Monday, November 26, 2018

एक बूँद

सघन घन समूह से टूटी हुई–
अपने अनगिनत साथियों से छूटी हुई–
एक बूँद हूँ मैं!
अपने निर्धारित भाग्य को जानते हुए,
नियति की इच्छा को मानते हुए,
हौले–हौले, धीरे–धीरे –
अम्बर से निकल कर असीम जल में,
विशाल सागर की मधुर कल–कल में,
विलीन हो जाती हूँ ।
अपने मूल अस्तित्व को बनाए हुए–
एक अतृप्त इच्छा दिल में बसाए हुए ।
काश! ऐसा न हुआ होता–
कुछ और होता–
जैसे–
अपने अनगिनत साथियों को छोड़–
अपने अस्तित्व की सीमाओं को तोड़–
समुद्र के किनारे पर पड़ी –
एक सीपी में जा पड़ी होती,
स्वयं को नष्ट कर मोती बन गई होती,
तो क्या ही अच्छा होता ।
मानव का मूल अस्तित्व ही सब कुछ नहीं,
अपना अस्तित्व खो कर–
परमशक्ति का हो कर–
अपने को ऊपर उठाना सीखो ।
इसी में सार्थकता है ।

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