गर्भावस्था से ही शिशु के मानसिक व बौद्धिक विकास पर उसकी माता के विचारों का प्रभाव पड़ने लगता है । माँ की जैसी भावनाएँ होंगी, उसका पूरा–पूरा प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है । अत: गर्भवती माता को चाहिए कि आन्तरिक ध्यान द्वारा आत्मशुद्धि करे । इस प्रकार वह अपने भावी शिशु के जीवन को सार्थक बनाने की दिशा में प्रयत्नशील हो सकती है ।
माँ ध्यानावस्था में बैठकर अपने गर्भ में पल रहे परमपिता परमात्मा के उस अंश को प्रभुभक्त होने के लिए प्रार्थना करे ताकि जन्म लेने के पूर्व ही वह प्रभुभक्त हो सके । शिशु के जन्म के बाद भी माँ के द्वारा किए गए भजन, पूजन व ध्यान का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष प्रभाव शिशु पर निश्चित रूप से पड़ता है । ध्यान करना निर्विचार होने की अवस्था है जो गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक, मानसिक, चारित्रिक व आत्मिक विकास में सहायक होगा । भविष्य में यही बच्चे राष्ट्र के कर्णधार होंगे ।
मनुष्य जाने या अनजाने हर समय कुछ–न–कुछ विचार करता रहता है । उसका मस्तिष्क इन विचारों से कभी खाली नहीं रहता है । इससे उसकी शान्ति हर क्षण क्षीण होती रहती है ।
परमात्मा आनन्दस्वरूप है, ज्योतिर्मय है । अत: ध्यान करने वाला भी आनन्दमय व ज्योतियुक्त हो जाएगा । जहाँ ज्योति व आनन्द है, वहाँ विकार व अन्य सांसारिक कुवासनाएँ नहीं रह सकेंगी । कहा गया है – जिसके हृदय में उस प्रभु का स्मरण होगा, उसे सद्बुद्धि होगी । व्यक्ति की सद्बुद्धि ही उसकी सद्गति, परिवार, समाज व राष्ट्र की उन्नति, सुख–शान्ति व समृद्धि का आधार है ।
सद्बुद्धि होने पर बालक विश्वप्रेम करेगा अर्थात् सारे जगत को सर्वशक्तिमान प्रभु की रचना, उसकी ही सृष्टि मानकर चलेगा । यह वृत्ति बाल्यकाल में तभी उदित हो सकती है, जबकि उसी कोमल अवस्था में उसे सृष्टि–नियंता की शक्ति अथवा उसके अस्तित्व से परिचित करवाया जाए ।
इसका एक माध्यम प्रकृति–प्रेम अथवा सभी जीव–जन्तुओं, वनस्पति आदि से प्रेम करना सिखाना अथवा सीखने के अवसर प्रस्तुत करना हो सकता
है । बच्चे स्वभाव से ही फूलों, तितलियों, पशु–पक्षियों आदि को पसन्द करते हैं, उनसे खेलना चाहते हैं, उन्हें प्यार करना चाहते हैं । यदि उसी अवस्था में उन्हें प्रकृति का साथ उपलब्ध करवाया जाए तो वह सहज–स्वाभाविक ढंग से ही प्रकृति के साथ स्नेह–सम्बन्ध स्थापित कर सकेंगे ।
साथ–ही–साथ प्राकृतिक चीजों को भगवान की संरचना बताकर बच्चे को प्रकृति–प्रेम, मानव–प्रेम, जगत–प्रेम, ईश–प्रेम की ओर ले जाया जा सकता है । यह बच्चे के निजी जीवन में सुख और सार्वजनिक सामाजिक जीवन में शान्ति का समावेश कराने में सहायक हो सकता है ।
अभिभावकों का सहयोग
बच्चे के मनोविज्ञान को समझकर अभिभावक उसके समुचित विकास में बहुत अधिक सहयोग दे सकते हैं ।
अभिभावकों को सफाई एवं स्वास्थ्य के नियमों की जानकारी होना भी आवश्यक है । घर की बनावट ठीक हो, उसमें रोशनी और हवा आने–जाने का समुचित प्रबंध हो । शिशु को सारे दिन कमरे में ही बन्द न रखा जाए बल्कि उसे खुली ताजी हवा व धूप भी मिलनी चाहिए ।
बच्चे को नियत समय पर सन्तुलित एवं पौष्टिक भोजन भी मिलना चाहिए । भोजन पौष्टिक होने के साथ–साथ हल्का व सुपाच्य हो । पौष्टिक भोजन देने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उन्हें महँगे फल, मेवा आदि ही दिए जाएँ । हरे पत्ते वाली सब्जी, मौसम के फल जैसे – अमरूद, केला, खीरा आदि जो भी उपलब्ध हों दिए जा सकते हैं । मौसमी फल तथा मौसमी सब्जियाँ सस्ते भी होते हैं तथा स्वास्थ्यवर्धक भी । भोजन उतना ही दिया जाए जिसका पाचन समुचित रूप से हो सके । बिना भूख के या आवश्यकता से अधिक भोजन शरीर में पोषण उत्पन्न न करके विकार उत्पन्न करता है ।
बच्चे की निम्नलिखित प्रमुख मनोसामाजिक आवश्यकताएँ होती
हैं—
1– प्यार की आवश्यकता
2– प्रशंसा एवं आत्म–पहचान की आवश्यकता ।
3– सुरक्षा की आवश्यकता ।
बच्चा स्नेह, सुरक्षा, प्रशंसा व सौहार्द्र के वातावरण में पलकर ही व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर पाता है । बच्चा अपनी प्रशंसा द्वारा अपनी एक विशेष पहचान बनाना चाहता है, किन्तु बच्चे की आवश्यकताओं को समझने के साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे में जितनी भी गलत आदतें पड़ जाती हैं जैसे—जिद्द करना, चोरी करना, घर से भागना, झगड़ालू होना आदि वह सब एक प्रकार के मनोरोग हैं । इन समस्याओं के उत्पन्न होने के तीन प्रमुख कारण हैं—
1– बहुत अधिक लाड़ प्यार
2– बहुत अधिक तिरस्कार
3– परिवार के सदस्यों का बच्चों बच्चों के प्रति परस्पर विरोधी व्यवहार ।
इसलिए बच्चों के साथ सन्तुलित व्यवहार करना चाहिए, न तो उन्हें आवश्यकता से अधिक लाड़–प्यार देना चाहिए, न ही उनकी एकदम उपेक्षा ही कर देनी चाहिए ।
प्राय: देखा जाता है कि जिन बच्चों को घर में अधिक मारा–पीटा जाता है, उनमें आक्रामक प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है । उनको घर में जो मारता है, उसे तो वह मार नहीं पाते हैं, अत: वह अपने से छोटे या कमजोर बच्चों को मारकर बदला लेते देखे जाते हैं ।
इसके अतिरिक्त माता–पिता के बीच का तनाव या परस्पर विरोधी व्यवहार भी बच्चे को प्रभावित करता है । उदाहरणत: माँ ने किसी बात के लिए बच्चे को मना किया, पिता ने उसी काम को करने के लिए कहा तो बच्चा यह निर्णय नहीं कर पाता है कि वह क्या करे ।
बच्चे के अन्दर प्रौढ़ व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक क्रियाशीलता होती है, वह हर समय व्यस्त रहना चाहता है । घर में मनोरंजन के साधन अवश्य होने चाहिए, जैसे–सस्ते खिलौने आदि । बच्चों को रुचिकर व शिक्षाप्रद कहानियाँ आदि भी घर में सुनानी चाहिए ।
बच्चों में उत्सुकता, कौतूहल उसी प्रकार कूट–कूट कर भरा होता है, जिस प्रकार शरारत और भोलापन । नई–नई बातंे जानने का उन्हें बहुत शौक होता
है । कुछ बच्चे तो नए खिलौनों को तोड़कर यह देखना चाहते हैं कि उनके अन्दर क्या छिपा है ।
वस्तुत: बच्चे का व्यक्तित्व बनाना माता–पिता की परीक्षा होती है, इस व्यक्तित्व–निर्माण की प्रक्रिया में उनकी जिज्ञासाओं की पूर्ति करना भी माता–पिता का कर्तव्य है । नई बातें जानने की प्रवृत्ति प्राकृतिक है । बच्चे के जितने उत्सुकता भरे प्रश्नों का जवाब हम देंगे, बच्चे की जिज्ञासा उतनी ही बढ़ेगी व उसकी बुद्धि उतनी ही कुशाग्र होगी ।
माँ या अध्यापक को बच्चों के प्रश्नों को सुनकर झल्लाना नहीं चाहिए । बड़ी शान्ति व धैर्य से बच्चे के प्रश्नों को सुनकर उनका समाधान करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए । अच्छा तरीका यह है कि जब बच्चा कोई प्रश्न पूछे तब बच्चे से ही सम्बन्धित प्रश्न पूछकर उत्तर निकलवाने का प्रयत्न करना चाहिए । इससे हमको यह पता लग जाएगा कि बच्चा इस सम्बन्ध में क्या और कहाँ तक सोच सकता है ।
ऐसा करने से बच्चे को अपने दिमाग पर जोर देना पड़ेगा, जिससे उसकी बुद्धि कुशाग्र होगी व चिन्तन क्षमता बढ़ेगी । उसमें आत्मविश्वास भी बढ़ेगा कि बड़े लोग उसे उत्तर देने के योग्य समझते हैं ।
बच्चे को अधिक लम्बे–चौड़े उत्तर न दें, वरना वह ऊब जाएगा । संक्षिप्त उत्तर से ही उसकी जिज्ञासा शाँत करने का प्रयास करें । कई बार दृष्टिकोण में भी भिन्नता होती है । अध्यापक कहते हैं कि सवेरे नहाकर स्कूल आना चाहिए, माँ कहती हैं कि दोपहर को नहा लो । जब बच्चा देखता है कि कोई कुछ कहता है, कोई कुछ, तो वह चकरा जाता है । वह समझ नहीं पाता है कि सत्य क्या है ।
इस अवस्था में बच्चे को समझाएँ कि कुछ बातों में सबका दृष्टिकोण अलग–अलग हो सकता है । यह विचारों की भिन्नता उसे खुले दिमाग का बनाएगी, वह यह समझ लेगा कि लोगों के खान–पान, खाने के तरीके, वेशभूषा आदि में भिन्नता हो सकती है । अत: वह हर परिस्थिति में समायोजित कर
लेगा ।
बच्चे को साथियों के साथ खेलने का अवसर प्रदान करना चाहिए, जिससे उसकी माँसपेशियों का सन्तुलित विकास हो सके, वह प्रसन्नचित्त रहे तथा अपनी भावनाओं को खेल द्वारा अभिव्यक्त कर सके ।
जैसे–जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है उसके मन के भाव स्थायी होने लगते हैं । ये ही चरित्र का निर्धारण करते हैं । अत: अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों को अच्छी रुचिकर एवं शिक्षाप्रद कहानियाँ सुनाएँ । अच्छे कार्य करने पर उन्हें पुरस्कृत करें ताकि उनके मन में अच्छी बातों के प्रति भाव स्थायी हो जाएँ । इस प्रकार बच्चों में सत्य, प्रेम, दया, सहानुभूति तथा सदाचार आदि के प्रति स्थायी भावों का निर्माण किया जा सकता है ।
बच्चे के मन में अपनी संस्कृति के प्रति आदर और सम्मान के बीज बोने चाहिए । बच्चे को सुसंस्कृत बनाने के लिए उसके सामने अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए, क्योंकि बच्चा जैसा घरवालों को करते देखता है, वैसा ही वह स्वयं करता है ।
इसके अतिरिक्त निम्नलिखित बातों का भी ध्यान रखना चाहिए—
1– बच्चों की भावनाओं का आदर करें ।
2– बच्चों की आपस में तुलना न करें, क्योंकि प्रत्येक बच्चे में व्यक्तिगत विशेषताएँ होती हैं ।
3– बच्चे में जो छुपी हुई क्षमता है, उसको विकसित करने का प्रयत्न करें ।
4– बच्चे में आत्मानुशासन की भावना विकसित करें ।
5– भाई–बहनों का एक–दूसरे के प्रति प्यार हो, घर का वातावरण भी प्रेमपूर्ण हो ।
समय–समय पर बच्चों को नागरिक के अधिकार और कर्तव्यों का व्यावहारिक ज्ञान करवाते रहना चाहिए । जैसे – सड़क पर बाएँ चलना, रास्ते में जगह–जगह छिलके व कूड़ा न फेंककर नियत स्थान पर ही कूड़ा फेंकना, देशभक्ति की भावना आदि । इससे बड़े होने पर उनमें नागरिकता की भावना का उचित विकास हो सकेगा और वह देश के आदर्श नागरिक बन सकेंगे ।
माँ ध्यानावस्था में बैठकर अपने गर्भ में पल रहे परमपिता परमात्मा के उस अंश को प्रभुभक्त होने के लिए प्रार्थना करे ताकि जन्म लेने के पूर्व ही वह प्रभुभक्त हो सके । शिशु के जन्म के बाद भी माँ के द्वारा किए गए भजन, पूजन व ध्यान का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष प्रभाव शिशु पर निश्चित रूप से पड़ता है । ध्यान करना निर्विचार होने की अवस्था है जो गर्भस्थ शिशु के बौद्धिक, मानसिक, चारित्रिक व आत्मिक विकास में सहायक होगा । भविष्य में यही बच्चे राष्ट्र के कर्णधार होंगे ।
मनुष्य जाने या अनजाने हर समय कुछ–न–कुछ विचार करता रहता है । उसका मस्तिष्क इन विचारों से कभी खाली नहीं रहता है । इससे उसकी शान्ति हर क्षण क्षीण होती रहती है ।
परमात्मा आनन्दस्वरूप है, ज्योतिर्मय है । अत: ध्यान करने वाला भी आनन्दमय व ज्योतियुक्त हो जाएगा । जहाँ ज्योति व आनन्द है, वहाँ विकार व अन्य सांसारिक कुवासनाएँ नहीं रह सकेंगी । कहा गया है – जिसके हृदय में उस प्रभु का स्मरण होगा, उसे सद्बुद्धि होगी । व्यक्ति की सद्बुद्धि ही उसकी सद्गति, परिवार, समाज व राष्ट्र की उन्नति, सुख–शान्ति व समृद्धि का आधार है ।
सद्बुद्धि होने पर बालक विश्वप्रेम करेगा अर्थात् सारे जगत को सर्वशक्तिमान प्रभु की रचना, उसकी ही सृष्टि मानकर चलेगा । यह वृत्ति बाल्यकाल में तभी उदित हो सकती है, जबकि उसी कोमल अवस्था में उसे सृष्टि–नियंता की शक्ति अथवा उसके अस्तित्व से परिचित करवाया जाए ।
इसका एक माध्यम प्रकृति–प्रेम अथवा सभी जीव–जन्तुओं, वनस्पति आदि से प्रेम करना सिखाना अथवा सीखने के अवसर प्रस्तुत करना हो सकता
है । बच्चे स्वभाव से ही फूलों, तितलियों, पशु–पक्षियों आदि को पसन्द करते हैं, उनसे खेलना चाहते हैं, उन्हें प्यार करना चाहते हैं । यदि उसी अवस्था में उन्हें प्रकृति का साथ उपलब्ध करवाया जाए तो वह सहज–स्वाभाविक ढंग से ही प्रकृति के साथ स्नेह–सम्बन्ध स्थापित कर सकेंगे ।
साथ–ही–साथ प्राकृतिक चीजों को भगवान की संरचना बताकर बच्चे को प्रकृति–प्रेम, मानव–प्रेम, जगत–प्रेम, ईश–प्रेम की ओर ले जाया जा सकता है । यह बच्चे के निजी जीवन में सुख और सार्वजनिक सामाजिक जीवन में शान्ति का समावेश कराने में सहायक हो सकता है ।
अभिभावकों का सहयोग
बच्चे के मनोविज्ञान को समझकर अभिभावक उसके समुचित विकास में बहुत अधिक सहयोग दे सकते हैं ।
अभिभावकों को सफाई एवं स्वास्थ्य के नियमों की जानकारी होना भी आवश्यक है । घर की बनावट ठीक हो, उसमें रोशनी और हवा आने–जाने का समुचित प्रबंध हो । शिशु को सारे दिन कमरे में ही बन्द न रखा जाए बल्कि उसे खुली ताजी हवा व धूप भी मिलनी चाहिए ।
बच्चे को नियत समय पर सन्तुलित एवं पौष्टिक भोजन भी मिलना चाहिए । भोजन पौष्टिक होने के साथ–साथ हल्का व सुपाच्य हो । पौष्टिक भोजन देने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उन्हें महँगे फल, मेवा आदि ही दिए जाएँ । हरे पत्ते वाली सब्जी, मौसम के फल जैसे – अमरूद, केला, खीरा आदि जो भी उपलब्ध हों दिए जा सकते हैं । मौसमी फल तथा मौसमी सब्जियाँ सस्ते भी होते हैं तथा स्वास्थ्यवर्धक भी । भोजन उतना ही दिया जाए जिसका पाचन समुचित रूप से हो सके । बिना भूख के या आवश्यकता से अधिक भोजन शरीर में पोषण उत्पन्न न करके विकार उत्पन्न करता है ।
बच्चे की निम्नलिखित प्रमुख मनोसामाजिक आवश्यकताएँ होती
हैं—
1– प्यार की आवश्यकता
2– प्रशंसा एवं आत्म–पहचान की आवश्यकता ।
3– सुरक्षा की आवश्यकता ।
बच्चा स्नेह, सुरक्षा, प्रशंसा व सौहार्द्र के वातावरण में पलकर ही व्यक्तित्व का पूर्ण विकास कर पाता है । बच्चा अपनी प्रशंसा द्वारा अपनी एक विशेष पहचान बनाना चाहता है, किन्तु बच्चे की आवश्यकताओं को समझने के साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे में जितनी भी गलत आदतें पड़ जाती हैं जैसे—जिद्द करना, चोरी करना, घर से भागना, झगड़ालू होना आदि वह सब एक प्रकार के मनोरोग हैं । इन समस्याओं के उत्पन्न होने के तीन प्रमुख कारण हैं—
1– बहुत अधिक लाड़ प्यार
2– बहुत अधिक तिरस्कार
3– परिवार के सदस्यों का बच्चों बच्चों के प्रति परस्पर विरोधी व्यवहार ।
इसलिए बच्चों के साथ सन्तुलित व्यवहार करना चाहिए, न तो उन्हें आवश्यकता से अधिक लाड़–प्यार देना चाहिए, न ही उनकी एकदम उपेक्षा ही कर देनी चाहिए ।
प्राय: देखा जाता है कि जिन बच्चों को घर में अधिक मारा–पीटा जाता है, उनमें आक्रामक प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है । उनको घर में जो मारता है, उसे तो वह मार नहीं पाते हैं, अत: वह अपने से छोटे या कमजोर बच्चों को मारकर बदला लेते देखे जाते हैं ।
इसके अतिरिक्त माता–पिता के बीच का तनाव या परस्पर विरोधी व्यवहार भी बच्चे को प्रभावित करता है । उदाहरणत: माँ ने किसी बात के लिए बच्चे को मना किया, पिता ने उसी काम को करने के लिए कहा तो बच्चा यह निर्णय नहीं कर पाता है कि वह क्या करे ।
बच्चे के अन्दर प्रौढ़ व्यक्ति की अपेक्षा कहीं अधिक क्रियाशीलता होती है, वह हर समय व्यस्त रहना चाहता है । घर में मनोरंजन के साधन अवश्य होने चाहिए, जैसे–सस्ते खिलौने आदि । बच्चों को रुचिकर व शिक्षाप्रद कहानियाँ आदि भी घर में सुनानी चाहिए ।
बच्चों में उत्सुकता, कौतूहल उसी प्रकार कूट–कूट कर भरा होता है, जिस प्रकार शरारत और भोलापन । नई–नई बातंे जानने का उन्हें बहुत शौक होता
है । कुछ बच्चे तो नए खिलौनों को तोड़कर यह देखना चाहते हैं कि उनके अन्दर क्या छिपा है ।
वस्तुत: बच्चे का व्यक्तित्व बनाना माता–पिता की परीक्षा होती है, इस व्यक्तित्व–निर्माण की प्रक्रिया में उनकी जिज्ञासाओं की पूर्ति करना भी माता–पिता का कर्तव्य है । नई बातें जानने की प्रवृत्ति प्राकृतिक है । बच्चे के जितने उत्सुकता भरे प्रश्नों का जवाब हम देंगे, बच्चे की जिज्ञासा उतनी ही बढ़ेगी व उसकी बुद्धि उतनी ही कुशाग्र होगी ।
माँ या अध्यापक को बच्चों के प्रश्नों को सुनकर झल्लाना नहीं चाहिए । बड़ी शान्ति व धैर्य से बच्चे के प्रश्नों को सुनकर उनका समाधान करने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए । अच्छा तरीका यह है कि जब बच्चा कोई प्रश्न पूछे तब बच्चे से ही सम्बन्धित प्रश्न पूछकर उत्तर निकलवाने का प्रयत्न करना चाहिए । इससे हमको यह पता लग जाएगा कि बच्चा इस सम्बन्ध में क्या और कहाँ तक सोच सकता है ।
ऐसा करने से बच्चे को अपने दिमाग पर जोर देना पड़ेगा, जिससे उसकी बुद्धि कुशाग्र होगी व चिन्तन क्षमता बढ़ेगी । उसमें आत्मविश्वास भी बढ़ेगा कि बड़े लोग उसे उत्तर देने के योग्य समझते हैं ।
बच्चे को अधिक लम्बे–चौड़े उत्तर न दें, वरना वह ऊब जाएगा । संक्षिप्त उत्तर से ही उसकी जिज्ञासा शाँत करने का प्रयास करें । कई बार दृष्टिकोण में भी भिन्नता होती है । अध्यापक कहते हैं कि सवेरे नहाकर स्कूल आना चाहिए, माँ कहती हैं कि दोपहर को नहा लो । जब बच्चा देखता है कि कोई कुछ कहता है, कोई कुछ, तो वह चकरा जाता है । वह समझ नहीं पाता है कि सत्य क्या है ।
इस अवस्था में बच्चे को समझाएँ कि कुछ बातों में सबका दृष्टिकोण अलग–अलग हो सकता है । यह विचारों की भिन्नता उसे खुले दिमाग का बनाएगी, वह यह समझ लेगा कि लोगों के खान–पान, खाने के तरीके, वेशभूषा आदि में भिन्नता हो सकती है । अत: वह हर परिस्थिति में समायोजित कर
लेगा ।
बच्चे को साथियों के साथ खेलने का अवसर प्रदान करना चाहिए, जिससे उसकी माँसपेशियों का सन्तुलित विकास हो सके, वह प्रसन्नचित्त रहे तथा अपनी भावनाओं को खेल द्वारा अभिव्यक्त कर सके ।
जैसे–जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है उसके मन के भाव स्थायी होने लगते हैं । ये ही चरित्र का निर्धारण करते हैं । अत: अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों को अच्छी रुचिकर एवं शिक्षाप्रद कहानियाँ सुनाएँ । अच्छे कार्य करने पर उन्हें पुरस्कृत करें ताकि उनके मन में अच्छी बातों के प्रति भाव स्थायी हो जाएँ । इस प्रकार बच्चों में सत्य, प्रेम, दया, सहानुभूति तथा सदाचार आदि के प्रति स्थायी भावों का निर्माण किया जा सकता है ।
बच्चे के मन में अपनी संस्कृति के प्रति आदर और सम्मान के बीज बोने चाहिए । बच्चे को सुसंस्कृत बनाने के लिए उसके सामने अच्छे उदाहरण प्रस्तुत करने चाहिए, क्योंकि बच्चा जैसा घरवालों को करते देखता है, वैसा ही वह स्वयं करता है ।
इसके अतिरिक्त निम्नलिखित बातों का भी ध्यान रखना चाहिए—
1– बच्चों की भावनाओं का आदर करें ।
2– बच्चों की आपस में तुलना न करें, क्योंकि प्रत्येक बच्चे में व्यक्तिगत विशेषताएँ होती हैं ।
3– बच्चे में जो छुपी हुई क्षमता है, उसको विकसित करने का प्रयत्न करें ।
4– बच्चे में आत्मानुशासन की भावना विकसित करें ।
5– भाई–बहनों का एक–दूसरे के प्रति प्यार हो, घर का वातावरण भी प्रेमपूर्ण हो ।
समय–समय पर बच्चों को नागरिक के अधिकार और कर्तव्यों का व्यावहारिक ज्ञान करवाते रहना चाहिए । जैसे – सड़क पर बाएँ चलना, रास्ते में जगह–जगह छिलके व कूड़ा न फेंककर नियत स्थान पर ही कूड़ा फेंकना, देशभक्ति की भावना आदि । इससे बड़े होने पर उनमें नागरिकता की भावना का उचित विकास हो सकेगा और वह देश के आदर्श नागरिक बन सकेंगे ।
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