उपहास बनाने को मैं ही, बस निर्धन अबला शेष रही ।
हर घड़ी रुलाने को मैं ही, बस एक अभागन शेष रही ।
तुम पर मैंने विश्वास किया स्नेहयुक्त निर्मल मन से
इस अस्तव्यस्त जीवन–पथ पर विश्वास किया अन्तर्तम से
माँ वाणी का अधिकार दिया तुमको अपने मन उपवन में,
माँ शारदा समझ मैंने तुमको बैठाया था सिंहासन में ।
उपहास बनाने को मैं ही, बस निर्धन अबला शेष रही ।
हर घड़ी रुलाने को मैं ही, बस एक अकेली रुकी रही ।
कन्दुक–सम ठोकर खाने को, क्यों छोड़ दिया अब एकाकी ।
मेरी उस जीवन–ज्योति को, क्यों छीन लिया ए मन पापी ।
‘शिखा’ के करुण–क्रन्दन को, पहचान न पाया तव मानस
उपहास बनाने केा मैं ही, बस निर्धन–अबला शेष रही ।
हर घड़ी रुलाने को मैं ही, बस एक प्रेम की बेल रही । ।
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