तुम्हारे मौन में कैसा आनन्द है ?
मेरा मन जब तुमसे मिलता है–
मैं नहीं चाहती कि तुम मुझसे बोलो ।
तुम्हारा शब्द मुझे अच्छा नहीं लगता ।
अन्तरतम का हो संस्पर्श निरन्तर । ।
तुम्हारे मौन में–––
तुम मेरी ओर एक बार देख लेते हो
मेरे मन में आनन्द की हिलोरें उठने लगती हैं ।
पर––––
कभी–कभी लगता है, मैं टूट गई हूँ ।
मेरा कुछ खा गया है ।
तुम्हारी आँखों की वात्सल्य की किरण,
मेरा सब कुछ बेंध जाती है ।
मैं करती हूँ गल्तियाँ, तुम सुधार देते हो ।
पर कभी–कभी इतने कठोर क्यों ?
तुम्हारे मौन में––––
मैं प्रतीक्षा करती हूँ, उस मौन की, उस आनन्द की ।
एक बार जब तुम छूटे थे, मैं दु:ख में डूब गयी थी ।
तुम सामने थे, पर वह शान्ति नहीं थी ।
मैं प्यासी थी, मैने उस जल को पाना चाहा ।
मेरा मन जब तुमसे मिलता है–
मैं नहीं चाहती कि तुम मुझसे बोलो ।
तुम्हारा शब्द मुझे अच्छा नहीं लगता ।
अन्तरतम का हो संस्पर्श निरन्तर । ।
तुम्हारे मौन में–––
तुम मेरी ओर एक बार देख लेते हो
मेरे मन में आनन्द की हिलोरें उठने लगती हैं ।
पर––––
कभी–कभी लगता है, मैं टूट गई हूँ ।
मेरा कुछ खा गया है ।
तुम्हारी आँखों की वात्सल्य की किरण,
मेरा सब कुछ बेंध जाती है ।
मैं करती हूँ गल्तियाँ, तुम सुधार देते हो ।
पर कभी–कभी इतने कठोर क्यों ?
तुम्हारे मौन में––––
मैं प्रतीक्षा करती हूँ, उस मौन की, उस आनन्द की ।
एक बार जब तुम छूटे थे, मैं दु:ख में डूब गयी थी ।
तुम सामने थे, पर वह शान्ति नहीं थी ।
मैं प्यासी थी, मैने उस जल को पाना चाहा ।
तुमने उसे समेट लिया, मेरी प्यास बढ़ गई––––
फिर जब जल मिला तो मैं नहीं छोड़ना चाहती ।
No comments:
Post a Comment