मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो : ।
बन्धाय विषयासक्तं मोक्षे निर्विषयंस्मृतम् । ।
मैत्रेयोपनिषद् 6/34
अर्थात् मन ही मनुष्यों के बन्धन का कारण है, मन में विषयों की आसक्ति होने पर ही बन्धन होता है । मन के निर्विषय होने पर मोक्ष की प्राप्ति भी हो सकती है ।
कहा भी गया है,
‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ।’
स्वस्थ मन कैसे रहे ?,हमें यह समझना होगा कि हमारा मन क्या चाहता
है ? मन आनन्द चाहता है । जरा विचार करें, बच्चे खुश रहते हैं । उनका पेट भरा है तो ठीक है । गरीबी–अमीरी, संसार की विषमताओं का उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता है । वह माँ पर आश्रित रहते हैं, उन्हें लगता है कि हर समस्या माँ को बता दो और निश्चिन्त हो जाओ । एक तरह से कहा जाए तो उनका सर्वभावेन समर्पण माता के प्रति होता है और यही उनकी प्रसन्नता का रहस्य है ।
जैसे–जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है, आत्मकेन्द्रित होता जाता है, उसकी आशाएँ, अपेक्षाएँ बढ़ती जाती हैं । सफलता में वह खुश होता है, विफलता से दु:खी । मन स्वस्थ रहे, इसके लिए आवश्यक है समुचित जीवन–प्रबन्धन ।
हमें यह जानना आवश्यक है कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है ? हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं ? हम कोई कार्य क्यों कर रहे हैं ? हमें क्या चाहिए ? क्यों चाहिए ? वांछित वस्तु प्राप्त करने पर क्या होगा ? आदि–आदि । तनिक विचार करें स्थिर मन से, शाँत मन से । कॉपी–पेन लेकर बैठ जाएँ और लिख लें ।
हमारे कई लक्ष्य हो सकते हैं—
चरमलक्ष्य—हर मनुष्य के जीवन का चरमलक्ष्य एक और केवल एक है और होना भी चाहिए, वह है भगवान की प्राप्ति । इसे चाहे खुदा कहें या गॉड, परमात्मा या आत्मा की प्राप्ति, आत्मदर्शन या आत्मसाक्षात्कार ।
सांसारिक लक्ष्य—सांसारिक लक्ष्य आनन्द की प्राप्ति तो सभी के लिए समान है । कोई भी संसार में दु:खी नहीं रहना चाहता । सभी सुख की, आनन्द की प्राप्ति चाहते हैं । यह बात अलग है कि हर व्यक्ति की आनन्द की परिभाषा अलग है ।
सांसारिक लक्ष्य भी समयानुसार अलग–अलग हो सकते हैं । इनका वर्गीकरण इस प्रकार कर सकते हैं—
क– समयगत लक्ष्य
ख– तात्कालिक लक्ष्य
ग– आज का लक्ष्य
घ– अभी का लक्ष्य
इस प्रकार योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने से मन भी स्वस्थ रहेगा और लक्ष्य की प्राप्ति भी होगी । विशेष बात यह है कि हमें अपना लक्ष्य अपनी सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत परिस्थिति और अपनी क्षमता के अनुसार ही निर्धारित करना चाहिए ।
सबसे बड़ी आवश्यकता है कि यदि बच्चों का बचपन आनन्दित हो, सुखद हो, सुनियोजित हो तो विषम परिस्थितियोंमें भी वह शान्त रहेगा, सफल होगा, जीवनप्रबन्धन कर लेगा ।
बन्धाय विषयासक्तं मोक्षे निर्विषयंस्मृतम् । ।
मैत्रेयोपनिषद् 6/34
अर्थात् मन ही मनुष्यों के बन्धन का कारण है, मन में विषयों की आसक्ति होने पर ही बन्धन होता है । मन के निर्विषय होने पर मोक्ष की प्राप्ति भी हो सकती है ।
कहा भी गया है,
‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ।’
स्वस्थ मन कैसे रहे ?,हमें यह समझना होगा कि हमारा मन क्या चाहता
है ? मन आनन्द चाहता है । जरा विचार करें, बच्चे खुश रहते हैं । उनका पेट भरा है तो ठीक है । गरीबी–अमीरी, संसार की विषमताओं का उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता है । वह माँ पर आश्रित रहते हैं, उन्हें लगता है कि हर समस्या माँ को बता दो और निश्चिन्त हो जाओ । एक तरह से कहा जाए तो उनका सर्वभावेन समर्पण माता के प्रति होता है और यही उनकी प्रसन्नता का रहस्य है ।
जैसे–जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है, आत्मकेन्द्रित होता जाता है, उसकी आशाएँ, अपेक्षाएँ बढ़ती जाती हैं । सफलता में वह खुश होता है, विफलता से दु:खी । मन स्वस्थ रहे, इसके लिए आवश्यक है समुचित जीवन–प्रबन्धन ।
हमें यह जानना आवश्यक है कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है ? हम किस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं ? हम कोई कार्य क्यों कर रहे हैं ? हमें क्या चाहिए ? क्यों चाहिए ? वांछित वस्तु प्राप्त करने पर क्या होगा ? आदि–आदि । तनिक विचार करें स्थिर मन से, शाँत मन से । कॉपी–पेन लेकर बैठ जाएँ और लिख लें ।
हमारे कई लक्ष्य हो सकते हैं—
चरमलक्ष्य—हर मनुष्य के जीवन का चरमलक्ष्य एक और केवल एक है और होना भी चाहिए, वह है भगवान की प्राप्ति । इसे चाहे खुदा कहें या गॉड, परमात्मा या आत्मा की प्राप्ति, आत्मदर्शन या आत्मसाक्षात्कार ।
सांसारिक लक्ष्य—सांसारिक लक्ष्य आनन्द की प्राप्ति तो सभी के लिए समान है । कोई भी संसार में दु:खी नहीं रहना चाहता । सभी सुख की, आनन्द की प्राप्ति चाहते हैं । यह बात अलग है कि हर व्यक्ति की आनन्द की परिभाषा अलग है ।
सांसारिक लक्ष्य भी समयानुसार अलग–अलग हो सकते हैं । इनका वर्गीकरण इस प्रकार कर सकते हैं—
क– समयगत लक्ष्य
ख– तात्कालिक लक्ष्य
ग– आज का लक्ष्य
घ– अभी का लक्ष्य
इस प्रकार योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने से मन भी स्वस्थ रहेगा और लक्ष्य की प्राप्ति भी होगी । विशेष बात यह है कि हमें अपना लक्ष्य अपनी सामाजिक, आर्थिक और व्यक्तिगत परिस्थिति और अपनी क्षमता के अनुसार ही निर्धारित करना चाहिए ।
सबसे बड़ी आवश्यकता है कि यदि बच्चों का बचपन आनन्दित हो, सुखद हो, सुनियोजित हो तो विषम परिस्थितियोंमें भी वह शान्त रहेगा, सफल होगा, जीवनप्रबन्धन कर लेगा ।
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