कैसा आनंद है, शांति है, विश्राम है,
फिर भी अज्ञानता का सागर हूँ ।
मैंने अपने को समझा, कुछ पाया, सब कुछ पाया ।
सर्वत्र शून्य आकाश में–
जिसे हम शून्य कहते हैं, कुछ बिखरा हुआ है ।
सर्वत्र शांति है, इसे मैंने समेटा–
पर क्यों ?
जब तूने इतना दिया तो अब सौन्दर्य से अलगाव क्यों ?
मेरी अग्निपरीक्षा क्यो ?
हे परब्रह्म! तूने मुझे जो कर्म दिया है, उसे मैं कर सकूँ ,
मैं और तू एक हैं, मैं तुझे अलग न समझूँ ।
मुझे इतनी योग्यता दे कि डूब सकूँ, उस अनन्तसागर में!
मुझे कोई आकांक्षा न हो, त्याग हो, सर्वत्र त्याग ।
कोई बन्धन न हो, तू ही कर्ता हो और मैं माध्यम
मैं चाहूँ किसी में तो तेरे ही रूप को, मैं पाऊँ किसी में तो तेरे ही रूप को ।
किसी के शब्दों का, कम्पन का, उसकी स्मृति अथवा चिन्तन का–
मेरे ऊपर कोई प्रभाव न हो ।
सर्वत्र शांति हो, केवल शांति, अद्भुत शांति ।
जहाँ कोई न हो, बस मैं और तू हों ।
मेरा चिन्तन, मेरी धारणा, मेरे विषय, मेरे काम–
सब तेरे में ही समर्पित हों ।
अब तू परीक्षा न ले–
मैं किसमें और कुछ पा सकूँगी,
किसकी सहायता पा सकूँगी ।
तेरा राज्य सर्वत्र है ।
मुझे कर्म योग्यता दे,
मैं निरपेक्ष रूप से कर्म करूँ और–
तेरे में डूब सकूँ ।
सदा–सर्वदा सर्वत्र शांति का साम्राज्य है ।
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