा जी ने डायरी और पेन दिखाते हुए कहा- ‘आज हम अपने शिक्षकों के लिए गुरुदक्षिणा के रूप में डायरी
और पेन लाए हैं। आप लोगों
से निवेदन है कि प्रतिदिन डायरी लिखें, इससे लेखन-क्षमता बढ़ेगी। कहकर
उन्होंने सबको पेन और डायरियाँ बाँटीं।’
नितिन ने प्रभा जी के पैर छूते हुए कहा- ‘धन्यवाद चाची! आपने
डायरी लिखने की अच्छी शिक्षा दी। हमने आप लोगों
को मोबाइल चलाना
सिखाया। आप लोगों
ने हमें जीवन
चलाना।’
सब ताली बजाते
हैं।
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