अनाथ बच्चे समाज
का दायित्व
अनाथ बच्चे
पूरी तरह से समाज व सरकार
का दायित्व हैं । हम जहाँ
अपने बच्चों के लिए तन, मन, धन से समार्पित रहते हैं, वहाँ
भगवान की इन पवित्रतम कृतियों के लिए भी हमारा
कुछ दायित्व है । इन बाल–गोपालों की सेवा
एक यज्ञ है, धर्म है, पूजा
है ।
बालगृहों के संचालन के लिए भूमि, धन आदि की व्यवस्था के लिए समाज व सरकार का मिलाजुला सहयोग हो । सरकारी सहयोग में भी सीधे मुख्य
सचिव स्तर का दखल हो, जिससे
समाजसेवी संस्थाएँ भी सही तरीके से एवं प्रभावी तरीके
से कार्य कर सकें । धन प्राप्ति के लिए मीडिया द्वारा नि:शुल्क जनचेतना जागृत
की जाए एवं इसे सबसे बड़ा धार्मिक कृत्य बताया
जाए ।
बालगृहों का राष्ट्रीय संगठन
बालगृहों के संचालन के लिए केन्द्रीय स्तर पर एक संगठन हो, जिसके क्षेत्रीय कार्यालय पूरे
देश में हों । इन क्षेत्रीय कार्यालयों के द्वारा ही बालगृह संचालित हों । नियमावली पूरे देश में एक समान हो, अर्थात् केन्द्रीय संगठन की नियमावली ही पूरे देश में लागू हो । क्षेत्रीय कार्यालय भी उसी नियमावली के अनुसार बालगृहों को संचालित करें ।
जहाँ तक संभव हो बालगृह में कार्य करने
वाले कार्यकर्ता बालगृह में ही पूरे
समय रहें । उनके आवास, भोजन
आदि की व्यवस्था बच्चों के साथ ही हो । रहने के लिए उनका एक पृथक
कमरा हो सकता
है किन्तु भोजन
आदि की व्यवस्था बच्चों के साथ ही हो जिससे
बच्चों को घरेलू
वातावरण मिल सके ।
जिले के वरिष्ठ अधिकारी जिलाधीश, आई. जी. पुलिस,
समाज सेवी संस्थाओं के प्रमुख, समाज
के वरिष्ठ नागरिक आदि प्रबंध समिति
के सक्रिय सदस्य
अवश्य हों, जिससे
बालगृह के संचालन में आने वाली
कठिनाइयों को तत्काल हल किया जा सके ।
समाज के सेवानिवृत्त लोगों को इसमें शामिल किया
जाये तथा ऐसी घरेलू महिलाओं को भी यहाँ आने के लिए प्रोत्साहित किया जाए जिनके
पास काफी खाली
समय रहता है और वह अपने
खाली समय का उपयोग समाज सेवा
हेतु करना चाहती
हैं ।
बालगृह में बच्चों के सहयोग
से सुन्दर बगीचे
का निर्माण किया
जाए । बच्चों में सफाई की आदत डाली जाय,
जिससे बालगृह सुव्यवस्थित एवं साफ
रहे । रंगोली, चित्रों व फुलवारी से सजा बालगृह एवं विभिन्न क्रियाकलापों में संलग्न बच्चे समाज
के आकर्षण का केन्द्र बनें । ऐसा होने पर समाज में वरिष्ठ नागरिक, अधिकारीगण व समाजसेवी लोग स्वयं
वहाँ पर बच्चों के साथ मनोरंजन हेतु आयेंगे । इससे बालगृह में आने वाली बहुत
सी समस्याओं का हल स्वयं ही हो जायेगा क्योंकि सरकार व समाज
के पूर्ण सहयोग
से ही इनका
कुशल संचालन संभव
है किन्तु ऐसा न हो कि बालगृहों के संचालक आदि, आगन्तुकों की आवभगत में लगे रहें और बालगृह उपेक्षित रहें ।
प्रारंभ से ही अधिकारियों में यह भावना भरी जाए कि आगन्तुक चाहे मुख्य सचिव
ही क्यों न हो, वहाँ की कमियाँ निकालने नहीं
वरन् उस बड़े परिवार का सदस्य
बनकर आया है, उसे हर संभव
सहयोग करना है । कमियाँ देखी
जाएँ तो हर जगह होती हैं किन्तु आवश्यकता है सहयोग द्वारा उन्हें दूर करने की । यह भावना
हो कि बालगृह सबसे बड़ा मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा है । यहाँ भगवान
की बाल–मूर्तियाँ (अनाथ बच्चे) रहती हैं ।
बालगृहों के संचालक व कार्यकर्ताओं पर नियमों को थोपा
न जाए । उन्हें कार्य करने
की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए ।
यूँ तो किसी भी संस्था को चलाने के लिए नियमावली की आवश्यकता होती है । इसलिए केन्द्रीय स्तर से ही सभी बालगृहों के लिए समान नियमावली हो किन्तु उन नियमों को थोपा
न जाए । नियम मनुष्य के लिए होते हैं,
मनुष्य नियम के लिए नहीं होते
हैं । समय और परिस्थिति के अनुसार नियमों को लचीला बनाया जाए । बालगृहों में दानस्वरूप धन के अतिरिक्त जो भी वस्तुएँ मिलती हैं,
उनकी रसीद तो दानदाताओं को दी ही जाए, उनका
रिकार्ड भी एकाउन्ट के साथ रखा जाए, जिससे आय–व्यय का सही ब्योरा मिल सके । इसके अतिरिक्त जिन बालगृहों में पर्याप्त भूमि हो वहाँ पर गोपालन किया जा सकता
है, फलदार वृक्ष,
सब्जियाँ आदि लगायी
जा सकती हैं । इसमें बालगृह के बच्चों व समाज के लोगों
का सहयोग प्राप्त किया जा सकता
है ।
इस प्रकार एक ओर तो बालगृह की आय का कुछ साधन
हो जाएगा, बच्चे
श्रम का महत्त्व समझेंगे, समाज के लोगों में सेवा
की भावना आयेगी
। दूसरी ओर बच्चों को जीवनयापन के लिए एक क्षेत्र भी मिलेगा । वह बड़े होने पर अपने
घर में गाय आदि पाल सकते
हैं ।
केन्द्रीय स्तर
पर बालगृहों का गठन, आवास, धन, संचालन व्यवस्था आदि के बाद चर्चा
का विषय है– बच्चों की औपचारिक व अनौपचारिक पूर्व प्राथमिक शिक्षा । अनौपचारिक पूर्व प्राथमिक शिक्षा बहुत
विस्तृत विषय है और औपचारिक शिक्षा से कहीं अधिक
व्यापक, व्यावहारिक एवं सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक भी ।
बालगृह के बच्चों की पूर्व प्राथमिक शिक्षा
तीन से छ: वर्ष तक के बच्चों की पूर्व प्राथमिक शिक्षा बाल विकास
के लिए अति महत्त्वपूर्ण है । बच्चे का अधिकतम मानसिक विकास छ: वर्ष की आयु तक हो जाता
है ऐसा मनोवैज्ञानिकों का मानना है । प्राय: हम इसी आयु को उपेक्षित कर देते हैं ।
छ: वर्ष
तक के बच्चों की पूर्व प्राथमिक शिक्षा का मूल उद्देश्य है, स्कूल
छोड़कर जाने वाले
बच्चों की संख्या में कमी करना
तथा बच्चों की क्षमता की अधिकतम सीमा तक विकास
करना । बच्चों मेंमें
कुछ न कुछ अन्तर्निहित क्षमताएँ होती हैं।
यही वह आयु होती है जब उनकी अन्तर्निहित क्षमताओं को उभरने का अवसर
मिल सकता है । आवश्यकता होती है उचित वातावरण की ।
जहाँ बालगृह के बच्चों के जीवन में माता–पिता व परिवार का अभाव होता
है वहीं बालगृह के रूप में उन्हें एक बड़ा परिवार मिल जाता
है व कई भाई–बहन भी मिल जाते हैं । अत: इनकी
अनौपचारिक शिक्षा तो उस बड़े परिवार में ही हो जाती है । इन्हें एक छोटा
समाज तो वहीं
मिल जाता है ।
पूर्व प्राथमिक शिक्षा के एक उद्देश्य,‘समाज से समायोजन’ की पूर्ति तो स्वत:
ही हो सकती
है । आवश्यकता है सहर्ष, सुन्दर, प्रेमपूर्ण वातावरण की । सभी की एक दूसरे
के प्रति सहानुभूति हो, परस्पर प्रेम
की भावना हो । पूर्व प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य अक्षरज्ञान, पढ़ना–लिखना कदापि
नहीं है क्योंकि इनके लिए तो प्राथमिक विद्यालय हैं ही । हाँ!
यदि सहज वातावरण के बीच खेल–खेल में आनन्द
का अनुभव करते
हुए बच्चा कुछ सीख जाए तो ठीक ही है ।
पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिए किसी विशेष व्यवस्था की आवश्यकता नहीं
है । यदि बालगृह का वातावरण स्वस्थ हो, सहानुभूति, प्रेम व दया तथा त्याग के गुणों का संचार
हो तो बालगृह के बड़े परिवार रूपी छोटे समाज
में बच्चों को सब कुछ मिल सकता है । बच्चों को सहज वातावरण में पनपने
का अवसर दिया
जाए । प्रयत्नसाध्य व्यवहार शिशु
के लिए अच्छा
नहीं होता है । कोई शिशु
खेल में अधिक
रुचि रखता है तो कोई पढ़ाई
में, किसी की जानवरों में अधिक
रुचि होती है तो किसी ड्रॉइंग में । कोई भूगोल के तथ्य
के बारे में जानना चाहता है तो किसी की ऐतिहासिक कहानियों में बहुत रुचि होती
है । पूर्व
प्राथमिक शिक्षा के लिए हमारा कार्य
केवल इतना ही है कि हम शिशु को उचित
वातावरण दें और उसकी जिज्ञासा को शान्त करते जाएँ
। उसके द्वारा कुछ पूछने पर झिड़कियों से उसे हतोत्साहित न करें
।
बालगृह में पेड़ पौधे व कुछ दुधारु पशु तो होंगे ही, शिशु के खेलने
के लिए परिसर
भी पर्याप्त होगा । शिशु को अपनी कल्पना के अनुसार चित्र बनाने
के लिए अधिक
नहीं तो भी एक स्लेट व रंगीन खड़िया तो दी ही जा सकती है । बालगृह के ही बच्चों द्वारा स्थानीय उपलब्ध बेकार पड़ी वस्तुओं (कागज, कपड़ों
की कतरन, खाली
डिब्बों, फूल, पत्तियाँ आदि) व सस्ती
वस्तुओं से शिशुओं के लिए कुछ खिलौने, अक्षरों के ब्लॉक्स, फ्लैश कार्ड्स आदि बनवाये जा सकते हैं । इससे एक ओर शिशुओं के लिए आवश्यक सामग्री उपलब्ध हो जाएगी, दूसरी
ओर बड़े बच्चे
हस्तकला में प्रवीण हो जायेंगे जो जीवनपर्यन्त उनके लिए उपयोगी होगा ।
अक्षरों के ब्लॉक्स से खेलते–खेलते बच्चे अक्षरों को पहचानना कब सीख गये पता भी नहीं चलेगा
। खड़िया से अपनी इच्छानुसार आड़ी–तिरछी रेखाएँ खींचते–खींचते वह चित्र
भी बनाने लगेंगे व ब्लॉक्स में देखे गये अक्षरों को भी स्वत:
ही बनाएँगे । इससे उनके हाथ की माँस–पेशियों का विकास होगा । जो बच्चा जिस गति से जो भी सीखता है उसे सीखने दें,
उसमें बाधक न बनें, न ही सहयोगी ।
बड़े लोगों
का कार्य केवल
उन्हें सामग्री उपलब्ध करवाना व उनके
द्वारा पूछने पर उनकी जिज्ञासा शान्त करना मात्र है । बच्चा जितना
पूछता है, उसे उतना ही बताया
जाए, अधिक नहीं
। अधिक बताना
शिशु के कोमल
मस्तिष्क से प्रसन्नता समाप्त कर असमय
ही उसको सोचने
पर मजबूर कर देता है व उन बातों को अपने मस्तिष्क में भरने का भय उसके अन्दर समा जाता है । उसकी अपनी सहजता
समाप्त हो जाती
है । शिशु
जिनके माता–पिता को प्रकृति ने उनकी
शैशवावस्था से ही छीन लिया,उनको
तथाकथित नर्सरी विद्यालयों में भेजकर उनकी
सहजता, स्वाभाविकता को और भी समाप्त कर देना उचित
नहीं है ।
अत: उन्हें स्वतंत्र रूप से विकसित होने दिया
जाय तभी वह बड़े होकर समाज
के अच्छे नागरिक बनेंगे । जन्म
से छ: वर्ष
तक अनौपचारिक शिक्षा का विशेष महत्त्व मनोवैज्ञानिकों ने प्रतिपादित किया है । कुछ मनोवैज्ञानिक तो यहाँ तक कहते
है कि छ: वर्ष की आयु तक बच्चे के मस्तिष्क का अधिकांश (75 प्रतिशत) विकास हो चुकता
है । बाद में तो उसका
मस्तिष्क केवल सूचनाएँ ग्रहण करता है ।
बालगृह के बच्चों की औपचारिक शिक्षा
बच्चों की प्राथमिक शिक्षा भी मात्र विद्यालय भेज देने से पूरी
नहीं हो जाती
है । इसके
लिए उन्हें बालगृह में भी समुचित वातावरण देना होगा
। प्राथमिक स्तर पर तो बच्चों का उचित मार्गदर्शन बहुत ही आवश्यक है । आजकल
विद्यालय में बच्चों की संख्या इतनी
अधिक होती है कि हर बच्चे
को व्यक्तिगत समय देना संभव नहीं
है । वैसे
भी हर बच्चे
की हर विषय
में समान रुचि
नहीं होती है । वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में शिक्षक सभी बच्चों को सभी विषय समान
गति से पढ़ाने
के लिए बाध्य
हैं।
बच्चों की विषय विशेष में रुचि होने पर उस विषय में कोई कठिनाई आने पर उसका हल हो जाने से आगे के लिए समस्या का समाधान हो जाता है और बच्चे की उस विषय में अच्छी पकड़ हो जाती है ।
इसी प्रकार कक्षा आठ के पश्चात् विषय चुनाव
के लिए व्यापक मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ सकती है । व्यावसायिक शिक्षा के लिए भी व्यापक मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ सकती
है । इन समस्याओं का समाधान बालगृह में कैसे
हो ? यह स्वयं में एक जटिल
समस्या लगती है किन्तु पूर्व में वर्णित समाज के सेवानिवृत्त लोगों व कुछ महिलाओं का सहयोग लिया जाए तो यह समस्या तो रहेगी ही नहीं । इससे
उन लोगों का समय भी अच्छा
व्यतीत होगा और बच्चों को भी अच्छी शिक्षा मिल जाएगी ।
इसके लिए जनचेतना की आवश्यकता है, सेवानिवृत्त लोगों के लिए एक–दो घंटे समय निकालना कठिन नहीं
है । प्रत्येक विषय के लिए अलग–अलग विशेषज्ञ भी मिल सकते
हैं । बच्चों की औपचारिक शिक्षा के साथ–साथ भी अनौपचारिक शिक्षा का अपना महत्त्व है, आवश्यक भी है । हस्तकला, भोजन बनाना, गो–पालन, बागवानी, सिलाई,
कढ़ाई आदि की सहज शिक्षा भी साथ–साथ चलती
रहनी चाहिये । बच्चों से थोड़ा
बहुत यह सब कार्य करवाते रहने
से उन्हें सामान्य जीवन में आने वाली कठिनाइयों का सामना नहीं करना
पड़ेगा ।
शिक्षा एवं आवासीय विद्यालय
औपचारिक शिक्षा कक्षा एक से प्रारंभ हो जाती
है । विद्यालय शिक्षा, विश्वविद्यालय शिक्षा, व्यावसायिक शिक्षा तथा हस्तशिल्प आदि सब कुछ इसमें आता है । बालगृहों में रहने वाले बच्चों की औपचारिक शिक्षा के लिए किसी
पृथक व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है । समाज में अनेकानेक विश्वविद्यालय, विद्यालय, व्यावसायिक विद्यालय आदि हैं । सरकारी आदेश हो कि बालगृह के बच्चों का प्रवेश उनकी योग्यतानुसार शत प्रतिशत किया जाए । फार्म से लेकर प्रवेश तक पूरी प्रक्रिया पूर्णतया नि:शुल्क हो, उनसे
किसी भी सरकारी या गैरसरकारी विद्यालय में किसी भी प्रकार का कोई शुल्क,
फार्म का पैसा
आदि न लिया
जाए ।
यह तभी संभव है जब ऐसा करने का सरकारी आदेश हो । पूरे शहर में बालगृहों के बच्चों की संख्या पूरी जनसंख्या का 01 प्रतिशित भी नहीं होगा
। अत: किसी
भी शिक्षण संस्था की (भले ही प्राइवेट हो), कोई आर्थिक हानि भी नहीं होगी । नि:शुल्क प्रवेश की ही भाँति
प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर
तक पढ़ाई के लिए किसी प्रकार का कोई शुल्क
न लिया जाए । यदि शिक्षण संस्थाएँ इनकी कॉपी,
किताब, ड्रेस आदि भी अपने किसी
फंड से दे सकें तो और भी अच्छा है । यदि ऐसा न हो सके तो भी कम से कम कोई फीस आदि तो न हो । इन बच्चों का उनकी योग्यतानुसार प्रवेश हो जाने से इनकी पढ़ाई का एक क्रम तो बन ही जाएगा
। फीस न होने से बालगृहों पर आर्थिक बोझ भी कम पड़ेगा
।
आवासीय विद्यालयों की संख्या भी हमारे देश में धीरे–धीरे बढ़ती
जा रही है । इन आवासीय विद्यालयों में इन बच्चों को स्थान
दिया जाए तो बहुत अच्छा है । वहाँ पर भी इनके रहने,
खाने की व्यवस्था पूर्णतया नि:शुल्क
हो ।
कुछ आवासीय विद्यालय चार वर्ष
के बच्चों के लिए भी होते
हैं। जैसे लखनऊ
में बाल विद्या मन्दिर । ऐसे विद्यालयों में इन बच्चों के लिए स्थान आरक्षित हो । चार वर्ष
के बच्चे के लिए किसी प्रकार के योग्यता परीक्षण की आवश्यकता नहीं है । अत: इस प्रकार के आवासीय विद्यालयों में अनाथ बच्चों के लिए कुछ स्थान
आरक्षित करने का शासनादेश दिया जा सकता है । इनका समस्त खर्च
विद्यालय ही वहन करे । इस प्रकार कुछ बच्चों के खर्च की समस्या भी दूर हो जायेगी । यदि पूरे देश में आवासीय विद्यालयों, विश्वविद्यालयों आदि में बालगृह के बच्चों को नि:शुल्क
स्थान दिया जाए तो सभी बच्चों के आवास, भोजन,
वस्त्र आदि की व्यवस्था भी हल हो जायेगी और आवासीय विद्यालयों पर भी अधिक बोझ नहीं पड़ेगा ।
बालगृह के युवा
हो चुके बच्चों की व्यवस्था
अठारह वर्ष
के बाद बच्चे
वयस्क हो जाते
हैं और वह स्वयं अपना जीवन–यापन कर सकते
हैं ।
प्रश्न यह है कि उनके
जीवन–यापन के लिए हमने क्या
सुविधा मुहैया करवाई
है । उनके
लिए सरकारी, अर्द्धसरकारी, प्राइवेट या किसी संस्था की नौकरियों में किसी प्रकार का कोई आरक्षण नहीं
है । किसी
भी प्रकार की नौकरी हो, उसके
फार्म आदि भरने
की प्रक्रिया से लेकर परीक्षा देने
तक में अच्छा
खासा खर्च आता है, जो एक बेरोजगार निराश्रित व्यक्ति के लिए संभव नहीं
है ।
बालगृह से निकलने के बाद आवास की भी बड़ी समस्या रहती
है । आवास
भी कहीं मुफ्त
में नहीं मिल जाता है विशेष
रूप से यदि लड़की है तो–––– ?
अत: अठारह
वर्ष की आयु के बाद दायित्व समाप्त नहीं हो जाता, बालगृह, समाज
या सरकार का । यह ठीक है कि बच्चे
वयस्क होने के बाद बालगृह पर आर्थिक रूप से किसी प्रकार निर्भर न रहें किन्तु संरक्षण की दृष्टि से उन्हें बालगृह का पूरा सहयोग
मिलना चाहिए––––वह उनका
अपना घर हो, अपना मूल निवास
स्थान । जहाँ
पर वह रह सकें, कभी भी बेरोकटोक आ जा सकें व अपनी
समस्याओं का समाधान कर सकें तथा अपना वांछित सहयोग
भी प्रदान कर सकें ।
यहाँ पर मूल समस्या है कि अठारह वर्ष
की आयु के बाद उन्हेंकौन काम देगा? यह दायित्व मुख्य रूप से सरकार का है । अब इस सम्बन्ध में हमारे
मस्तिष्क में कई प्रश्न उभर सकते
हैं––––क्या इनके
लिए कोई आरक्षण की व्यवस्था हो या इनकी आर्थिक सहायता सरकार करे या इन्हें स्वरोजगार के अवसर दिये
जाएँ ।
जहाँ समाज
में विभिन्न वर्गों का आरक्षण है । वहीं यह बच्चे पूर्णतया उपेक्षित हैं । इनके पास तो फार्म तक भरने के लिए धन नहीं होता
है । अत: सबसे पहली आवश्यकता यह है कि अठारह वर्ष का होते ही इन्हें इनकी योग्यतानुसार कोई काम दे दिया
जाए ।
अब प्रश्न है कि यह काम कैसे दिया
जाए ? नौकरी हेतु आवेदन करने के लिए उनके पास धन नहीं है । यदि स्वरोजगार के लिए कुछ धन देने की व्यवस्था सरकार द्वारा कर दी जाए तो पहली बात तो सरकारी पैसा
निकलवाने में हजार
समस्यायें और दौड़धूप है, फिर यदि पैसा उसे मिल भी जाए तो उस धन का उपयोग करके वह अपना काम कहाँ खोलेगा ? यदि इनका नौकरियों में कुछ प्रतिशत आरक्षण कर दिया जाए तो फिर वही प्रश्न आएगा कि फार्म आदि भरने,
किताबें खरीदने, परीक्षा देने जाने के लिए यह लोग धन कहाँ से लायेंगे ?
समाज की जनसंख्या का 01 प्रतिशत भी यह अनाथ
बच्चे नहीं होंगे
। अत: सभी बालगृहों में सत्रह
वर्ष की आयु पूरी कर चुके
बच्चों की सूची
बनाकर सीधे राज्य
सरकार व केन्द्र सरकार को भेज दी जाए । इसमें सचिव स्तर
का दखल पूरी
तरह से होना
चाहिए, बल्कि मुख्य
सचिव के निर्देशानुसार ही कार्य हो तो अधिक अच्छा है ।
अब सरकार
इन बच्चों को स्वयं ही साक्षात्कार के लिए पूरा
खर्च देकर बुलाए
। एक साथ इनका साक्षात्कार करके इनकी योग्यतानुसार सूची बना ली जाए व अठारह वर्ष
की आयु का होते ही इन्हें विभिन्न विभागों में इनकी योग्यतानुसार नौकरी
दे दी जाए । बालगृहों के बच्चों को नौकरी
के लिए बार–बार चक्कर न काटने पड़ें । इसलिए आवश्यक यह है कि सरकार
द्वारा निर्देशित विभागों द्वारा इनके नियुक्ति पत्र बालगृहों व उसकी
सूची मुख्य सचिव
के पास भेजी
जाए । हाँ!
नौकरी इन्हें इनकी
योग्यतानुसार ही दी जाए, भले ही वह चतुर्थ श्रेणी की हो । कम से कम इनके पास अपनी
आय का एक सुनिश्चित साधन तो होगा । बाद में यह अपने आवास, भोजन
आदि की व्यवस्था के साथ ही अपने विभाग से अनुमति ले कर प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में अपनी
आगे की शिक्षा भी जारी रख सकते हैं । किसी अन्य नौकरी
के लिए आवेदन
करके या प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठकर
अपने योग्य स्थान
पा सकते हैं ।
अब इनके
लिए किसी प्रकार के आरक्षण या सहायता की आवश्यकता नहीं है क्योंकि एक बार सरकारी मदद से इन्हें अपने पैरों पर खड़े होने का मार्ग तो मिल ही गया । उसके बाद जीवन
भर आरक्षित करते
रहना परजीवी बनाना
सिद्ध होगा । हाँ! चूँकि इनके
जन्म के बाद से ही इन्हें अपना पूर्ण विकास
करने के सामान्य अवसर नहीं मिले
होते हैं । अत: इनकी आयु सीमा में दस वर्षों की छूट हो तो यह समय पाकर अपनी
योग्यतानुसार काम पा सकते हैं व आई–ए–एस–, पी–सी–एस– भी बन सकते हैं ।
इन युवाओं को नौकरी मिल जाने के बाद भी इनके आवास
की समस्या बनी रहेगी । लड़के
तो फिर भी कहीं पर भी कमरा लेकर रह सकते हैं किन्तु अठारह वर्ष की युवा महिला अकेली
कहाँ रहेगी ? यह एक प्रश्न है, इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर विभिन्न शहरों में श्रमजीवी महिला आवास गृह बने हैं । जहाँ पर कार्यशील महिलाएँ रहती हैं ।
केवल बालगृह से निकली हुई ही नहीं वरन्
सभी वर्गों की महिलाओं के लिए इस प्रकार के आवास गृहों की संख्या बढ़नी भी चाहिए । छोटे
से छोटे शहरों
में कार्यशील महिलाओं के लिए आवास हों क्योंकि कार्यशील महिलाओं की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है । वैसे
भी सुविधायुक्त महिला आवास गृह बनाये
जाएँ तो इन्हें खोलने वाली समाजसेवी संस्थाओं, सरकार या अन्य किसी पर कोई आर्थिक बोझ भी नहीं पड़ेगा,
क्योंकि इन आवासगृहों में रहने वाली
हर महिला की निश्चित मासिक आय है व वह बिना किसी असुविधा के प्रसन्नतापूर्वक वहाँ रहने
का शुल्क दे सकती है । महिला बाहर किराये पर मकान लेकर
रहने की अपेक्षा सुरक्षित महिला–आवास में रहना अधिक पसन्द
करेगी । उसे वहाँ पर एक छोटा समाज भी मिल जायेगा जो एकाकीपन की अवस्था में उसके सुख–दुख का साथी
होगा ।
बालगृह से आयी हुई हर कार्यशील महिला का श्रमजीवी महिला आवास
में सौ प्रतिशत आरक्षण हो । उसे अनिवार्य रूप से इसमें स्थान
दिया जाए क्योंकि परिवार से आयी हुई महिला की कुछ न कुछ व्यवस्था (किसी रिश्तेदार, मित्र के यहाँ)
तो परिवार वाले
कर भी देते
हैं किन्तु इनकी
सुरक्षा की जिम्मेदारी तो समाज की ही है । हाँ! इनके लिए किसी प्रकार की आर्थिक छूट अब नहीं होनी चाहिए
। अन्य महिलाओं के समान ही इनसे भी आवासगृह का पूरा शुल्क
लिया जाना उचित
है क्योंकि अब ये लोग आर्थिक रूप से अक्षम
नहीं है । महिलाओं के समान
ही यदि अकेले
रहने वाले पुरुषों के लिए भी आवासगृह हों तो क्या ही अच्छा
हो, क्योंकि बिना
किसी परिचय के एकाकी पुरुषों को भी कोई किराये पर मकान देने
के लिए तैयार
नहीं होता है ।
इतना होने
के बाद भी बालगृहों व समाज
की जिम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती
है । समाज
को सुव्यवस्थित रखने के लिए विवाह
एक आवश्यक संस्था
है । भारतीय समाज में तो आज भी इसे माता–पिता व अभिभावकों की जिम्मेदारी माना जाता है ।
बालगृहों से निकले हुए युवाओं के लिए तो उनके अभिभावक, सम्बन्धित बालगृह के संचालक व समाज ही हैं । अत: इस दायित्व को भी पूरा करना
होगा । यदि ये युवक–युवतियाँ अपनी इच्छा से किसी
को पसन्द कर लेते हैं तब भी बालगृह का यह दायित्व है कि वह सम्बन्धित व्यक्ति की पूरी
जाँच पड़ताल कर लं कि कोई उन्हें बहका तो नहीं रहा है ।
विशेषकर लड़कियों के मामले में तो ऐसा अक्सर
देखा जाता है कि निराश्रित समझ कर विवाह का लालच देकर कुछ मनचले युवक या अपराधी प्रवृत्ति के लोग उनसे विवाह
कर लेते हैं व बाद में उन्हें गलत धन्धों में प्रवृत्त कर देते हैं । तब ये लड़कियाँ आजीवन उस दलदल
में फँसे रहने
के लिए मजबूर
हो जाती हैं । अत: इनका
विवाह इनकी पसन्द
से हो । समाज या बालगृह द्वारा लड़की व लड़के की पूरी
जाँच–पड़ताल हो, रजिस्ट्रेशन हो व समय–समय पर मायके की भाँति
लड़की को बालगृह में आने की अनुमति प्रदान की जाए । बालगृह के लोग उसके
दु:ख–सुख की जानकारी लें व किसी प्रकार की अति होने पर मध्यस्थता करें ।
बालगृह पूरे
देश में फैले
होंगे । केन्द्रीय स्तर से संचालन होने के कारण
प्रत्येक बालगृह से निकले हुए युवक–युवती की सूची
भी होगी । अत: एक बालगृह के युवाओं का विवाह दूसरे बालगृह के युवाओं से हो जाए तो क्या ही अच्छा
हो ? दोनों एक प्रकार के वातावरण में पले होने
के कारण एक–दूसरे की स्थिति को अच्छी तरह से समझेंगे । दहेज आदि का कोई प्रश्न ही नहीं रहेगा । पारिवारिक पृष्ठभूमि के ताने भी कोई किसी को नहीं
देगा । दोनों
सहज स्वाभाविक स्थिति में अपने जीवन
को सुखमय व्यतीत कर बालगृहों व समाज को धन्यवाद देंगे, जिन्होंने उन्हें इस प्रकार का अवसर प्रदान किया
। जो बच्चे
उचित आश्रय के अभाव में समाज
के लिए कोढ़ का काम करते
वही उसके स्वस्थ विकास में सहायक
होंगे । कौन समाज ऐसा है जो सुख, शान्ति से जीवन–यापन करना
नहीं चाहता है ।
यदि सरकार
व समाज इस विषय को गम्भीरता से लें तो गम्भीर लगने वाली
यह समस्या सहज ही हल हो सकती है और अनाथ कहलाने वाले
ये बच्चे बड़े हो कर कुछ लोगों के नाथ भी हो सकते
हैं ।
बालगृह के युवाओं का समाज के प्रति दायित्व
आदान–प्रदान प्रकृति का नियम है । माता–पिता बच्चों का पालन–पोषण करते
हैं तो बच्चों के बडे़ होने
पर माता–पिता की सेवा करना बच्चों का कर्तव्य समझा
जाता है । बच्चे समाज से लेते हैं तो समाज के प्रति भी उनके
कर्तव्यों को बताया
जाता है । इसी प्रकार अनाथ
बच्चे एक ओर समाज का दायित्व हैं तो बड़े हो जाने पर समाज के प्रति
भी उनके कुछ दायित्व हैं ।
यदि बालगृह से नि:सृत प्रत्येक युवा जो एक सरकारी नौकरी
भी पा चुका
हो, वह अपनी
आय का दस प्रतिशत भी नियमित रूप से बालगृह को देता रहे तो आगे आने वाले उनके छोटे–भाई–बहनों के पालन की आर्थिक समस्या का बहुत
कुछ समाधान स्वयमेव हो सकेगा । इसी के साथ ये लोग अपना
समय देकर बालगृह का सहयोग कर सकते हैं । इसके अतिरिक्त यदि बालगृह से नि:सृत एक युवा–दम्पति एक बच्चे
को गोद ले लें तो बहुत
से बच्चों को माता–पिता का स्नेह भी मिल जायेगा । चूँकि
ये दम्पति स्वयं
अपनी पीड़ा जानते
हैं । अत: इन्हें उस बच्चे
के प्रति स्वाभाविक व सहज प्रेम
होगा ।
बालगृह के अतिरिक्त इन्हें समाज व सरकार ने भी बहुत कुछ दिया
है । अत: इनका समाज व सरकार के प्रति
भी पूरा दायित्व है ।
यदि इस चर्चित प्रक्रिया को बुद्धिजीवियों के सहयोग
से संशोधित करके
सरकार लागू करे व समाज इसमें
अपना सहयोग दे तो कोई कारण
नहीं है कि ये बच्चे अपराध
की दिशा में प्रवृत्त होने के स्थान पर समाज
को कुछ न दे सकें । बच्चों को एक ओर जहाँ सरकार
व समाज का सहयोग मिले वहीं
पर प्रारम्भ से ही इनके मन में यह भावना
भरनी आवश्यक है कि वे भी समाज के अंग हैं, भारत के भावी नागरिक हैं,
भारत की सन्तान हैं । अत: उनका भी कर्तव्य अपने समाज व देश के लिए बनता है । विशेष रूप से सम्बन्धित बालगृह के प्रति तो उनका
विशेष दायित्व है ही ।
आशा है समाज, सरकार व बुद्धिजीवी लोग इस चर्चा का मन्थन
कर नवनीत ग्रहण
करेंगे । सुझाव
व सहयोग देकर
मेरे मस्तिष्क से नि:सृत विचारों को कार्य रूप में परिणत करने
में अपना योगदान देंगे ।
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