Friday, November 23, 2018

बच्चों के मानसिक रोग (निदान, कारण और समाधान)

शैशवावस्था तथा बाल्यकाल में बच्चे की कई मानसिक समस्याएँ हो सकती हैं । बड़ों की छोटी–सी भूल बच्चे की किसी समस्या को जन्म दे सकती
है । जैसे – नवजात शिशु की स्तन चूसने की इच्छा अतृप्त रह जाने के कारण अँगूठा चूसने की आदत, कैल्शियम की कमी से मिट्टी खाने की आदत, बच्चे में मानसिक असुरक्षा के कारण रात में चैंकना, हीनता की भावना से हकलाना व मानसिक तनाव के कारण बिस्तर पर पेशाब करना आदि ।
यदि बचपन में इन समस्याओं को हल्के में लिया जाता है तो बड़े होने पर यही मानसिक समस्याओं को जन्म देती हैं । जैसे – चूसने की इच्छा अतृप्त रह जाने पर बड़े होने पर असामान्य सेक्स–सम्बन्ध की इच्छा प्रबल हो सकती है ।
1– स्कूल फोबिया
कई बच्चे स्कूल जाना पसन्द नहीं करते । जिस व्यवहार से उन्हें स्कूल न जाना पड़े, उसे अपना लेते हैं, जैसे – पेट–दर्द, सिर–दर्द आदि का बहाना करना । इसके लिए यह जानना आवश्यक है कि बच्चा स्कूल क्यों नहीं जाना चाहता । इसके कई कारण हैं – अध्यापक की मार–डाँट व भय, शारीरिक कमजोरी या विद्यालय में थक जाना, किसी कारण सहपाठियों द्वारा मजाक उड़ाया जाना, क्लास टेस्ट में दूसरों की अपेक्षा कम अंक मिलना । देखने में लगता है कि समस्या अचानक प्रारम्भ हुई, किन्तु बच्चा भीतर–ही–भीतर काफी समय से घबराहट का अनुभव करता है । बच्चा माँ–बाप से विद्यालय जाने के विषय में सीधे–सीधे न कहकर बहाना बनाता है, क्योंकि उसे मालूम है कि स्कूल तो उसे जाना ही पड़ेगा ।
कुछ बच्चे अपनी माँ पर इतने अधिक आश्रित होते हैं कि उन्हें विद्यालय में भी अपनी माँ के बिना अच्छा नहीं लगता । ऐसे बच्चों को हमउम्र बच्चों के साथ खेलने–कूदने तथा अपना कार्य स्वयं करने की आदत डालनी चाहिए ।
यदि विद्यालय–पूर्व क्रियाएँ सही तरीके से करवाई जाएँ तो बच्चे पूरी तरह से विद्यालय शिक्षा के लिए शारीरिक–मानसिक रूप से परिपक्व हो जाते हैं ।
अब समस्या यह है कि यदि बच्चे की विद्यालय–पूर्व शिक्षा सही रूप से नहीं हुई है और प्राथमिक स्तर पर आने पर उसके मन में विद्यालय के प्रति भय बैठ गया है, उसे विद्यालय जाना अच्छा नहीं लगता है, विद्यालय के नाम पर वह घबराने लगता है तब अभिभावकों को क्या करना चाहिए ?
सबसे पहले समस्या के मूल कारण को जानना चाहिए । इस समस्या के मूल कारण निम्न हो सकते हैं—
(क) शारीरिक कारण—सम्भव है कि बच्चा शारीरिक रूप से कमजोर हो, विद्यालय में थक जाता हो । यदि ऐसा है तो उसकी शारीरिक स्थिति को समझना चाहिए । हो सकता है बच्चा रात को देर से सोता हो, इस कारण सुबह जल्दी उठने में परेशानी होती हो, फलस्वरूप वह विद्यालय में थका–थका रहता हो । रात्रि में देर से सोने के कारण सुबह उठने पर बच्चों को शौच नहीं हो पाता है, पेट खराब होता है, बीमारी आती है, थकान रहती है, शिक्षा में अरुचि होती है । इसलिए घर में देर रात तक टी.वी. नहीं चलना चाहिए । बच्चों को रात में आठ बजे तक अवश्य सुला देना चाहिए, जिससे वह आठ–नौ घण्टे की नींद पूरी करके सुबह चार–पाँच बजे तक उठ जावें ।
(ख) कुपोषण—बच्चों को ताजा पौष्टिक भोजन दें, साथ में फल–सब्जी व दूध की मात्रा भी पर्याप्त हो । कुपोषण के कारण भी स्वास्थ्य खराब हो सकता है । शरीर थका–थका सा रहता है, फलत: बच्चे का विद्यालय में मन नहीं लगता है । बिस्किट, ब्रेड, नूडल्स, बोतलबन्द पेय, दालमोठ, बाजार की चाट आदि से स्वास्थ्य खराब होता है ।
(ग) खेलकूद व व्यायाम की कमी—बच्चों के लिए खेल बहुत आवश्यक है । खेलकूद में शारीरिक रूप से दौड़–भाग वाले खेल होने आवश्यक हैं । इनसे बच्चों के शरीर व मन दोनों का ही व्यायाम हो जाता है । उनका स्वास्थ्य ठीक रहता है व मन प्रसन्न रहता है ।
(घ) बच्चे का पढ़ाई में कमजोर होना—यदि बच्चा किसी कारण पढ़ाई में कमजोर है, उसे विद्यालय में अच्छा नहीं लगता है । वह विद्यालय न जाने के लिए तरह–तरह के बहाने बनाता है । ऐसी अवस्था में सबसे पहले उसकी विषयगत कमजोरियों को दूर करना चाहिए ।
(ङ) अध्यापक का भय—कुछ अध्यापक बात–बात पर बच्चों को डाँटते–मारते हैं या भयभीत करते हैं या मनोवैज्ञानिक तनाव प्रदान करते हैं । ऐसी अवस्था में बच्चे विद्यालय जाने से घबराते हैं । अभिभावक को अध्यापक से मिलकर वार्तालाप करना चाहिए । यदि प्रेमपूर्ण वार्तालाप के बाद भी अध्यापक अपना व्यवहार बदलने के लिए तैयार नहीं होते हैं तब विद्यालय प्राचार्य की मदद लेनी चाहिए ।
(च) सहपाठियों द्वारा मजाक उड़ाया जाना—कई बार किसी विशेष कारण से सहपाठी किसी बच्चे का मजाक उड़ाते हैं, जैसे बच्चे की विकलांगता, बदसूरत होना, हकलाकर बोलना, गरीब होना आदि ।
यदि ऐसा है तब पहले तो बच्चे को ही प्रेरणा देनी चाहिए कि वह चिढ़ाने वाले बच्चों का सामना करे । उन्हें मुँहतोड़ जवाब दे, किन्तु यदि समस्या ने अधिक गंभीर रूप ले लिया हो तो अभिभावक को चाहिए कि अध्यापक से मिलकर इस  समस्या का समाधान करें ।
(छ) टेस्ट में दूसरे बच्चों से कम अंक मिलना—महत्त्वाकांक्षा या प्रतिस्पर्द्धा की भावना अच्छी होते हुए भी बच्चे में बहुत अधिक प्रतिस्पर्द्धा की भावना होना या सदा कक्षा में पहले स्थान पर ही होने की भावना बहुत अधिक घातक हो जाती
है ।
सदा कक्षा में प्रथम आने वाला विद्यार्थी कभी चैथे, पाँचवें या दसवें स्थान पर आ जाता है तो बहुत अधिक महत्त्वाकांक्षी होने पर वह विचलित हो जाता है । फलस्वरूप विद्यालय उसे अच्छा नहीं लगता है और वह विद्यालय जाना पसन्द नहीं करता है ।
पहली बात तो प्रारम्भ से ही बच्चे के मन में यह भावना डालनी चाहिए कि जीवन में सफलता और असफलता दोनों के लिए ही तैयार रहना चाहिए । सदा आवश्यक नहीं है कि बच्चा प्रथम स्थान पर ही आए । दूसरी बात, यदि बच्चा बहुत महत्त्वाकांक्षी हो ही गया हो तो धीरे–धीरे उसके मन से इस भावना को निकालने का प्रयास करना चाहिए ।
महत्त्वाकांक्षी होना अच्छा होता है किन्तु लक्ष्य की प्राप्ति न होने पर नैराश्य यथ्तनेजतंजपवदद्ध से घिर जाना बहुत बुरा होता है । जितने भी लोग जीवन में सफल हुए हैं, उन्होंने जीवन में कभी–न–कभी असफलता का सामना अवश्य किया है ।
2– हकलाना
जब बच्चे बोलना सीख रहे हों, तब यह आदत पड़ सकती है । यदि समय पर देखभाल न की जाए तो विद्यालय जाने के समय तक यह रोग पूर्णत: विकसित हो जाता है ।
हकलाने के कई कारण हो सकते हैं – शारीरिक कमी, हीनता की भावना या दूसरों को अपनी तरफ आकर्षित करना । हकलाने वाले बच्चे को सर्वप्रथम बाल रोग विशेषज्ञ को दिखाना चाहिए । यदि हकलाने का कारण शारीरिक है, तब तो इलाज हो ही जायेगा ।
कुछ बच्चे सामान्य स्थिति में ठीक बोलते हैं किन्तु तनावपूर्ण स्थिति में या किसी नए व्यक्ति के सामने हकलाने लगते हैं । इसका प्रमुख कारण है कि वे अपने को दूसरे से हीन महसूस करते हैं । दूसरे के सामने बच्चा घबरा जाता है और वह हकलाने लगता है ।
इस समस्या का प्रारम्भ बहुत छोटेपन से होता है । कई बार हम अपनी इच्छाओं व आकांक्षाओं का केन्द्रबिन्दु बच्चे को बना लेते हैं । सोचते हैं कि बच्चा दूसरे के सामने एक आदर्श बच्चे का रूप प्रस्तुत करे या हमारी कल्पनाओं को साकार करे । सब लोग उसे अच्छा कहें । इस कारण हम उसे ऐसा व्यवहार सिखाने का प्रयास करते हैं, जिससे समाज में उसकी प्रशंसा हो । बच्चे की प्रशंसा होने पर हम स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते हैं ।
एक सीमा तक तो लोक–व्यवहार सिखाना बच्चे के हित में होता है, किन्तु जब यही चीज अधिकता में हो जाती है, तब बच्चे के लिए हानिकारक हो जाता
है । कई बार वह अपने को अच्छा प्रदर्शित करने के चक्कर में दूसरे के सामने घबरा जाता है व घबराहट के कारण हकलाने लगता है ।
पहली बात तो हम बच्चे को बच्चा समझें, उसको सहज रूप में विकसित होने दें तब यह समस्या उत्पन्न ही नहीं होगी । यदि बच्चे में हकलाने की समस्या उत्पन्न हो गई हो तो इस समस्या को दूर करने के लिए बड़े धैर्य की आवश्यकता है । यदि हकलाने का कारण शारीरिक विकृति न होकर मानसिक है तब समस्या के मूल में बच्चे की घबराहट छुपी होती है । अत: इसके निवारणार्थ—
बच्चे को अधिक से अधिक वार्तालाप का मौका दें । बच्चा यदि धीरे–धीरे बोल रहा है या हकलाकर भी बोल रहा है तो उसे बोलने दें । अधिक टोकाटाकी न करें, लेकिन जब बच्चा बिना हकलाए बोले तब उसकी प्रशंसा किसी–न–किसी तरह अवश्य करें ।
उससे स्वयं भी अधिक–से–अधिक बातें करें । जैसे—कहानियाँ सुनाना, विद्यालय की बातें करना, परी कथा सुनाना आदि । उसे भी स्वयं कहानी रचना व वाचन के लिए प्रेरित करें ।
जब वह बिना झिझक बोलना सीख लेगा तब उसकी हकलाहट धीरे–धीरे स्वयं समाप्त हो जाएगी ।
यदि हकलाने वाला बच्चा विद्यालय जाता है तो यदि उसकी हकलाहट के कारण विद्यालय में मजाक बनाया जाता है तो अध्यापकों से मिलकर इस समस्या को दूर करने का प्रयास करें । अध्यापकों से कहें कि उसे भी बोलने के लिए प्रेरित करें । जो बच्चे उसका मजाक बनाते हैं, उन्हें ऐसा न करने के लिए समझाएँ ।
3– रात में चौंकना या बोलना
कुछ बच्चों में प्राय: रात में चौंकना, चिल्लाकर सोते से जाग जाना, अचानक भय से जगकर बैठ जाना आदि लक्षण मिलते हैं । इस दशा में बच्चा कई मिनट तक अशान्त रहता है । कई बार बच्चे दिन में सुनी हुई बात को नींद में बड़बड़ाने लगते हैं ।
इस समस्या का मुख्य कारण बच्चे में असुरक्षा की भावना होती है । साथ ही यदि घर में कलह–क्लेश होता रहता है या बच्चा किसी कारण से डर गया होता है या उसको कोई भयभीत करता है, तब वह नींद में बड़बड़ाता है या चौंकता है ।
कई बार बच्चे को स्कूल में या घर में पढ़ाई के लिए अधिक डाँटा जाता है, तब भी वह तनावग्रस्त हो जाता है और रात में चैंकने या बड़बड़ाने लगता है ।
इस समस्या का निवारण बहुत आवश्यक है अन्यथा भावी–जीवन के लिए कष्टकारक हो सकता है । बच्चे को भरपूर प्यार दें, उसके मस्तिष्क में किसी प्रकार का भय, तनाव व चिन्ता न पनपने दें । अभिभावक अपने प्यार से बच्चे के मन से असुरक्षा की भावना को दूर कर दें ।
4– चोरी करना
कुछ बच्चों में चोरी करने की आदत पड़ जाती है । इसके कई कारण हो सकते हैं । बहुत छोटे बच्चे अपने–पराए का भेद नहीं समझते हैं । बच्चे को जो चीज अच्छी लगती है वह उसे उठा लेता है । चार–पाँच वर्ष तक के बच्चे के लिए ऐसा करना खेल है । वह यह समझता भी नहीं है कि ऐसा करना चोरी है । बड़े लोगों के डर के कारण उसे छुपाने या छुपाकर रखने का प्रयास करता है । ऐसा होने पर अभिभावक दो तरह का व्यवहार कर सकते हैं—
बच्चे को समझाएँ कि ऐसा करना ठीक नहीं है क्योंकि यह चीज अपनी नहीं है, दूसरे की है । बच्चे से ही कहें कि उठाई हुई चीज वह स्वयं वापस करे । ऐसा करने से बच्चा वस्तुस्थिति समझ जाएगा व आगे से चोरी नहीं करेगा ।
कुछ अभिभावक बच्चे को डाँटना, मारना प्रारम्भ कर देते हैं । उसे झूठा, चोर आदि कहते हैं व यह भी कहते हैं कि तुमने हमारी बेइज्जती करवा दी । ऐसा करना ठीक नहीं है । बच्चा वस्तुस्थिति तो समझेगा नहीं, उल्टे अपमान महसूस करेगा व जिद्दी हो जाएगा ।
इसके अतिरिक्त बड़े बच्चों में चोरी की प्रवृत्ति के निम्न कारण व निवारण हो सकते हैं—
(क) बड़े बच्चे की उपेक्षा—अक्सर घर में छोटे बच्चे के आ जाने पर बड़े की उपेक्षा होने लगती है । अत: वह सबका ध्यानाकर्षित करने के लिए चोरी करना शुरू कर देता है । जैसे – घर की कोई आवश्यक वस्तु छुपा देना, जब घर के लोग उस वस्तु के लिए परेशान हों  तो ढूँढ़ने का नाटक करते हुए उस वस्तु को ढूँढ़कर दे देना, जिससे घर के सदस्य उसकी प्रशंसा करें व प्यार करें ।
धीरे–धीरे यही आदत चोरी में बदल जाती है । यदि इस प्रकार की स्थिति बार–बार आती है तब बड़े लोगों को ध्यान देना चाहिए कि कहीं बच्चा जान–बूझकर तो चीजें नहीं छुपा रहा है । साथ ही छोटे बच्चे के साथ ही बड़े बच्चे को भी समय व प्यार देना चाहिए ।
(ख) दोस्तों में हीरो बनने की लालसा—कई बार कुछ बड़े बच्चों में शर्त लगती है कि फलां चीज चुराकर दिखाओ या फलां काम करके दिखाओ तो हम तुम्हारा लोहा मानेंगे । इस अस्वास्थ्यकर प्रतिस्पर्द्धा में बच्चे कभी किसी अध्यापक की नजर बचाकर उनकी कोई चीज उठा लेते हैं या किसी सहपाठी का कोई सामान उठा लेते हैं और अपने उन साथियों के मध्य हीरो बन जाते हैं, जिनसे शर्त लगी थी ।
यह प्रवृत्ति जब अधिक विकसित होने लगती है तब बच्चे घर का सामान व रुपए भी चुराने लगते हैं व अपने साथियों के मध्य प्रशंसा के पात्र बनते हैं ।
यदि बच्चे को उसके अभिभावक पर्याप्त समय दें तब ऐसी प्रवृत्ति विकसित होगी ही नहीं, क्योंकि यदि बच्चे को मार–डाँट का भय न हो  तब वह अपनी सब बातें घर में बताता है । यदि फिर भी बच्चे ने कभी ऐसी हरकत की तो माता–पिता को शुरुआती दौर में ही आभास हो जाएगा । उसे समझाने–बुझाने से इसका समाधान भी हो जाएगा ।
(ग) कठोर अनुशासन—बच्चों के लिए दण्ड और पुरस्कार दोनों ही आवश्यक हैं । अनुशासन भी अच्छा है, किन्तु आवश्यकता से अधिक कुछ भी अच्छा नहीं होता है । घर में बच्चों की मनपसन्द कोई चीज बनी है या कोई फल, मिठाई या खाद्य वस्तु जो बच्चे को पसन्द है वह आई है । वह वस्तु उसे दण्डस्वरूप खाने के लिए न दी जाए व कहा जाए कि तुमने अमुक शरारत की थी या तुम्हारे परीक्षा में कम अंक आए हैं, इसलिए तुम्हें यह चीजें नहीं दी जा रही हैं ।
बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार करना ठीक नहीं है । बच्चे की गलती के लिए उसे डाँट दिया जाए यह तो ठीक है किन्तु दण्डस्वरूप खाने की चीज न देने से या तो वह अपने घर में चोरी करके खाएगा या दु:खी रहेगा या वह किसी मित्र या रिश्तेदार के यहाँ माँगकर या चुराकर खाएगा ।
5– ईर्ष्या की प्रवृत्ति
कोई बच्चा पढ़ने में बहुत तेज होता है तो स्वाभाविक रूप से घर व विद्यालय में उसकी प्रशंसा की जाती है । कभी–कभी किसी बच्चे से उसकी प्रशंसा सहन नहीं होती है व उस पढ़ाई में तेज बच्चे की कॉपी–किताबें चुरा लेता है ताकि वह परेशान हो और पढ़ न पाए । यही प्रवृत्ति धीरे–धीरे चोरी में बदल जाती है, तब बच्चा किसी के घर में कोई कीमती चीज देखकर भी उठा लेता है । ईर्ष्या और चोरी दोनों ही प्रवृत्तियाँ गलत हैं ।
जब बच्चे के मन में ईर्ष्या की भावना आती है, तब दूसरे के नुकसान के पहले तो उसका मन खराब हो जाता है । चाहे बात पढ़ाई की हो या धन की या किसी अन्य चीज की, ईर्ष्या की भावना ही गलत है । अभिभावकों को चाहिए कि बच्चे के मन में भरें कि तुम्हारे पास जितना है, उतना बहुत है । बहुत से लोग दुनिया में ऐसे भी हैं, जिनके पास हमसे बहुत कम है ।
उसे समझाएँ – ‘पढ़ाई में भी जिस विषय में तुम कमजोर हो उस कमजोरी को दूर करने का प्रयास करो । पढ़ाई में तेज बच्चे से ईर्ष्या करने से तुम पढ़ाई में तेज नहीं हो जाओगे ।’वैसे भी दुनिया में सभी बच्चे एक समान स्तर पर नहीं हो सकते । बच्चों को समझाएँ – ‘अपना पूरा प्रयास करो, जितनी सफलता मिलती है उसमें संतुष्ट रहो ।’अभिभावकों को यह देखना चाहिए कि बच्चे की किस बिन्दु पर कमजोरी है ।
6– बिस्तर पर पेशाब करना
कई बार बड़े बच्चे भी रात को या दिन में भी सोते समय बिस्तर पर पेशाब कर देते हैं । बच्चों के बिस्तर गीला करने के कुछ शारीरिक कारण भी हो सकते हैं, यदि शारीरिक कारण नहीं हैं तो मनोवैज्ञानिक कारण भी हो सकते हैं ।
(क) शारीरिक कारण
यदि बच्चे को कब्ज की शिकायत हो या पेट में कीड़े हों तब उसका मूत्राशय पर नियंत्रण नहीं रह पाता है और उसका बिस्तर पर पेशाब निकल जाता है । बच्चे को रात में सोते समय यदि कोई तरल पदार्थ (जैसे–दूध, जूस, पानी आदि) पिलाया जाता है तो गहरी नींद में होने के कारण पेशाब लगने पर वह जाग नहीं पाता है और उसका पेशाब निकल जाता है ।
कई बार जाड़े के दिनों में पेशाब लगने पर आलस्य के कारण बच्चे उठते नहीं हैं । यदि उठाया भी जाए तो भुनभुनाते हुए सो जाते हैं । ऐसी स्थिति में उनका पेशाब निकल जाता है ।
बच्चा बहुत कमजोर हो तब भी उसका अपने शरीर पर नियंत्रण नहीं रह जाता है, फलस्वरूप वह सोते में बिस्तर गीला कर सकता है ।
यदि बच्चे के पेशाब में अम्लता Acidity अधिक है तो उसके मूत्राशय के चारों ओर खुजली होती है, जिसके कारण उसके सोते समय उसका पेशाब निकल सकता है ।

(ख) मनोवैज्ञानिक तथा अन्य कारण
अपना ध्यानाकर्षित करना—कई बार छोटे बच्चे के घर में आ जाने के कारण बड़े बच्चे पर ध्यान नहीं दिया जाता है । फलस्वरूप वह ऐसी हरकतें करने लगता है जिससे उसकी तरफ भी घर के लोग आकर्षित हों । इस मनोवृत्ति के कारण वह जाने या अनजाने बिस्तर गीला कर देता है ।
बहुत अधिक लाड़–प्यार—बहुत अधिक लाड़–प्यार के कारण भी बच्चा सही आदतें नहीं सीख पाता है । कुछ लोगों में यह भावना होती है कि बच्चा जो कर रहा है, करने दो, बड़ा होने पर स्वयं सीख जाएगा । ऐसा ठीक नहीं है । बच्चे को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी आवश्यक है, उसे कठोर अनुशासन में बद्ध न किया जाए, उसे नियमों में न बाँधा जाए यह सत्य है किन्तु सामाजीकरण की आदतों की नींव बचपन से डालनी आवश्यक है ।
अत्यधिक कठोरता—अत्यधिक कठोर अनुशासन भी बच्चे के लिए ठीक नहीं होता है । भयंकर जाड़े की रात है । बच्चे को रात में पेशाब लगी है, वह बिस्तर से नहीं निकलना चाहता है । वह बिस्तर से निकलता भी है तो शाल आदि ओढ़कर बाथरूम जाना चाहता है । यदि उसे ऐसा नहीं करने दिया जाता है तो वह डर के कारण बिस्तर से निकलता ही नहीं है व फिर सो जाता है और सोते में ही बिस्तर पर पेशाब निकल जाता है ।
भूत–प्रेत आदि का भय—बच्चों को डराने के लिए कई बार घर के बड़े लोग स्वयं ही भूत–प्रेत का डर मन में बैठा देते हैं या भूत–प्रेत की कथाएँ सुनकर उसके मन में भय बैठ जाता है । ऐसी स्थिति में रात में वह कमरे से बाहर निकलने में डरता है और सोते में ही उसका पेशाब निकल जाता है ।
यही भय धीरे–धीरे बच्चे के मन में स्थायी स्थान बना लेता है ।
7– झूठ बोलना
बहुत छोटे बच्चे को झूठ–सच में अन्तर पता ही नहीं होता है । वह खेल–खेल में ही अनायास झूठ बोलने लगता है, जैसे–बड़े लोगों ने उसका कोई खिलौना छुपाकर कहा—‘कौआ ले गया’फिर थोड़ी देर बाद कहा—‘देखो जादू से आ गया ।’ उसी प्रकार बच्चा भी खेल करता है—कोई चीज छुपाकर कहता है—‘देखो बिल्ली ले गई ।’ बड़े लोग हँसने लगते हैं, फिर वह उस चीज को दिखाकर कहता है—‘देखो मैं भी जादू जानता हूँ ।’
यह बात खेल तक तो ठीक है किन्तु बच्चे के और बड़ा होने पर यही आदत बढ़ती जाती है तो वह झूठ बोलने में परिवर्तित हो जाती है । इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि बच्चे के साथ इस प्रकार के खेल खेले ही न जाएँ या उसे सदा कठोर अनुशासन में ही रखा जाए या गम्भीर ही रहा जाए, किन्तु थोड़ा बड़ा होने पर यदि खेल झूठ बोलने की प्रवृत्ति में परिवर्तित होने लगे तो उसे झूठ और सच में अन्तर प्यार से समझा देना चाहिए ।
झूठ बोलने के और भी अनेक कारण व उनके निवारण प्रस्तुत हैं—
डाँट व मार के भय के कारण झूठ बोलना—अक्सर बच्चे घर व विद्यालय में मार व डाँट के भय के कारण झूठ बोलने लगते हैं । झूठ बोलने की शुरुआत घर से ही होती है । बच्चों से कोई चीज गिर गई या टूट गई, ऐसी स्थिति में उसे डाँट पड़ी या मार पड़ी । दुबारा ऐसी गलती होने पर उसने अनायास ही झूठ बोल दिया कि उसने तो ऐसा नहीं किया है । इस प्रकार झूठ बोलने से वह मार या डाँट से बच गया ।
धीरे–धीरे उसकी झूठ बोलने की आदत बढ़ती चली जाती है । बच्चा बड़ा होने पर विद्यालय गया । उसने होमवर्क नहीं किया या अन्य कोई गलती हो
गई । बच्चे ने झूठ बोल दिया – ‘हम लोग कहीं चले गए थे । इसलिए होमवर्क नहीं कर पाए ।’ शिक्षक ने उसे सजा नहीं दी । बच्च को ऐसा न करने के लिए प्यार से समझाएँ ।
सुधार के लिए बच्चे से गलती हो जाने पर उसे तुरन्त डाँटना या मारना शुरू न कर दें । उसकी पूरी बात धैर्य से सुननी चाहिए । यदि बच्चे से अनजाने में गलती हो गई है, जैसे कोई चीज गिर गई या टूट गई या खो गई तो उसे प्यार से समझाएँ व चीजें सम्भालकर रखना सिखाएँ । यदि बच्चा जान–बूझकर लापरवाही के कारण अपनी चीजें या घर का सामान इधर–उधर फेंकता रहता है तो उसे मीठी घुड़की दें ।
इसी प्रकार अध्यापक को भी धैर्य से काम लेना चाहिए–होमवर्क न करने पर वस्तुस्थिति को समझ लेना चाहिए । बच्चे के पास अधिक काम था, इस कारण वह होमवर्क नहीं कर पाया था, वह कुछ अस्वस्थ है या लापरवाही के कारण होमवर्क नहीं किया है या उसे पाठ समझ में नहीं आया है ।
पहली बात तो प्राथमिक कक्षाओं में (कक्षा एक से पाँच तक) होमवर्क देना ही गलत है । उसे जितना कार्य विद्यालय में करवा दिया जाए, उतना ही काफी
है । घर में उसे खेलने–कूदने, व्यवहार सीखने तथा अन्य क्रिया–कलापों जैसे – ड्रॉइंग, पेंटिंग, आर्ट, क्राफ्ट का काम या छोटी–छोटी कहानी, कविता आदि की पुस्तकें पढ़ने का समय मिलना चाहिए ।
बड़ी कक्षाओं में यदि होमवर्क दिया भी जाता है तो उसे पूरा न करने पर उसे सजा देना गलत है । बच्चे को सहज रहने दें । यदि बच्चा जान–बूझकर लापरवाही कर रहा है, तब उसे समझा दें किन्तु सजा न दें, क्योंकि चिन्ता व भय का बच्चे के मस्तिष्क पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है । इससे झूठ बोलना, जिद्दी होना, क्रोध करना आदि दुर्गुण पनपने लगते हैं ।
घर में बड़ों द्वारा झूठ बोलना – घर में बड़े अक्सर झूठ बोलते हैं, जैसे माँ को पिता से अपनी कोई गलती छुपानी है तब वह बच्चे से कहती हैं—‘पापा को मत बताना ।’
अवसर आने पर बच्चे से भी कोई गलती हो जाने पर वह गलती को छुपा लेता है और माँ से नहीं बताता है । इस प्रकार झूठ की नींव पड़ जाने पर बड़े हो जाने पर बच्चे का झूठ भी बड़ा होता जाता है ।
बड़ों को यदि किसी अपरिहार्य स्थिति में झूठ का सहारा लेना ही पड़ जाए तो कम–से–कम बच्चों को उस झूठ में शामिल न करें । जैसे – बच्चे से यह कहना – ‘पापा को मत बताना ।’ या किसी के आने पर बच्चे से यह कहलवा देना – ‘कह दो पापा घर पर नहीं हैं ।’ या किसी अनिच्छित व्यक्ति का फोन आ जाने पर बच्चे से कहलवा देना – ‘कह दो पापा मोबाइल घर पर भूल गए हैं, अभी घर पर नहीं हैं ।’
बड़ों को इस तरह की अपनी समस्याओं को स्वयं हल करना चाहिए, बच्चों को बीच में नहीं डालना चाहिए ।
यदि बच्चे की झूठ बोलने की आदत पड़ ही गई है तब उसे झूठ की बुराई और सच का महत्त्व छोटी–छोटी कहानियों के माध्यम से समझाया जा सकता
 है । साथ ही उसे यह भी बताना चाहिए कि एक सच को छुपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ जाते हैं ।
झूठ खुल जाने पर समाज में बड़ी बेइज्जती होती है और उस बच्चे की सच बात को भी लोग झूठ मानने लगते हैं । इसलिए सदा सच ही बोलना चाहिए, चाहे इसके लिए थोड़ी देर के लिए हमें अपमान भी सहना पड़े किन्तु अन्तत: परिणाम अच्छा ही होता है ।
8– अँगूठा चूसना
प्रथम छह माह तक शिशु में चूसने की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है । इस आयु में शिशु का अँगूठा चूसना उसकी सामान्य अवस्था को दर्शाता है । कुछ बच्चे एक वर्ष की आयु तक अँगूठा चूसते देखे जाते हैं किन्तु इस आयु के बाद भी शिशु का अँगूठा चूसना एक समस्या बन जाती है ।
यह समस्या जन्म ही न ले, इसके लिए आवश्यक है कि माता बच्चे को प्यार से स्तनपान कराए । माँ स्तनपान कराते समय बच्चे को प्यार से देखती रहे तथा दूध पिलाने के साथ–ही–साथ धीरे–धीरे प्यार से बच्चे के सिर पर हाथ फेरती रहे । इससे बच्चे का पेट भरने के साथ–ही–साथ उसकी चूसने की प्रवृत्ति की संतुष्टि भी होगी और वह प्रसन्न भी रहेगा ।
प्रथम छह माह तक बच्चे की चूसने की प्रवृत्ति धीरे–धीरे शान्त हो जाती
 है । अत: बच्चे को तब तक स्तनपान कराते रहना चाहिए, जब तक वह स्तन से स्वयं मुँह न हटा ले ।
कई बार बच्चा दूध पीते समय बीच–बीच में हँसता है व माँ को आकर्षित करता है, वह बीच–बीच में खुश होकर माँ के साथ खेलना चाहता है । यदि उस समय माता झुंझलाहट में उसे डाँटती है व जल्दी दूधपीने के लिए प्रेरित करती है तब बच्चे पर इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव बहुत बुरा पड़ता है ।
माता को व्यस्तता के बावजूद शिशु को दूध पिलाने के लिए पूरा समय निकालना ही चाहिए । इससे शिशु स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है व उसे संतुष्टि का आभास होता हैय जो उसके पूरे जीवन के आनन्द का स्रोत है ।
जो बच्चे बोतल से दूध पीते हैं, उनकी भी चूसने की प्रवृत्ति की संतुष्टि नहीं हो पाती है । अत: माता का पहला प्रयास तो यह होना चाहिए कि वह बच्चे को स्तनपान ही कराए क्योंकि स्तनपान कराने से बच्चे का ही नहीं माता का भी स्वास्थ्य ठीक रहता है । स्तनपान से बच्चे के शरीर के लिए आवश्यक सभी तत्त्व तो उसे मिल ही जाते हैं, साथ ही उसे भावनात्मक सुरक्षा भी मिलती है, जो उसके सहज विकास के लिए आवश्यक है ।
यदि माता कार्यशील महिला है और वह हर समय अपना दूध नहीं पिला सकती है तब जितनी बार सम्भव हो अपना दूध पिलाए, जब माता घर पर न हो उस समय ही बच्चे को दूसरा दूध दिया जाए । माता जब भी बच्चे को दूधपिलाए, बच्चे को पूरा समय देना चाहिए ताकि बच्चे की भावनात्मक संतुष्टि हो सके ।
यदि माता के पर्याप्त दूध नहीं होता है तब दूसरा दूध पिलाते समय निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए –
* बोतल के निपल के छेद को छोटा रखना चाहिए, ताकि बच्चों की चूसने की प्रवृत्ति की संतुष्टि हो सके ।
* बोतल का निपल भी जल्दी–जल्दी बदलते रहना चाहिए क्योंकि निपल का छेद बड़ा हो जाने पर दूध तेजी से निकलने लगता है और शिशु की चूसने की इच्छा अतृप्त रह जाती है ।
* बोतल का निपल मुलायम यैवजिद्ध होना चाहिए ।
* बोतल से दूध पिलाते समय भी माँ शिशु को अपनी गोद में लिटाकर सिर पर हाथ फेरती रहे, वह उसकी ओर प्यार से देखती रहे, जिससे शिशु स्तनपान के समान ही सुख प्राप्त कर सके ।
अँगूठा चूसने की आदत पड़ जाने पर क्या करें ?
यदि बच्चा एक वर्ष का हो जाता है और उसकी अँगूठा चूसने की आदत पड़ ही गई है तो उसे डाँटने–फटकारने की बजाय प्यार से समझाना चाहिए । निम्नलिखित कुछ उपाय भी किए जा सकते हैं –
* यदि बच्चा नींद में अँगूठा चूसता है तब सोते समय बच्चे के मुँह से अँगूठा निकाल देना चाहिए ।
* अँगूठा चूसने की समस्या आत्मकेन्द्रित है । अत: इसके बारे में अधिक टोका–टाकी न करें ।
* अँगूठे पर नीम की पत्ती पीसकर उसका लेप लगाया जा सकता है ।
* कई बार माताएँ बच्चे को चुसनी इसलिए चूसने को दे देती हैं ताकि बच्चा चुप रहे और वह अपना काम निपटा सकें, ऐसा करना गलत है । बच्चे को खिलौनों आदि की तरफ आकर्षित करें, चुसनी चूसने को न दें ।
* यदि माता के दूध नहीं होता है, तब बच्चे को बोतल या कटोरी–चम्मच से दूध पिलाएँ, किन्तु बच्चे को माता का स्तन चूसने दें । इससे बच्चे को भी भावनात्मक सहारा मिलता है और माता को भी आत्मसंतुष्टि मिलती है ।
चूसने की इच्छा अतृप्त रह जाने पर बड़े होने पर असामान्य सेक्स की इच्छा प्रबल हो सकती है ।

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