यदि बच्चे को उसका बचपन जीने का पूर्ण अवसर दिया जाए तो बच्चा बड़ा होकर पूर्ण विकसित मानव होगा । उसमें कुंठाएँ नहीं होंगी, वह सदा प्रफुल्लित रहेगा व हर परिस्थिति में प्रसन्न रहेगा ।
बालक का सहज विकास हो, उसकी शिक्षा ऐसी हो कि उसको अभिव्यक्ति के पूरे अवसर मिलें । उल्लसित जीवन हो, चंचलता के अवसर मिलें, ऐसा बच्चा सहज रूप में विकसित होगा । हो सकता है वह बड़ा अधिकारी, नेता या व्यापारी न बन सके, लेकिन वह जैसा भी होगा, जहाँ भी होगा पूर्ण समायोजित व्यक्तित्व वाला होगा । देश का सुयोग्य नागरिक होगा ।
बचपन की अनुभूतियाँ जीवन–भर सुखद एहसास कराती हैं । अत: बच्चे को स्नेह से अभिसिंचित किया जाए । उसे उसका बचपन जीने का पूरा अवसर प्रदान किया जाए । पानी से खेलता हुआ या मिट्टी से सना हुआ अतिप्रसन्न शिशु किसका मन नहीं मोह लेता ।
शिशु के इन आनन्द के क्षणों को वर्णित तो किया ही नहीं जा सकता, उसे सर्वाधिक आनन्द शरारत करने में ही आता है । उसका प्रिय–से–प्रिय खिलौना या अतिप्रिय खाद्य वस्तु तो उसे सीमित सुख ही देती है किन्तु मनपसन्द शरारत करने को मिल जाए तो, क्या कहने ।
भारत के अधिकांश प्राइवेट विद्यालयों में शिशु–शिक्षा की जो व्यवस्था चल रही है, वह भारतीय स्थिति–परिस्थिति और परिवेश के अनुरूप नहीं है । उनमें अबोध शिशुओं पर कॉपी–किताबों का भारी–भरकम बोझ लाद दिया जाता है, जिनसे बच्चों की किलकारियाँ, उनकी हँसी–खुशी लुप्त हो जाती है और बच्चों के चेहरे मुरझा जाते हैं । इसी के साथ सबसे बड़ा नुकसान होता है कि उनके आगे के विकास की गति बाधित होती है ।
केन्द्रीय विद्यालय के बच्चों पर किया गया
प्रायोगिक अनुभव व निष्कर्ष
बच्चों का भविष्य तभी आनन्दपूर्ण हो सकता है जब उनका समुचित विकास अर्थात् स्वाभाविक ढंग से विकास हो । ज्ञानार्जन के साथ उनका बाल–सुलभ स्वभाव बना रहे और वह अपनी अन्तर्निहित प्रतिभाओं को उभार सकें । वह स्वयं अपनी रुचि रुझान के अनुसार औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने के योग्य बन सकें । तदर्थ मैंने पूरी तरह से इस ओर अपना ध्यान लगाकर बाल–विकास के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हुए शोधकार्य जारी रखा ।
केन्द्रीय विद्यालय में कार्यकाल के दौरान कक्षा एक के बच्चों पर किया गया प्रयोग व अनुभव प्रस्तुत है ।
मेरी सदा से इच्छा रही है कि मैं उचित ढंग से बाल–विकास के सभी पहलुओं को लेकर अनुसंधान करूँ । यह तभी सम्भव होता जब मैं कक्षा में बच्चों के साथ पूरे समय रहती । नियमानुसार मुझे प्रतिदिन आठ में छ: पीरियड मिलने थे, बाकी दो पीरियड किसी अन्य अध्यापक को दिए जाने थे । विशेष अनुमति के तहत सत्र 1999–2000 में मुझे कक्षा एक के सभी आठों पीरियड लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिससे मैं बच्चों के साथ पूरे समय रह सकूँ ।
एन.सी.ई.आर.टी. के मानकों के अनुसार ही मैंने अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया ।
बच्चों के एडमीशन के बाद उनकी सामान्य क्षमता का ज्ञान Pre-Testing
बच्चों के एडमीशन के बाद उनकी सामान्य क्षमता Pre-Testingके ज्ञान हेतु कुछ बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित किया गया—
1– शारीरिक विकास एवं सफाई की आदत
(क) सफाई की आदत
(ख) पेंसिल ठीक से पकड़ पाता है
(ग) किताब सही ढंग से पकड़कर चित्र आदि देखता है
(घ) सही शारीरिक स्थिति Posture
(ङ) उच्चारण की शुद्धता
2– सामाजिक विकास
(क) विद्यालय के वातावरण से तादात्म्य
(ख) अन्य बच्चों से सहयोग
(ग) कक्षा में सहयोग
(घ) स्वावलम्बन
3– मानसिक विकास
(क) सीखने की इच्छा
(ख) ध्यान देने की प्रवृत्ति
(ग) विभेदीकरण की क्षमता
(घ) कहानी कथन क्षमता
(ङ) कल्पना शक्ति
इन सब बिन्दुओं के आधार पर बच्चे के शारीरिक, मानसिक व सामाजिक विकास के बारे में सामान्य जानकारी ली गई, जिससे पता चल सके कि बच्चों को कहाँ तथा किस बिन्दु पर मार्गदर्शन या सहयोग की आवश्यकता है ।
छह सप्ताह के रेडीनेस प्रोग्राम का कार्यान्वयन
मैंने रेडीनेस प्रोग्राम के अन्तर्गत अन्य क्रिया–कलापों के साथ ही क्रियात्मक रूप से बच्चों के क्रियाशील रहने हेतु उन्हें कविता, कहानी, चुटकुले, पहेली की ओर प्रेरित करना चाहा । साथ ही ड्रॉइंग की कॉपी मँगवाई तथा अभिभावकों की सुविधा के लिए कक्षा एक की पुस्तकों व कॉपियों की लिस्ट टाइप करवाकर दे दी ।
सुन्दर, सुडौल लिखावट के लिए हिन्दी व अंग्रेजी की सुलेख की पुस्तकें भी मँगवार्इं । मेरा उद्देश्य यह था कि अभिभावक पुस्तकें आदि खरीद लेंगे, जिन्हें भविष्य में समयानुसार पढ़ाया जाएगा । मैंने दिनांक 24–04–1999 (बच्चों के एडमीशन के पहले दिन) को बच्चों को किताबों की लिस्ट दी थी । कक्षा एक की पुस्तकें व कॉपियाँ तो सबने खरीद लीं, ड्रॉइंग व सुलेख की पुस्तकें नहीं खरीदीं । केवल एक बच्चा ही ड्रॉइंग व सुलेख की पुस्तकें लाया ।
आश्चर्य है कि अभिभावक ड्रॉइंग व सुलेख को बेकार की चीज समझते हैं ।
बच्चों को इनडोर व आउटडोर गेम्स (कमरे के अन्दर व मैदान में खेले जा सकने वाले खेल) भी करवाए । भावगीतों द्वारा उनकी भावाभिव्यक्ति का प्रयास किया, किन्तु चंचलता व कोमलता से बहुत दूर इन बच्चों को उदासी घेरे हुई थी । कविता, कहानी, आउटडोर व इनडोर गेम्स में बच्चों की रुचि नहीं थी ।
बड़ी विचित्र स्थिति थी । कक्षा से बाहर खेलने के लिए ले जाने पर भी बच्चे चुपचाप ही रहते थे या झगड़ने लगते थे । बच्चों में स्वयं खेलने, समूह बनाने या नेतृत्व की क्षमता नहीं थी । दो मिनट के लिए भी कक्षा से बाहर जाने पर बच्चों में मारपीट शुरू हो जाती थी । बच्चों में सहज चंचलता के स्थान पर आक्रामक प्रवृत्ति पर्याप्त मात्रा में थी ।
बच्चों से पूछने पर पता चला कि माता–पिता इन्हें खेलने के लिए मना करते हैं । कविता, कहानी की ओर प्रोत्साहित नहीं करते हैं । न तो स्वयं ही कहानियाँ, कथाएँ आदि सुनाते हैं, न ही दादी–नानी आदि बुजुर्ग लोगों के पास अधिक बैठने देते हैं । उन्हें लगता है कि केवल पुस्तकीय ज्ञान ही पर्याप्त है ।
अधिकांश अभिभावकों से वार्तालाप के दौरान यह निष्कर्ष निकला कि उन्हें ड्रॉइंग, सुलेख, कविता, कहानी, परम्परागत कथाएँ, खेल आदि समय बरबाद करने वाले क्रिया–कलाप लगते हैं । दु:ख होता है कि अभिभावक स्वयं अपनी ही सन्तान को मानसिक रूप से पंगु बना रहे हैं । अगर इन बच्चों में इस समय ही चंचलता नहीं रही तो यही बच्चे बड़े होने पर समस्या बच्चे (च्तवइसमउ ब्ीपसक) बन सकते हैं ।
कुछ बच्चों में चोरी की प्रवृत्ति भी थी । राहुल ने एक दिन थोड़ी मॉडलिंग क्ले Modeling Clay उठा कर रख ली । अंकुर ने कुछ ब्लॉक्स उठाकर जेब में रख लिए, पकड़े जाने पर छुपाने का प्रयास करने लगे, डरने लगे तथा रोने लगे । सलिल तो मारपीट में सबसे आगे रहता था । मैंने उनकी इस प्रवृत्ति को सहज रूप में लिया, उन्हें प्यार से समझाया और रचनात्मकता की ओर प्रेरित किया । तब धीरे–धीरे उनकी आक्रामक प्रवृत्ति तथा चोरी की आदत समाप्त हो गई ।
इन सब समस्याओं का मूल कारण यह है कि इन बच्चों को अधिक पढ़ाने के उद्देश्य से तीन वर्ष की आयु में ही तथाकथित नर्सरी विद्यालयों में भर्ती करवा दिया गया था, जहाँ पर नर्सरी व किंडरगार्टन के उद्देश्यों से बहुत दूर उन्हें पढ़ना–लिखना सिखाया जाने लगा था । उस समय ही इन्हें जबरदस्ती विद्यालय जाने के लिए तैयार कर दिया जाता था ।
विद्यालय का उबाऊ वातावरण, घर में आकर होमवर्क का बोझ, टी–वी– देखना व सो जाना । जीवन्तता से दूर इन बच्चों के विकास की गति तो उस समय ही अवरुद्ध कर दी गई थी, जब इन्हें तीन वर्ष की आयु से ही पढ़ाई की ओर लगा दिया गया ।
मीठी–मीठी लोरियाँ सुनने का समय, कल्पनाओं में उड़ानें भरने का समय तो चला गया पुस्तकों में । जो भी हो मुझे तो इन्हीं बच्चों के साथ कार्य करना था, जिन्हें पूर्व प्राथमिक स्तर से ही पढ़ाई के प्रति भय व अरुचि का वातावरण मिला था ।
मुझे अभिभावकों का सहयोग बहुत कम मिला, कुछ अभिभावकों ने तो पूर्ण असहयोग किया । मेरे बार–बार कहने व तर्कपूर्ण ढंग से समझाने पर भी कुछ लोगों ने सुलेख की पुस्तकें व ड्रॉइंग की कॉपियाँ नहीं खरीदीं, जबकि यह अभिभावक पढ़े–लिखे व सम्पन्न थे । हारकर मैंने उनसे कहना छोड़ दिया और कुछ बच्चों को स्वयं सुलेख व ड्रॉइंग की कापियाँ व पुस्तकें खरीदकर दीं व उसका आशानुरूप फल भी प्राप्त हुआ ।
बच्चों के निष्पादन का विवेचन
कक्षा एक के बच्चों के साथ कार्य करने का जो सुअवसर प्राप्त हुआ उसमें सीमित संसाधनों व निर्धारित पाठ्यक्रम के मध्य भी मैंने यह अनुभव किया कि यदि कक्षा एक में प्रवेश के पूर्व बच्चों को बालगृह (ब्ीपसकतमद भ्वउम) में पूर्व प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हो सके तो कितना अच्छा हो ।
यदि ऐसा सम्भव न हो तो विद्यालय में ही कक्षा एक में एडमीशन के बाद कम–से–कम छ: सप्ताह रेडीनेस (पूर्व प्राथमिक शिक्षा) के हों । पूर्व प्राथमिक शिक्षा से मेरा तात्पर्य तथाकथित नर्सरी शिक्षा से नहीं है, जहाँ उन्हें भययुक्त वातावरण में पढ़ना–लिखना सिखाया जाने लगता है । मेरा उद्देश्य वास्तविक नर्सरी शिक्षा से है, जहाँ बच्चे रूपी पुष्प स्वस्थ रूप में, उन्मुक्त रूप से विकसित हों व अपने बचपन का पूरा आनन्द प्राप्त कर सकें ।
इनमें अमन और आदर्श दोनों ही बुद्धिमान थे, किन्तु विद्यालय में इनकी उपस्थिति बहुत कम रहती थी, अनुपस्थिति का कोई विशेष कारण न होकर अभिभावकों की लापरवाही थी, जबकि इनके अभिभावक काफी पढ़े–लिखे थे । अभिभावकों की लापरवाही यहाँ तक थी कि भयंकर जाड़े में भी आदर्श नेकर पहनकर आता था । उसके पिता से बार–बार कहने पर भी उन्होंने उसके लिए पैंट नहीं खरीदा । परिणामस्वरूप बच्चा बीमार हो गया, जबकि उसके पिता सम्पन्न हैं व उनके पास कार भी है ।
अभिषेक शुक्ला व सलिल को उनके अभिभावकों ने मेरे आखिरी प्रयास के बाद भी सभी कॉपी–किताबें खरीदकर नहीं दीं, जबकि वह अच्छे, साफ–सुथरे कपड़े पहनकर आता था व कई बार पन्द्रह रुपये वाली चॉकलेट भी लाता था । बातें करने पर पता चला कि उसे कई बार कोल्ड ड्रिंक भी पिलाई जाती थी ।
सलिल की माँ तो आकर मुझसे लड़ने लगीं कि आपको ड्रॉइंग व सुलेख की पुस्तकों पर कमीशन मिलता है क्या ? मैंने उनसे अधिक वाद–विवाद न करके इन दोनों बच्चों को स्वयं ड्रॉइंग व सुलेख की पुस्तकें खरीदकर दे दीं । इसके बाद मेरे एक साथी अध्यापक श्री हरिशंकर वर्मा जी के द्वारा समझाने–बुझाने से मेरे प्रति उनका पूर्वाग्रह खत्म हुआ ।
जहाँ एक ओर अभिभावकों की बच्चों के प्रति उदासीनता रहती है, वहीं कुछ अभिभावकों का अतिध्यान भी समस्या का कारण बन जाता है । इनमें एक समस्या ट्यूशन है । अपने घर के आस–पास हाईस्कूल या इण्टर में पढ़ने वाले लड़कों को ये लोग अपने बच्चों के ट्यूटर के रूप में नियुक्त कर देते हैं । जैसे – पृथ्वी प्रताप सिंह, दिनेश, विमल, अभिषेक शुक्ला, अंशुल, अंकुर व पवन तथा आरती व गरिमा । इन बच्चों को यही हाईस्कूल, इण्टर के छात्र ट्यूशन पढ़ाते
थे । आरती व गरिमा का काम ट्यूटर या तो बिना समझाए हाथ पकड़कर करवा देते थे या खुद कर देते थे । अन्य अधिकांश अभिभावक भी बच्चों को बिना समझाए काम पूरा करवाने की प्रवृत्ति रखते थे ।
बहुत समझाने के बाद कुछ लोगों ने तो यह प्रवृत्ति बन्द कर दी, किन्तु विमल व अशोक के ट्यूटर व अभिभावक कभी उसका हाथ पकड़कर बिना समझाए उसका काम पूरा करवाते, कभी स्वयं ही लिख देते थे । जबकि विमल व अशोक को अक्षर–ज्ञान भी नहीं था । उनके इस प्रकार काम पूरा करवाने का परिणाम यह हुआ कि बच्चे वांछित योग्यता नहीं ग्रहण कर सके, न ही उनकी पठन–पाठन में रुचि ही जाग सकी ।
जबकि मैंने कभी भी होमवर्क नहीं दिया । बच्चों की वैयक्तिक क्षमता के अनुसार कक्षा में ही काम करवाया । यह आवश्यक भी नहीं समझा कि हर बच्चा बिना समझे पुस्तक का हर काम पूरा करे । खेद है कि कुछ अभिभावक यही समझते रहे कि दूसरे बच्चों ने पुस्तक का जितना कार्य किया है, उन्हें भी बच्चे को उतना ही काम पूरा करवाकर विद्यालय में भेजना है ।
अभिभावकों से निवेदन किया कि बच्चों को विद्यालय में जो पढ़ाया जा रहा है, उसे पहले से ही घर पर न पढ़ाएँ क्योंकि फिर बच्चा कक्षा में ध्यान नहीं देता है । इसके अतिरिक्त यदि वह बाद में भी कुछ पूछता है तो उसे प्रोत्साहित करें कि वह कक्षा में ही अध्यापक से पूछे । इसका कारण भी स्पष्ट किया कि ऐसा करने से वह अध्यापक की बात पूर्ण मनोयोग से सुनेगा किन्तु परिणाम आशानुकूल नहीं रहा ।
कक्षा एक से ही ट्यूशन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाने से विद्यालय में बच्चा खेलता रहता है और खेलने से अधिक मार–पीट करता रहता है क्योंकि उसका खेल का समय तो ट्यूशन में चला जाता है । इसके अतिरिक्त उसे यह भी पता होता है कि वह विद्यालय में चाहे जितना पढ़ ले, उसे घर जाकर तो पढ़ना ही है । बच्चे हमसे अधिक दूरदर्शी व अपना कार्यक्रम नियोजित करने वाले होते हैं । वह अपना खेल का समय अवश्य ही निकालेंगे । अत्यधिक दबाव पड़ने से उनका विकास बाधित होता है ।
ट्यूशन या घर में पढ़ाने की प्रवृत्ति केवल कमजोर बच्चों में ही नहीं वरन् प्रतिभाशाली बच्चों के अभिभावकों में भी थी । शान्तनु और अंगिरा की ड्रॉइंग बहुत अच्छी होने के साथ–साथ वे लोग पढ़ाई और अनुशासन में भी बहुत अच्छे थे । शान्तनु व सचिन की अभिव्यक्ति भी स्पष्ट थी किन्तु अपना दुर्भाग्य कहूँ या देश का या उन बच्चों का, सचिन के अभिभावक के अतिरिक्त अन्य किसी बच्चे के अभिभावक ने घर में पढ़ाने की प्रवृत्ति बन्द नहीं की ।
सचिन के अभिभावक चूँकि स्वयं अध्यापक हैं । अत: वह इस बात की बारीकी को समझ गए व उन्होंने घर पर बच्चे के लिए खेल, ड्रॉइंग आदि की व्यवस्था की । परिणाम बहुत उत्साहजनक हुआ । बच्चे के ज्ञानार्जन के साथ–साथ उसकी मुखरता बढ़ी । प्रात:कालीन प्रार्थना सभा से लेकर विद्यालय की पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं में उसकी पूरी सहभागिता रही । वह एक कुशल वक्ता की तरह पूरे आत्मविश्वास के साथ माइक पर बोलता था । काश! यदि अन्य अभिभावकों का सहयोग मिला होता तो कुछ अन्य प्रतिभाएँ भी निखर सकती थीं ।
मैंने सचिन की प्रतिभा का पूरा उपयोग करते हुए कक्षा एक में ही दिसम्बर माह तक उसे अंग्रेजी की डिक्शनरी देखना भी सिखा दिया था । इसके बाद मैंने उसे एक डिक्शनरी पुरस्कार–स्वरूप दी व अभिभावक से कहा कि यदि बच्चा डिक्शनरी देखने में मदद मँागे तो घर पर उसका सहयोग करिएगा । डिक्शनरी देखना सीखने पर जोर नहीं देना है । उसे डिक्शनरी को खिलौने की तरह खेलने
दें । खेलते–खेलते भी बहुत कुछ सीख जाएगा ।
इन सब समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या तो यह नजर आई कि लगभग सभी बच्चे नर्सरी के नाम पर खुले हुए विद्यालयों में पढ़ना–लिखना सीखकर आते हैं । राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के अनुसार वर्णमाला आदि हमें कक्षा एक में सिखानी थी किन्तु बच्चे तथाकथित नर्सरी स्कूलों के भयपूर्ण वातावरण में अपना शैशव, अपना बचपन खोते हुए पढ़ना–लिखना सीखते हैं, किन्तु सही रूप में नहीं सीख पाते हैं ।
उनके लेखन, पठन व वाचन सभी में अशुद्धियाँ होती रहती हैं । चूँकि उनकी आन्तरिक चंचलता शैशवावस्था में ही समाप्त हो जाती है । अत: विद्यालय–पूर्व आयु में जबरदस्ती ज्ञान भरा हुआ मन, प्रसन्नचित्त मन से सही ज्ञान सीखने के लिए तैयार भी नहीं होता । यही बच्चा क्रमश: कठिन होते हुए पाठ्यक्रम में कक्षा दो, तीन, चार या पाँच में पहुँच जाता है और उसकी कठिनाई बढ़ती ही जाती है, क्योंकि सही लिखना, पढ़ना, बोलना व समझना नहीं आ सका । साथ में अरुचि नर्सरी कक्षा में ही थी तो उपलब्धि तो बाधित होगी ही ।
इस प्रकार कमजोर नींव वाले बच्चों के पूरे जीवन के लिए एक कठिनाई तो बनी ही रहती है । प्राथमिक स्तर पर अधिगम में जो कमजोरी रह जाती है, उसका प्रभाव बाद की पढ़ाई पर पड़ना भी स्वाभाविक ही है क्योंकि प्रारम्भ में ही सही चीज नहीं आई, वर्तनी में अशुद्धियाँ रहीं, प्रत्यय ठीक से स्पष्ट नहीं हुआ तो आगे की पढ़ाई कैसे समझ में आवेगी ।
मैंने अपने अध्यापन–जीवन में देखा है कि कला का सकारात्मक प्रभाव बच्चे के शारीरिक व मानसिक स्तर पर तो पड़ता ही है, उसका अधिगम भी प्रभावित होता है ।
प्राथमिक कक्षाओं में खेल का महत्त्व तो शिक्षाविदों ने किया ही है । इसीलिए हर कक्षा में दिन में एक चक्र खेल का भी अवश्य होता है । वस्तुत: खेल वह है जिसमें बच्चे को आनन्द मिले । वह खेल लूडो, कैरम भी हो सकता है, दौड़–भाग के खेल भी, चित्रकला भी, कहानी–कविता भी, यहाँ तक कि पढ़ाई भी । यह बच्चों की रुचि पर निर्भर करता है कि उन्हें किस कार्य में आनन्द आता है । जिस कार्य में बच्चा आनन्दित होता है, वही उसका खेल है । जो कार्य वह प्रयत्नसाध्य करता है, वह उसका कार्य है । स्वास्थ्य की दृष्टि से विद्यालय में खेल के चक्र में बच्चों के लिए दौड़ना–भागना भी आवश्यक है । अत: बच्चों को दौड़–भाग के खेल के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए क्योंकि हर बच्चे के घर के पास पार्क आदि की व्यवस्था नहीं होती है ।
अंगिरा, जो एक प्रतिभाशाली बालिका है, आवश्यकता से अधिक शान्त रहती थी । उसका शैक्षिक निष्पादन बहुत अच्छा था । उसे भी तथाकथित नर्सरी विद्यालय में तो पढ़ाया ही गया था, साथ ही घर पर उसकी माँ का कठोर अनुशासन रहता था । वह बच्चों का शोर–शराबा बिल्कुल पसन्द नहीं करती थीं । बच्चों को पार्क में व पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने भी नहीं देती थीं ।
एक बार मैं उनके घर अपनी छ: वर्षीया पुत्री के साथ इसी उद्देश्य से गई कि अंगिरा के आवश्यकता से अधिक शाँत रहने का कारण जान सकूँ । शाम का समय था, घर के सामने पार्क भी था । मैंने अपनी पुत्री लक्ष्मी व अंगिरा दोनों से कहा कि सामने पार्क में अन्य बच्चों के साथ खेलें, किन्तु उसकी माँ ने कहा कि वह अपने बच्चों को घर से बाहर नहीं खेलने देती हैं । मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया तो उनका उत्तर था कि बच्ची पढ़ाई में तो अच्छी है और क्या चाहिए ।
पढ़ाई के साथ–साथ बच्चे के सामान्य विकास के लिए उन्मुक्तता भी तो आवश्यक है । परिणाम भी वही हुआ, अंगिरा एक प्रतिभाशाली बच्ची थी किन्तु कोर्स की पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य किसी क्षेत्र में उसकी प्रतिभा विशेष रूप से विकसित न हो सकी । कोर्स की पुस्तकें भी उसने रट ली थीं—किन्तु चिन्तन क्षमता विकसित नहीं हो पाई थी ।
प्रायोगिक अध्ययन का परिणाम
इस अध्ययन से कुछ तथ्य निकलकर सामने आए । बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक है कि इन बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाए–
1– खेल का महत्त्व—प्राथमिक कक्षाओं में खेल का महत्त्व तो शिक्षाविदों ने किया ही है । इसीलिए हर कक्षा में दिन में एक चक्र खेल का भी अवश्य होता है । वस्तुत: खेल वह है जिसमें बच्चे को आनन्द मिले । वह खेल लूडो, कैरम भी हो सकता है, दौड़–भाग के खेल भी, यहाँ तक कि पढ़ाई में भी यदि उसे आनन्द मिलता है तो वह बच्चे के लिए खेल का ही रूप ले लेता है ।
2– अभिभावक शिक्षा आवश्यक—वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जबकि लोगों के प्राय: एकाकी परिवार हैं, उसमें भी एक या दो बच्चे, तब अभिभावकों को बाल विकास के सामान्य नियमों की जानकारी की और भी अधिक आवश्यकता है क्योंकि संयुक्त परिवार में जहाँ एक ओर बच्चों को छोटा–सा समाज मिल जाता था, वहीं अनुभवी दादी–नानी, बुजुर्ग महिलाएँ बच्चों के स्वस्थ पालन–पोषण की भी अनेक जानकारियाँ देती थीं । इसके अतिरिक्त बदलते हुए सामाजिक वातावरण में बाल–मनोविज्ञान की शिक्षा भी अभिभावकों के लिए आवश्यक है ।
3– कला का महत्त्व—कला के द्वारा बच्चा स्वयं को अभिव्यक्त करता है । कला के भी कई आयाम हो सकते हैं । चित्रकला, पेपर कटिंग, फूलपत्ती से खेलना, आटे से चिड़िया आदि बनाना, मिट्टी से विभिन्न खिलौने बनाना आदि ।
विभिन्न प्रकार की चीजों द्वारा विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्ति सम्भव
है । मुख्य चीज है अभिव्यक्ति, उसके लिए माध्यम कुछ भी हो । बच्चा इन क्रियाओं में संलग्न रहता है तो आनन्द–प्राप्ति के साथ–साथ उसकी अभिव्यक्ति–क्षमता भी बढ़ती है । हो सकता है कि हमें यह लगे कि बच्चे ने यों ही टेढ़ी–मेढ़ी रेखाएँ खींच दी हैं या कुछ गोचापाची कर दी है किन्तु बच्चा अपनी दृष्टि से सार्थक चित्र ही बनाता है, जो उसकी अभिव्यक्ति क्षमता की वृद्धि के लिए महत्त्वपूर्ण है । अभिव्यक्ति से एक ओर तो उसे अपार आनन्द मिलता है, रचनात्मकता से आत्मविश्वास बढ़ता है व दूसरी ओर उसकी गतिक माँसपेशियों Motor Musclesका विकास भी होता है । सुन्दर लेखन के लिए आवश्यक है कि गतिक माँसपेशियाँ मजबूत हों ।
4– जिज्ञासाओं की परिपुष्टि—प्राथमिक शिक्षण का मूलाधार बच्चे को जीवन की समग्रता से परिचित कराना है । बच्चा वैसे भी समग्रता को ही लेकर चलता है । वह किसी भी चीज को टुकड़ों में नहीं देखता । उसके लिए हर उड़ता हुआ पक्षी ऊँचाई की असीम सम्भावनाएँ लिए रहता है । हर पेड़ सौन्दर्य का बोध लिए रहता है । हर पशु में विशेषताएँ लगती हैं । बच्चा अपनी अनन्त जिज्ञासाओं का समाधान करना चाहता है । एक ओर उसका मन विभिन्न कल्पना की उड़ानें भरता रहता है तो दूसरी ओर वह जीवन से जुड़ी हुई सत्यता को जानना चाहता है । अपनी अनन्त जिज्ञासाओं के माध्यम से वह अनायास ही ज्ञान की अभिवृद्धि करता है । आवश्यकता इस बात की है कि बच्चे के मन में जिस विषय में जितनी जिज्ञासा हो, उसे उतना तृप्त करते रहना चाहिए ।
जो बात बच्चे सहज रूप में नहीं सीख पाते हैं, उसी बात को वह कहानी, कविता, खेल, नाटक आदि के माध्यम से अतिसहज रूप से ग्रहण कर लेते हैं क्योंकि कहानी, कविता आदि रोचक होने के साथ–साथ जीवन के किसी पक्ष या घटना का समग्रता से उल्लेख करती हैं ।
5– मूल्यपरक शिक्षा—मूल्यपरक शिक्षा के विषय में मनीषियों ने बहुत कुछ लिखा है । इस सम्बन्ध में मैं केवल इतना ही लिख रही हूँ कि मूल्यों के समुचित विकास के लिए पहली आवश्यकता है कि बच्चे को सहज रहने दिया जाए । उसे उसका बचपन जीने का पूरा अवसर दिया जाए । बड़ों के व्यवहार व आचरण के द्वारा उसमें स्वयं ही मूल्यों का विकास होगा ।
यदि प्रत्यक्ष उदाहरणों द्वारा बालक को शिक्षा दी जाए तो उसका प्रत्यक्ष प्रभाव उसके चरित्र पर पड़ता है । जैसे – मितव्ययिता की शिक्षा, केवल किताबी ज्ञान से नहीं दी जा सकती है । यदि हम बत्ती–पंखा, नल आदि अनावश्यक रूप से खुला नहीं छोड़ते हैं, तो बच्चा भी ऐसा नहीं करेगा । यदि हम स्वयं जरा–सा भी खाना जूठा नहीं छोड़ते हैं, बरबाद नहीं करते हैं, तो बच्चा भी कभी भोजन या अन्य कोई चीज बरबाद नहीं करेगा ।
6– बच्चों में प्रेम की भावना का समावेश—प्रेम एक मनोभावना या मनोवृत्ति ही न होकर जीवन की जीवन्तता, समायोजन व आत्मविकास एवं सर्वांगीण विकास का आधार है । औद्योगीकरण के इस युग में भावुकता व प्रेम की आवश्यकता जीवन की सार्थकता एवं सफलता के लिए अत्यावश्यक है ।
मूल्यपरक शिक्षा का मूलाधार प्रेम की भावना का सहज विकास ही है । प्रेम की भावना के सहज विकास के लिए आवश्यक है—
• स अध्यापकों व अभिभावकों में प्रेम की भावना समाहित हो ।
• मानव–प्रेम, पशु–प्रेम से सम्बन्धित कहानियाँ सुनाई जाएँ ।
• देशभक्ति व देश–प्रेम की भावना के विकास के लिए स्वतंत्रता संग्राम में आहुति देने वाले वीरों की संक्षिप्त कहानियाँ सुनाई जाएँ ।
समस्त शिक्षा का उद्देश्य है—बच्चे में स्व–प्रेम, मातृप्रेम, परिवार–प्रेम, समाज–प्रेम, देश–प्रेम व विश्व प्रेम तथा ईश–प्रेम की भावना का विकास हो
सके ।
बच्चों का हठीला बचपन न छीनें, उन्हें असहज न बनावें, उनकी सहजता, कोमलता व स्वाभाविकता को अक्षुण्ण रहने दें ।
7– संगीत—संगीत–शिक्षण न केवल बचपन वरन् पूरे जीवन के लिए बहुत सुखदायी है । कला व संगीत इन दोनों के माध्यम से मनुष्य की अभिव्यक्ति क्षमता विकसित होती है । साथ ही उसके मन में निहित भावनाएँ, कुंठाएँ, अपूर्ण इच्छाएँ, दमित भावनाएँ सकारात्मक रूप से अभिव्यक्त हो जाती हैं, जिससे उसे आनन्द प्राप्त होता है । बच्चों के लिए संगीत व कला–शिक्षण के कई लाभ हैं । एक ओर वह रचनात्मक कार्य में संलग्न रहता है, उसकी इच्छाओं की अभिव्यक्ति होती है, बच्चा प्रसन्नचित्त रहता है । दूसरी ओर भविष्य में वह इसे व्यावसायिक रूप में भी ले सकता है ।
8– स्वास्थ्य की शिक्षा—स्वास्थ्य जीवन में प्रधान है । अत: स्वास्थ्य के सामान्य नियमों की जानकारी बच्चों को अवश्य होनी चाहिए । यथा – सुबह जल्दी उठना, रात को जल्दी सोना, कड़ी भूख लगने पर ही खूब चबा–चबाकर खाना, पर्याप्त मात्रा में पानी पीना आदि ।
यदि आयु के अनुसार बच्चों को सुबह खाली पेट कुछ व्यायाम करवाए जावें तो बच्चा सदा स्वस्थ रहेगा । इसी प्रकार कुछ बड़े बच्चों को भोजन के तत्त्वों की जानकारी भी दी जा सकती है ।
9– शिक्षा के प्रति कौतूहल आवश्यक—यदि कक्षा एक में ही कुछ ऐसी व्यवस्था हो कि जिस बच्चे की पढ़ाई में रुचि नहीं है, उसके लिए खेल समूह की कक्षाएँ हों । उसमें बच्चों को अन्य खेलों के साथ शैक्षिक खिलौने भी दिए जाएँ । जब बच्चे की पढ़ाई के प्रति रुचि जागृत हो जाए तभी उसे पढ़ाई में लगाया जाए ।
यदि कोई बच्चा वर्ष पूरा होने पर भी कक्षा एक का पाठ्यक्रम पूरा नहीं कर पाता है, तो उसे पुन: एक वर्ष खेलने व पढ़ने का अवसर दिया जाए । उन विद्यार्थियों को अनुत्तीर्ण की संज्ञा न दी जाए वरन् कक्षा एक को भी खेल समूह के अन्तर्गत ही माना जाए । खेल की प्रवृत्ति की परिपूर्ति होने पर व पढ़ाई के प्रति रुचि जागृत होने पर जब बच्चा कक्षा एक का पाठ्यक्रम सफलतापूर्वक समझ लेगा, तब आगे की कक्षाओं की पढ़ाई में उसके लिए किसी प्रकार का व्यवधान नहीं होगा । वह सफलतापूर्वक आगे का पाठ्यक्रम पढ़ेगा व समझेगा ।
बच्चे के शिक्षण को प्रारंभ करने से पूर्व आवश्यक है कि उसके मन में शिक्षण के प्रति कौतुक उत्पन्न कर दिया जाए । जब उसकी पढ़ाई या विषय के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाए या सीखने के प्रति जिज्ञासा की उत्पत्ति हो तभी उसका विद्यारम्भ होना चाहिए । किसी बच्चे की रुचि चार वर्ष की आयु में जागृत हो सकती है, किसी की सात वर्ष की आयु में, जब तक पात्र (बच्चा) तैयार न हो उसे जबरदस्ती पढ़ाना अनुपयुक्त है ।
10– न्यूनतम अधिगम स्तर की अपेक्षा अधिकतम अधिगम स्तर—प्राथमिक कक्षाओं में न्यूनतम अधिगम स्तर M.L.L.Minimum Level of Learning की अपेक्षा अधिकतम अधिगम स्तर M.L.L.Maximum Level of Learning की बात करनी चाहिए ।
प्राथमिक कक्षाओं में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद द्वारा बनाया गया पाठ्यक्रम पूर्णतया मनोवैज्ञानिक है । यदि बच्चा कक्षा एक की पाठ्य–पुस्तकें अधिगृहीत कर लेता है, तब वह अगली कक्षाओं में सामान्य रूप से पढ़ता चला जाएगा, रुचि भी बनी रहेगी व योग्यता व क्षमता का विकास भी होगा ।
इसी के साथ मैं यह भी सोचती हूँ कि बच्चे के शिक्षण प्रारम्भ की कोई आयु निर्धारित कर देना उचित नहीं है । बच्चे के शिक्षण प्रारम्भ से पूर्व आवश्यक है कि उसके मन में शिक्षण के प्रति कौतुक उत्पन्न कर दिया जाए । जब उसकी पढ़ाई या विषय के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाए या सीखने के प्रति जिज्ञासा की उत्पत्ति हो तभी उसका विद्यारम्भ होना चाहिए । किसी बच्चे की रुचि चार वर्ष की आयु में हो सकती है, किसी की सात वर्ष की आयु में । जब तक पात्र (बच्चा) तैयार न हो, तब तक उसे जबरदस्ती पढ़ाना अनुपयुक्त है ।
11– पूर्व प्राथमिक शिक्षा आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी—वस्तुत: तीन से छ: वर्ष के बच्चों की पूर्व प्राथमिक शिक्षा बाल–विकास के लिए अति महत्त्वपूर्ण है । बच्चे के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए प्रथम छ: वर्ष बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, ऐसा मनोवैज्ञानिकों का मानना है । प्राय: हम इसी आयु को उपेक्षित कर देते हैं या फिर तथाकथित नर्सरी और के–जी– स्कूलों के नाम पर खुली दुकानों में बच्चों को भेज देते हैं । वहाँ के लम्बे–चौड़े पाठ्यक्रम से वह कोमल पुष्प पढ़ाई, भय एवं अति निर्देशों के वातावरण में अपनी सहजता को भूलकर कुम्हला जाते हैं व विद्यालय उन्हें यातनागृह दिखाई देने लगते हैं तथा परिवारजन इस यातनागृह में भेजने वाले यातनादाता । बच्चे को पढ़ाने के पहले आवश्यक है कि उसकी मानसिक पृष्ठभूमि तैयार की जाए ।
जिस प्रकार खेत के तैयार हो जाने पर उसमें बीज डालने पर बहुत अच्छी फसल तैयार होती है, उसी प्रकार बच्चे की पढ़ाई प्रारम्भ होने से पूर्व आवश्यक है कि उसकी पढ़ाई के प्रति रुचि जागृत की जाए । विद्यालय उसकी सुखद कल्पनाओं की परिपूर्ति का स्थान हो ।
वस्तुत: यह जानने की आवश्यकता है कि बालक के भीतर कुछ जन्मजात प्रतिभाएँ होती हैं और कुछ परिवार, सम्बन्धी, पड़ोस, समाज, विद्यालय आदि के द्वारा उभारी जा सकती हैं । इसी हेतु पूर्व प्रारम्भिक शिक्षा का स्वरूप होना चाहिए, जिसका केन्द्र–बिन्दु बालक होता है । एक बालक और दूसरे बालक के बीच अन्तर हो सकता है । अत: प्रत्येक बालक को एक इकाई समझकर कार्य करने की आवश्यकता है ।
यह आवश्यक है कि पूर्व प्रारम्भिक शिक्षा जो कि औपचारिक शिक्षा की तैयारी है, उसमें सुधार किया जाए । यदि पूर्व प्रारम्भिक शिक्षा ठीक–ठीक होगी तो प्राथमिक शिक्षा एवं आगे की शिक्षा भी ठीक हो सकेगी क्योंकि पूर्व प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य ही है बच्चों को विद्यालय शिक्षा के लिए भली प्रकार तैयार करना । उचित शिक्षा के परिणामस्वरूप बच्चे सफल नागरिक बन सकेंगे ।
ध्यान देने योग्य बातें
1– जब बच्चा पढ़ाई–लिखाई के लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाए तभी उसे कक्षा एक में प्रवेश दिया जाए ।
2– कविता, कहानी, खेल, आर्ट, क्राफ्ट, मिट्टी के खिलौने आदि के माध्यम से उनकी क्षमता का अधिकतम सीमा तक विकास किया जाए किन्तु सहजता हो । खेल, कविता, कहानी आदि का प्रयोग बच्चों को आनन्दमय अनुभूति देने हेतु प्रयोग करें ।
3– खेल आदि साधन हों, साध्य नहीं ।
4– किसी भी पाठ्यक्रम की अनिवार्यता न हो ।
5– बच्चे की व्यक्तिगत क्षमताओं को प्रश्रय दिया जाए ।
6– हर बच्चे को एक यूनिट (स्वतंत्र इकाई) मानकर उसे उसकी रुचि–रुझान के अनुसार कार्य करने दिया जाए ।
7– बच्चे की सहजता, चंचलता व कोमलता को ध्यान में रखकर उसे समवयस्क बच्चों के साथ उसका बचपन जीने का पूरा अवसर प्रदान किया
जाए ।
8– अभिभावक शिक्षा अनिवार्य हो ।
9– विशेष शिक्षण प्रविधि ।
10– यथासम्भव बच्चों के लिए समर्पित, बाल मनोविज्ञान के ज्ञाता शिक्षकों का चयन हो । शिक्षकों के सेवा में आने के तुरन्त बाद मनोविज्ञानशाला में बालमनोविज्ञान का कम–से–कम एक माह का सेवा–पूर्व प्रशिक्षण Pre Service Trainingहो । प्रतिवर्ष सत्रान्त पर कम–से–कम एक सप्ताह का सेवाकालीन प्रशिक्षण In Service Course भी मनोवैज्ञानिकों द्वारा अवश्य होना चाहिए ।
11– बच्चे को स्वस्थ वातावरण प्रदान करना नितान्त जरूरी है, प्रदत्त वातावरण से तथा कठिनाई के बिन्दु पर सहयोग करने पर वह स्वयं ही सीख जाएगा ।
12– बच्चे का मस्तिष्क सहज रहे । अत्यधिक सूचनाएँ न भरी
जाएँ ।
बालक का सहज विकास हो, उसकी शिक्षा ऐसी हो कि उसको अभिव्यक्ति के पूरे अवसर मिलें । उल्लसित जीवन हो, चंचलता के अवसर मिलें, ऐसा बच्चा सहज रूप में विकसित होगा । हो सकता है वह बड़ा अधिकारी, नेता या व्यापारी न बन सके, लेकिन वह जैसा भी होगा, जहाँ भी होगा पूर्ण समायोजित व्यक्तित्व वाला होगा । देश का सुयोग्य नागरिक होगा ।
बचपन की अनुभूतियाँ जीवन–भर सुखद एहसास कराती हैं । अत: बच्चे को स्नेह से अभिसिंचित किया जाए । उसे उसका बचपन जीने का पूरा अवसर प्रदान किया जाए । पानी से खेलता हुआ या मिट्टी से सना हुआ अतिप्रसन्न शिशु किसका मन नहीं मोह लेता ।
शिशु के इन आनन्द के क्षणों को वर्णित तो किया ही नहीं जा सकता, उसे सर्वाधिक आनन्द शरारत करने में ही आता है । उसका प्रिय–से–प्रिय खिलौना या अतिप्रिय खाद्य वस्तु तो उसे सीमित सुख ही देती है किन्तु मनपसन्द शरारत करने को मिल जाए तो, क्या कहने ।
भारत के अधिकांश प्राइवेट विद्यालयों में शिशु–शिक्षा की जो व्यवस्था चल रही है, वह भारतीय स्थिति–परिस्थिति और परिवेश के अनुरूप नहीं है । उनमें अबोध शिशुओं पर कॉपी–किताबों का भारी–भरकम बोझ लाद दिया जाता है, जिनसे बच्चों की किलकारियाँ, उनकी हँसी–खुशी लुप्त हो जाती है और बच्चों के चेहरे मुरझा जाते हैं । इसी के साथ सबसे बड़ा नुकसान होता है कि उनके आगे के विकास की गति बाधित होती है ।
केन्द्रीय विद्यालय के बच्चों पर किया गया
प्रायोगिक अनुभव व निष्कर्ष
बच्चों का भविष्य तभी आनन्दपूर्ण हो सकता है जब उनका समुचित विकास अर्थात् स्वाभाविक ढंग से विकास हो । ज्ञानार्जन के साथ उनका बाल–सुलभ स्वभाव बना रहे और वह अपनी अन्तर्निहित प्रतिभाओं को उभार सकें । वह स्वयं अपनी रुचि रुझान के अनुसार औपचारिक शिक्षा ग्रहण करने के योग्य बन सकें । तदर्थ मैंने पूरी तरह से इस ओर अपना ध्यान लगाकर बाल–विकास के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हुए शोधकार्य जारी रखा ।
केन्द्रीय विद्यालय में कार्यकाल के दौरान कक्षा एक के बच्चों पर किया गया प्रयोग व अनुभव प्रस्तुत है ।
मेरी सदा से इच्छा रही है कि मैं उचित ढंग से बाल–विकास के सभी पहलुओं को लेकर अनुसंधान करूँ । यह तभी सम्भव होता जब मैं कक्षा में बच्चों के साथ पूरे समय रहती । नियमानुसार मुझे प्रतिदिन आठ में छ: पीरियड मिलने थे, बाकी दो पीरियड किसी अन्य अध्यापक को दिए जाने थे । विशेष अनुमति के तहत सत्र 1999–2000 में मुझे कक्षा एक के सभी आठों पीरियड लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ, जिससे मैं बच्चों के साथ पूरे समय रह सकूँ ।
एन.सी.ई.आर.टी. के मानकों के अनुसार ही मैंने अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया ।
बच्चों के एडमीशन के बाद उनकी सामान्य क्षमता का ज्ञान Pre-Testing
बच्चों के एडमीशन के बाद उनकी सामान्य क्षमता Pre-Testingके ज्ञान हेतु कुछ बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित किया गया—
1– शारीरिक विकास एवं सफाई की आदत
(क) सफाई की आदत
(ख) पेंसिल ठीक से पकड़ पाता है
(ग) किताब सही ढंग से पकड़कर चित्र आदि देखता है
(घ) सही शारीरिक स्थिति Posture
(ङ) उच्चारण की शुद्धता
2– सामाजिक विकास
(क) विद्यालय के वातावरण से तादात्म्य
(ख) अन्य बच्चों से सहयोग
(ग) कक्षा में सहयोग
(घ) स्वावलम्बन
3– मानसिक विकास
(क) सीखने की इच्छा
(ख) ध्यान देने की प्रवृत्ति
(ग) विभेदीकरण की क्षमता
(घ) कहानी कथन क्षमता
(ङ) कल्पना शक्ति
इन सब बिन्दुओं के आधार पर बच्चे के शारीरिक, मानसिक व सामाजिक विकास के बारे में सामान्य जानकारी ली गई, जिससे पता चल सके कि बच्चों को कहाँ तथा किस बिन्दु पर मार्गदर्शन या सहयोग की आवश्यकता है ।
छह सप्ताह के रेडीनेस प्रोग्राम का कार्यान्वयन
मैंने रेडीनेस प्रोग्राम के अन्तर्गत अन्य क्रिया–कलापों के साथ ही क्रियात्मक रूप से बच्चों के क्रियाशील रहने हेतु उन्हें कविता, कहानी, चुटकुले, पहेली की ओर प्रेरित करना चाहा । साथ ही ड्रॉइंग की कॉपी मँगवाई तथा अभिभावकों की सुविधा के लिए कक्षा एक की पुस्तकों व कॉपियों की लिस्ट टाइप करवाकर दे दी ।
सुन्दर, सुडौल लिखावट के लिए हिन्दी व अंग्रेजी की सुलेख की पुस्तकें भी मँगवार्इं । मेरा उद्देश्य यह था कि अभिभावक पुस्तकें आदि खरीद लेंगे, जिन्हें भविष्य में समयानुसार पढ़ाया जाएगा । मैंने दिनांक 24–04–1999 (बच्चों के एडमीशन के पहले दिन) को बच्चों को किताबों की लिस्ट दी थी । कक्षा एक की पुस्तकें व कॉपियाँ तो सबने खरीद लीं, ड्रॉइंग व सुलेख की पुस्तकें नहीं खरीदीं । केवल एक बच्चा ही ड्रॉइंग व सुलेख की पुस्तकें लाया ।
आश्चर्य है कि अभिभावक ड्रॉइंग व सुलेख को बेकार की चीज समझते हैं ।
बच्चों को इनडोर व आउटडोर गेम्स (कमरे के अन्दर व मैदान में खेले जा सकने वाले खेल) भी करवाए । भावगीतों द्वारा उनकी भावाभिव्यक्ति का प्रयास किया, किन्तु चंचलता व कोमलता से बहुत दूर इन बच्चों को उदासी घेरे हुई थी । कविता, कहानी, आउटडोर व इनडोर गेम्स में बच्चों की रुचि नहीं थी ।
बड़ी विचित्र स्थिति थी । कक्षा से बाहर खेलने के लिए ले जाने पर भी बच्चे चुपचाप ही रहते थे या झगड़ने लगते थे । बच्चों में स्वयं खेलने, समूह बनाने या नेतृत्व की क्षमता नहीं थी । दो मिनट के लिए भी कक्षा से बाहर जाने पर बच्चों में मारपीट शुरू हो जाती थी । बच्चों में सहज चंचलता के स्थान पर आक्रामक प्रवृत्ति पर्याप्त मात्रा में थी ।
बच्चों से पूछने पर पता चला कि माता–पिता इन्हें खेलने के लिए मना करते हैं । कविता, कहानी की ओर प्रोत्साहित नहीं करते हैं । न तो स्वयं ही कहानियाँ, कथाएँ आदि सुनाते हैं, न ही दादी–नानी आदि बुजुर्ग लोगों के पास अधिक बैठने देते हैं । उन्हें लगता है कि केवल पुस्तकीय ज्ञान ही पर्याप्त है ।
अधिकांश अभिभावकों से वार्तालाप के दौरान यह निष्कर्ष निकला कि उन्हें ड्रॉइंग, सुलेख, कविता, कहानी, परम्परागत कथाएँ, खेल आदि समय बरबाद करने वाले क्रिया–कलाप लगते हैं । दु:ख होता है कि अभिभावक स्वयं अपनी ही सन्तान को मानसिक रूप से पंगु बना रहे हैं । अगर इन बच्चों में इस समय ही चंचलता नहीं रही तो यही बच्चे बड़े होने पर समस्या बच्चे (च्तवइसमउ ब्ीपसक) बन सकते हैं ।
कुछ बच्चों में चोरी की प्रवृत्ति भी थी । राहुल ने एक दिन थोड़ी मॉडलिंग क्ले Modeling Clay उठा कर रख ली । अंकुर ने कुछ ब्लॉक्स उठाकर जेब में रख लिए, पकड़े जाने पर छुपाने का प्रयास करने लगे, डरने लगे तथा रोने लगे । सलिल तो मारपीट में सबसे आगे रहता था । मैंने उनकी इस प्रवृत्ति को सहज रूप में लिया, उन्हें प्यार से समझाया और रचनात्मकता की ओर प्रेरित किया । तब धीरे–धीरे उनकी आक्रामक प्रवृत्ति तथा चोरी की आदत समाप्त हो गई ।
इन सब समस्याओं का मूल कारण यह है कि इन बच्चों को अधिक पढ़ाने के उद्देश्य से तीन वर्ष की आयु में ही तथाकथित नर्सरी विद्यालयों में भर्ती करवा दिया गया था, जहाँ पर नर्सरी व किंडरगार्टन के उद्देश्यों से बहुत दूर उन्हें पढ़ना–लिखना सिखाया जाने लगा था । उस समय ही इन्हें जबरदस्ती विद्यालय जाने के लिए तैयार कर दिया जाता था ।
विद्यालय का उबाऊ वातावरण, घर में आकर होमवर्क का बोझ, टी–वी– देखना व सो जाना । जीवन्तता से दूर इन बच्चों के विकास की गति तो उस समय ही अवरुद्ध कर दी गई थी, जब इन्हें तीन वर्ष की आयु से ही पढ़ाई की ओर लगा दिया गया ।
मीठी–मीठी लोरियाँ सुनने का समय, कल्पनाओं में उड़ानें भरने का समय तो चला गया पुस्तकों में । जो भी हो मुझे तो इन्हीं बच्चों के साथ कार्य करना था, जिन्हें पूर्व प्राथमिक स्तर से ही पढ़ाई के प्रति भय व अरुचि का वातावरण मिला था ।
मुझे अभिभावकों का सहयोग बहुत कम मिला, कुछ अभिभावकों ने तो पूर्ण असहयोग किया । मेरे बार–बार कहने व तर्कपूर्ण ढंग से समझाने पर भी कुछ लोगों ने सुलेख की पुस्तकें व ड्रॉइंग की कॉपियाँ नहीं खरीदीं, जबकि यह अभिभावक पढ़े–लिखे व सम्पन्न थे । हारकर मैंने उनसे कहना छोड़ दिया और कुछ बच्चों को स्वयं सुलेख व ड्रॉइंग की कापियाँ व पुस्तकें खरीदकर दीं व उसका आशानुरूप फल भी प्राप्त हुआ ।
बच्चों के निष्पादन का विवेचन
कक्षा एक के बच्चों के साथ कार्य करने का जो सुअवसर प्राप्त हुआ उसमें सीमित संसाधनों व निर्धारित पाठ्यक्रम के मध्य भी मैंने यह अनुभव किया कि यदि कक्षा एक में प्रवेश के पूर्व बच्चों को बालगृह (ब्ीपसकतमद भ्वउम) में पूर्व प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हो सके तो कितना अच्छा हो ।
यदि ऐसा सम्भव न हो तो विद्यालय में ही कक्षा एक में एडमीशन के बाद कम–से–कम छ: सप्ताह रेडीनेस (पूर्व प्राथमिक शिक्षा) के हों । पूर्व प्राथमिक शिक्षा से मेरा तात्पर्य तथाकथित नर्सरी शिक्षा से नहीं है, जहाँ उन्हें भययुक्त वातावरण में पढ़ना–लिखना सिखाया जाने लगता है । मेरा उद्देश्य वास्तविक नर्सरी शिक्षा से है, जहाँ बच्चे रूपी पुष्प स्वस्थ रूप में, उन्मुक्त रूप से विकसित हों व अपने बचपन का पूरा आनन्द प्राप्त कर सकें ।
इनमें अमन और आदर्श दोनों ही बुद्धिमान थे, किन्तु विद्यालय में इनकी उपस्थिति बहुत कम रहती थी, अनुपस्थिति का कोई विशेष कारण न होकर अभिभावकों की लापरवाही थी, जबकि इनके अभिभावक काफी पढ़े–लिखे थे । अभिभावकों की लापरवाही यहाँ तक थी कि भयंकर जाड़े में भी आदर्श नेकर पहनकर आता था । उसके पिता से बार–बार कहने पर भी उन्होंने उसके लिए पैंट नहीं खरीदा । परिणामस्वरूप बच्चा बीमार हो गया, जबकि उसके पिता सम्पन्न हैं व उनके पास कार भी है ।
अभिषेक शुक्ला व सलिल को उनके अभिभावकों ने मेरे आखिरी प्रयास के बाद भी सभी कॉपी–किताबें खरीदकर नहीं दीं, जबकि वह अच्छे, साफ–सुथरे कपड़े पहनकर आता था व कई बार पन्द्रह रुपये वाली चॉकलेट भी लाता था । बातें करने पर पता चला कि उसे कई बार कोल्ड ड्रिंक भी पिलाई जाती थी ।
सलिल की माँ तो आकर मुझसे लड़ने लगीं कि आपको ड्रॉइंग व सुलेख की पुस्तकों पर कमीशन मिलता है क्या ? मैंने उनसे अधिक वाद–विवाद न करके इन दोनों बच्चों को स्वयं ड्रॉइंग व सुलेख की पुस्तकें खरीदकर दे दीं । इसके बाद मेरे एक साथी अध्यापक श्री हरिशंकर वर्मा जी के द्वारा समझाने–बुझाने से मेरे प्रति उनका पूर्वाग्रह खत्म हुआ ।
जहाँ एक ओर अभिभावकों की बच्चों के प्रति उदासीनता रहती है, वहीं कुछ अभिभावकों का अतिध्यान भी समस्या का कारण बन जाता है । इनमें एक समस्या ट्यूशन है । अपने घर के आस–पास हाईस्कूल या इण्टर में पढ़ने वाले लड़कों को ये लोग अपने बच्चों के ट्यूटर के रूप में नियुक्त कर देते हैं । जैसे – पृथ्वी प्रताप सिंह, दिनेश, विमल, अभिषेक शुक्ला, अंशुल, अंकुर व पवन तथा आरती व गरिमा । इन बच्चों को यही हाईस्कूल, इण्टर के छात्र ट्यूशन पढ़ाते
थे । आरती व गरिमा का काम ट्यूटर या तो बिना समझाए हाथ पकड़कर करवा देते थे या खुद कर देते थे । अन्य अधिकांश अभिभावक भी बच्चों को बिना समझाए काम पूरा करवाने की प्रवृत्ति रखते थे ।
बहुत समझाने के बाद कुछ लोगों ने तो यह प्रवृत्ति बन्द कर दी, किन्तु विमल व अशोक के ट्यूटर व अभिभावक कभी उसका हाथ पकड़कर बिना समझाए उसका काम पूरा करवाते, कभी स्वयं ही लिख देते थे । जबकि विमल व अशोक को अक्षर–ज्ञान भी नहीं था । उनके इस प्रकार काम पूरा करवाने का परिणाम यह हुआ कि बच्चे वांछित योग्यता नहीं ग्रहण कर सके, न ही उनकी पठन–पाठन में रुचि ही जाग सकी ।
जबकि मैंने कभी भी होमवर्क नहीं दिया । बच्चों की वैयक्तिक क्षमता के अनुसार कक्षा में ही काम करवाया । यह आवश्यक भी नहीं समझा कि हर बच्चा बिना समझे पुस्तक का हर काम पूरा करे । खेद है कि कुछ अभिभावक यही समझते रहे कि दूसरे बच्चों ने पुस्तक का जितना कार्य किया है, उन्हें भी बच्चे को उतना ही काम पूरा करवाकर विद्यालय में भेजना है ।
अभिभावकों से निवेदन किया कि बच्चों को विद्यालय में जो पढ़ाया जा रहा है, उसे पहले से ही घर पर न पढ़ाएँ क्योंकि फिर बच्चा कक्षा में ध्यान नहीं देता है । इसके अतिरिक्त यदि वह बाद में भी कुछ पूछता है तो उसे प्रोत्साहित करें कि वह कक्षा में ही अध्यापक से पूछे । इसका कारण भी स्पष्ट किया कि ऐसा करने से वह अध्यापक की बात पूर्ण मनोयोग से सुनेगा किन्तु परिणाम आशानुकूल नहीं रहा ।
कक्षा एक से ही ट्यूशन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाने से विद्यालय में बच्चा खेलता रहता है और खेलने से अधिक मार–पीट करता रहता है क्योंकि उसका खेल का समय तो ट्यूशन में चला जाता है । इसके अतिरिक्त उसे यह भी पता होता है कि वह विद्यालय में चाहे जितना पढ़ ले, उसे घर जाकर तो पढ़ना ही है । बच्चे हमसे अधिक दूरदर्शी व अपना कार्यक्रम नियोजित करने वाले होते हैं । वह अपना खेल का समय अवश्य ही निकालेंगे । अत्यधिक दबाव पड़ने से उनका विकास बाधित होता है ।
ट्यूशन या घर में पढ़ाने की प्रवृत्ति केवल कमजोर बच्चों में ही नहीं वरन् प्रतिभाशाली बच्चों के अभिभावकों में भी थी । शान्तनु और अंगिरा की ड्रॉइंग बहुत अच्छी होने के साथ–साथ वे लोग पढ़ाई और अनुशासन में भी बहुत अच्छे थे । शान्तनु व सचिन की अभिव्यक्ति भी स्पष्ट थी किन्तु अपना दुर्भाग्य कहूँ या देश का या उन बच्चों का, सचिन के अभिभावक के अतिरिक्त अन्य किसी बच्चे के अभिभावक ने घर में पढ़ाने की प्रवृत्ति बन्द नहीं की ।
सचिन के अभिभावक चूँकि स्वयं अध्यापक हैं । अत: वह इस बात की बारीकी को समझ गए व उन्होंने घर पर बच्चे के लिए खेल, ड्रॉइंग आदि की व्यवस्था की । परिणाम बहुत उत्साहजनक हुआ । बच्चे के ज्ञानार्जन के साथ–साथ उसकी मुखरता बढ़ी । प्रात:कालीन प्रार्थना सभा से लेकर विद्यालय की पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं में उसकी पूरी सहभागिता रही । वह एक कुशल वक्ता की तरह पूरे आत्मविश्वास के साथ माइक पर बोलता था । काश! यदि अन्य अभिभावकों का सहयोग मिला होता तो कुछ अन्य प्रतिभाएँ भी निखर सकती थीं ।
मैंने सचिन की प्रतिभा का पूरा उपयोग करते हुए कक्षा एक में ही दिसम्बर माह तक उसे अंग्रेजी की डिक्शनरी देखना भी सिखा दिया था । इसके बाद मैंने उसे एक डिक्शनरी पुरस्कार–स्वरूप दी व अभिभावक से कहा कि यदि बच्चा डिक्शनरी देखने में मदद मँागे तो घर पर उसका सहयोग करिएगा । डिक्शनरी देखना सीखने पर जोर नहीं देना है । उसे डिक्शनरी को खिलौने की तरह खेलने
दें । खेलते–खेलते भी बहुत कुछ सीख जाएगा ।
इन सब समस्याओं में सबसे बड़ी समस्या तो यह नजर आई कि लगभग सभी बच्चे नर्सरी के नाम पर खुले हुए विद्यालयों में पढ़ना–लिखना सीखकर आते हैं । राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के अनुसार वर्णमाला आदि हमें कक्षा एक में सिखानी थी किन्तु बच्चे तथाकथित नर्सरी स्कूलों के भयपूर्ण वातावरण में अपना शैशव, अपना बचपन खोते हुए पढ़ना–लिखना सीखते हैं, किन्तु सही रूप में नहीं सीख पाते हैं ।
उनके लेखन, पठन व वाचन सभी में अशुद्धियाँ होती रहती हैं । चूँकि उनकी आन्तरिक चंचलता शैशवावस्था में ही समाप्त हो जाती है । अत: विद्यालय–पूर्व आयु में जबरदस्ती ज्ञान भरा हुआ मन, प्रसन्नचित्त मन से सही ज्ञान सीखने के लिए तैयार भी नहीं होता । यही बच्चा क्रमश: कठिन होते हुए पाठ्यक्रम में कक्षा दो, तीन, चार या पाँच में पहुँच जाता है और उसकी कठिनाई बढ़ती ही जाती है, क्योंकि सही लिखना, पढ़ना, बोलना व समझना नहीं आ सका । साथ में अरुचि नर्सरी कक्षा में ही थी तो उपलब्धि तो बाधित होगी ही ।
इस प्रकार कमजोर नींव वाले बच्चों के पूरे जीवन के लिए एक कठिनाई तो बनी ही रहती है । प्राथमिक स्तर पर अधिगम में जो कमजोरी रह जाती है, उसका प्रभाव बाद की पढ़ाई पर पड़ना भी स्वाभाविक ही है क्योंकि प्रारम्भ में ही सही चीज नहीं आई, वर्तनी में अशुद्धियाँ रहीं, प्रत्यय ठीक से स्पष्ट नहीं हुआ तो आगे की पढ़ाई कैसे समझ में आवेगी ।
मैंने अपने अध्यापन–जीवन में देखा है कि कला का सकारात्मक प्रभाव बच्चे के शारीरिक व मानसिक स्तर पर तो पड़ता ही है, उसका अधिगम भी प्रभावित होता है ।
प्राथमिक कक्षाओं में खेल का महत्त्व तो शिक्षाविदों ने किया ही है । इसीलिए हर कक्षा में दिन में एक चक्र खेल का भी अवश्य होता है । वस्तुत: खेल वह है जिसमें बच्चे को आनन्द मिले । वह खेल लूडो, कैरम भी हो सकता है, दौड़–भाग के खेल भी, चित्रकला भी, कहानी–कविता भी, यहाँ तक कि पढ़ाई भी । यह बच्चों की रुचि पर निर्भर करता है कि उन्हें किस कार्य में आनन्द आता है । जिस कार्य में बच्चा आनन्दित होता है, वही उसका खेल है । जो कार्य वह प्रयत्नसाध्य करता है, वह उसका कार्य है । स्वास्थ्य की दृष्टि से विद्यालय में खेल के चक्र में बच्चों के लिए दौड़ना–भागना भी आवश्यक है । अत: बच्चों को दौड़–भाग के खेल के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए क्योंकि हर बच्चे के घर के पास पार्क आदि की व्यवस्था नहीं होती है ।
अंगिरा, जो एक प्रतिभाशाली बालिका है, आवश्यकता से अधिक शान्त रहती थी । उसका शैक्षिक निष्पादन बहुत अच्छा था । उसे भी तथाकथित नर्सरी विद्यालय में तो पढ़ाया ही गया था, साथ ही घर पर उसकी माँ का कठोर अनुशासन रहता था । वह बच्चों का शोर–शराबा बिल्कुल पसन्द नहीं करती थीं । बच्चों को पार्क में व पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने भी नहीं देती थीं ।
एक बार मैं उनके घर अपनी छ: वर्षीया पुत्री के साथ इसी उद्देश्य से गई कि अंगिरा के आवश्यकता से अधिक शाँत रहने का कारण जान सकूँ । शाम का समय था, घर के सामने पार्क भी था । मैंने अपनी पुत्री लक्ष्मी व अंगिरा दोनों से कहा कि सामने पार्क में अन्य बच्चों के साथ खेलें, किन्तु उसकी माँ ने कहा कि वह अपने बच्चों को घर से बाहर नहीं खेलने देती हैं । मैंने उन्हें समझाने का प्रयास किया तो उनका उत्तर था कि बच्ची पढ़ाई में तो अच्छी है और क्या चाहिए ।
पढ़ाई के साथ–साथ बच्चे के सामान्य विकास के लिए उन्मुक्तता भी तो आवश्यक है । परिणाम भी वही हुआ, अंगिरा एक प्रतिभाशाली बच्ची थी किन्तु कोर्स की पुस्तकों के अतिरिक्त अन्य किसी क्षेत्र में उसकी प्रतिभा विशेष रूप से विकसित न हो सकी । कोर्स की पुस्तकें भी उसने रट ली थीं—किन्तु चिन्तन क्षमता विकसित नहीं हो पाई थी ।
प्रायोगिक अध्ययन का परिणाम
इस अध्ययन से कुछ तथ्य निकलकर सामने आए । बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक है कि इन बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाए–
1– खेल का महत्त्व—प्राथमिक कक्षाओं में खेल का महत्त्व तो शिक्षाविदों ने किया ही है । इसीलिए हर कक्षा में दिन में एक चक्र खेल का भी अवश्य होता है । वस्तुत: खेल वह है जिसमें बच्चे को आनन्द मिले । वह खेल लूडो, कैरम भी हो सकता है, दौड़–भाग के खेल भी, यहाँ तक कि पढ़ाई में भी यदि उसे आनन्द मिलता है तो वह बच्चे के लिए खेल का ही रूप ले लेता है ।
2– अभिभावक शिक्षा आवश्यक—वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जबकि लोगों के प्राय: एकाकी परिवार हैं, उसमें भी एक या दो बच्चे, तब अभिभावकों को बाल विकास के सामान्य नियमों की जानकारी की और भी अधिक आवश्यकता है क्योंकि संयुक्त परिवार में जहाँ एक ओर बच्चों को छोटा–सा समाज मिल जाता था, वहीं अनुभवी दादी–नानी, बुजुर्ग महिलाएँ बच्चों के स्वस्थ पालन–पोषण की भी अनेक जानकारियाँ देती थीं । इसके अतिरिक्त बदलते हुए सामाजिक वातावरण में बाल–मनोविज्ञान की शिक्षा भी अभिभावकों के लिए आवश्यक है ।
3– कला का महत्त्व—कला के द्वारा बच्चा स्वयं को अभिव्यक्त करता है । कला के भी कई आयाम हो सकते हैं । चित्रकला, पेपर कटिंग, फूलपत्ती से खेलना, आटे से चिड़िया आदि बनाना, मिट्टी से विभिन्न खिलौने बनाना आदि ।
विभिन्न प्रकार की चीजों द्वारा विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्ति सम्भव
है । मुख्य चीज है अभिव्यक्ति, उसके लिए माध्यम कुछ भी हो । बच्चा इन क्रियाओं में संलग्न रहता है तो आनन्द–प्राप्ति के साथ–साथ उसकी अभिव्यक्ति–क्षमता भी बढ़ती है । हो सकता है कि हमें यह लगे कि बच्चे ने यों ही टेढ़ी–मेढ़ी रेखाएँ खींच दी हैं या कुछ गोचापाची कर दी है किन्तु बच्चा अपनी दृष्टि से सार्थक चित्र ही बनाता है, जो उसकी अभिव्यक्ति क्षमता की वृद्धि के लिए महत्त्वपूर्ण है । अभिव्यक्ति से एक ओर तो उसे अपार आनन्द मिलता है, रचनात्मकता से आत्मविश्वास बढ़ता है व दूसरी ओर उसकी गतिक माँसपेशियों Motor Musclesका विकास भी होता है । सुन्दर लेखन के लिए आवश्यक है कि गतिक माँसपेशियाँ मजबूत हों ।
4– जिज्ञासाओं की परिपुष्टि—प्राथमिक शिक्षण का मूलाधार बच्चे को जीवन की समग्रता से परिचित कराना है । बच्चा वैसे भी समग्रता को ही लेकर चलता है । वह किसी भी चीज को टुकड़ों में नहीं देखता । उसके लिए हर उड़ता हुआ पक्षी ऊँचाई की असीम सम्भावनाएँ लिए रहता है । हर पेड़ सौन्दर्य का बोध लिए रहता है । हर पशु में विशेषताएँ लगती हैं । बच्चा अपनी अनन्त जिज्ञासाओं का समाधान करना चाहता है । एक ओर उसका मन विभिन्न कल्पना की उड़ानें भरता रहता है तो दूसरी ओर वह जीवन से जुड़ी हुई सत्यता को जानना चाहता है । अपनी अनन्त जिज्ञासाओं के माध्यम से वह अनायास ही ज्ञान की अभिवृद्धि करता है । आवश्यकता इस बात की है कि बच्चे के मन में जिस विषय में जितनी जिज्ञासा हो, उसे उतना तृप्त करते रहना चाहिए ।
जो बात बच्चे सहज रूप में नहीं सीख पाते हैं, उसी बात को वह कहानी, कविता, खेल, नाटक आदि के माध्यम से अतिसहज रूप से ग्रहण कर लेते हैं क्योंकि कहानी, कविता आदि रोचक होने के साथ–साथ जीवन के किसी पक्ष या घटना का समग्रता से उल्लेख करती हैं ।
5– मूल्यपरक शिक्षा—मूल्यपरक शिक्षा के विषय में मनीषियों ने बहुत कुछ लिखा है । इस सम्बन्ध में मैं केवल इतना ही लिख रही हूँ कि मूल्यों के समुचित विकास के लिए पहली आवश्यकता है कि बच्चे को सहज रहने दिया जाए । उसे उसका बचपन जीने का पूरा अवसर दिया जाए । बड़ों के व्यवहार व आचरण के द्वारा उसमें स्वयं ही मूल्यों का विकास होगा ।
यदि प्रत्यक्ष उदाहरणों द्वारा बालक को शिक्षा दी जाए तो उसका प्रत्यक्ष प्रभाव उसके चरित्र पर पड़ता है । जैसे – मितव्ययिता की शिक्षा, केवल किताबी ज्ञान से नहीं दी जा सकती है । यदि हम बत्ती–पंखा, नल आदि अनावश्यक रूप से खुला नहीं छोड़ते हैं, तो बच्चा भी ऐसा नहीं करेगा । यदि हम स्वयं जरा–सा भी खाना जूठा नहीं छोड़ते हैं, बरबाद नहीं करते हैं, तो बच्चा भी कभी भोजन या अन्य कोई चीज बरबाद नहीं करेगा ।
6– बच्चों में प्रेम की भावना का समावेश—प्रेम एक मनोभावना या मनोवृत्ति ही न होकर जीवन की जीवन्तता, समायोजन व आत्मविकास एवं सर्वांगीण विकास का आधार है । औद्योगीकरण के इस युग में भावुकता व प्रेम की आवश्यकता जीवन की सार्थकता एवं सफलता के लिए अत्यावश्यक है ।
मूल्यपरक शिक्षा का मूलाधार प्रेम की भावना का सहज विकास ही है । प्रेम की भावना के सहज विकास के लिए आवश्यक है—
• स अध्यापकों व अभिभावकों में प्रेम की भावना समाहित हो ।
• मानव–प्रेम, पशु–प्रेम से सम्बन्धित कहानियाँ सुनाई जाएँ ।
• देशभक्ति व देश–प्रेम की भावना के विकास के लिए स्वतंत्रता संग्राम में आहुति देने वाले वीरों की संक्षिप्त कहानियाँ सुनाई जाएँ ।
समस्त शिक्षा का उद्देश्य है—बच्चे में स्व–प्रेम, मातृप्रेम, परिवार–प्रेम, समाज–प्रेम, देश–प्रेम व विश्व प्रेम तथा ईश–प्रेम की भावना का विकास हो
सके ।
बच्चों का हठीला बचपन न छीनें, उन्हें असहज न बनावें, उनकी सहजता, कोमलता व स्वाभाविकता को अक्षुण्ण रहने दें ।
7– संगीत—संगीत–शिक्षण न केवल बचपन वरन् पूरे जीवन के लिए बहुत सुखदायी है । कला व संगीत इन दोनों के माध्यम से मनुष्य की अभिव्यक्ति क्षमता विकसित होती है । साथ ही उसके मन में निहित भावनाएँ, कुंठाएँ, अपूर्ण इच्छाएँ, दमित भावनाएँ सकारात्मक रूप से अभिव्यक्त हो जाती हैं, जिससे उसे आनन्द प्राप्त होता है । बच्चों के लिए संगीत व कला–शिक्षण के कई लाभ हैं । एक ओर वह रचनात्मक कार्य में संलग्न रहता है, उसकी इच्छाओं की अभिव्यक्ति होती है, बच्चा प्रसन्नचित्त रहता है । दूसरी ओर भविष्य में वह इसे व्यावसायिक रूप में भी ले सकता है ।
8– स्वास्थ्य की शिक्षा—स्वास्थ्य जीवन में प्रधान है । अत: स्वास्थ्य के सामान्य नियमों की जानकारी बच्चों को अवश्य होनी चाहिए । यथा – सुबह जल्दी उठना, रात को जल्दी सोना, कड़ी भूख लगने पर ही खूब चबा–चबाकर खाना, पर्याप्त मात्रा में पानी पीना आदि ।
यदि आयु के अनुसार बच्चों को सुबह खाली पेट कुछ व्यायाम करवाए जावें तो बच्चा सदा स्वस्थ रहेगा । इसी प्रकार कुछ बड़े बच्चों को भोजन के तत्त्वों की जानकारी भी दी जा सकती है ।
9– शिक्षा के प्रति कौतूहल आवश्यक—यदि कक्षा एक में ही कुछ ऐसी व्यवस्था हो कि जिस बच्चे की पढ़ाई में रुचि नहीं है, उसके लिए खेल समूह की कक्षाएँ हों । उसमें बच्चों को अन्य खेलों के साथ शैक्षिक खिलौने भी दिए जाएँ । जब बच्चे की पढ़ाई के प्रति रुचि जागृत हो जाए तभी उसे पढ़ाई में लगाया जाए ।
यदि कोई बच्चा वर्ष पूरा होने पर भी कक्षा एक का पाठ्यक्रम पूरा नहीं कर पाता है, तो उसे पुन: एक वर्ष खेलने व पढ़ने का अवसर दिया जाए । उन विद्यार्थियों को अनुत्तीर्ण की संज्ञा न दी जाए वरन् कक्षा एक को भी खेल समूह के अन्तर्गत ही माना जाए । खेल की प्रवृत्ति की परिपूर्ति होने पर व पढ़ाई के प्रति रुचि जागृत होने पर जब बच्चा कक्षा एक का पाठ्यक्रम सफलतापूर्वक समझ लेगा, तब आगे की कक्षाओं की पढ़ाई में उसके लिए किसी प्रकार का व्यवधान नहीं होगा । वह सफलतापूर्वक आगे का पाठ्यक्रम पढ़ेगा व समझेगा ।
बच्चे के शिक्षण को प्रारंभ करने से पूर्व आवश्यक है कि उसके मन में शिक्षण के प्रति कौतुक उत्पन्न कर दिया जाए । जब उसकी पढ़ाई या विषय के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाए या सीखने के प्रति जिज्ञासा की उत्पत्ति हो तभी उसका विद्यारम्भ होना चाहिए । किसी बच्चे की रुचि चार वर्ष की आयु में जागृत हो सकती है, किसी की सात वर्ष की आयु में, जब तक पात्र (बच्चा) तैयार न हो उसे जबरदस्ती पढ़ाना अनुपयुक्त है ।
10– न्यूनतम अधिगम स्तर की अपेक्षा अधिकतम अधिगम स्तर—प्राथमिक कक्षाओं में न्यूनतम अधिगम स्तर M.L.L.Minimum Level of Learning की अपेक्षा अधिकतम अधिगम स्तर M.L.L.Maximum Level of Learning की बात करनी चाहिए ।
प्राथमिक कक्षाओं में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद द्वारा बनाया गया पाठ्यक्रम पूर्णतया मनोवैज्ञानिक है । यदि बच्चा कक्षा एक की पाठ्य–पुस्तकें अधिगृहीत कर लेता है, तब वह अगली कक्षाओं में सामान्य रूप से पढ़ता चला जाएगा, रुचि भी बनी रहेगी व योग्यता व क्षमता का विकास भी होगा ।
इसी के साथ मैं यह भी सोचती हूँ कि बच्चे के शिक्षण प्रारम्भ की कोई आयु निर्धारित कर देना उचित नहीं है । बच्चे के शिक्षण प्रारम्भ से पूर्व आवश्यक है कि उसके मन में शिक्षण के प्रति कौतुक उत्पन्न कर दिया जाए । जब उसकी पढ़ाई या विषय के प्रति रुचि उत्पन्न हो जाए या सीखने के प्रति जिज्ञासा की उत्पत्ति हो तभी उसका विद्यारम्भ होना चाहिए । किसी बच्चे की रुचि चार वर्ष की आयु में हो सकती है, किसी की सात वर्ष की आयु में । जब तक पात्र (बच्चा) तैयार न हो, तब तक उसे जबरदस्ती पढ़ाना अनुपयुक्त है ।
11– पूर्व प्राथमिक शिक्षा आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी—वस्तुत: तीन से छ: वर्ष के बच्चों की पूर्व प्राथमिक शिक्षा बाल–विकास के लिए अति महत्त्वपूर्ण है । बच्चे के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए प्रथम छ: वर्ष बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं, ऐसा मनोवैज्ञानिकों का मानना है । प्राय: हम इसी आयु को उपेक्षित कर देते हैं या फिर तथाकथित नर्सरी और के–जी– स्कूलों के नाम पर खुली दुकानों में बच्चों को भेज देते हैं । वहाँ के लम्बे–चौड़े पाठ्यक्रम से वह कोमल पुष्प पढ़ाई, भय एवं अति निर्देशों के वातावरण में अपनी सहजता को भूलकर कुम्हला जाते हैं व विद्यालय उन्हें यातनागृह दिखाई देने लगते हैं तथा परिवारजन इस यातनागृह में भेजने वाले यातनादाता । बच्चे को पढ़ाने के पहले आवश्यक है कि उसकी मानसिक पृष्ठभूमि तैयार की जाए ।
जिस प्रकार खेत के तैयार हो जाने पर उसमें बीज डालने पर बहुत अच्छी फसल तैयार होती है, उसी प्रकार बच्चे की पढ़ाई प्रारम्भ होने से पूर्व आवश्यक है कि उसकी पढ़ाई के प्रति रुचि जागृत की जाए । विद्यालय उसकी सुखद कल्पनाओं की परिपूर्ति का स्थान हो ।
वस्तुत: यह जानने की आवश्यकता है कि बालक के भीतर कुछ जन्मजात प्रतिभाएँ होती हैं और कुछ परिवार, सम्बन्धी, पड़ोस, समाज, विद्यालय आदि के द्वारा उभारी जा सकती हैं । इसी हेतु पूर्व प्रारम्भिक शिक्षा का स्वरूप होना चाहिए, जिसका केन्द्र–बिन्दु बालक होता है । एक बालक और दूसरे बालक के बीच अन्तर हो सकता है । अत: प्रत्येक बालक को एक इकाई समझकर कार्य करने की आवश्यकता है ।
यह आवश्यक है कि पूर्व प्रारम्भिक शिक्षा जो कि औपचारिक शिक्षा की तैयारी है, उसमें सुधार किया जाए । यदि पूर्व प्रारम्भिक शिक्षा ठीक–ठीक होगी तो प्राथमिक शिक्षा एवं आगे की शिक्षा भी ठीक हो सकेगी क्योंकि पूर्व प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य ही है बच्चों को विद्यालय शिक्षा के लिए भली प्रकार तैयार करना । उचित शिक्षा के परिणामस्वरूप बच्चे सफल नागरिक बन सकेंगे ।
ध्यान देने योग्य बातें
1– जब बच्चा पढ़ाई–लिखाई के लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाए तभी उसे कक्षा एक में प्रवेश दिया जाए ।
2– कविता, कहानी, खेल, आर्ट, क्राफ्ट, मिट्टी के खिलौने आदि के माध्यम से उनकी क्षमता का अधिकतम सीमा तक विकास किया जाए किन्तु सहजता हो । खेल, कविता, कहानी आदि का प्रयोग बच्चों को आनन्दमय अनुभूति देने हेतु प्रयोग करें ।
3– खेल आदि साधन हों, साध्य नहीं ।
4– किसी भी पाठ्यक्रम की अनिवार्यता न हो ।
5– बच्चे की व्यक्तिगत क्षमताओं को प्रश्रय दिया जाए ।
6– हर बच्चे को एक यूनिट (स्वतंत्र इकाई) मानकर उसे उसकी रुचि–रुझान के अनुसार कार्य करने दिया जाए ।
7– बच्चे की सहजता, चंचलता व कोमलता को ध्यान में रखकर उसे समवयस्क बच्चों के साथ उसका बचपन जीने का पूरा अवसर प्रदान किया
जाए ।
8– अभिभावक शिक्षा अनिवार्य हो ।
9– विशेष शिक्षण प्रविधि ।
10– यथासम्भव बच्चों के लिए समर्पित, बाल मनोविज्ञान के ज्ञाता शिक्षकों का चयन हो । शिक्षकों के सेवा में आने के तुरन्त बाद मनोविज्ञानशाला में बालमनोविज्ञान का कम–से–कम एक माह का सेवा–पूर्व प्रशिक्षण Pre Service Trainingहो । प्रतिवर्ष सत्रान्त पर कम–से–कम एक सप्ताह का सेवाकालीन प्रशिक्षण In Service Course भी मनोवैज्ञानिकों द्वारा अवश्य होना चाहिए ।
11– बच्चे को स्वस्थ वातावरण प्रदान करना नितान्त जरूरी है, प्रदत्त वातावरण से तथा कठिनाई के बिन्दु पर सहयोग करने पर वह स्वयं ही सीख जाएगा ।
12– बच्चे का मस्तिष्क सहज रहे । अत्यधिक सूचनाएँ न भरी
जाएँ ।
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