Friday, November 23, 2018

शास्त्रों के अनुसार मन और उसका कार्य

मन की अवस्थाएँ
जाग्रत अवस्था
जाग्रत अवस्था या जागते हुए ही सभी प्राणी सब कार्यों को करते हैं ।
स्वप्नावस्था – उपनिषदों के अनुसार
‘स यत्र प्रस्वपित्यस्य लोकस्य सर्वावतो मात्रामपादाय स्वयं विहत्य स्वयं निर्माय स्वेन भासा स्वेन ज्योतिषां प्रस्वापीति ।
अत्रायं पुरुष: स्वयंज्योतिर्भवति ।’ (वृह– 4/3/9)
जब यह स्वप्न देखता है, उस अवस्था में यह सारी वस्तुओं से भरी हुई इस दुनिया की मात्राओं (सूक्ष्म अंशों अर्थात् वासनाओं) को लेकर आप ही नष्ट करके आप ही बना कर अपने प्रकाश से अपनी ज्योति से स्वप्न को देखता है, यहाँ (इस अवस्था में) यह पुरुष स्वयं ज्योति होता है ।
‘न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्ति, अथ रथान् रथयोगान् पथ: सृजते, न तत्रानन्दामुद: प्रमुदोभवन्ति, अथाऽऽनन्दान् मुद: प्रमुद: सृजते, न तत्र वेशान्ता: पुष्करिण्य: स्त्रवन्त्यो भवन्ति, अथ वेशान्तान् पुष्करिणी: स्त्रवन्ती: सृजते । स हि कर्ता’ (वृहदारण्यकोपनिषद् 4/3/10)
न वहाँ रथ, न घोड़े, न सड़कें होती हैं, पर वह रथ, घोड़े और सड़कें रच लेता है, न वहाँ आनन्द, मोह और प्रमोद होते हैं, पर वह आनन्द, मोद और प्रमोद रच लेता है, न वहाँ तालाब, झीलें और नदियाँ होती हैं, पर वह तालाब, झीलें और नदियाँ रच लेता है ।
‘अत्रैष देव: स्वप्ने महिमानमनु भवति ।’
(प्रश्नोपनिषद 4/5)
यहाँ यह देव (मन) स्वप्न में महिमा को अनुभव करता है ।
यद्दृष्टंदृष्ट मनुपश्यति, श्रुतंश्रुत मेवार्थ मनुश्रृणोति, देशदिगन्तरैश्च प्रत्यनुभूतं पुन: पुन: प्रत्यनुभवति दृष्टं चादृष्टं च, श्रुतंचाश्रुतंचानुभूतं चाननुभूतं च, सच्चासच्च सर्वं पश्यति सर्व: पश्यति ।
(प्रश्नोपनिषद 4/5)
(स्वप्न में यह मन) देखे हुए को फिर से देखता है, सुने हुए को फिर सुनता है, जो भिन्न–भिन्न देशों और भिन्न दिशाओं में अनुभव किया हुआ है, उसको फिर–फिर अनुभव करता है । देखा हुआ और न देखा हुआ, सुना और न सुना हुआ, अनुभव किया हुआ और अनुभव न किया हुआ, विद्यमान और अविद्यमान, सब कुछ देखता है और सब कुछ (राजा, नौकर, नेता, शिक्षक, सैनिक आदि–आदि) बन कर देखता है ।
स एष स्वप्ने महीयमानश्चरत्येष आत्मा । तद्यद्यपीदंशरीरमन्धंभवत्यन्ध: सभवति, यदि स्त्राम मस्त्रामो, नैवैषोऽस्यदोषेणदुष्यति । न वधेनास्य हन्यते नास्यस्त्राम्येणस्त्राम:  ।
(छान्दोग्योपनिषद् 8/10/1–2)
यह जो स्वप्न में महिमा अनुभव करता हुआ विचरता है, यह आत्मा है । अत: यह स्थूल शरीर यदि अन्धा भी हो जाए तो वह (स्वप्नद्रष्टा) अन्धा नहीं होता है । यदि वह काना हो तो भी वह (स्वप्नद्रष्टा) काना नहीं होता है । न इसके दोष से वह दूषित होता है, न इसके वध से वह मरता है, न इसके कानापन से वह (स्वप्नद्रष्टा) काना होता है ।
सुषुप्ति अवस्था –उपनिषदों के अनुसार
तद्यथाऽस्मिन्नाकाशे श्येनो वा सुपर्णो वा विपरिपत्यस श्रान्त: हत्य पक्षौ संलयायैव ध्रियते एवमेवायं पुरुष एतस्मा अन्ताय धावति, यत्र सुप्तो न कञ्चन कामं कामयते, न कञ्चन स्वप्नं पश्यति ।
(वृहदारण्यकोपनिषद 4/3/19)
जिस प्रकार एक बाज या कोई और तेज पंछी इस आकाश में इधर–उधर उड़ करके थका हुआ दोनों पंखों को लपेट कर घोंसले की तरफ मुड़ता है, इस प्रकार यह (आत्मा) इस अवस्था की ओर दौड़ता है, जहाँ गहरा सोया हुआ न कोई कामना चाहता है, न कोई स्वप्न देखता है ।
‘स यथा शकुनि: सूत्रो प्रबद्धो दिशं दिशं पतित्वाऽन्यत्रायतनमलब्ध्वा बन्धनमेवोपश्रयते, एवमेव खलु सोम्यैतन्मनो दिशं दिशं पतित्वाऽन्यत्रायपन मा लब्ध्वा प्राणमेवोपश्रयते, प्राणबन्धन,हि सोम्य मन इति ।’
(छान्दोग्योपनिषद 6/8/2)
जैसे शिकारी के तागे से दृढ़ बँधा हुआ कोई पंछी दिशा दिशा में उड़ने का प्रयास करके कहीं आश्रय न पाकर उसी जगह का आश्रय लेता है, जहाँ वह बँधा हुआ है । ठीक इसी प्रकार हे सोम्य! यह मन (जागृत और स्वप्न में) विभिन्न दिशाओं में घूमकर और कहीं आश्रय न पाकर प्राण का ही सहारा लेता है, क्योंकि यह मन हे सोम्य! प्राण से बँधा हुआ है (प्राण के सहारे है) ।
तद् यत्रैतत् सुप्त: समस्त: सम्प्रसन्न: स्वप्नं न विजानात्येषआत्मेति
(छान्दोग्योपनिषद् 8/11/1)
जब यह सोया हुआ, आराम करता हुआ सम्प्रसन्न (हलचल से रहित पूरे आराम से) हुआ स्वप्न को नहीं देखता है, वह आत्मा है ।
अथ यदा सुषुप्तो भवति, यदा न कस्यचन वेद, हिता नाम नाड्योद्वासप्तति: सहस्त्राणि हृदयात् पुरीततमभिप्रतिष्ठन्ते ताभि: प्रत्यवसृप्य पुरीतति शेते ।
(बृहदारण्यकोपनिषद 2/1/19)
जब यह (मन) गहरी नींद में सोया हुआ होता है, जब इसे किसी की खबर नहीं होती, उस समय वह उन हिता नामी नाड़ियाँ जो हृदय से सारे शरीर में पहुँचती हैं, उन (नाड़ियों) के द्वारा चल कर पुरीतत् नाड़ी में सोता है ।
यत्रैष एतत् सुप्तो ऽभूद् य एष विज्ञानमय: पुरुष: । तदेषां प्राणानां विज्ञानेन विज्ञानमादाय य एषोऽन्तर्हृदय आकाशस्तस्मिञ्छेते ।
(बृहदारण्यकोपनिषद 2/1/17)
जब यह (मन) जो यह विज्ञान स्वभाव है, गहरा सोया हुआ था, तब वह इन इन्द्रियों के विज्ञान के द्वारा विज्ञान को लेकर जो यह हृदय के अन्दर आकाश है, वहाँ आराम करता है ।
गीता के अनुसार स्थिरबुद्धि या निश्चयात्मिका बुद्धि
गीता कहती है—
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर: ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता । ।
गीता 2/61 । ।
अर्थात् साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण हो कर ध्यान में बैठे, क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है ।
जब मनुष्य भगवान के प्रति समर्पित हो जाता है, तब उसका मन शान्त हो जाता है । शान्त मन सफलता का आधार है ।
ध्यायतो    विषयान्पुंस:    सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते । ।
गीता 2/62 । ।
अर्थात् विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ।
क्रोधाद्भवति  सम्मोह:  सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति । ।
गीता 2/63 । ।
अर्थात् क्रोध से अत्यन्त मूढ़भाव उत्पन्न होता है, मूढ़भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है ।
प्रसादे   सर्वदु:खानां   हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो  ह्याशु  बुद्धि: पर्यवतिष्ठते । ।
गीता 2/65 । ।
अर्थात् अन्त:करण की प्रसन्नता होने पर साधक के सम्पूर्ण दु:खों का अभाव हो जाता है । उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हट कर एक परमात्मा में ही भली भाँति स्थिर हो जाती है ।
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुकतस्य भावना ।
न चाभावयत: शान्तिरशान्तस्य कुत: सुखम । ।
गीता 2/66 । ।
अर्थात् न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्त:करण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु     विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा     प्रसादमधिगच्छति । ।
गीता 2/64 । ।
अर्थात् ‘अपने अधीन किए हुए अन्त:करण वाला साधक अपने वश में की हुई, रागद्वेष से रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ । अन्त:करण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है ।
मन सबल कैसे हो ?
शिवसंकल्प
देखें यजुर्वेद के कुछ मंत्रों को—
यज्जाग्रतो  दूरमुदैति  दैवं तदु  सुप्तस्य  तथैवैति ।
दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु । ।
यजुर्वेद 34–1
अर्थात् (यत्) जो (दैवम्) दिव्य शक्ति वाला मेरा मन (मे मन:)(जाग्रत:) जागते हुए (दूरम् उदैति) दूर–दूर जाता है । (तदु) वह (सुप्तस्य) सोते हुए भी (तथा एव) उसी प्रकार (एति) दूर चला जाता है । इन्द्रियों का (एक ज्योति:) एक मात्र प्रकाशक (ज्ञान में साधक) है । (तत) वह (मे मन:) मेरा मन (शिव संकल्पम्) शुभसंकल्प अर्थात् अच्छे विचार वाला (अस्तु) होवे ।
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीरा: ।
यदपूर्वं यक्षमन्त: प्रजानां तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु । ।
यजुर्वेद 34–2
अर्थात् (येन) जिसके द्वारा (अपस) कर्मनिष्ठ लोग (मनीषिण:) मनस्वी लोग (यज्ञे) यज्ञों में, (विदथेषु) विशेष ज्ञानपूर्वक किये जाने वाले कार्यों में, (कर्माणि) करने योग्य कर्मों को (कृण्वन्ति) करते हैं, मेरा मन (यत्) जो (अपूर्वम्) अपूर्व है (प्रजानाम अन्त:) प्रजाओं के अन्दर (यक्षम) पूजनीय है (तत्) वह (मे मन:) मेरा मन (शिव संकल्प) शुभ विचार वाला (अस्तु) होवे ।
यत्प्रज्ञानमुत  चेतो  धृतिश्च  यज्ज्योतिरन्तरमृतं   प्रजासु ।
यस्मान्न ऋते किंच न कर्म क्रियते तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु ।
यजुर्वेद 34–3
अर्थात् (यत्) जो (प्रज्ञानम) ज्ञान का साधन है (उत) और (चेत:) चेतना का आधार (धृति: च) और निश्चय करने की वृत्ति वाला है । (यत्) जो (प्रजासु अन्त:) प्रजाओं के अन्दर (अमृतम्) मरणधर्म से रहित (ज्योति:) ज्ञान का प्रकाश है, (यस्मात् ऋते) जिसके बिना (किञ्चन) कोई भी (कर्म) कार्य (न) नहीं (क्रियते) किया जा सकता (तत्) वह (मे) मेरा (मन:) मन (शिवसंकल्पम्) शुभ विचार वाला (अस्तु) हो ।
येनेदं  भूतं   भुवनं  भविष्यत्परिगृहीतममृतेन  सर्वम् ।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु । ।
यजुर्वेद 34–4
अर्थात् (येन) जिस (अमृतेन) मरण धर्म से रहित (इदं) इस (सर्वम्) समस्त (भूतम्) भूतकाल को (भुवनम्) वर्तमान काल को (भविष्यत्) भविष्यतकाल को (परिगृहीतम्) अपनी चेतना की शक्ति से अपने में पकड़ा हुआ है, (येन) जिसके द्वारा (सप्त होता) सप्त होताओं वाले (यज्ञ: तायते) यज्ञ का वितान किया गया जा रहा है । (तत् मे मन:) वह मेरा मन (शिवसंकल्प वाला) शुभ विचारों वाला (अस्तु) हो ।
यस्मिन्नृच: साम यजूंषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा: ।
यस्मिन् श्चित्तं  सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु । ।
यजुर्वेद 34–5
अर्थात् (रथनाभौ) रथ की नाभि में (आरा: इव) अरों की तरह (यस्मिन्) जिस (मन) में (ऋच:) ऋग्वेद (साम) सामवेद (यजूंषि) यजुर्वेद (प्रतिष्ठिता:) प्रतिष्ठित हैं अर्थात् ठहरे हुए हैं, (यस्मिन्) जिसमें (प्रजानाम्) प्रजाओं की (सर्वम्) समस्त (चित्तं) चिन्तनशक्ति (ओतम्) ओत–प्रोत है (तत्) वह (मे मन:) मेरा मन (शिवसंकल्पम्) शुभ विचार वाला (अस्तु) हो ।
सुषारथिरश्वानिव      यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव ।
हृत्प्रतिष्ठं  यदजिरं  जविष्ठं तन्मे  मन: शिवसंकल्पमस्तु । ।
यजुर्वेद 34–6
(सुसारथि:) अच्छा सारथी (अश्वान्) घोड़ों को (इव) जैसे (ने नीयते) पुन: पुन: घुमाता है (तत् मे मन:) वह मेरा मन (अभीशुभि:) लगामों के द्वारा (वाजिन: अश्वान्) बलवान् घोड़ों को (सुसारथि: इव) उत्तम सारथि की तरह (यत्) जो मन (मनुष्यान्) मनुष्यों को (ने नीयते) सन्मार्ग से ले जाता है, (यत्) जो मेरा मन (हृत्प्रष्ठितम्) हृदय–चेतना स्थान में स्थित है (यत्) जो (अरिम्) गतिशील अर्थात् चंचल है, (जतिष्ठम्) शीघ्रगामी है, (तत् मे मन:) वह मेरा मन (शिवसंकल्पम्) शुभ विचारों वाला (अस्तु) हो ।
इन मन्त्रों में शिवसंकल्प अर्थात् सकारात्मक विचारों को ही महत्त्व दिया गया है ।
श्रद्धा का महत्त्व
(ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 151 मंत्र 1–5)
श्रद्धा सूक्त ऋग्वेद के दशवें मण्डल का 151 वाँ सूक्त है । इस सूक्त के अनुसार श्रद्धा से ही मनुष्य की उन्नति हो सकती है । इस श्रद्धा से ही मनुष्य सर्वविध पदार्थों को प्राप्त कर सकता है ।
श्रद्धयाग्नि:  समिद्धयते  श्रद्धया  हूयते हवि: ।
श्रद्धां  भगस्य मूर्धनि  वचसा वेदयामसि ॥1॥
श्रद्धा से अग्नि जलाई जाती है । श्रद्धा से उसमें आहुति डाली जाती है । ऐश्वर्य के मूर्धा–शिर पर विराजमान उस श्रद्धा को हम अपनी वाणी से घोषित करते हैं, व्यक्ति–व्यक्ति को जनाते हैं ।
प्रियं श्रद्धे  ददत:  प्रियं श्रद्धे  दिदासत: ।
प्रियं भोजेषु यज्वस्विदं म उदितं कृधि ॥2॥
हे श्रद्धा! तू देने वाले का प्रिय कर, कल्याण कर भला कर । हे श्रद्धा! तू देने की इच्छा–विचार–संकल्प करने वाले का प्रियकर, भला कर । हे श्रद्धा! तू भोजों में, यज्ञों में मेरा प्रिय कर–कल्याण कर–भला कर, और यह उदयकर–अभ्युदय कर ।
यथा  देवा  असुरेषु  श्रद्धामुग्रेषु  चक्रिरे ।
एवं भोजेषु यज्वस्वस्माकमुदितं कृधि ॥3॥
देवजन शूर–वीर, प्राणरक्षक क्षत्रियों–सैनिकों पर जैसे श्रद्धा–विश्वास व भरोसा रखते हैं—करते हैं, ऐसे ही हे श्रद्धा! तू भोजों और यज्ञों में हमारा उदय कर ।
श्रद्धां  देवा  यजमाना  वायुगोपा उपासते ।
श्रद्धा हृदय्याकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु ॥4॥
देवजन, यजमान और प्राणायाम के अभ्यासी जन हार्दिक संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं ।
मन में कोई संकल्प होने पर भी लोग श्रद्धा की शरण में जाते हैं ।  है । श्रद्धा से धन प्राप्त होता है ।
श्रद्धां  प्रातर्हवामहे  श्रद्धां मध्यंदिनं परि ।
श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह न: ॥5॥
अर्थात् हम प्रात: श्रद्धा का आह्वान करते हैं, हम मध्याह्न काल में श्रद्धा का सब ओर से आह्वान करते हैं, हम सूर्यास्त समय में श्रद्धा का आह्वान करते हैं । हे श्रद्धा! तू इस मानव जीवन में हमें श्रद्धामय बना ।
पुरुषार्थ
मा स्रेधत सोमिनों दक्षता महे,
कृणुध्वं   राय     आतुजे ।
तरणिरिज्जयति क्षेति पुष्यति,
न    देवास:   कवत्नवे ॥
ऋग्वेद 7/32/9
अर्थात् हे सौम्य गुण वाले मनुष्यों! तुम पथभ्रष्ट न हो, महान् लक्ष्य के लिए पुरुषार्थ करो । धन प्राप्ति के लिए प्रयत्न करो, पुरुषार्थी ही विजयी होता है । सुखपूर्वक निवास करता है और धनादि से पुष्ट होता है । देवगण अकर्मण्य के सहायक नहीं होते, आलसी के लिए कहीं स्थान नहीं है ।
अयं में हस्तो भगवान्, अयं में भगवत्तर: ।
अयं में विश्वभेषजोऽयं शिवाभिमर्शन: ॥
ऋग्वेद 10/60/12
अर्थात् यह मेरा (दाहिना हाथ) ऐश्वर्यशाली है, यह मेरा (बायाँ हाथ) उससे भी अधिक सौभाग्यशाली है । यह मेरा हाथ सभी रोगों को दूर करने वाला है और यह हाथ स्पर्श से कल्याण करने वाला है ।
अध स्वप्नस्य निर्विदेऽभुञ्जतश्च रेवत: ।
उभा   ताबस्त्रि     नश्यत: ।
—ऋग्वेद 1/191/12
अर्थात् प्रात:काल का स्वप्न अच्छा नहीं होता यप्रात:काल सोना ठीक नहीं हैद्ध है, जो धन का उचित उपयोग नहीं करते हैं । वे दोनों शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ।
अन्तर्बोध
स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती जी कहते हैं—
एक बार पहले–पहल मैं प्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी के यहाँ गया ।  पहले–पहल तब मैं भी उन्हें नहीं पहचानता था, वे भी मुझे नहीं पहचानते थे । तब मैंने पूछा कि प्रभुदत्तजी ब्रह्मचारी कौन हैं, उनकी कुटिया कहाँ है ? वे खुद ही थे—बोले—हे नाथ नारायण वासुदेव! आओ! चला गया ।
जब बैठ गया तब खिलाया–पिलाया और फिर लिखकर दिया कि आज रात को हमने स्वप्न देखा था, हमारी एक समस्या थी कि हमारे यहाँ तेरह महीने का अखण्ड कीर्तन होगा उसमें कथा कौन सुनाएगा ? मन में यह चिन्ता थी । रात में हमको स्वप्न आया और तुमको देखा । तुम आ गए । तो अब ? अब तो स्वप्न कारण हो गया और जाग्रत कार्य हो गया ।
ऐसी एक नहीं अनेक बातें हम जानते हैं और जिन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है । मैं गोरखपुर गया, तो हनुमान प्रसादजी की पत्नी ने बुलाया मुझे, घर में भोजन करने के लिए । यह बात होगी—सन् 34–35 के लगभग की । 32 वर्ष हो गए ।  जब मैं गया तो वे बोलीं—‘आ गए’! हनुमान प्रसाद जी ने कहा कुछ नहीं । बाद में मालूम पड़ा कि उन्हें रात में स्वप्न आया था कि हमारे घर में भागवत की पुस्तक लेकर कोई ब्राह्मण आएँगे और मैं आ गया । बहुत प्रेम करते थे, अब भी बहुत प्रेम करते हैं और हनुमानप्रसाद जी तो मुझे अपना भाई ही मानते हैं ।
माण्डूक्य प्रवचन, अलातशान्ति प्रकरण
पूरी धरती ही एक परिवार है
विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव
यद्    भद्रं    तन्न   आ     सुव ।
हे देव! हमारी सभी बुराइयों को दूर कर दो, जो कल्याणकारी हो, वह प्रदान करो ।
अन्यो अन्यस्तै वल्गु वदन्त एव ।
एक दूसरे के लिए हम अच्छा ही कहें । परस्पर प्रिय वचन बोलते हुए आगे बढ़ो ।
सम्राऽस्यसुराणां ककुन्मनुष्याणाम् ।
देवानांमर्धभागसि, त्वमेकवृषो भव ।
अर्थात् मनुष्य संसार में सर्वश्रेष्ठ होकर रहे, आसुरी वृत्तियों पर पूर्ण नियंत्रण रखें । कम से कम आधे दैवी गुण जीवन में अवश्य हों ।
सुरा मन्युर्विभीदको अचित्ति: ।
सुरा, क्रोध, द्यूत और अज्ञान पाप के कारण हैं ।
संज्ञानं  न   स्वोभि:    संज्ञानमरणोभि:
संज्ञानमश्विना युवम्, इहास्मासु नि:यच्छतम् ।

अयं  निज:   परोवैति  गणना लघुचेतसाम्
उदार  चरितानां  तु  वसुधैव   कुटुम्बकम् ।
यह अपना है, यह पराया है, ऐसा छोटे चित्त वाले ही सोचते हैं । उदार चरित्र वाले के लिए तो सारी धरती ही एक परिवार है ।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग भवेत ।
सभी सुखी हों, सभी निरोग हों, हम सबका कल्याण देखें, कोई भी दु:ख का भागी न हो ।
सह नाववतु, सह नो भुनक्तु । सहवीर्यं करवावहै तेजस्विनावधीतमस्तु,     मा  विद्विषावहै
शान्ति:       शान्ति:     शान्ति: ।
ईश्वर हम गुरु और शिष्य दोनों की रक्षा करें । हम साथ–साथ भोजन करें । हमारी शक्ति में वृद्धि हो, हमारा पठन–पाठन तेजस्वी हो, किसी से विद्वेष न
करें ।
समानी व  आकूति:  समाना  हृदयानि व: ।
समानमस्तु वोमनो,  यथा व  सुसहासति ॥

हमारे विचार समान हों, सबके  हृदय, मन व चित्त एक हों, जिससे हम सबका मन सुन्दर हो ।
समानी प्रपा सह वोऽन्नभाग: समाने योक्त्रे सह वो युनज्मि ।
सम्यञ्चोऽग्निं    सपर्यत—अरा नाभिमिवाभित: ॥
हम अन्न और ज्ञान को मिल कर प्राप्त करे । गुरु कहते हैं कि मैं तुम्हें युक्त करता हूँ कि मिल कर काम करो ।
बाइबिल (नया विधान) के अनुसार विश्वास
सन्त मत्ती
विश्वास करने वाले के लिए सब कुछ सम्भव है—
तुम्हारे माँगने से पहले ही तुम्हारा पिता जानता है कि तुम्हें किन–किन चीजों की जरूरत है । (6–9)
यदि तुम दूसरों के अपराध क्षमा करोगे, तो तुम्हारा स्वर्गिक पिता भी तुम्हें क्षमा करेगा परन्तु यदि तुम दूसरों को क्षमा नहीं करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा नहीं करेगा । (6–14–15)
यह कहते हुए चिन्ता मत करो—हम क्या खायें, क्या पियें, क्या पहनें । (6–31) ––––तुम्हारा स्वर्गिक पिता जानता है कि तुम्हें इन सभी चीजों की जरूरत है । (6–32) तुम सबसे पहले ईश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहो और ये सब चीजें तुम्हें यों ही मिल जायेंगी । (6–33) कल की चिन्ता मत करो । कल अपनी चिन्ता स्वयं कर लेगा । आज की मुसीबत आज के लिए बहुत है । (6–34)
माँगो और तुम्हें दिया जायेगाय ढूँढ़ो और तुम्हें मिल जायेगाय खटखटाओ और तुम्हारे लिए खोला जाएगा । (7–7) क्योंकि जो माँगता है, उसे दिया जाता हैय जो ढूँढता है, उसे मिल जाता है और जो खटखटाता है, उसके लिए खोला जाता है । (7–8) बुरे होने पर भी यदि तुम लोग अपने बच्चों को सहज ही अच्छी चीजें देते हो, तो तुम्हारा स्वर्गिक पिता माँगने वालों को अच्छी चीजें क्यों नहीं देगा ? (7 । ।)
दूसरों के प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो । (7/12)
बेटी, ढारस रखो । तुम्हारे पाप क्षमा हो गए हैं । (9–2–)
सामूहिक प्रार्थना—मैं तुमसे यह भी कहता हूँ यदि पृथ्वी पर तुम लोगों में दो व्यक्ति एकमत होकर कुछ भी माँगोगे, तो वह उन्हें स्वर्गिक पिता की ओर से निश्चय ही मिलेगा । (18/19)
और जो कुछ तुम विश्वास के साथ प्रार्थना में माँगोगे, वह तुम्हें मिल जाएगा ।’ (21–22)
सन्त मारकुस
यदि आप कुछ कर सकें! ––––विश्वास करने वाले के लिए सब कुछ सम्भव है । (9–23) जब तुम प्रार्थना के लिए खड़े हो और तुम्हें किसी से कोई शिकायत हो, तो क्षमा करो, जिससे तुम्हारा स्वर्गिक पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा कर दे । (11–25)
ईसा ने उनसे आगे कहा—जाओ, तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है । उसी क्षण उसकी दृष्टि लौट आयी और वह मार्ग में ईसा के पीछे हो लिया ।’ (10–52)
सन्त लूकस
किसी के विरुद्ध निर्णय न दो और तुम्हारे विरुद्ध भी निर्णय नहीं दिया जायेगा । क्षमा करो और तुम्हें भी क्षमा मिल जाएगी । (6/37) दो और तुम्हें भी दिया जायेगा । दबा–दबाकर, हिला–हिलाकर भरी हुई, ऊपर उठी हुई, पूरी की पूरी नाप तुम्हारी गोद में डाली जाएगीय क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जाएगा । (6/38)

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