क्यों दु:ख मैने पाया था, क्यों सुख को मैने खोजा,
सुख–दु:ख के इस बन्धन में, क्यों पड़ा हुआ है मानव,
जब मैने देखा निश्चल, इस सूर्य किरण की ऊष्मा–
इसमें तो है जन–जीवन, फिर क्यों तपती जाती है?
इस प्राणकिरण के पीछे, है एक अलौकिक आभा–
उस आभा के छुपते ही, किरणों का विनाश निश्चित है।
निश्चित तो जीवन भी है, वह शाश्वत और अनुपम है ।
जब उषाकाल आता है, जीवन की छाती लाली ।
अपरान्ह के बढ़ते ही, यौवन तो मदमाता है ।
फिर आती वृद्धावस्था, तब रश्मि अस्त हो जाती ।
प्रात: के होते ही फिर–पुनर्जन्म हो जाता ।
सुख–दु:ख के इस बन्धन में, क्यों पड़ा हुआ है मानव,
जब मैने देखा निश्चल, इस सूर्य किरण की ऊष्मा–
इसमें तो है जन–जीवन, फिर क्यों तपती जाती है?
इस प्राणकिरण के पीछे, है एक अलौकिक आभा–
उस आभा के छुपते ही, किरणों का विनाश निश्चित है।
निश्चित तो जीवन भी है, वह शाश्वत और अनुपम है ।
जब उषाकाल आता है, जीवन की छाती लाली ।
अपरान्ह के बढ़ते ही, यौवन तो मदमाता है ।
फिर आती वृद्धावस्था, तब रश्मि अस्त हो जाती ।
प्रात: के होते ही फिर–पुनर्जन्म हो जाता ।
इन किरणों के जीवन में, नितप्रति है यह सब घटता ।
यह उदय–अस्त तो होता, पर स्त्रोत सूर्य निश्चित है । ।
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