सघन घन समूह से टूटी हुई–
अपने अनगिनत साथियों से छूटी हुई–
एक बूँद हूँ मैं!
अपने निर्धारित भाग्य को जानते हुए,
नियति की इच्छा को मानते हुए,
हौले–हौले, धीरे–धीरे –
अम्बर से निकल कर असीम जल में,
विशाल सागर की मधुर कल–कल में,
विलीन हो जाती हूँ ।
अपने मूल अस्तित्व को बनाए हुए–
एक अतृप्त इच्छा दिल में बसाए हुए ।
काश! ऐसा न हुआ होता–
कुछ और होता–
जैसे–
अपने अनगिनत साथियों को छोड़–
अपने अस्तित्व की सीमाओं को तोड़–
समुद्र के किनारे पर पड़ी –
एक सीपी में जा पड़ी होती,
स्वयं को नष्ट कर मोती बन गई होती,
तो क्या ही अच्छा होता ।
मानव का मूल अस्तित्व ही सब कुछ नहीं,
अपना अस्तित्व खो कर–
परमशक्ति का हो कर–
अपने को ऊपर उठाना सीखो ।
इसी में सार्थकता है ।
अपने अनगिनत साथियों से छूटी हुई–
एक बूँद हूँ मैं!
अपने निर्धारित भाग्य को जानते हुए,
नियति की इच्छा को मानते हुए,
हौले–हौले, धीरे–धीरे –
अम्बर से निकल कर असीम जल में,
विशाल सागर की मधुर कल–कल में,
विलीन हो जाती हूँ ।
अपने मूल अस्तित्व को बनाए हुए–
एक अतृप्त इच्छा दिल में बसाए हुए ।
काश! ऐसा न हुआ होता–
कुछ और होता–
जैसे–
अपने अनगिनत साथियों को छोड़–
अपने अस्तित्व की सीमाओं को तोड़–
समुद्र के किनारे पर पड़ी –
एक सीपी में जा पड़ी होती,
स्वयं को नष्ट कर मोती बन गई होती,
तो क्या ही अच्छा होता ।
मानव का मूल अस्तित्व ही सब कुछ नहीं,
अपना अस्तित्व खो कर–
परमशक्ति का हो कर–
अपने को ऊपर उठाना सीखो ।
इसी में सार्थकता है ।
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