Tuesday, November 27, 2018

अनन्तानन्द

मैं बैठी रहती हूँ–
तुम आते हो, मौन सन्देश ले कर ।
मैं सोती हूँ,
निद्रा में मिलती है, अविचल शान्ति ।
तुम होते हो सामने, मैं अपने को भूल जाती हूँ ।
तुम्हारी झलक से शान्ति मिलती है ।
मैं कहीं अलग चली जाती हूँ ।
जब क्षणमात्र के लिए भी तुम चले जाते हो,
तो जीवन अधूरा रह जाता है ।
कैसी कल्पना है मेरी–
तुम कहाँ जाते हो,
तुम तो सदा–सर्वदा साथ हो ।
बस इसी सागर में डूब कर हिलोरें लेती रहूँ ।
बस डूब सकूँ तुम्हारे में ही–
पूरी तरह-
मैं मैं न रहूँ-
बस तुम ही तुम हो सर्वत्र सर्वदा ।











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