वेदों में मानसिक स्वास्थ्य
मन की स्थिरता व सबलता
आत्मिक संकल्प
यदाकूतात् समसुस्त्रोद्धृदो
वा
मनसो वा संभृतं चक्षुषो वा ।
तदनु प्रेत सुकृतामु लोकं यत्र ऋषयो
जग्मु: प्रथमजा: पुराणा: । ।
यजुर्वेद 18/58
यह जो शक्तिबिन्दु आत्मिक ईक्षण
से, आत्मिक संकल्प से, अच्छी तरह चुआ हुआ है । हृदय
से, बुद्धि से या मन से या आँखों से चुए हुए इसे तुमने सम्यक्तया धारण कर लिया है तो उसे ही लेकर चल पड़ो । इस तरह तुम उस श्रेष्ठ कर्मों वालों के लोक में पहुँच
जाओगे जहाँ जिस लोक को तुमसे
पहले उत्पन्न हुए ऋषि लोग पहुँचते रहे हैं ।
अर्थात् आत्मसंकल्प व सत्संकल्प से सत्कर्मी परमात्मा की प्राप्ति करें ।
सत्वचिंतन
यथा वातच्यावयति भूम्या रेणुमन्तरिक्षाच्चाभ्रम् ।
एवा
मत्
सर्वं
दुर्भूतं
ब्रह्मनुत्तमपायति । ।
अथर्ववेद10/1/13
जैसे वायु
द्वारा भूमि से रेणु या धूल और आकाश से मेघ को सरका देता
है । वैसे ही मुझसे
ब्रह्मवेत्ताओं द्वारा हटाया
गया पाप दूर चला जाए । अर्थात् सत्चिंतन करके हम पाप को दूर करें । सत्य ही है कि मन से अगर हम अच्छा
चिंतन करेंगे तो जीवन सभी प्रकार से सुखी हो सकता है ।
संकल्पबल
अध्यक्षो वाजी मम काम उग्र: कृणोतु मह्यम सपत्नमेव ।
विश्वे देवा मम नाथं भवन्तु सर्वे
देवा हवमायन्तु म इमम् । ।
अथर्ववेद 9/2/7
हे प्रभु!
मेरा प्रबल संकल्प ज्ञानबल से युक्त
है और ऊपर से ठीक–ठीक दिखने
वाला है । यह संकल्प मेरे
लिए संसार को सर्वथा प्रतिद्वन्द्वी रहित कर देवे । सब देव मुझसे सम्बद्ध हो जाएँ और ये सब देव मेरी इस पुकार
पर आ जाएँ
। अर्थात् हम अपने संकल्पबल से स्वयं अपने जीवन
को समृद्ध करने
की सामर्थ्य रखते हैं ।
संकल्पबल से सिद्धि की कामना
अवधीत कामो मम ये सपत्ना उरूं
लोकमकरन्मह्यमेधतुम् ।
मह्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्रो मह्यं
षडुर्वीर्धृतमावहन्तु । ।
अथर्ववेद 9/2/11
हे परमेश्वर! मेरे संकल्पबल ने मेरे जो प्रतिद्वन्द्वी बाधक
हैं उन्हें नष्ट
कर दिया हैय मेरे लिए विस्तृत खुला हुआ द्युलोक कर दिया है । मेरे लिए वृद्धि व विस्तार कर दिया है । अब मेरे
लिए चारों उपदिशाएँ झुक जाएँ और छहों विस्तृत दिशाएँ मेरे लिए क्षरित हुए इष्ट फल को ले आएँ ।
मन का ठहराव
हो
कथं वातो नेलयति कथं न रमते
मन: ।
किमाप: सत्यं प्रेप्सन्तीर्नेलयन्ति कदाचन
। ।
अथर्ववेद 10/7/37
यह प्राण
क्यों नहीं ठहरता
है? मन क्यों
कहीं नहीं रमता
है? क्यों सत्यस्वरूप को प्राप्त करना
चाहते हुए भी जीवों के कर्म
प्रवाह कभी भी नहीं ठहरते हैं,
सदा चल रहे हैं ?
नि:सन्देह जिस क्षण उस परम सत्य को पा लेंगे, उस क्षण
हमारा प्राण चैन पाएगा, मन निरुद्ध हो जाएगा, हमारी सब की सब चेष्टाएँ सर्वथा बन्द हो जाएँगी और हम उस परम आनन्द में स्थिर हो जाएँगे ।)
आत्मव्यवहार का सुधार
उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम् ।
सुपर्णयातुमुत
गृध्रयातुं
दृषदेव
प्रमृण रक्ष इन्द्र । ।
अथर्ववेद 8/4/22
हे आत्मन्! हमारे उल्लू के समान आचरण को, भेड़िये के चलन को, कुत्ते जैसे
व्यवहार को और कोक चिड़िया के आचरण को नष्ट
कर दे । बाज की चाल
(मद) को तथा गिद्ध जैसे बर्ताव (लोभ) को भी (इन छहों में से एक–एक राक्षस को) तू अपनी
दारणशक्ति द्वारा इस तरह विनष्ट कर दे जैसे शिला
से मिट्टी का ढेला या मिट्टी का बर्तन फूट जाता है । अर्थात् हमारा आचरण
सदा अच्छा हो ।
हम माधुर्ययुक्त हों
मधुमन्मे निक्रमणं मधुमन्मे
परायणम् ।
वाचा वदामि मधुमद् भूयासं मधुसन्दृश: । ।
अथर्ववेद 1/34/3
हे परमेश्वर! मेरा निकट जाना
मार्धुयमय हो तथा मेरा दूर हटना
भी माधुर्यपूर्ण हो । मैं वाणी
से माधुर्ययुक्त ही बोलता हूँ । इसलिए हे माधुर्यस्वरूप परमात्मा! मैं सर्वत्र मधुरूप या माधुर्य को ही देखने वाला
हो जाऊँ ।
सहनशक्ति
अहमस्मि
सहमान उत्तरो नाम भूम्याम् ।
अभीषाडस्मि विश्वाषाडाशामाशां विषासहि: । ।
अथर्ववेद 12/1/54
हे प्रभु! मैं सहन करने वाला
हूँ । इस भूमि पर उत्कृष्टतर प्रसिद्ध हूँ । जीवों में मनुष्य की गणना उत्कृष्टतर मानी जाती है । मैं मुकाबले में आए हुए को सहने वाला
हूँ, अन्य भी सब कुछ सहने
वाला हूँ । प्रत्येक दिशा में प्रत्येक इच्छापूर्ति के लिए सब कुछ विशेषतया बार–बार सहने
वाला ही होऊँ
।
सुन्दरवाणी
इयं या परमेष्ठिनी वागदेवी ब्रह्मसंशिता ।
ययैव ससृजे घोरं
तयैव शान्तिरस्तु न: । ।
अथर्ववेद 19/9/3
यह जो परमेश्वर में ठहरने
वाली और ज्ञान
से तीक्ष्ण की गई वाणी रूपी
देवी है, जिससे
कि नि:सन्देह बड़े–बड़े घोर कृत्य किए जाते
हैंय उस वाणी
से हमारे लिए,
पूरे संसार के लिए शान्ति फैले
।
मन से सबल हों
सं जानामहै मनसा
सं चिकित्वा मा युष्महि मनसा दैव्येन ।
मा घोषा उत्स्थुर्बहुले विनिर्हते, मेषु: पप्तदिन्द्रस्याहन्यागते । ।
अथर्ववेद 7/52/2
हम मन द्वारा मिलकर के विचारें और सोचना–समझना मिलकर करें,
मन से कभी वियुक्त न हों,
बिछुड़ें नहीं । अन्धकार आ जाने
पर या विशाल
द्यावापृथिवी के टूटने
पर भी हमारे
अन्दर हाहाकार के शब्द न उठें
। दिन आ जाने पर, अनुकूल स्थिति पा जाने
पर हमारे ऊपर ईश्वरीय मार न पड़े ।
शिवसंकल्प
देखें यजुर्वेद के कुछ मंत्रों को
यज्जाग्रतो
दूरमुदैति
दैवं तदु सुप्तस्य
तथैवैति ।
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे
मन: शिवसंकल्पमस्तु । ।
यजुर्वेद 34–1
अर्थात् (यत्) जो (दैवम्) दिव्य शक्ति
वाला (मे मन:)
मेरा मन (जाग्रत:) जागते हुए (दूरम् उदैति)
दूर–दूर जाता
है । (तदु)
वह (सुप्तस्य) सोते हुए भी (तथा एव) उसी प्रकार (एति) दूर चला जाता है । इन्द्रियों का (एक ज्योति:) एक मात्र प्रकाशक (ज्ञान में साधक) है । (तत) वह (मे मन;) मेरा मन (शिव संकल्पम्) शुभसंकल्प अर्थात् अच्छे विचार वाला
(अस्तु) होवे ।
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे
कृण्वन्ति विदथेषु धीरा:
।
यदपूर्वं यक्षमन्त: प्रजानां तन्मे
मन: शिवसंकल्पमस्तु । ।
यजुर्वेद 34–2
अर्थात् (येन)
जिसके द्वारा (अपस)
कर्मनिष्ठ लोग (मनीषिण:) मनस्वी लोग (यज्ञे) यज्ञों में, (विदथेषु) विशेष ज्ञानपूर्वक किये जाने वाले
कार्यों में, (कर्माणि) करने योग्य कर्मों को (कृण्वन्ति) करते हैंय मेरा मन (यत्) जो (अपूर्वम्) अपूर्व है (प्रजानाम अन्त:) प्रजाओं के अन्दर
(यक्षम) पूजनीय है (तत्) वह (मे मन:) मेरा मन (शिव संकल्प) शुभ विचार वाला (अस्तु)
होवे ।
यत्प्रज्ञानमुत
चेतो
धृतिश्च
यज्ज्योतिरन्तरमृतं
प्रजासु ।
यस्मान्न ऋते किंच
न कर्म क्रियते तन्मे मन> शिवसंकल्पमस्तु ।
यजुर्वेद 34–3
अर्थात् (यत्)
जो (प्रज्ञानम) ज्ञान का साधन है (उत) और (चेत:)
चेतना का आधार
(धृति: च) और निश्चय करने की वृत्ति वाला है । (यत्) जो (प्रजासु अन्त:) प्रजाओं के अन्दर (अमृतम्) मरणधर्म से रहित
(ज्योति:) ज्ञान का प्रकाश है, (यस्मात् ऋते) जिसके बिना
(किञ्चन) कोई भी (कर्म) कार्य (न) नहीं (क्रियते) किया
जा सकता (तत्)
वह (मे) मेरा
(मन:) मन (शिवसंकल्पम्) शुभ विचार वाला (अस्तु)
हो ।
येनेदं
भूतं
भुवनं
भविष्यत्परिगृहीतममृतेन
सर्वम् ।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे
मन: शिवसंकल्पमस्तु । ।
यजुर्वेद 34–4
अर्थात् (येन)
जिस (अमृतेन) मरण धर्म से रहित
(इदं) इस (सर्वम्) समस्त (भूतम्) भूतकाल को (भुवनम्) वर्तमान काल को (भविष्यत्) भविष्यतकाल को (परिगृहीतम्) अपनी चेतना की शक्ति से अपने
में पकड़ा हुआ है, (येन) जिसके द्वारा (सप्त होता)
सप्त होताओं वाले
(यज्ञ: तायते) यज्ञ
का वितान किया
गया जा रहा है । (तत् मे मन:) वह मेरा मन (शिवसंकल्प वाला) शुभ विचारों वाला (अस्तु) हो ।
यस्मिन्नृच: साम यजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा: ।
यस्मिन्श्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे
मन: शिवसंकल्पमस्तु । ।
यजुर्वेद 34–5
अर्थात् (रथनाभौ) रथ की नाभि
में (आरा: इव) अरों की तरह
(यस्मिन्) जिस (मन) में (ऋच:) ऋग्वेद (साम) सामवेद (यजूंषि) यजुर्वेद (प्रतिष्ठिता:) प्रतिष्ठित हैं अर्थात् ठहरे हुए हैं, (यस्मिन्) जिसमें (प्रजानाम्) प्रजाओं की (सर्वम्) समस्त (चित्तं) चिन्तनशक्ति (ओतम्) ओत–प्रोत है (तत्) वह (मे मन:) मेरा मन (शिवसंकल्पम्) शुभ विचार
वाला (अस्तु) हो ।
सुषारथिरश्वानिव
यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव ।
हृत्प्रतिष्ठं
यदजिरं
जविष्ठं तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु । ।
यजुर्वेद 34–6
(सुसारथि:) अच्छा सारथी (अश्वान्) घोड़ों को (इव) जैसे (ने नीयते) पुन: पुन:
घुमाता है (तत् मे मन:) वह मेरा मन (अभीशुभि:) लगामों के द्वारा (वाजिन:
अश्वान्) बलवान् घोड़ों
को (सुसारथि: इव) उत्तम सारथि की तरह (यत्) जो मन (मनुष्यान्) मनुष्यों को (ने नीयते) सन्मार्ग से ले जाता
है, (यत्) जो मेरा मन (हृत्प्रष्ठितम्) हृदय–चेतना स्थान में स्थित है (यत्)
जो (अरिम्) गतिशील अर्थात् चंचल है,
(जतिष्ठम्) शीघ्रगामी है, (तत् मे मन:) वह मेरा मन (शिवसंकल्पम्) शुभ विचारों वाला
(अस्तु) हो ।
इन मन्त्रों में शिवसंकल्प अर्थात् सकारात्मक विचारों को ही महत्त्व दिया गया है । यदि हमारे विचार सकारात्मक होंगे तो सदा शुभ ही होगा
।
मन की स्थिरता
पुनरेहि
वाचस्पते
देवेन
मनसा
सह ।
वसोष्पते नि रमय मध्येवास्तु मयि श्रुतम् । ।
अथर्ववेद 1/1/2
हे वाणी
व ज्ञान के पालक देव! तुम फिर मुझमें आओ । हे देव!
मन की मननक्रिया के साथ आओ । हे वसु के पति! तुम मुझे रमण कराओ,
रस दिलाओ, आनन्दित कराओ एवं मेरा
सुना हुआ ज्ञान
मुझमें ही ठहरे।
(हे प्रभु
मैं जो कुछ सुनता हूँ या सत्चिन्तन करता हूँ,
वह मुझमें ठहरता
नहीं है । यह सद्ज्ञान मेरे मन में स्थिर
करो ।)
ज्ञानरूपी जल दो
दिवो
नु
मां
वृहतो
अन्तरिक्षात्
अपां
स्तोको
अभ्यपप्तद्
रसेन ।
समिन्द्रयेण पयसाहमग्ने छन्दोभिर्यज्ञै: सुकृतां कृतेन । ।
अथर्ववेद 6/124/1
हे परमेश्वर! अपने ज्ञानप्रकाशमय द्युलोकरूपी महान अन्तरिक्ष से ही तेरे ज्ञान–कर्म–शक्तिरूप जलों का एक स्वल्पकण अपने तृप्तिदायक रस से युक्त मुझ पर गिरा । तेरे इस स्वल्प जल–कण द्वारा आत्मबल से पोषक
ज्ञान से, शुभकर्मों से और पुण्यकर्मों के फल से संयुक्त हो गया हूँ अर्थात् आनन्द
युक्त हो गया हूँ ।
मन:शक्ति
वयं सोम व्रते
तव मनस्तनूषु निभ्रत: ।
प्रजावन्त: सचेमहि । ।
ऋग्वेद 10/58/19
हे परमात्मा! अपने शरीरों में मन को अर्थात् मन:शक्ति को धारण किए हुए हम लोग तुम्हारे व्रत का पालन
करते हैं । अर्थात् तुम्हारे बनाए हुए नियमों का अपनी मन:शक्ति
द्वारा पालन करते
हैं । अत: प्रार्थना है कि प्रजासहित हम लोग तुम्हारी सेवा करते
रहें ।
दृढ़ निश्चय
अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रभ
।
अहं सूर्यंइवाजनि । ।
ऋग्वेद 8/6/10
मैंने निश्चय ही पालक पिता
सत्यस्वरूप परमेश्वर की धारणावती बुद्धि को सब तरफ से ग्रहण कर लिया
है । अत: मैं सूर्य के समान तेजस्वी हो गया हूँ । अर्थात् हम सदा अपने मन में उत्तम चिंतन ही करें ।
आत्मबल
जुहुरे वि चितयन्तोऽनिमिषं नृम्णं पान्ति ।
आ
दृह्णम् । पुरं
विविशु: । ।
ऋग्वेद 5/19/2
जो ज्ञानपूर्वक स्वार्थ त्याग करते
हैं और लगातार जागते हुए अपने
आत्मबल की रक्षा
करते हैं, वे दृढ़ अभेद्य नगरी
(अभयता व अमरता)
में प्रविष्ट हो जाते हैं ।
मन का परिष्कार हो
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा
वाचमक्रत ।
अत्र सखाय: सख्यानि जानते भद्रैषां लक्षमीर्निहिताधि वाचि
। ।
ऋग्वेद 10/71/2
जिस प्रकार चलनी द्वारा सत्तू
को परिष्कृत किया जाता है, उसी प्रकार धैर्यशाली लोग मन द्वारा, मनन द्वारा वाणी को परिष्कृत करते हैं । वाणी के सखा हुए इन लोगों की वाणी
में कल्याणी लक्ष्मी निवास करती है ।
मन में विक्षोभ न हो
यदाशसा
वदतो
मे
विचुक्षुभे
यद्
याचमानस्य
चरतो जनाँ अनु ।
यदात्मनि तन्वो मे विरिष्टं सरस्वती तद् आपृणद् घृतेन । ।
अथर्ववेद 7/57/1
हे प्रभु!
मनुष्यों की सेवा
करते हुए, उनके
साथ आशा से बोलते हुए, भाषण
करते हुए मेरा
मन जो कभी–कभी विक्षोभ को प्राप्त होता है । इसी प्रकार लोगों के हित के लिए, उसे कुछ बताने पर, उनके दुर्व्यवहार से मेरा मन विक्षोभ को प्राप्त होता
है । हे प्रभु! मेरे अन्त:करण पर जो चोट पहुँचती है, उन सबको हे सरस्वती! हे विद्यादेवी! अपने ज्ञानपूर्ण और स्नेहमय मरहम से भर दे ।
आतएतुमन: पुन: क्रत्वे दक्षाय जीवसे ।
ज्योक्
च
सूर्यं
दृशे । ।
ऋग्वेद 10/57/4
हे सुबन्धु! मन का तुझमें पुन: प्रवेश हो जाए । जिससे
तू कर्म करने
लगे, बल आ जाए, जीवन आ जाए और तू निरंतर सूर्य दर्शन
करता रहे । अर्थात् हे प्रियजन! जो तू इतना
हतोत्साहित हो गया है कि लगता
है मानो तुझमें मन ही नहीं
है तो तू अपने को सबल बना ।
पुनर्न: पितरो मनोददातु दैव्योजन: ।
जीवं
व्रातं
सचेमहि । ।
ऋग्वेद 10/57/5
हमारे पितर
हमारे मन को फिरा दें और मन में देवों
को स्थापित करें
। हम परमात्मा का सब कुछ आनुषङ्गिक प्राप्त करें
।
यत् ते यमम्
वैवस्वतम् मन: जगाम
दूरकम् ।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/1
हे बन्धु! विवस्वान के पुत्र
यम के पास या दूर पर जो तुम्हारा मन गया है, उसे हम लौटा लाते
हैं । तुम इस संसार में रहने के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार
में सुकार्यों को करते हुए सानन्द रहो । मन को इधर–उधर भटकने
मत दो ।
यत् ते दिवम्
यत् पृथिवीम् मन: जगाम दूरकम् ।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/2
मेरे मित्र!
तुम्हारा जो मन अत्यन्त दूर स्वर्ग अथवा पृथिवी पर चला गया है, उसे लौटा लाओ । तुम संसार
में रहने के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार में सुकार्यों को करते हुए सानन्द रहो । मन को इधर–उधर भटकने मत दो ।
यत् ते भूमिम् चतुर्भूष्टिम् मन: जगाम
दूरकम् ।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/3
हे सखे!
चारों तरफ लुढ़क
पड़ने वाला जो तुम्हारा मन अतीव
दूरदर्शनीय देश में गया है, उसे लौटा लाओ । तुम संसार में रहने के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार
में सुकार्यों को करते हुए सानन्द रहो । मन को इधर–उधर भटकने
मत
दो ।
यत् ते चतस्त्र: प्रदिश: मन: जगाम
दूरकम् ।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/4
हे प्रियजन! तुम्हारा मन जो चारों तरफ अतीव
दूरस्थ प्रदेश में चला गया है, उसे लौटा लाओ । तुम संसार
में रहने के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार में सुकार्यों को करते हुए सानन्द रहो । मन को इधर–उधर भटकने मत दो ।
यत् ते समुद्रम् अर्णवम् मन: जगाम
दूरकम् ।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/5
हे मानव!
तुम्हारा जो मन अतीव दूरवर्ती और जल से परिपूर्ण समुद्र में गया है, उसे लौटा
लाओ । तुम संसार में रहने
के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार में सुकार्यों को करते
हुए सानन्द रहो । मन को इधर–उधर भटकने मत दो ।
यत् ते मरीची:
प्रवत: मन: जगाम
दूरकम् ।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/6
हे प्रिय
बन्धु! तुम्हारा जो मन चारों तरफ विकीर्ण किरण–मंडल में पैठा हुआ है, उसे लौटा लाओ । तुम संसार
में रहने के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार में सुकार्यों को करते हुए सानन्द रहो । मन को इधर–उधर भटकने मत दो ।
यत् ते अपः यत् ओषधीः मनः
जगाम दूरकम्।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/7
तुम्हारा जो मन दूरस्थ जल के भीतर व वृक्ष लतादि के मध्य में गया है, उसे लौटा
लाओ । तुम संसार में रहने
के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार में सुकार्यों को करते
हुए सानन्द रहो । मन को इधर–उधर भटकने मत दो ।
यत् ते सूर्यम् यत् उषसम् मन: जगाम दूरकम् ।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/8
हे मानव!
तुम्हारा जो मन दूरवर्ती सूर्य व उषा के बीच गया है, उसे लौटा लाओ । तुम संसार में रहने के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार
में सुकार्यों को करते हुए सानन्द रहो । मन को इधर–उधर भटकने
मत दो ।
यत् ते पर्वतान् बृहत: मन: जगाम
दूरकम् ।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/9
हे बन्धु! तुम्हारा जो मन पर्वतमालाओं के ऊपर चला गया है, उसे लौटा
लाओ । तुम संसार में रहने
के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार में सुकार्यों को करते
हुए सानन्द रहो । मन को इधर–उधर भटकने
मत दो ।
यत् ते विश्वम् इदम् जगत् मन: जगाम दूरकम् ।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/10
तुम्हारा जो मन समस्त विश्व
में अतीव दूर चला गया है, उसे लौटा लाओ । तुम संसार
में रहने के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार में सुकार्यों को करते हुए सानन्द रहो । मन को इधर–उधर भटकने मत दो ।
यत् ते परा:
पराव्रतो मन: जगाम
दूरकम् ।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/11
तुम्हारा जो मन दूर से भी दूर, उससे
दूर, किसी दूर स्थान पर चला गया है, उसे लौटा लाओ । तुम संसार में रहने के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार
में सुकार्यों को करते हुए सानन्द रहो । मन इधर–उधर भटकने
मत दो ।
यत् ते भूतं
च भव्यं च मन: जगाम दूरकम् ।
तत् ते आ वर्तयामसि इह क्षयाय जीवसे । ।
ऋग्वेद 10/58/12
तुम्हारा जो मन भूत व भविष्यत् किसी दूर स्थान पर चला गया है, उसे लौटा लाओ । तुम संसार में रहने के लिए जी रहे हो । अर्थात् संसार
में सुकार्यों को करते हुए सानन्द रहो । मन को इधर–उधर भटकने
मत दो ।
जी, मैम आप ने सही कहांं वेद,पुराण,उपनिषद से ही मानव कल्याण संम्भव है। हमे
ReplyDeleteसंस्कृति भाषा को महत्व देना होगा। हमें वेदोंं की ओर लौटना होगा।