Monday, August 6, 2018

वेदों में श्रद्धा या विश्वास महत्त्व

(ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 151 मंत्र 1–5)
श्रद्धा सूक्त ऋग्वेद के दशवें मण्डल का 151 वाँ सूक्त है । इस सूक्त के अनुसार श्रद्धा से ही मनुष्य की उन्नति हो सकती है । इस श्रद्धा से ही मनुष्य सर्वविध पदार्थों को प्राप्त कर सकता है ।
श्रद्धा का महत्त्व
श्रद्धयाग्नि:  समिद्धयते  श्रद्धया  हूयते हवि: ।
श्रद्धां  भगस्य मूर्धनि  वचसा वेदयामसि ॥1॥
ऋग्वेद 7/151/1
श्रद्धा से अग्नि जलाई जाती है । श्रद्धा से उसमें आहुति डाली जाती है । ऐश्वर्य के मूर्धा–शिर पर विराजमान उस श्रद्धा को हम अपनी वाणी से घोषित करते हैं, व्यक्ति–व्यक्ति को जनाते हैं ।
श्रद्धा से अभ्युदय
प्रियं श्रद्धे  ददत:  प्रियं श्रद्धे  दिदासत: ।
प्रियं भोजेषु यज्वस्विदं म उदितं कृधि ॥2॥
ऋग्वेद 7/151/2
हे श्रद्धा! तू देने वाले का प्रिय कर, कल्याण कर भला कर । हे श्रद्धा! तू देने की इच्छा–विचार–संकल्प करने वाले का प्रियकर, भला कर । हे श्रद्धा! तू भोजों में, यज्ञों में मेरा प्रिय कर–कल्याण कर–भला कर, और यह उदयकर–अभ्युदय कर ।
श्रद्धा से जीवनोत्थान 
यथा  देवा  असुरेषु  श्रद्धामुग्रेषु  चक्रिरे ।
एवं भोजेषु यज्वस्वस्माकमुदितं कृधि ॥3॥
ऋग्वेद 7/151/3
देवजन शूर–वीर, प्राणरक्षक क्षत्रियों–सैनिकों पर जैसे श्रद्धा–विश्वास व भरोसा रखते हैं, करते हैं, ऐसे ही हे श्रद्धा! तू भोजों और यज्ञों में हमारा उदय कर ।
श्रद्धा से संकल्प की सिद्धि
श्रद्धां  देवा  यजमाना  वायुगोपा उपासते ।
श्रद्धा हृदय्याकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु ॥4॥
ऋग्वेद 7/151/4
देवजन, यजमान और प्राणायाम के अभ्यासी जन हार्दिक संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं ।
मन में कोई संकल्प होने पर भी लोग श्रद्धा की शरण में जाते हैं ।  श्रद्धा से /ान प्राप्त होता है ।
हमें श्रद्धामय बनाओ
श्रद्धां  प्रातर्हवामहे  श्रद्धां मध्यंदिनं परि ।
श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह न: ॥5॥
ऋग्वेद 7/151/5
अर्थात् हम प्रात: श्रद्धा का आह्वान करते हैं, हम मध्याह्न काल में श्रद्धा का सब ओर से आह्वान करते हैं, हम सूर्यास्त समय में श्रद्धा का आह्वान करते हैं । हे श्रद्धा! तू इस मानव जीवन में हमें श्रद्धामय बना ।
पूर्ण समर्पण
अधाहीन्द्र गिर्वण उप त्वा काम ईमहे ससृग्महे।
उदेव ग्मन्त उदभिः।।
 सामवेद
जिस प्रकार जलों का सम्पर्क करने से जल को स्पर्श करते हैं, जल से तर हो जाते हैं । उसी प्रकार से हम वाणी से सेवनीय परमात्मा से याचना करते हैं तब ही अभीष्ट कामना को समीप ही स्पर्श करते हैं, अर्थात् कामना तत्काल ही पूरी होती है ।
प्र न इन्द्रो महे तुन ऊर्मि न बिभ्रदर्षसि ।
अभि     देवाँ     अयास्य:। ।
 सामवेद
हे परमेश्वर! विद्वान उपासकों व याज्ञिकों को तू सर्वतः प्राप्त होता है। हमारे बड़े व धान्यादि धन के लिए तरंग व लहर सी धारण करता हुआ उच्च भाव को प्राप्त होता है। अर्थात् परमात्मा की प्राष्ति से उत्पन्न हुआ आनन्द उपासकों के हृदय में लहर सी उठाता है और वह उच्च भाव को प्राप्त होता है।

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