परमात्मा सर्वदर्शी, सर्वव्यापक, पूर्ण, सनातन, सर्वनियन्ता, सभी का पालक, जगत का धारक, सर्वसुखप्रदाता, इन्द्ररूपी परमेश्वर, सर्वोत्पादक, प्रजापति, अद्वितीय राजा, व्यापक, सर्वमहिमामण्डित, सर्वसमर्थ, सर्वजनक, परिपूर्ण, अनेक नाम वाला, महायश, सर्वथा अपार, सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त, अनादि, स्वयं जायमान तथा परमपुरुष है ।
वह हमारा बन्धु है तथा त्रिगुणात्मिका प्रकृति से परे है । सभी प्राणियों में ईश्वर का निवास है । वह सर्वाधार, अद्वितीय तथा सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता है । वह सर्वप्राचीन तथा सब लोकों में व्याप्त है । परमात्मा का कोई लिंग नहीं है ।
सर्वदर्शी
य एक इत्तमुष्टुहिकृष्टीनांविचर्षणि: ।
पतिर्जज्ञे वृर्षक्रतु: । ।
ऋग्वेद 6/45/16
जो सर्वदर्शी और वर्षणशील हैं, जिन्होंने एक-एक मनुष्यों के अधिपतिपरूप से जन्म धारण किया है, उन्हीं परमात्मा की स्तुति करनी चाहिए ।
सर्वव्यापक
समेत विश्वे वचसा पति दिव एको विभूतिरतिथिजनानाम् ।
स पूर्व्यो नूतनर्माविवासत् तं वर्त्तनिरनु वावृत एकमित् पुरु । ।
अथर्ववेद 7/21/1
विश्व के सब लोगों! उस प्रकाशपति परमेश्वर के प्रति एक वाणी से एकत्रित हो जाओ । चूँकि वह एक ही सर्वव्यापक सब जनों का अतिथि बना हुआ है ।
वह पुराना इस नए संसार का सेवन कर रहा है, व्याप्त कर रहा है अर्थात् वह (परमात्मा) एकरस पुराण है और यह बदलता हुआ संसार नित्य नया होता रहता है किन्तु वह परमात्मा इसमें नित्य नए रूप में व्यापा हुआ है । अत: उसके प्रति जो मार्ग जाता है वह उस एक के प्रति ही है किन्तु नाना प्रकार से जाता है । अर्थात् वह एक ही है, वही उपास्य है ।
पूर्ण
पूर्णात् पूर्ण मुदच्यति पूर्णं पूर्णेन सिच्यते ।
उतो तदद्य विद्याम् यतस्तत् परिषिच्यते । ।
अथर्ववेदµ10/8/29
पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होता है और यह पूर्ण उस पूर्ण द्वारा सींचा भी जाता
है । अब हम उसको प्राप्त करें जिसके द्वारा यह (दूसरा पूर्ण) पूर्णतया सींचा जा रहा है ।
संसार की पृथक–पृथक वस्तुएँ बेशक अपूर्ण हैं, किन्तु यह सारा संसार मिला कर पूर्ण है । प्रभु ने एक बार इस पूर्ण जगत् को रच कर ही नहीं छोड़ दिया । वह इसे लगातार सींच भी रहा है ।
सनातन
सनातन मे नमाहुरुताद्य स्यात् पुनर्णव: ।
अहोरात्रे प्रजाये ते अन्धो अन्यस्य रूपयो: । ।
अथर्ववेद10/8/23
इस देव को सनातन, अनादिकालीन कहते हैं और तो भी यह आज प्रतिदिन फिर–फिर नया होता है । एक दूसरे के रूपों में, समान रूपों में ही ये दिन–रात सदा पैदा होता रहता है ।
सर्वनियन्ता
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु: । ।
अथर्ववेद9/10/28
विद्वान् लोग एक सत्ता वाले ब्रह्म को अनेक प्रकार से बुलाते हैं । जैसे अग्नि, मित्र, इन्द्र, वरुण आदि नामों से बुलाते हैं । वह प्रकाशमान, सुन्दर, पालक, सामर्थ्यवान, स्तुतिवाला है । वह नियन्ता और सर्वव्यापक परमात्मा है ।
सभी का पालक
त्वमग्ने व्रतपा असि देव आ मर्त्येष्वा ।
त्वं यज्ञेष्वीडय:। ।
ऋग्वेद– 8/11/1
हे परमेश्वर! तुम सभी के पालक हो, देव हो और रक्षक हो । तू हम मनुष्यों में समाया हुआ है, तू यज्ञों में पूजनीय है । अर्थात् हे परमपिता! तुम सभी के पालक हो, रक्षक हो, तुम्हारी सृष्टि के नियम अटल हैं, तू सर्वव्यापी है ।
जगत का धारक
ये ते पवित्रमूर्मयो अभिक्षरन्ति धारया ।
तेभिर्न: सोममृळय । ।
ऋग्वेद 9/61/5
हे परमेश्वर! ये जो तेरी तरंगें जगत को धारण करने वाली तेरी जगत्–व्यापक ज्ञानधारा द्वारा मनुष्य के पवित्र हुए अन्त:करण में प्रकट होती हैं, उठती हैंय उन तरंगों से हमें आनन्दित कर दो ।
सर्वसुखप्रदाता
न ह्यन्यं बळाकरं मर्डितारं शतक्रतो
त्वं न इन्द्र मृळय । ।
ऋग्वेद 8/69/1
हे शतक्रतो! हे परमेश्वर! हम तुझसे अन्य किसी सुखप्रदाता को नहीं जानते । अत: हे परमेश्वर तू हमें सुखी कर ।
इन्द्ररूपी परमेश्वर
त्वामिद्धि त्वायवोनुनोनुवतश्चरान् ।
सखाय इन्द्र कारव: । ।
ऋग्वेदµ8/82/33
हे इन्द्ररूपी परमेश्वर! तेरी अभिलाषा करते हुए, तेरी सक्रिय स्तुति करने वाले हम भक्त साथी लोग एक के बाद एक तेरी बहुत और बार–बार स्तुति करते हुए केवल तेरी ही सेवा करें, तुझमें ही समर्पित हों ।
प्रजापति
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्यदेवा: ।
यस्यच्छायामृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/2
जिन प्रजापति ने जीवात्मा को दिया है, बल दिया है, जिनकी आज्ञा सारे देवता मानते हैं, जिनकी छाया अमृत रूपिणी है और जिनके वश में मृत्यु है । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करूँ ।
अद्वितीय राजा
य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/3
जो अपनी महिमा से दर्शनेन्द्रिय और गतिशक्ति वाले जीवों के अद्वि तीय राजा हुए हैं और जो इन द्विपदों और चतुष्पदों के प्रभु हैं । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
परमात्मा
यस्ये मे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसयासहाहु: ।
यस्येमा: प्रदिशोयस्यबाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/4
जिसकी महिमा से ये सब हिमाच्छन्न पर्वत उत्पन्न हुए हैं, जिसकी सृष्टि यह ससागरा धरित्री कही जाती है और जिसकी भुजाएँ ये सारी दिशाएँ हैं । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करूँ ।
सर्वोत्पादक
येन द्यौरूग्रा पृथिवीचदृणायेनस्व: स्तभितं येननाक: ।
यो अन्तरिक्षेरजसोविमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/5
जिसने इस उन्नत आकाश और पृथिवी को अपने–अपने स्थानों पर दृढ़ रूप से स्थापित किया है, जिसने स्वर्ग और आदित्य को रोक रखा है और जो अन्तरिक्ष में जल के निर्माता हैं । उस सर्वोत्पादक परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
व्यापक
यं क्रन्दसी अवसातस्तभाने इति अभ्यै क्षेतां मनसारे जमाने ।
यत्राधि सूर उदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/6
जिनके द्वारा द्यौ और पृथिवी शब्दायमान होकर, स्तम्भित और उल्लसित हुए थे और दीप्तिशील द्यौ और पृथिवी ने जिन्हें महिमान्वित समझा था तथा जिसके आश्रय से सूर्य उदित हैं और प्रकाश करते हैं । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करूँ ।
आपोह यत् बृहती: विश्वम् आयन् गर्भम् दधाना: ।
जनयन्ती: अग्निम् तत: देवानाम् सम् अवर्तत ।
असु: एक: कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/7
प्रचुर जल सारे भुवन को आच्छन्न किए हुए था । जल ने गर्भ धारण करके अग्नि व आकाश आदि सबको उत्पन्न किया । इससे देवों के प्राणवायु उत्पन्न हुए । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
सर्वमहिमामण्डित
य: चित् आप: महिना परिऽअपश्यत् दक्षम् दधाना: ।
जनयन्ती: यज्ञम् य: देवेषु अधि देव: एक: आसीत् ।
कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/8
बल धारण करके जिस समय जल में अग्नि को उत्पन्न किया, उस समय जिन्होंने अपनी महिमा से उस जल के चारों ओर निरीक्षण किया तथा जो देवों में अद्वितीय देवता हुए । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
सर्वसमर्थ
यो भूतानामधिपतिर्यार्स्मिंल्लोकाऽधि श्रिता: ।
यईशे महतो महाँस्तेन गृह्णामि त्वामहं मयि गृह्णामि त्वामहम् । ।
यजुर्वेदµ20/32
जो परमात्मा सभी चराचर जगत का स्वामी है और जिसमें यह सब लोक–लोकान्तर समाहित हैं । जो महानों से भी महान और सामर्थ्यवान है, उसी परमात्मा के अनुशासन द्वारा परमब्रह्मस्वरूप मैं तुझे ग्रहण करता हूँ ।
सर्वजनक
मानोहिंसीज्जनिताय: पृथिव्यायोवादिवं सत्यधर्माजजान ।
यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ।
ऋग्वेदµ10/121/9
जो पृथिवी के अन्नदाता हैं, जिनकी धारण क्षमता सत्य है, जिन्होंने आकाश को जन्म दिया, और जिन्होंने आनन्दवर्द्धक तथा प्रचुर परिमाण में जल उत्पन्न किया, वे हमें नहीं मारें । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
परिपूर्ण
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ।
तमेव विदित्वाऽति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय । ।
यजुर्वेदµ31/18
मैं अज्ञान, अन्धकार से परे इस बड़े महान व्यापक परिपूर्ण पुरुष को, आदित्य जैसे स्वयं प्रकाश वाले पुरुष को जानता हूँ, देख रहा हूँ । उसको ही जानकर मनुष्य मृत्यु का अतिक्रमण करता है । अभीष्ट स्थान तक पहुँचने के लिए, परमपद पाने के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है ।
सभी कुछ परमात्मा से व्यक्त है
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् । ।
यजुर्वेदµ40/1
इस संसार में जो कुछ भी सृष्टि है, वह यह सामने दिखने वाला सभी कुछ परमात्मा से व्याप्त है । अत: उस ईश्वर द्वारा त्याग किए हुए (दिए हुए) धनादि समस्त भोगों का भोग कर, किसी दूसरे के धन की लालच कभी मत कर ।
वह अनेक नाम वाला है
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा: ।
तदेवशुक्रं तत् ब्रह्म ता आप: स प्रजापति: । ।
यजुर्वेद 32/1
वह परमात्मा पुरुष ही अग्नि है, वही आदित्य है, वही वायु है, वही चन्द्रमा है, वही वीर्य है, वही शब्द ब्रह्म है । वही आप: है और वही प्रजापति है ।
सर्वथा अपार
सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युत: पुरुषादधि ।
नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्चं न मध्ये परिजग्रभत् । ।
यजुर्वेदµ32/2
उस विद्योतमान पुरुष से ही सब काल–अवयव–निमेष–वर्षादि उत्पन्न हुए हैं । इस परम पुरुष को किसी ने आज तक ऊर्ध्व, मध्य या तिर्यक चल कर नहीं पकड़ा है । वह सर्वथा अपार है ।
महायश
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यश: ।
हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हिं सीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येष: । ।
यजुर्वेद 32/3
उस परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं है । उसका सूर्यादि कोई उपमान भी नहीं है । जिस परमात्मा का नाम महायश है, वह हिरण्यागर्भ है, वह हमें मारे
नहीं । जिससे बढ़ कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, यह आदिमन्त्र उस ब्रह्म का ही प्रतिपादक है ।
सर्वव्यापी
सिन्धो गर्भोऽसि विद्युतां पुष्पम् ।
वात प्राण: सूर्यश्चक्षुर्दिवस्पय: । ।
अथर्ववेद 19/44/5
हे परमात्मन्! तू समुद्र का गर्भ है और प्रकाशवालों का पुष्प है । पवन तेरा प्राण है, सूर्य तेरा नेत्र है और आकाश तेरा अन्न है । अर्थात् परमात्मा सर्वव्यापी
है ।
सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त
एषो ह देव: प्रदिशोऽनु सर्वा: पूर्वो ह जात:
स उ गर्भे अन्त: ।
स एव जात: स जनिष्यमाण:
प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुख: । ।
यजुर्वेद 32/4
वह परमात्मदेव सम्पूर्ण दिशाओं को व्याप्त करके स्थित है । वही सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ है । वही गर्भ के अन्दर विद्यमान है । वही उत्पन्न होने वाला सर्व–प्रपंच है । हे मनुष्! वह परमात्मा सबमें व्याप्त हो कर स्थित होता
है । वह सर्वत्र ही मुखादि अवयवों वाला है ।
अनादि
यस्माज्जातं न पुरा किं च नैव य
आबभूव भुवनानि विश्वा ।
प्रजापति: प्रजया सं रराणस्त्रीणि
ज्योतींषि सचते स षोडशी । ।
यजुर्वेद 32/5
उस परमात्मा से पूर्व कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ था । जो स्वयं सर्वभूतमय हो रहा है । वह प्रजापति परमात्मा अपनी जीवप्रजा के साथ सम्यक् रूप से अग्नि, वायु, आदित्य तीन ज्योतियों को बनाता और उनमें व्याप्त होता है । वह परमात्मा ही षोडश अवयव वाला षोडशी है ।
सबमें ओतप्रोत है
वे नस्तत्पश्यन्निहितं गुह्य
सद्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् ।
तस्मिन्निदंसं च वि चैति सर्वं
स ओत: प्रोतश्च विभू: प्रजासु । ।
यजुर्वेद 32/8
विद्वान् पुरुष उस परमात्मा को अपनी बुद्धि में ही प्रतिष्ठित देखता है । उसी परमात्मा में यह सर्व सत्यप्रपंच संकुचित होकर समा जाता है । उस परमात्मपुरुष में यह चराचर जगत गतिशील है । वह सबमें ओतप्रोत है । प्रजाओं में वह व्याप्त है ।
वह हमारा बन्धु है
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवननि विश्वा ।
यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरन्त । ।
यजुर्वेद 32/10
वह परमात्मा हमारा बन्धु है । वह हमें उत्पन्न करने वाला है । वह हमें बनाने वाला है । वह समस्त तेजों और लोकों को बनाने वाला हे । इस परमात्मा में ही देवता अमृत का भोग करते हुए तृतीय स्वर्ग में स्वेच्छा से विहार करते हैं ।
वह एक है
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्शत् ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपोमातरिश्वा दधाति । ।
यजुर्वेद 40/4
वह परमात्मा कम्पन या गति करने वाला नहीं है । वह एक है, वह मन से भी अधिक वेग वाला है । उस वेग को देवता भी नहीं पा सकते हैं । वह पहले से ही सर्वत्र व्याप्त है । दौड़ते हुए अन्य लोगों को वह लाँघ जाता है । उस परब्रह्म में ही स्थित होकर यह पवन आप (जलों) को धारण करता है ।
अत्यन्त निकट है
तदेजति तत्रैजति तद्दूरे तद्वन्तिके ।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत: । ।
यजुर्वेद 40/5
जीवरूप वह परमात्मा गमन करता है और स्थावर रूप वह कभी गतिशील नहीं है । (चराचर रूप वही है ।) अज्ञानी के लिए वह दूर है, परन्तु ज्ञानी के लिए वही अत्यन्त निकट है । (हृदय के अन्दर स्थित है ।) वह सबके अन्दर है । वह इस सारे प्रपंच के बाहर भी है (इसके विकारों से परे है ।)
वह सन्देहरहित है
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विचिकित्सति । ।
यजुर्वेद 40/6
जो विद्वान सब भूतों को उस परमात्मा में ही स्थित देखता है और सब भूतों में अवस्थित उस परमात्मा को जानता है । तब किसी विषय में वह कभी कोई सन्देह नहीं करता है । (उसके सभी कार्य निर्भ्रान्त और उचित ही होते हैं ।)
सभी प्राणियों में ईश्वर का निवास
यस्मिनसर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत: ।
तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत: । ।
यजुर्वेद 40/7
जिस अवस्था में पहुँचकर योगी सभी प्राणियों को ईश्वर का स्वरूप ही जानता है । तब उस अवस्था में एकत्व को देखने वाले को क्या मोह है और क्या शोक है ? अर्थात् कुछ भी शोक–मोह शेष नहीं रह जाता है ।
स्वयं जायमान
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्न्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभूर्याथातथ्यतोऽर्थान्
व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य: । ।
यजुर्वेद 40/8
वह परमात्मा सर्वत्र व्यापक है । वह वीर्यरूप, अकाय, अव्रण, स्नायुओं के बन्धन से परे, शुद्ध, पाप से न बँधा हुआ, कवि, मनीषी, परित: व्याप्त और स्वयं जायमान (होने वाला है) वही परमात्मा सदा–सर्वदा के लिए पूर्वकल्पनानुकूल ही पंचभूतादि को बनाता है ।
त्रिगुणात्मिका प्रकृति से परे
अन्धं तम: प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यां रता: । ।
यजुर्वेद 40/9
वह व्यक्ति प्रगाढ़ अन्धकार को प्राप्त होते हैं, जो असम्भूति (त्रिगुणात्मिका मूलप्रकृति) की उपासना करते हैं । उससे भी अधिक अन्धकार को वे प्राप्त होते हैं, जो सम्भूति (स्थूल प्रपन्च) की उपासना करते हैं । स्थूल जगत को ही परमार्थ समझते हैं ।
परमपुरुष
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
योऽसावादित्ये पुरुष: सोऽसावहम् । ।
यजुर्वेद 40/17
सुनहले पात्र के द्वारा सत्य (परमात्मा) का मुख (प्रवेश द्वार) ढका हुआ
है । वह जो आदित्य में परम पुरुष है, वही यह मैं (परमात्मन्) हूँ ।
सर्वाधार
महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये तपसि क्रान्तं सलिलस्य पृष्ठे ।
तस्मिञ्छ्रयन्ते य उ के च देवा
वृक्षस्य स्कन्ध: परित इव शाखा: । ।
अथर्ववेद का– 310/प्रपा– 23/अनु 4/म 38
ब्रह्म जो महत् अर्थात् सबसे बड़ा और सबका पूज्य है, जो सब लोकों के बीच में विराजमान और उपासना करने के योग्य है, जो विज्ञानादि गुणों में सबसे बड़ा है, सलिल जो अन्तरिक्ष अर्थात् आकाश है, उसका भी आधार और उसमें व्यापक तथा जगत् की प्रलय के पीछे भी नित्य निर्विकार रहने वाला है, जिसके आश्रय से वसु आदि पूर्वोक्त तैंतीस देवता ठहर रहे हैं । जैसे कि पृथिवी से वृक्ष का प्रथम अंकुर निकाल कर, वही स्थूल होकर सब डालियों का आधार होता है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड का आधार वही एक परमेश्वर है ।
अद्वितीय
न द्वितीयो न तृतीयोश्चतुर्थो नाप्युच्यते । ।
न पञ्चमो न षष्ठ: सप्तमो नाप्युच्यते । ।
नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते । ।
समिदं निगतं सह: स सब एकं एकवृदेक एव । ।
सर्वे अस्मिन् देवा एकवृतो भवन्ति । ।
अथर्ववेद का पद 13/अनु 4/मं– 16, 17, 18, 20, 21
इन सब मन्त्रों से यह निश्चय होता है कि परमेश्वर एक ही है, उससे भिन्न कोई न दूसरा, न तीसरा, न कोई चैथा परमेश्वर है ।
न पाँचवाँ, न छठा और न कोई सातवाँ ईश्वर है । न आठवाँ, न नवाँ और न काई दशमा ईश्वर है ।
किन्तु वह सदा एक अद्वितीय ही है । उससे भिन्न दूसरा ईश्वर कोई भी नहीं है ।
इन मन्त्रों में जो दो से लेकर दश पर्यन्त अन्य ईश्वर होने का निषेध किया है, सो उस अभिप्राय से है कि सब संख्या का मूल एक (1) अंक है । इसी को दो, तीन, चार, पाँच, छ:, सात, आठ और नौ बार गिनने से 2/3/4/5/6/7/8 और 9 अंक बनते हैं और एक पर शून्य देने से 10 का अंक होता है । उनसे एक ईश्वर का निश्चय कराके वेदों में दूसरे ईश्वर के होने का सर्वथा निषेध ही लिखा है अर्थात् उसके एकपने से भी भेद नहीं और वह शून्य भी नहींय किन्तु जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त एकरस परमात्मा है, वही सदा से सब जगत में परिपूर्ण होकर पृथिवी आदि सब लोकों को रचकर अपने सामर्थ्य से धारण कर रहा है । वह अपने काम में किसी की सहायता नहीं लेता है क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है ।
उसी परमात्मा के सामर्थ्य में वसु आदि सब देव अर्थात् पृथिवी आदि लोक ठहर रहे हैं और प्रलय में भी उसके सामर्थ्य में लय होकर उसी में बने रहते हैं ।
सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता
परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वा: प्रदिशो दिशश्च ।
उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभि सं विवेश । ।
यजुर्वेद अ– 32/म–/1
जो परमेश्वर आकाशादि सब भूतों में तथा सूर्यादि सब लोकों में व्याप्त हो रहा हैय इसी प्रकार जो पूर्वादि सब दिशा और आग्नेयादि उपदिशाओं में भी निरन्तर भरपूर हो रहा है, अर्थात् जिसकी व्यापकता से एक अणु भी खाली नहीं है, जो अपने सामर्थ्य का आत्मा है और जो कल्पादि में सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला हैय उस आनन्दस्वरूप परमेश्वर को जो जीवात्मा अपने सामर्थ्य अर्थात् मन से यथावत् जानता है, वही उसको प्राप्त होकर सदा मोक्षसुख को भोगता है ।
सर्वप्राचीन
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रेभूतस्यजात: पतिरेक आसीत् ।
सदाधारपृथिवींद्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद 10/121/1
सबसे पहले केवल परमात्मा व हिरण्यगर्भ थे । वे सारे प्राणियों के अद्वितीय अधीश्वर थे । उन्होंने इस पृथिवी और आकाश को अपने–अपने स्थानों में स्थापित किया । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
सब लोकों में व्याप्त
यस्य भूमि: प्रमान्तरिक्षमुतोदरम् ।
दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम: । ।
अथर्ववेद10/7/32
जिस परमेश्वर की भूमि पादमूल के समान है । जिसने सूर्य को मस्तिष्क के समान रचा । उस ज्येष्ठ, सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म को नमस्कार है । अर्थात् जो परमात्मा जगत् के सब लोकों में व्याप्त है, उसको हम नमन करते हैं ।
परमात्मा का कोई लिंग नहीं है
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ।
त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुख: । ।
अथर्ववेद 10/8/27
हे जीवात्मा! तू स्त्री भी है, पुरुष भी है । तू कुमार भी है, कुमारी भी है । तू स्तुति किया गया हो कर दमन सामर्थ्य से चलता है । तू सब ओर मुखवाला हो कर प्रसिद्ध होता है ।
अर्थात् जैसे परमात्मा में कोई लिंग विशेष नहीं है, वैसे ही जीवात्मा का कोई लिंग नहीं है । वह शरीर के सम्बन्ध से स्त्री, पुरुष, लड़का, लड़की आदि होता है ।
परमात्मा का नाम इन्द्र भी है
यस्याश्वास: प्रदिशि यस्य गाव यस्य आभा यस्य विश्वे रयास: ।
य: सूर्यं य उषसं जजान यो अपां नेता स जनास इन्द्र: । ।
अथर्ववेद 20/34/7
जिसकी आज्ञा से घोड़े, गाय, बैल आदि पशु, गाँव, पूरा विश्व और रथ आदि विहार करने वाले पदार्थ हैं । जिसने सूर्य को प्रभातवेला में उत्पन्न किया है । जो जलों का नेता है । उस परमेश्वर को इन्द्र नाम से भी जानो ।
एकेश्वरवाद की अवधारणा से स्पष्ट होता है कि परमात्मा एक है । इस अवधारणा का समाज में परिपुष्ट होना अति आवश्यक है । धर्म व सम्प्रदायों को ले कर हो रहे आपसी वैमनस्य का कोई अर्थ नहीं है । परमात्मा की सर्वव्यापकता हमें सदा सत्कार्यों की ओर प्रवृत्त करती है ।
वह हमारा बन्धु है तथा त्रिगुणात्मिका प्रकृति से परे है । सभी प्राणियों में ईश्वर का निवास है । वह सर्वाधार, अद्वितीय तथा सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता है । वह सर्वप्राचीन तथा सब लोकों में व्याप्त है । परमात्मा का कोई लिंग नहीं है ।
सर्वदर्शी
य एक इत्तमुष्टुहिकृष्टीनांविचर्षणि: ।
पतिर्जज्ञे वृर्षक्रतु: । ।
ऋग्वेद 6/45/16
जो सर्वदर्शी और वर्षणशील हैं, जिन्होंने एक-एक मनुष्यों के अधिपतिपरूप से जन्म धारण किया है, उन्हीं परमात्मा की स्तुति करनी चाहिए ।
सर्वव्यापक
समेत विश्वे वचसा पति दिव एको विभूतिरतिथिजनानाम् ।
स पूर्व्यो नूतनर्माविवासत् तं वर्त्तनिरनु वावृत एकमित् पुरु । ।
अथर्ववेद 7/21/1
विश्व के सब लोगों! उस प्रकाशपति परमेश्वर के प्रति एक वाणी से एकत्रित हो जाओ । चूँकि वह एक ही सर्वव्यापक सब जनों का अतिथि बना हुआ है ।
वह पुराना इस नए संसार का सेवन कर रहा है, व्याप्त कर रहा है अर्थात् वह (परमात्मा) एकरस पुराण है और यह बदलता हुआ संसार नित्य नया होता रहता है किन्तु वह परमात्मा इसमें नित्य नए रूप में व्यापा हुआ है । अत: उसके प्रति जो मार्ग जाता है वह उस एक के प्रति ही है किन्तु नाना प्रकार से जाता है । अर्थात् वह एक ही है, वही उपास्य है ।
पूर्ण
पूर्णात् पूर्ण मुदच्यति पूर्णं पूर्णेन सिच्यते ।
उतो तदद्य विद्याम् यतस्तत् परिषिच्यते । ।
अथर्ववेदµ10/8/29
पूर्ण से पूर्ण उत्पन्न होता है और यह पूर्ण उस पूर्ण द्वारा सींचा भी जाता
है । अब हम उसको प्राप्त करें जिसके द्वारा यह (दूसरा पूर्ण) पूर्णतया सींचा जा रहा है ।
संसार की पृथक–पृथक वस्तुएँ बेशक अपूर्ण हैं, किन्तु यह सारा संसार मिला कर पूर्ण है । प्रभु ने एक बार इस पूर्ण जगत् को रच कर ही नहीं छोड़ दिया । वह इसे लगातार सींच भी रहा है ।
सनातन
सनातन मे नमाहुरुताद्य स्यात् पुनर्णव: ।
अहोरात्रे प्रजाये ते अन्धो अन्यस्य रूपयो: । ।
अथर्ववेद10/8/23
इस देव को सनातन, अनादिकालीन कहते हैं और तो भी यह आज प्रतिदिन फिर–फिर नया होता है । एक दूसरे के रूपों में, समान रूपों में ही ये दिन–रात सदा पैदा होता रहता है ।
सर्वनियन्ता
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु: । ।
अथर्ववेद9/10/28
विद्वान् लोग एक सत्ता वाले ब्रह्म को अनेक प्रकार से बुलाते हैं । जैसे अग्नि, मित्र, इन्द्र, वरुण आदि नामों से बुलाते हैं । वह प्रकाशमान, सुन्दर, पालक, सामर्थ्यवान, स्तुतिवाला है । वह नियन्ता और सर्वव्यापक परमात्मा है ।
सभी का पालक
त्वमग्ने व्रतपा असि देव आ मर्त्येष्वा ।
त्वं यज्ञेष्वीडय:। ।
ऋग्वेद– 8/11/1
हे परमेश्वर! तुम सभी के पालक हो, देव हो और रक्षक हो । तू हम मनुष्यों में समाया हुआ है, तू यज्ञों में पूजनीय है । अर्थात् हे परमपिता! तुम सभी के पालक हो, रक्षक हो, तुम्हारी सृष्टि के नियम अटल हैं, तू सर्वव्यापी है ।
जगत का धारक
ये ते पवित्रमूर्मयो अभिक्षरन्ति धारया ।
तेभिर्न: सोममृळय । ।
ऋग्वेद 9/61/5
हे परमेश्वर! ये जो तेरी तरंगें जगत को धारण करने वाली तेरी जगत्–व्यापक ज्ञानधारा द्वारा मनुष्य के पवित्र हुए अन्त:करण में प्रकट होती हैं, उठती हैंय उन तरंगों से हमें आनन्दित कर दो ।
सर्वसुखप्रदाता
न ह्यन्यं बळाकरं मर्डितारं शतक्रतो
त्वं न इन्द्र मृळय । ।
ऋग्वेद 8/69/1
हे शतक्रतो! हे परमेश्वर! हम तुझसे अन्य किसी सुखप्रदाता को नहीं जानते । अत: हे परमेश्वर तू हमें सुखी कर ।
इन्द्ररूपी परमेश्वर
त्वामिद्धि त्वायवोनुनोनुवतश्चरान् ।
सखाय इन्द्र कारव: । ।
ऋग्वेदµ8/82/33
हे इन्द्ररूपी परमेश्वर! तेरी अभिलाषा करते हुए, तेरी सक्रिय स्तुति करने वाले हम भक्त साथी लोग एक के बाद एक तेरी बहुत और बार–बार स्तुति करते हुए केवल तेरी ही सेवा करें, तुझमें ही समर्पित हों ।
प्रजापति
य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्यदेवा: ।
यस्यच्छायामृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/2
जिन प्रजापति ने जीवात्मा को दिया है, बल दिया है, जिनकी आज्ञा सारे देवता मानते हैं, जिनकी छाया अमृत रूपिणी है और जिनके वश में मृत्यु है । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करूँ ।
अद्वितीय राजा
य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव ।
य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/3
जो अपनी महिमा से दर्शनेन्द्रिय और गतिशक्ति वाले जीवों के अद्वि तीय राजा हुए हैं और जो इन द्विपदों और चतुष्पदों के प्रभु हैं । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
परमात्मा
यस्ये मे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसयासहाहु: ।
यस्येमा: प्रदिशोयस्यबाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/4
जिसकी महिमा से ये सब हिमाच्छन्न पर्वत उत्पन्न हुए हैं, जिसकी सृष्टि यह ससागरा धरित्री कही जाती है और जिसकी भुजाएँ ये सारी दिशाएँ हैं । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करूँ ।
सर्वोत्पादक
येन द्यौरूग्रा पृथिवीचदृणायेनस्व: स्तभितं येननाक: ।
यो अन्तरिक्षेरजसोविमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/5
जिसने इस उन्नत आकाश और पृथिवी को अपने–अपने स्थानों पर दृढ़ रूप से स्थापित किया है, जिसने स्वर्ग और आदित्य को रोक रखा है और जो अन्तरिक्ष में जल के निर्माता हैं । उस सर्वोत्पादक परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
व्यापक
यं क्रन्दसी अवसातस्तभाने इति अभ्यै क्षेतां मनसारे जमाने ।
यत्राधि सूर उदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/6
जिनके द्वारा द्यौ और पृथिवी शब्दायमान होकर, स्तम्भित और उल्लसित हुए थे और दीप्तिशील द्यौ और पृथिवी ने जिन्हें महिमान्वित समझा था तथा जिसके आश्रय से सूर्य उदित हैं और प्रकाश करते हैं । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करूँ ।
आपोह यत् बृहती: विश्वम् आयन् गर्भम् दधाना: ।
जनयन्ती: अग्निम् तत: देवानाम् सम् अवर्तत ।
असु: एक: कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/7
प्रचुर जल सारे भुवन को आच्छन्न किए हुए था । जल ने गर्भ धारण करके अग्नि व आकाश आदि सबको उत्पन्न किया । इससे देवों के प्राणवायु उत्पन्न हुए । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
सर्वमहिमामण्डित
य: चित् आप: महिना परिऽअपश्यत् दक्षम् दधाना: ।
जनयन्ती: यज्ञम् य: देवेषु अधि देव: एक: आसीत् ।
कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद10/121/8
बल धारण करके जिस समय जल में अग्नि को उत्पन्न किया, उस समय जिन्होंने अपनी महिमा से उस जल के चारों ओर निरीक्षण किया तथा जो देवों में अद्वितीय देवता हुए । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
सर्वसमर्थ
यो भूतानामधिपतिर्यार्स्मिंल्लोकाऽधि श्रिता: ।
यईशे महतो महाँस्तेन गृह्णामि त्वामहं मयि गृह्णामि त्वामहम् । ।
यजुर्वेदµ20/32
जो परमात्मा सभी चराचर जगत का स्वामी है और जिसमें यह सब लोक–लोकान्तर समाहित हैं । जो महानों से भी महान और सामर्थ्यवान है, उसी परमात्मा के अनुशासन द्वारा परमब्रह्मस्वरूप मैं तुझे ग्रहण करता हूँ ।
सर्वजनक
मानोहिंसीज्जनिताय: पृथिव्यायोवादिवं सत्यधर्माजजान ।
यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ।
ऋग्वेदµ10/121/9
जो पृथिवी के अन्नदाता हैं, जिनकी धारण क्षमता सत्य है, जिन्होंने आकाश को जन्म दिया, और जिन्होंने आनन्दवर्द्धक तथा प्रचुर परिमाण में जल उत्पन्न किया, वे हमें नहीं मारें । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
परिपूर्ण
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात् ।
तमेव विदित्वाऽति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय । ।
यजुर्वेदµ31/18
मैं अज्ञान, अन्धकार से परे इस बड़े महान व्यापक परिपूर्ण पुरुष को, आदित्य जैसे स्वयं प्रकाश वाले पुरुष को जानता हूँ, देख रहा हूँ । उसको ही जानकर मनुष्य मृत्यु का अतिक्रमण करता है । अभीष्ट स्थान तक पहुँचने के लिए, परमपद पाने के लिए अन्य कोई मार्ग नहीं है ।
सभी कुछ परमात्मा से व्यक्त है
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम् । ।
यजुर्वेदµ40/1
इस संसार में जो कुछ भी सृष्टि है, वह यह सामने दिखने वाला सभी कुछ परमात्मा से व्याप्त है । अत: उस ईश्वर द्वारा त्याग किए हुए (दिए हुए) धनादि समस्त भोगों का भोग कर, किसी दूसरे के धन की लालच कभी मत कर ।
वह अनेक नाम वाला है
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा: ।
तदेवशुक्रं तत् ब्रह्म ता आप: स प्रजापति: । ।
यजुर्वेद 32/1
वह परमात्मा पुरुष ही अग्नि है, वही आदित्य है, वही वायु है, वही चन्द्रमा है, वही वीर्य है, वही शब्द ब्रह्म है । वही आप: है और वही प्रजापति है ।
सर्वथा अपार
सर्वे निमेषा जज्ञिरे विद्युत: पुरुषादधि ।
नैनमूर्ध्वं न तिर्यञ्चं न मध्ये परिजग्रभत् । ।
यजुर्वेदµ32/2
उस विद्योतमान पुरुष से ही सब काल–अवयव–निमेष–वर्षादि उत्पन्न हुए हैं । इस परम पुरुष को किसी ने आज तक ऊर्ध्व, मध्य या तिर्यक चल कर नहीं पकड़ा है । वह सर्वथा अपार है ।
महायश
न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महद्यश: ।
हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हिं सीदित्येषा यस्मान्न जात इत्येष: । ।
यजुर्वेद 32/3
उस परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं है । उसका सूर्यादि कोई उपमान भी नहीं है । जिस परमात्मा का नाम महायश है, वह हिरण्यागर्भ है, वह हमें मारे
नहीं । जिससे बढ़ कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ, यह आदिमन्त्र उस ब्रह्म का ही प्रतिपादक है ।
सर्वव्यापी
सिन्धो गर्भोऽसि विद्युतां पुष्पम् ।
वात प्राण: सूर्यश्चक्षुर्दिवस्पय: । ।
अथर्ववेद 19/44/5
हे परमात्मन्! तू समुद्र का गर्भ है और प्रकाशवालों का पुष्प है । पवन तेरा प्राण है, सूर्य तेरा नेत्र है और आकाश तेरा अन्न है । अर्थात् परमात्मा सर्वव्यापी
है ।
सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त
एषो ह देव: प्रदिशोऽनु सर्वा: पूर्वो ह जात:
स उ गर्भे अन्त: ।
स एव जात: स जनिष्यमाण:
प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुख: । ।
यजुर्वेद 32/4
वह परमात्मदेव सम्पूर्ण दिशाओं को व्याप्त करके स्थित है । वही सर्वप्रथम उत्पन्न हुआ है । वही गर्भ के अन्दर विद्यमान है । वही उत्पन्न होने वाला सर्व–प्रपंच है । हे मनुष्! वह परमात्मा सबमें व्याप्त हो कर स्थित होता
है । वह सर्वत्र ही मुखादि अवयवों वाला है ।
अनादि
यस्माज्जातं न पुरा किं च नैव य
आबभूव भुवनानि विश्वा ।
प्रजापति: प्रजया सं रराणस्त्रीणि
ज्योतींषि सचते स षोडशी । ।
यजुर्वेद 32/5
उस परमात्मा से पूर्व कुछ भी उत्पन्न नहीं हुआ था । जो स्वयं सर्वभूतमय हो रहा है । वह प्रजापति परमात्मा अपनी जीवप्रजा के साथ सम्यक् रूप से अग्नि, वायु, आदित्य तीन ज्योतियों को बनाता और उनमें व्याप्त होता है । वह परमात्मा ही षोडश अवयव वाला षोडशी है ।
सबमें ओतप्रोत है
वे नस्तत्पश्यन्निहितं गुह्य
सद्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम् ।
तस्मिन्निदंसं च वि चैति सर्वं
स ओत: प्रोतश्च विभू: प्रजासु । ।
यजुर्वेद 32/8
विद्वान् पुरुष उस परमात्मा को अपनी बुद्धि में ही प्रतिष्ठित देखता है । उसी परमात्मा में यह सर्व सत्यप्रपंच संकुचित होकर समा जाता है । उस परमात्मपुरुष में यह चराचर जगत गतिशील है । वह सबमें ओतप्रोत है । प्रजाओं में वह व्याप्त है ।
वह हमारा बन्धु है
स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवननि विश्वा ।
यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरन्त । ।
यजुर्वेद 32/10
वह परमात्मा हमारा बन्धु है । वह हमें उत्पन्न करने वाला है । वह हमें बनाने वाला है । वह समस्त तेजों और लोकों को बनाने वाला हे । इस परमात्मा में ही देवता अमृत का भोग करते हुए तृतीय स्वर्ग में स्वेच्छा से विहार करते हैं ।
वह एक है
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्शत् ।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपोमातरिश्वा दधाति । ।
यजुर्वेद 40/4
वह परमात्मा कम्पन या गति करने वाला नहीं है । वह एक है, वह मन से भी अधिक वेग वाला है । उस वेग को देवता भी नहीं पा सकते हैं । वह पहले से ही सर्वत्र व्याप्त है । दौड़ते हुए अन्य लोगों को वह लाँघ जाता है । उस परब्रह्म में ही स्थित होकर यह पवन आप (जलों) को धारण करता है ।
अत्यन्त निकट है
तदेजति तत्रैजति तद्दूरे तद्वन्तिके ।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत: । ।
यजुर्वेद 40/5
जीवरूप वह परमात्मा गमन करता है और स्थावर रूप वह कभी गतिशील नहीं है । (चराचर रूप वही है ।) अज्ञानी के लिए वह दूर है, परन्तु ज्ञानी के लिए वही अत्यन्त निकट है । (हृदय के अन्दर स्थित है ।) वह सबके अन्दर है । वह इस सारे प्रपंच के बाहर भी है (इसके विकारों से परे है ।)
वह सन्देहरहित है
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति ।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विचिकित्सति । ।
यजुर्वेद 40/6
जो विद्वान सब भूतों को उस परमात्मा में ही स्थित देखता है और सब भूतों में अवस्थित उस परमात्मा को जानता है । तब किसी विषय में वह कभी कोई सन्देह नहीं करता है । (उसके सभी कार्य निर्भ्रान्त और उचित ही होते हैं ।)
सभी प्राणियों में ईश्वर का निवास
यस्मिनसर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत: ।
तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत: । ।
यजुर्वेद 40/7
जिस अवस्था में पहुँचकर योगी सभी प्राणियों को ईश्वर का स्वरूप ही जानता है । तब उस अवस्था में एकत्व को देखने वाले को क्या मोह है और क्या शोक है ? अर्थात् कुछ भी शोक–मोह शेष नहीं रह जाता है ।
स्वयं जायमान
स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्न्नाविरं शुद्धमपापविद्धम् ।
कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभूर्याथातथ्यतोऽर्थान्
व्यदधाच्छाश्वतीभ्य: समाभ्य: । ।
यजुर्वेद 40/8
वह परमात्मा सर्वत्र व्यापक है । वह वीर्यरूप, अकाय, अव्रण, स्नायुओं के बन्धन से परे, शुद्ध, पाप से न बँधा हुआ, कवि, मनीषी, परित: व्याप्त और स्वयं जायमान (होने वाला है) वही परमात्मा सदा–सर्वदा के लिए पूर्वकल्पनानुकूल ही पंचभूतादि को बनाता है ।
त्रिगुणात्मिका प्रकृति से परे
अन्धं तम: प्रविशन्ति येऽसंभूतिमुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यां रता: । ।
यजुर्वेद 40/9
वह व्यक्ति प्रगाढ़ अन्धकार को प्राप्त होते हैं, जो असम्भूति (त्रिगुणात्मिका मूलप्रकृति) की उपासना करते हैं । उससे भी अधिक अन्धकार को वे प्राप्त होते हैं, जो सम्भूति (स्थूल प्रपन्च) की उपासना करते हैं । स्थूल जगत को ही परमार्थ समझते हैं ।
परमपुरुष
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
योऽसावादित्ये पुरुष: सोऽसावहम् । ।
यजुर्वेद 40/17
सुनहले पात्र के द्वारा सत्य (परमात्मा) का मुख (प्रवेश द्वार) ढका हुआ
है । वह जो आदित्य में परम पुरुष है, वही यह मैं (परमात्मन्) हूँ ।
सर्वाधार
महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये तपसि क्रान्तं सलिलस्य पृष्ठे ।
तस्मिञ्छ्रयन्ते य उ के च देवा
वृक्षस्य स्कन्ध: परित इव शाखा: । ।
अथर्ववेद का– 310/प्रपा– 23/अनु 4/म 38
ब्रह्म जो महत् अर्थात् सबसे बड़ा और सबका पूज्य है, जो सब लोकों के बीच में विराजमान और उपासना करने के योग्य है, जो विज्ञानादि गुणों में सबसे बड़ा है, सलिल जो अन्तरिक्ष अर्थात् आकाश है, उसका भी आधार और उसमें व्यापक तथा जगत् की प्रलय के पीछे भी नित्य निर्विकार रहने वाला है, जिसके आश्रय से वसु आदि पूर्वोक्त तैंतीस देवता ठहर रहे हैं । जैसे कि पृथिवी से वृक्ष का प्रथम अंकुर निकाल कर, वही स्थूल होकर सब डालियों का आधार होता है, उसी प्रकार ब्रह्माण्ड का आधार वही एक परमेश्वर है ।
अद्वितीय
न द्वितीयो न तृतीयोश्चतुर्थो नाप्युच्यते । ।
न पञ्चमो न षष्ठ: सप्तमो नाप्युच्यते । ।
नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते । ।
समिदं निगतं सह: स सब एकं एकवृदेक एव । ।
सर्वे अस्मिन् देवा एकवृतो भवन्ति । ।
अथर्ववेद का पद 13/अनु 4/मं– 16, 17, 18, 20, 21
इन सब मन्त्रों से यह निश्चय होता है कि परमेश्वर एक ही है, उससे भिन्न कोई न दूसरा, न तीसरा, न कोई चैथा परमेश्वर है ।
न पाँचवाँ, न छठा और न कोई सातवाँ ईश्वर है । न आठवाँ, न नवाँ और न काई दशमा ईश्वर है ।
किन्तु वह सदा एक अद्वितीय ही है । उससे भिन्न दूसरा ईश्वर कोई भी नहीं है ।
इन मन्त्रों में जो दो से लेकर दश पर्यन्त अन्य ईश्वर होने का निषेध किया है, सो उस अभिप्राय से है कि सब संख्या का मूल एक (1) अंक है । इसी को दो, तीन, चार, पाँच, छ:, सात, आठ और नौ बार गिनने से 2/3/4/5/6/7/8 और 9 अंक बनते हैं और एक पर शून्य देने से 10 का अंक होता है । उनसे एक ईश्वर का निश्चय कराके वेदों में दूसरे ईश्वर के होने का सर्वथा निषेध ही लिखा है अर्थात् उसके एकपने से भी भेद नहीं और वह शून्य भी नहींय किन्तु जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त एकरस परमात्मा है, वही सदा से सब जगत में परिपूर्ण होकर पृथिवी आदि सब लोकों को रचकर अपने सामर्थ्य से धारण कर रहा है । वह अपने काम में किसी की सहायता नहीं लेता है क्योंकि वह सर्वशक्तिमान है ।
उसी परमात्मा के सामर्थ्य में वसु आदि सब देव अर्थात् पृथिवी आदि लोक ठहर रहे हैं और प्रलय में भी उसके सामर्थ्य में लय होकर उसी में बने रहते हैं ।
सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता
परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वा: प्रदिशो दिशश्च ।
उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभि सं विवेश । ।
यजुर्वेद अ– 32/म–/1
जो परमेश्वर आकाशादि सब भूतों में तथा सूर्यादि सब लोकों में व्याप्त हो रहा हैय इसी प्रकार जो पूर्वादि सब दिशा और आग्नेयादि उपदिशाओं में भी निरन्तर भरपूर हो रहा है, अर्थात् जिसकी व्यापकता से एक अणु भी खाली नहीं है, जो अपने सामर्थ्य का आत्मा है और जो कल्पादि में सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला हैय उस आनन्दस्वरूप परमेश्वर को जो जीवात्मा अपने सामर्थ्य अर्थात् मन से यथावत् जानता है, वही उसको प्राप्त होकर सदा मोक्षसुख को भोगता है ।
सर्वप्राचीन
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रेभूतस्यजात: पतिरेक आसीत् ।
सदाधारपृथिवींद्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम । ।
ऋग्वेद 10/121/1
सबसे पहले केवल परमात्मा व हिरण्यगर्भ थे । वे सारे प्राणियों के अद्वितीय अधीश्वर थे । उन्होंने इस पृथिवी और आकाश को अपने–अपने स्थानों में स्थापित किया । उस परमात्मा के अतिरिक्त किस देवता को हवि प्रदान करें ।
सब लोकों में व्याप्त
यस्य भूमि: प्रमान्तरिक्षमुतोदरम् ।
दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम: । ।
अथर्ववेद10/7/32
जिस परमेश्वर की भूमि पादमूल के समान है । जिसने सूर्य को मस्तिष्क के समान रचा । उस ज्येष्ठ, सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म को नमस्कार है । अर्थात् जो परमात्मा जगत् के सब लोकों में व्याप्त है, उसको हम नमन करते हैं ।
परमात्मा का कोई लिंग नहीं है
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी ।
त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुख: । ।
अथर्ववेद 10/8/27
हे जीवात्मा! तू स्त्री भी है, पुरुष भी है । तू कुमार भी है, कुमारी भी है । तू स्तुति किया गया हो कर दमन सामर्थ्य से चलता है । तू सब ओर मुखवाला हो कर प्रसिद्ध होता है ।
अर्थात् जैसे परमात्मा में कोई लिंग विशेष नहीं है, वैसे ही जीवात्मा का कोई लिंग नहीं है । वह शरीर के सम्बन्ध से स्त्री, पुरुष, लड़का, लड़की आदि होता है ।
परमात्मा का नाम इन्द्र भी है
यस्याश्वास: प्रदिशि यस्य गाव यस्य आभा यस्य विश्वे रयास: ।
य: सूर्यं य उषसं जजान यो अपां नेता स जनास इन्द्र: । ।
अथर्ववेद 20/34/7
जिसकी आज्ञा से घोड़े, गाय, बैल आदि पशु, गाँव, पूरा विश्व और रथ आदि विहार करने वाले पदार्थ हैं । जिसने सूर्य को प्रभातवेला में उत्पन्न किया है । जो जलों का नेता है । उस परमेश्वर को इन्द्र नाम से भी जानो ।
एकेश्वरवाद की अवधारणा से स्पष्ट होता है कि परमात्मा एक है । इस अवधारणा का समाज में परिपुष्ट होना अति आवश्यक है । धर्म व सम्प्रदायों को ले कर हो रहे आपसी वैमनस्य का कोई अर्थ नहीं है । परमात्मा की सर्वव्यापकता हमें सदा सत्कार्यों की ओर प्रवृत्त करती है ।
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