Monday, August 6, 2018

भोजन भगवान का प्रसाद


श्रीरामचरितमानस में भोजन को भगवान के प्रसाद के रूप में ही ग्रहण करने की बात कही गयी है,

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा । सादर जासु लहइ नित नासा । ।
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं । प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं । ।
Related imageरामचरित./अयोध्या./128–1                                अर्थात् जिसकी नासिका प्रभु के पवित्र और सुगन्धित सुंदर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती है और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं ।     भोजन चतुर्विध है । अत: भोजन से चतुर्थांश निकाल कर प्रेम से किसी प्राणी को भगवान के भाव से दें । ऐसा करने से शेष भोजन भगवान का प्रसाद बन जाता है ।
श्रीगीता में भी भगवान को अर्पित करने के बाद अवशिष्ट भोजन को ही ग्रहण करना कल्याणकारी बताया गया है,
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै: ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् । ।
श्री गीता 3/13
अर्थात् इस प्रकार यज्ञ–शेष प्रसाद पाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सभी पापों से छूट जाते हैं । इसके विपरीत जो केवल अपने (शरीर–पोषण) लिए ही पकाते हैं, वे तो मानो पाप का ही भक्षण करते हैं ।
यज्ञशेष अन्न खाने वाले सभी पापों से छूट जाते हैं । इस भावना के पीछे एक मनोवैज्ञानिक कारण भी है । जब भगवान को अर्पित करने की भावना से भोजन बनाया जाएगा तो शुद्ध भाव से, प्रसन्न मन से तथा सफाई से भोजन  बनाया जाएगा, भोजन बनाने वाले की भावना का भी बहुत प्रभाव पड़ता है । भगवान के प्रसाद रूप में ग्रहण करने से भोजन करने वाले के मन में शांतभाव रहेगा, जिससे पाचन भी उचित ढंग से होगा ।
चित्रकूट के जंगलों में रहने वाले कोल–भील अयोध्यावासियों को फल, पत्तियाँ और अंकुरित अन्न समर्पित करते हुए कहते हैं कि वे बड़े ही आभारी होंगे, यदि उनकी भेंट स्वीकार कर ली जाए । वे किसी प्रकार का उपकार करने की भावना से अनुप्राणित नहीं हैं, यथा,
हमहिं कृतारथ करन लगि, फल तृन अंकुर लेहु ।
रामचरित–/अयोध्या–/दोहा–250
देते समय बाएँ हाथ को भी पता नहीं होना चाहिए कि दाहिने हाथ से किसी को कुछ दिया जा रहा है । अर्थात् दाता को दान देने की भावना का कुछ भी अभिमान नहीं होना चाहिए ।
सर्वत्र ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्दं तुभ्यमेव समर्पयामि’की भावना ही प्रमुख होनी चाहिए ।
एक वैदिक सूक्ति है,
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता: सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य ।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी । ।
ऋ मं10/सू0117/मन्त्र6
अर्थात् असावधान मूर्ख मनुष्य व्यर्थ ही अन्न का प्रयोग करता है । मैं सत्य कहता हूँ वह अन्न उसके लिए मृत्यु के तुल्य है, क्योंकि न तो वह परपोषक द्वारा सूर्य की उपासना करता है और न बाँटने के कारण अकेले ही खाने वाला, वह व्यक्ति पापी है ।
छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार,
अन्नमशितं त्रेधा विधीयते ।
तस्य य: स्थविष्ठो धातुस्तत्पुरीषं भवति,
यो मध्यमस्तन्मान्सं योऽणिष्ठस्तन्मन: । ।
छान्दोग्य उपनिषद
अर्थात् जो आहार हम ग्रहण करते हैं, वह तीन रूपों में रूपान्तरित होता 
है । उसका सबसे भारी और स्थूल भाग विष्ठा या मल बन जाता है । मध्यम भाग मांस में रूपान्तरित हो जाता है और सूक्ष्म रक्त तथा उसका सूक्ष्मतम अंश हमारे मन का निर्माण करता है । हम जो भोजन करते हैं, उसके सूक्ष्मतम अंश से हमारा मन कैसे बनता है, इसका उल्लेख करते हुए कहा है,
दध्न: सोम्य मथ्यमानस्य योऽणिमा स ऊर्ध्व: ।
समुदीषति, तत्सर्पिर्भवति एवमेव खलु अन्नश्यास्यमानस्य,
योऽणिमा स ऊर्ध्व: समुदीयति तन्मन्नो भवति । ।
छान्दोग्य उपनिषद
अर्थात् जब दही बिलोया जाता है, तब जो सूक्ष्मतम अंश होता है, वह ऊपर आ जाता है और मक्खन का रूप ग्रहण कर लेता है । उसी प्रकार जो भोजन किया जाता है, उसका सूक्ष्मतम भाग ऊपर उठ कर मन का रूप ग्रहण कर लेता है ।
अत: शरीर–पोषण के बाद जो  मल बनता है, उसका नित्यप्रति निष्कासन होते रहना चाहिए । हमें अपने शरीर को बनाए रखना है तो भोजन तो करना ही है किन्तु सफाई का क्रम भी नहीं टूटना चाहिए ।
शरीर का वजन कम होना शरीर शुद्धि का प्रमाण है, किसी रोग का नहीं । भरतजी जब नन्दीग्राम में तपस्यारत थे, भोजन का त्याग कर दिया था तो उनकी देह दिन पर दिन दुबली होती जा रही थी । उनकी शक्ति ऐसी बढ़ी कि बिना फर के बाण से हनुमान जी को पहाड़ सहित गिरा दिया,
देह दिनहु दिन दूबरि होई ।
घट न तेजु बलु मुख छबि सोई । ।
राम–/अयो–/324/1
स्वास्थ्य का अर्थ ही है स्व (अपने) में स्थित होनाय अर्थात् स्वास्थ्य बाहर से मिलने वाली वस्तु नहीं है बल्कि अपने भीतर बैठी शक्ति को ही जगाना है ।
भोजन का केवल वही अंश पोषक तत्त्व कहला सकता है, जो आसानी से पच कर शरीर का अंग बन जाता है । संसार के सभी धर्मों में उपवास का महत्त्व स्वीकार किया गया है । उप का अर्थ है समीप और वास का रहना । उपवास  समीप रहना (परमात्मा के) देखें,
इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब ने तीस दिनों तक उपवास किया, तब उन्हें दैवी ज्ञान प्राप्त हुआ था । इसी ज्ञान के फलस्वरूप कुरआन–शरीफ की अवतारणा हुई । रमजान के महीने में तीस दिनों तक रोजा (उपवास) रखने का नियम बनाया । इस व्रत के दौरान लगातार दान (सदका) देने का भी नियम बनाया ।
ईसाई धर्म में चालीस दिनों के उपवास (लेण्ट) के बाद ही यीशु मसीह को दिव्यज्ञान प्राप्त हुआ था ।
श्री रामचरित मानस में वर्णित है कि माता पार्वती ने पहले सबसे भारी भोजन अन्न का त्याग किया, फिर कन्दमूल त्याग कर फलों पर रहीं, फिर फलों को भी त्याग कर वह हवा पानी पर रहीं ।
यही भोजनक्रम मनु–शतरूपा का भी रहा । सबसे अन्त में वे भी जल और हवा के आहार पर रहे । मनु शतरूपा कन्दमूल फलों का भोजन त्याग कर ‘बारिअधार, जल के आधार पर रहने लगे । उसके बाद जल भी त्यागा और केवल वायु के भोजन पर रहे,
एहि बिधि बीते बरष षट, सहस बारि आहार ।
संबत सप्त सहस्त्र पुनि, रहे समीर अधार । ।
राम–/बाल–/144/दोहा
ऐसा युक्तियुक्त उपवास स्थूल से सूक्ष्म भोजन अपनाने के क्रम से मनु–शतरूपा का वजन घट कर वह अस्थिपंजर मात्र रह गए,
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा ।
तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा । ।
राम–/बाल–/144/2
विचार परिवर्तन के कारण उनके मन में पीड़ा नहीं हुई । देखें इसकी परिणति,
हृष्ट–पुष्ट तन भए सुहाए ।
मानहुँ अबहिं भवन ते आए । ।
राम–/बाल–/144/4
इसके साथ ही यह भी जान लेना आवश्यक है कि उपवास को बिना सोचे–समझे अथवा भावावेश में करना उचित नहीं है । उपवास का एक पूर्ण विज्ञान है । वैज्ञानिक आधार पर किया गया उपवास सुफल देता है । इसकी पूर्ण प्रक्रिया को समझना आवश्यक है ।
सबसे पहले प्रात:काल के नाश्ते का परित्याग कर, उसके बदले रसदार फल, कच्चे नारियल का पानी, रात में भिगोए गए मुनक्के अथवा किशमिश को मसलकर निकाला गया रस, अथवा जल में शहद और नीबू का रस, इनमें से कोई एक चीज पिएँ ।
इस प्रकार धीरे–धीरे प्रात:काल व दोपहर को फल एवं शाम को अन्नमय भोजन के क्रम पर आने से मनुष्य पूर्ण निरोगता की ओर अग्रसर हो सकता है ।
इसी के साथ यह भी समझ लें कि स्वास्थ्य का अर्थ ही है, जो स्व में स्थित हो, स्वास्थ्य कहीं बाहर से नहीं आता है । स्वास्थ्य तो सबमें रहता ही है । स्वस्थ होना स्वाभाविक स्थिति है । उसके लिए हमको कुछ करना नहीं है । स्वाभाविक रूप से जीवन व्यतीत करना है । शरीर अपनी आवश्यकतानुसार स्वयं माँग कर लेता है । शरीर को जब जिस भोजन की जरूरत होती है, वह एहसास करा देता है । जैसे कभी–कभी किसी की इच्छा होती है कि दाल खूब खावें, कभी इच्छा होती है कि दाल बिल्कुल न खावें, इसी प्रकार अन्य वस्तुओं की भी कभी इच्छा होती है, कभी नहीं । उस वस्तु–विशेष में निहित पोषक तत्त्वों की आवश्यकता उस समय शरीर–विशेष की होती है । उसी के अनुसार उस शरीरधारी की इच्छा होती है कि वह अमुक वस्तु खावे ।
इसी के साथ यह भी आवश्यक है कि जब तक कड़ी भूख न लगे, कुछ न खावें । कहावत है कि कड़ी भूख लगने पर किवाड़ें भी पापड़ लगते हैं । वास्तविक भूख लगने पर शरीर में पाचन क्रिया सुचारु ढंग से होती है व मन को तृप्ति भी मिलती है, देखें,
भोजन करिअ तृपिति हित लागी ।
जिमि सो असन पचवै जठरागी । ।
राम–/उत्तर–/118/5

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