Thursday, August 16, 2018

कर्मभोग चक्र


कर्मभोग चक्र
वीतरागी महात्मा प्रभु आश्रित जी महाराज द्वारा प्रणीत कर्म रहस्य
          आज मैं कर्म रहस्य के सम्बन्ध में कुछ कहना चाहता हूँ यह विषय बड़ा गहन है, अत: इसकी तह तक पहुँचना बड़ा कठिन है कर्म का फल है शरीर,जैसे हमारे इस शरीर में अनगिनत बाल हैं, और अनन्त नसें और नाड़ियाँ हैं, जो काम कर रही हैं, इन्हें शारीरिक विद्या जानने वाले डॉक्टर भी भली भाँति नहीं जान सकते ऐसे ही कर्म भी जो शरीर के कारण हैं, अनगिनत हैं, और उनकी शाखाएँ भी अनन्त हैं, फिर कोई उन्हें पूर्ण तथा क्या समझेगा
    मैं भी इस समय केवल कुछ थोड़ी सी ही बातें तुम्हारे लाभार्थ कहूँगा, उन्हें बड़े ध्यान से सुनना वे बड़े रहस्य की बातं हैं
    मनुष्य जो भी कर्म करता है तो उस कर्म से दो अंकुर पैदा होते हैं, उनमें से एक भोग और दूसरा है अहंकार जैसे प्रत्येक बीज धरती (जमीन) में पड़कर दो भागों में विभाजित हो जाता है,एक तो नीचे मूल (जड़) रूप में धरती के अन्दर तन्तुओं और डोरी की तरह फैल जाता है और दूसरा ऊपर अन्तरिक्ष में शाखा, फलफूल के रूप में हमारे सामने आता है उसकी जड़ कितनी दृढ़ (मजबूत) होती है और धरती में जितनी गहरी जा कर नीचे रसातल से रस खींच सकती है, तो उतना ही ऊपर का वृक्ष बलवान और सुदृढ़ होता है और उसके फलफूल अधिक सुन्दर, स्वादिष्ट तथा रसदार होते हैं ऐसे हीभोग कर्मरूपी वृक्ष का ऊपरी भाग है, जिसमें टहनी, पत्ते, फूल और फल लगते हैं और मनुष्य के सामने आते रहते हैं और संस्कार उसकी जड़ है, जो अदृष्ट रूप से रहती हैं उन्हीं संस्कारों के बल पर भोग चाहे भला हो अथवा बुरा, मनुष्य के सामने आता रहता है अब तुम इसे भलीभाँति समझ कर गाँठ बाँध लो कि हमारा वर्तमान काल संस्कार और भोग के बीच में उपस्थित है हम जो भी कर्म करते हैं, किसी किसी आशा से ही करते हैं और वह आशा ही हमारे उन पूर्व के संस्कारों पर निर्भर रहती है, जिसका हमें ज्ञान नहीं होता इसीलिए शास्त्रों का यह कथन है कि संचित कर्म अज्ञान के आश्रय रहता है और आगामी कर्म अहंकार के अत: जब तक अज्ञान और अहंकार है तब तक आवागमन का चक्र भी बना रहेगा इसीलिए ज्ञान होते ही ज्ञानी का अज्ञान और अहंकार दोनों ही नष्ट (खत्म) हो जाते हैं, कारण, इनका आश्रय स्थान ही नहीं रहता
    अब प्रारब्धकर्म का हाल भी सुन लो यह तीन प्रकार (तरह) का होता है,स्वेच्छा, परेच्छा और अनिच्छा भिक्षा आदि के लिए किसी गृहस्थी के घर जाना, स्वेच्छा प्रारब्ध कहलाता है समाधि या भजन साधन काल में शिष्य अथवा भक्त आदि द्वारा जो अन्न, जल प्राप्त होता है, उसे परेच्छा, प्रारब्ध कहते हैं समाधि अथवा व्युत्थान काल में अनायास ही आकाश से फल गिरने के समान जो कंकर आदि सिर पर लगते हैं, अथवा काँटा आदि चुभ जाता है, उसे अनिच्छा प्रारब्ध कहते हैं
    ऐसे ही अन्य व्यवहार के सम्बन्ध में भी समझ लो अपनी इच्छा से किसी कार्य के लिए प्रयत्न करना ही स्वेच्छा है दूसरे की प्रेरणा से या विवश (मजबूर) करने पर किसी कार्य का करना परेच्छा है अकस्मात तथा अनायास ही कोई काम बिना किसी विशेष इच्छा के हो जानाअनिच्छा कहलाता है हानि, लाभ का कुछ भी विचार भलीभाँति करके यदि कोई भी मनुष्य इच्छापूर्वक कोई कर्म करेगा, तो निश्चय ही गिरावट की ओर जाएगा, क्योंकि यह शरीर और इसकी सभी इन्द्रियाँ पाँच तत्त्वों और उनके विषयों के साथ सम्बन्ध रखती हैं अैर उनसे ही बनी हैं यही उनका आहार है मन और बुद्धि का भी उनसे ही मेल है और उन्हीं की ओर उनकी रुचि भी है अत: बुद्धिमान तथा ज्ञानवान् मनुष्य को सदैव इन पाँच तत्त्वों के आन्तरिक गुणों का ध्यान रख कर ही अपना कर्मक्षेत्र तैयार करना चाहिए उनके बाह्यगुण तो अपना प्रभाव बराबर डालते ही रहेंगे जैसे, एक साधारण मनुष्य सूर्य से सिवाय प्रकाश और गरमाई के अन्य कोई भी लाभ नहीं पा सकता और अग्नि से ही रोटी आदि बनाने के सिवाय कोई भी काम ले सकता है, परन्तु विशेष विचार से इनके आन्तरिक गुणों से सहायता लेने वाले मनुष्य इनसे नाना प्रकार के ऐसे काम लेकर मालामाल हो जाते हैं, जिनको साधारण मनुष्य तो कभी स्वप्न में भी अपने मन में ध्यान नहीं ला सकते
हमें यह मनुष्य देह क्यों मिला है ?
    केवल इसलिए कि इसे पाकर हम इस आवागमन के चक्र से छूट जाएँ यह संसार भोग के लिए भी है और मोक्ष (मुक्ति) पाने के लिए भी जैसे कर्म और ज्ञानइन्द्रियों से भोग भोगा जाता है और कर्म भी किए जाते हैं, वैसे ही संसार भी इन दोनों ही कार्यों का साधन है ये ही पाँचों तत्त्व हमारे सहायक भी हैं और शत्रु भी, वह कैसे ? तनिक ध्यान देकर सुनो! मैं तुम्हें इन पाँचों तत्त्वों के गुण विशेष तौर से बतलाता हूँ, जिनसे तुम यह भलीभाँति समझ सको कि मनुष्य को कैसे विशेषरूप से कर्म करने चाहिए
    अग्नि, जल, पृथिवी, आकाश और वायु ये ही पाँच तत्त्व हैं और इनके कर्म भी पाँच प्रकार के होते हैं
    अग्नि का गुण उत्क्षेपण अर्थात् ऊपर को फेंकना, मनुष्य को यह शुभ अवसर अर्थात् मनुष्य जन्म पाकर ऐसे शुभ कर्म करने चाहिए, जिनसे उनकी गति ऊपर की ओर अर्थात् उन्नति की ओर ही हो और अधोगति अर्थात् नीचे की ओर गिरने की कभी हो, जिससे वह उत्तम श्रेष्ठ योनियों में जन्म ले, जैसा कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने उपदेश दिया है
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा:
जघन्यगुण  वृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा: 
गीता/14/18
    अर्थात् सतोगुण प्रकृति में स्थित लोग तो ऊपर के लोकों अर्थात् उन्नत अवस्थाओं को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकाशमान लोक कहलाते हैं रजोगुणी लोग मध्यावस्था में ही ठहर जाते हैं और तमोगुणी निन्दनीय गुणों और वृत्तियों का आश्रय लेने से नीच गति को प्राप्त होते हैं
    जल का गुण है,अवक्षेपण अर्थात् नीचे की ओर जाना या नीचे गिरना अत: मनुष्य को उचित है कि इस जन्म मरण के चक्र में डालने वाले दुष्ट आचारोंविचारों की प्रेरणा करने वाले और भगवान से विमुख रखने वाले काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि शत्रुओं से भयभीत रहता हुआ अपनी सभी चित्त वृत्तियों को सदैव नम्रतापूर्वक भगवान के चरणों में समर्पण करता रहे और सदैव सबके कल्याण के लिए प्रार्थना करता रहे मन की इसी अवस्था का नाममनोनाश तथावासनाक्षय है
    पृथिवी का गुण है आकुंचन अर्थात् इकट्ठा करना और समेटना अत: हमें भी अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की उनके शास्त्रनिषिद्ध कर्मों अर्थात् वाह्य विषयों के विस्तार तथा फैलाव की ओर से समेटना और उन्हें प्रभु के चरणों में केन्द्रित तथा समर्पित करना चाहिए आकाश का गुण है संचार तथा फैलाव हमारी आत्मदृष्टि का विस्तार भी यही है कि हम अपनी आर्थिक, मानसिक तथा शारीरिक सेवाओं को केवल अपने शरीर अथवा परिवार आदि तक ही सीमित रख कर उन्हें देश, जाति, संसार तथा प्राणिमात्र के कल्याण के लिए यथाशक्ति विस्तृत करते और फैलाते रहें, सभी अर्थाभिलाषियों की मनोकामनाएँ पूरी करने का यथासम्भव प्रयत्न करते रहें
    वायु का गुण है, गमन करना अर्थात् चलनाफिरना हमारे मन का सब ओर से खिंचकर भगवान के चरणों तथा सबके कल्याण और भलाई की ओर जाना ही सबसे श्रेष्ठ गमन है अत: हमारे मन को सदैव भगवान की निर्माण की हुई सृष्टि के हित चिन्तन की ओर ही चलना चाहिए और कभी भी किसी के अहितचिन्तन अथवा अनिष्टचिन्तन का ध्यान तक भी अपने मन में लाना चाहिए, इसलिए वेदों तथा शास्त्रों की यह आज्ञा है कि,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
    अर्थात्,(हम) सब भलाइयाँ ही देखें और बुराइयों का कभी भी दर्शन करें यही वायु का गुण है
    इस प्रकार यदि हम विचार करें तो यह देखेंगे कि परमात्मा की सृष्टि में जितने भी देवता हैं, वे चाहे जड़ हां अथवा चैतन्य सभी परोपकारी हैं और अपनेअपने गुणों द्वारा समस्त संसार का उद्धार कर रहे हैं देखो, सभी फलदार वृक्ष तथा अन्न आदि नीचे से ऊपर को जाते और बढ़ते हुए सभी प्राणियों का उपकार करते हैं वर्षा ऊपर से नीचे को आती हुई सबका सहारा तथा जीवन आधार बनती है इसी प्रकार सूर्य अथवा चन्द्रमा की किरणें भी ऊपर द्युलोक से नीचे आकर हमें ताप, प्रकाश तथा रस प्रदान करती हैं, परन्तु बर्फ जल के विस्तार को समेट और सिकोड़ कर ही संसार के उपकार का साधन बनती है वायु चलते रहने से और प्राण तथा आकाश में फैलते रहने से ही सबके जीवन का आश्रय बना हुआ है
सारांश: तत्त्वदर्शी महात्माओं ने इसी प्रकार से समस्त तत्त्वों के आन्तरिक गुणों को जानकर और उन्हें अपने जीवन में धारण करके उनके अनुकूल अपनाअपना कर्मक्षेत्र बनाया है
मैं तुम्हें यह बतला चुका हूँ कि संस्कार और भोग दोनों कर्म से ही बनते हैं अत: जब तक मनुष्य इन भोगों से मुक्त नहीं होता, उसे जन्म लेना ही पड़ता है यदि वह शुभ कर्म करेगा तो उनसे संस्कार शुभ ही बनेंगे यदि अशुभ कर्म करेगा तो उससे अशुभ संस्कार पैदा होने के कारण, अन्त में इस परमदुर्लभ मनुष्य जन्म से भी हाथ धोना पड़ेगा और वह उन्नति करने की जगह उलटा अवनति की गर्त में गिरता चला जाएगा अत: हमें सदैव शुभ कर्म ही करने चाहिए जो भी शुभ कर्म हम अपनी इच्छा तथा संकल्प से हर्ष तथा उत्साहपूर्वक करते हैं, चाहे वे ज्ञान सहित हों अथवा ज्ञान रहित हमारे केवल इतने ज्ञान से ही कि वे शुभ कर्म हैं, उनका फल हमें दो रूपों में मिलता है एक यश और दूसरा बल
    अब प्रश्न यह पैदा होता है कि जब दोनों ही सूरतों में एक ही जैसा फल अवश्य ही मिलता है तो ज्ञान प्राप्ति की आवश्यकता ही क्या है ? इसके लिए कुछ कष्ट क्यों सहन किया जाए ? इसका सीधा सादा उत्तर यह है, कि इन दोनों का फल तो नि:सन्देह एक ही होता है, परन्तु उस फल के भोग में अन्तर बहुत पड़ जाता है उदाहरणस्वरूप यों समझो कि ज्ञानरहित कर्म की जब प्रशंसा होकर उसे यश होने लगता है तो कर्ता को अभिमान हो जाता है यदि बल प्राप्त हो जाता है, तो वह उस बल का दुरुपयोग करने लगता है और वही बल समय पर उसे निर्बल बनाने का कारण बन जाता है
    इसके विपरीत ज्ञान सहित कर्म से जो प्रशंसा तथा यश प्राप्त होता है, उससे कर्ता की आँखें नीची हो जाती हैं। उसमें नम्रता बढ़ती है वही नम्रता उससे उसके बल का सदुपयोग कराती है और उसके बल तथा शक्ति को बढ़ाती है
    कभीकभी मनुष्य शुभ कर्म करता तो है, परन्तु उसे ज्ञान कुछ नहीं होता वह केवल आसुरी बुद्धि का सहारा लेकर दिखलावे और छलकपट से काम करता रहता है ऐसा शुभ कर्म भी अन्त में नरक और दुख देने वाला होता है, क्योंकि केवल श्रद्धा और भक्ति से किया हुआ कर्म ही यथार्थ यश तथा बल की प्राप्ति कराता है
    दम्भी का शुभकर्म शीघ्र ही उसके दम्भ का भण्डा फोड़ देता है और उसके यश तथा गौरव को बढ़ाने की जगह उलटा अपयश फैलता है इसलिये ज्ञानपूर्वक कर्म करने की हमें बड़ी आवश्यकता है और केवल वही कर्म हमारे लिए वास्तविक रूप में कल्याणकारी हो सकते हैं
सबको कर्मों का फल तीन रूप में मिलता है -
पहला रूप:तो है उसका जागृत अवस्था में स्थूल शरीर के द्वारा सुख अथवा दु: की सूरत में, जिसका केवल अपने को ही नहीं वरन् दूसरों को भी इसका ज्ञान होता है या जागृत अवस्था में केवल विचार द्वारा जिसका दूसरों को ज्ञान हो सकता है, कभीकभी अपने आपको भी उसकी स्मृति नहीं हो सकती
दूसरा रूप:जाति, आयु और भोग के रूप में जैसा कि पहले भी बतलाया जा चुका
है इसमें से जिन कर्मों का फल भोगना होता है, वह तो कभीकभी ऐसे पुण्य होते हैं, जिनके बदले में पुत्र, धन तथा यश या इनमें से केवल कोई एक सा एक पदार्थ ही, मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुकूल मिल सकता है यह फल प्रभु अपने अधीन नहीं रखते वरन् इन्हें कर्मकर्ता मनुष्य की अपनी इच्छा पर ही छोड़ देते हैं ऐसी सूरत में उसे केवल एक ही पदार्थ मिलता है, दूसरा नहीं जिन मनुष्यों के ऐसे पुण्य होते हैं, उनके फल आने वाले जन्म में जिधर भी उनकी प्रवृत्ति होती है, उधर ही उन्हें सफलता प्राप्त होकर वही पदार्थ वे पा लेते हैं
तीसरा रूप:एक बात और स्मरण रखने योग्य है वह यह कि जैसे जब कोई किसी के सिर पर आक्रमण करता है तो अनायास ही हाथ ऊपर उठ कर सिर की रक्षा कर लेता है, परन्तु तुमने कभी यह भी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है केवल तुम्हारा या मेरा ही यह हाल नहीं, मनुष्य मात्र की यही दशा है और एक प्राकृतिक नियम होने के कारण स्वभावत: सभी से ही अनिच्छित रूप में ऐसा हो जाता है प्रकृति हमें यह बतलाती है कि जैसे सिर की रक्षा हाथों से होती है, ऐसे ही सिर जो ज्ञान का केन्द्र है, उस ज्ञान की रक्षा भी सदैव कर्मों के द्वारा होती है, जिनके मुख्य साधन हमारे हाथ ही हैं इसलिए कर्म के बिना कोरा ज्ञान सर्वदा निरर्थक है
उद्धृत् कर्मभोग चक्र
महात्मा प्रभु आश्रितजी महाराज पृष्ठ 474 से 492


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