उपनिषदों तथा योगदर्शन द्वारा पूर्वजन्म की पुष्टि
तद्यथाऽहिनिर्ल्वयनी वल्मीके मृता
प्रत्यस्ता शयीत: एव मेवेदें शरीरं शेते अथायमशरीरोऽमृत: प्राणो ब्रह्मैव तेज एव । ।
(वृहदारण्यकोपनिषद 4/4/7)
जैसा कि साँप की केंचुली भरी हुई फेंक
दी हुई बर्मी
(चींटियों के बनाए
हुए मिट्टी के ढेर) पर पड़ी रहे, इसी प्रकार यह शरीर पड़ा रहता है और अब यह आत्मा
शरीर से रहित
हुआ अमृत प्राण
(अमर जीवन) है, ब्रह्म ही है, तेज (प्रकाश स्वरूप) ही है ।
तस्य तावदेव चिरं
यावन्न विमोक्ष्ये, अथ संपत्स्ये
(छान्दोग्योपनिषद 6/14/2)
उसके लिए उतनी ही देर है, जब तक वह देह से नहीं छूटता, इसके
पीछे तब वह सत् (ब्रह्म) को प्राप्त होगा ।
यथा नद्य: स्यन्दमाना: समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय
। तथा विद्वान् नामरूपाद्विमुक्त: परात्परं पुरुषमुषैति दिव्यम् ।
(मुण्डकोपनिषद् 3/2/8)
जैसे नदियाँ बहती हुई समुद्र में जाकर अपना
नामरूप खो कर लीन हो जाती
हैं, ऐसे ही ज्ञानी पुरुष नाम और रूप को त्याग कर परे से परे जो दिव्य पुरुष है, उसको प्राप्त होता
है ।
एष सम्प्रसादोऽस्माच्छरीरात् समुत्थाय परं ज्योतिरूप सम्पद्य स्वेन
रूपणाभिनिष्पद्यते स उत्तम:
पुरुष:
(छान्दोग्योपनिषद 8/12/3)
यह निर्मल हुआ आत्मा इस शरीर से उठ कर परमज्योति को प्राप्त होकर अपने
असली रूप से प्रकट होता है, यह उत्तम पुरुष
है ।
यदात्मतत्त्वैनतु ब्रह्मतत्वं दीपोपमेनेह युक्त:
प्रपश्येत् । अजं ध्रुवं सर्वंतात्त्वैर्विशुद्धं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशै: (श्वेताश्वतरोपनिषद् 2/15)
अर्थात् जब वह वहाँ सावधान होकर दीपक के सदृश आत्मतत्त्व से ब्रह्मतत्व को देखता
है, जो अजन्मा है, अटल है और सब तत्त्वों से शुद्ध है, तब उस देव को जान कर वह सारी फाँसों से छूट जाता
है ।
यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान न विभेति कुतश्चन । ।
(तैत्तिरीयोपनिषद 2/9)
जहाँ से वाणी मन को न पा कर लौट आती है, वह आनन्दमूर्ति ब्राह्मण किसी
से नहीं डरता
है ।
यदाह्येवैष एतस्मिन्न दृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते । अथ सोऽभयं गतो भवति
(तैत्तिरीयोपनिषद 2/7)
अर्थात् जब यह इस (हृदयस्थ ब्रह्म) में अभय प्रतिष्ठा (स्थिति) पा लेता है, जो (ब्रह्म) अदृश्य है, अनिरुक्त है, और (किसी से) सहारा
दिया हुआ नहीं
है, तब वह अभय पद में पहुँच जाता है ।
मानो वहाँ
पहुँच कर उसकी
यह प्रार्थना पूर्णरूप में सफल हो जाती
है, जो वेद ने इस तरह दिखलाई है ।
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा य: करोति । तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् । नित्यो नित्यानां चेतनश्चोतनामेको बहूनां यो विदधाति कामान् । तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्ति: शाश्वती नेतरेषाम् । ।
(कठोपनिषद् 5/12–13)
अर्थात् अकेला
सबको वश में रखने वाला, सब भूतों का अन्तरात्मा, जो समरूप (प्रकृति) को अनेक प्रकार का बना देता
है, उसको जो वीर पुरुष आत्मा
में स्थित देखते
हैं, उनको सदा का सुख होता
है, दूसरों को नहीं । वह जो नित्यों का नित्य, चेतनों का चेतन है, जो अकेला ही सबकी
कामनाओं को रचता
है, उसको जो धीर पुरुष आत्मा
में स्थित देखते
हैं, उनको सदा ही शान्ति होती
है, दूसरों को नहीं ।
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा
येऽस्य हृदिश्रिता: । अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते । यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थय: । अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्धयनुशासनम् । (कठोपनिषद 6)
अर्थात् जब यह सारी कामनाएँ जो इसके हृदय
में रहती हैं,
छूट जाती हैं,
तब मर्त्य (मरने
वाला मनुष्य) अमृत
होता है, यहाँ
वह ब्रह्म को प्राप्त होता है । जब यहाँ
हृदय की सारी
गाँठें खुल जाती
हैं, तब मर्त्य अमर्त्य होता है, सारी शिक्षा इतनी
दूर तक ही है (इससे आगे नहीं)
वृहच्च ताद्दिव्ययमचिन्त्यरूपं सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति । दूरात् सुदूरे तदिहान्ति केच पश्यस्विहैन निहितं गुहायाम् । न चक्षुषा गृह्यते नापि
वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मणा वा । ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तां पश्यते निष्कलंध्यायमान: ।
(मुण्डकोपनिषद 3/1/7–8)
यह वृहत्
है, अचिन्त्यरूप है, और सूक्ष्म से सूक्ष्मतर प्रतीत होता
है, दूर से बड़ी दूर है, और वह यहाँ
हमारे पास है, जो उसको देख रहे हैं उनके
अन्दर यहाँ ही गुफा (हृदय) में दबा हुआ (खजाना)
है । न आँख से जाना
जाता है, न वाणी से, न दूसरी इन्द्रियों से, न तप से और न कर्म
से । हाँ ज्ञान की निर्मलता से जब इसका
अन्त:करण शुद्ध
होता है, तब यह उस निरवयव पर ध्यान जमाता
हुआ उसको देख लेता है ।
एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो यस्मिन् प्राण: पञ्चधा संविवेश । प्राणैश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां यस्मिन विशुद्धे विभवत्येष आत्मा ।
(मुण्डकोपनिषद 3/1/9)
यह अणु आत्मा चित्त से जानने योग्य है, जिसमें पाँच प्रकार से सहारा लिये
है, प्रजाओं का हर एक चित्त
प्राणों (इन्द्रियों) से बुना हुआ है, जिसके शुद्ध होते
ही यह आत्मा
महिमा वाला बन जाता है ।
संप्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ता: कृतात्मानो वीतरागा: प्रशान्ता: । ते सर्वगं सर्वत: प्राप्य धीरा युक्तात्मान: सर्वमेवाविशन्ति । ।
(मुण्डकोपनिषद 3/2/5)
ऋषिजन जिन्होंने इसको पा लिया
है, वह ज्ञान
में तृप्त होते
हैं, वह अपने
आपको जाने हुए हैं, उनके राग दूर हो गए हैं और वह शान्त हैं । हाँ वह धीर पुरुष हैं, जो सब ओर से सब जगह पहुँचे हुए (परमात्मा) को पाकर और उसी में अपनी आत्मा
को लगा कर सबको ही चीर जाते हैं ।
मरने के पीछे आत्मा की हस्ती के विषय
में नचिकेता ने यम से प्रश्न किया है–
येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके । एतद् विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीय: ।
(कठोपनिषद 1/20)
अर्थात् मरे हुए मनुष्य के विषय में जो यह संशय है –कई कहते हैं– ‘वह है और दूसरे कहते
हैं–‘नहीं है । आपकी शिक्षाओं में इस बात को जान जाऊँ,
वरों में से तीसरा वर यह है ।
इस प्रश्न के उत्तर में यम उसको यह बतलाते हैं–
न जायते म्रियते वा विपाश्चन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित । अजो नित्य: शाश्वातोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे । ।
कठोपनिषद 1/18 । ।
अर्थात् यह जो (इस शरीर
में) चेतन है, वह न जन्मता है, न मरता
है, न यह किसी से बना है, न इससे
कुछ बनता है । यह अजन्मा है, नित्य है, पुराना है, पर सदा एकरस है, शरीर के मरने
पर यह नहीं
मरता है । ।
और
हन्ता चिन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतौ नायं हन्ति
न हन्यते । । कठोपनिषद् । । 1/19 । ।
अर्थात् मारने
वाला यदि समझता
है कि मैंने
मार डाला है, और मरने वाला
समझता है कि मैं मरता हूँ तो वह दोनों
नहीं जानते हैं,
यह न मारता
है, न मरता
है ।
किञ्चित भेद के साथ यह दोनों
श्लोक गीता में उद्धृत किये हैं–
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति
न हन्यते । । 19 । ।
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वाऽभविता वा न
भूय: ।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।20 । ।
गीता अध्याय 2
अर्थात् जो जानता है कि वह मारने वाला
है और जो समझता है कि वह मरता है, वह दोनों नहीं
जानते हैं, यह न मारता है न मरता है ।
यह न कभी जन्मता है, न मरता है, यह होकर फिर कभी न होगा
ऐसा नहीं है, यह अजन्मा है, नित्य है, एकरस
है, पुराना है, शरीर के मरने
पर नहीं मरता
है ।
छान्दोग्य उपनिषद का उद्धरण –
जीवापेतं वाच किलेदं म्रियते न जीवो
म्रियते ।
(छान्दोग्य 6/11/3)
(उद्धालक का श्वेतकेतु के प्रति उपदेश) जीव से अलग हुआ यह (शरीर) मरता है, न कि जीव मरता है ।
––––––स यत्रयमणिमानं न्येति, जरयावोपतपतावाऽणिमानं निगच्छति । तद्यथा ऽऽयं वोदुम्बरं वा पिप्पलं वा बन्धनात् प्रमुच्यते, एवमेवायं पुरुष
एभ्योऽङ्गेभ्य: संप्रमुच्य पुन: प्रतिन्यायं प्रतियोन्याद्रवति प्राणायैव
(वृहदारण्यक 4/3/36)
अर्थात् जबकि
वह बड़ी निर्बलता में जा पड़ता
है । बुढ़ापे से या सख्त
बीमारी से निर्बलता में डूब जाता
है । तब जैसे आम या गूलर या पीपल
(फल) डंडी से छूट जाता है ।
इसी प्रकार यह पुरुष इन अंगों से छूट कर जीवन के लिए फिर उल्टा
अपनी नियत योनि
की ओर भागता
है (जो उसने
अपने कर्मों से कमाई है ।)
तस्य हैतस्य हृदयस्याग्नं प्रद्योतते, तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्कामति, चक्षुष्टो वा मूर्द्यो वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेम्य:
(वृहदारण्यकोपनिषद 4/4/2)
अर्थात् (जब इन्द्रियों की शक्तियाँ हृदय में एक हो जाती हैं तब) उसके हृदय
का अग्नि प्रकाश वाला होता है, उस प्रकाश से यह आत्मा निकलता है या तो आँख से या मूर्धा (सिर) से या शरीर के दूसरे हिस्सों से ।
तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्कामति प्राण मनूत्कामन्तं सर्वे
प्राण अनूक्रामन्ति
(वृहदारण्यकोपनिषद4/4/2)
और जब निकलता है, तो मुख्य प्राण उसके पीछे निकलता है, और जब मुख्य प्राण निकलता है तो सारे
प्राण (इन्द्रिय) उसके पीछे निकलते हैं ।
तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञाच
(वृहदारण्यकोपनिषद् 4/4/2)
उसकी विद्या (उपासना) और कर्म
सहारा देते हैं,
और पहली प्रज्ञा (बुद्धि) भी ।
यच्चितस्तेनैष प्राणमायाति प्राणस्तेजसा युक्त:
सहात्मना यथासंकल्पितं लोकं नयति ।
(प्रश्नोपनिषद् 3/10)
(अब मरने के समय) वह जैसे
चित्त वाला है, उस (चित्त) के साथ वह प्राण
की ओर आता है, और प्राण
तेज (उदान) के साथ युक्त होकर
आत्मा के सहित
(उस सूक्ष्म शरीर
को) अपने लिये
तैयार किये हुए लोक में ले जाता है ।
अथैकयोर्ध्वं उदान: पुण्येन पुण्यं लोकं नयति,
पावेन पापभुमाभ्यामेव मनुष्यलोकम् ।
(प्रश्नोपनिषद् 3/7)
अब उदान,
जो ऊपर को जाने वाला है, पुण्य से पुण्य
लोक (देव लोक)
को ले जाता
है । पाप से पापलोक (पशु कीट आदि के जन्म) का और दोनों (पाप, पुण्य)
से मनुष्य लोक भी ले जाता
है ।
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वापदेहिन: ।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्मं यथाश्रुत्तम् ।
(कठोपनिषद् 5/7)
(मृत्योपरान्त) शरीर ग्रहण
करने के लिये
कोई शरीरधारी तो योनि में प्रवेश करते हैं, और दूसरे स्थावरभाव को प्राप्त होते हैं,
अपने कर्म और ज्ञान के
अनुसार ।
गर्भेनु सन्नन्वेषामवेदमहं देवानां जनिमानि विश्वा । शतं मापुर आयसीररक्षन्न्धश्येनो जवसा निरदीयम्
(ऋग 04/27/1)
गर्भ में होते हुए मैंने
इन देवताओं के सारे जन्मों का पता लगा लिया
है । सौ लोहे के पुरां
(किलो) ने मुझे
(बंद) रखा पर मैं ऐसे वेग से निकल आया हूँ, जैसे बाज
(निकलता) है ।
पुनर्जन्म के विषय
में प्रमाण दिया
गया है । आशय यह है कि गर्भ में होते हुए अर्थात् बार–बार जन्म
ग्रहण करते हुए ही मैंने असली
तत्त्व को पा लिया है, जैसे
कोई लोहे के किलों में बंद किया जाए । इस तरह मुझे
अनेक शरीरों में बंद रखा (अनेक
जन्म लिए) पर अब मैं इन बन्धनों को तोड़ कर निकल आया हूँ ।
पातञ्जल योगदर्शन,पूर्वजन्म के साक्षात्कार का वर्णन
महर्षि पतञ्जलिकृत पातञ्जलयोग दर्शन के विभूतिपाद में विभिन्न विभूतियों का वर्णन
है । महर्षि पतञ्जलि ने वर्णित किया है कि किस प्रकार वैज्ञानिक तरीके से साधना
करने से योगी
मोक्ष या कैवल्य की प्राप्ति कर सकता है ।
इसके लिए पहले मनुष्य को यम (अहिंसा, सत्य
अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह (संग्रह का अभाव) तथा नियम (शौच, संतोष,
तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान) आदि का पालन करना अनिवार्य है । देखें
–
अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथान्तासंबोध: । ।39 । ।
पातञ्जलयोगदर्शन
।2 ।39 ।
अर्थात् जब योगी में अपरिग्रह का भाव पूर्णतया स्थिर हो जाता
है, तब उसे अपने पूर्व जन्मों और वर्तमान जन्म
की सब बातें
मालूम हो जाती
हैं ।
संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम् ।
पातञ्जलयोगदर्शन
।3 ।18 ।
अर्थात् संस्कारों का साक्षात् कर लेने
से पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता
है ।
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