चिन्तन की धारा का प्रवाह, सौन्दर्य की अनुभूति सब कुछ अनुभूतिपरक ही तो है । अनुभूतियाँ बाह्य भी हो सकती हैं, आन्तरिक भी, सत्य भी असत्य
भी । अनुभूति जब आत्मपरक होती है, तब वही आत्मा की आवाज, आत्मानुभूति कहलाती है । आत्मानुभूति ही मनुष्य का प्रथम लक्ष्य है और आत्म–साक्षात्कार अन्तिम लक्ष्य । आत्मानुभूति कैसे हो? यही गीता का प्रारम्भ है और आत्म–साक्षात्कार गीता का अन्त ।
चिरन्तन सत्य को कुरुक्षेत्र के माध्यम से गुरू शिष्य परम्परा का निर्वाह करते हुए सरल एवं बोधगम्य भाषा में जनसाधारण को बता दिया गया है । गुरू कृष्ण यूँ तो सभी बातें एक ही श्लोक में अपने शिष्य अर्जुन को कह देते हैं—
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: ॥
गीता 3/30 । ।
गुरू अपने सुयोग्य किन्तु भ्रमित एवं व्यथित शिष्य से कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तोषरहित होकर युद्ध कर ।
यदि शिष्य सद्गुरू को अपनी समस्त चिन्ताओं को सौंपकर चिन्तारहित हो जाए व कर्तव्यकर्म करता रहे तो सहज ही आत्मज्ञान व आत्मसाक्षात्कार सम्भव है । मैं गुरू–शिष्य के इस संवाद को आज के शिक्षार्थी के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना चाहूँगी । तनाव व कुण्ठा बच्चे के मस्तिष्क पर बहुत बुरा प्रभाव डालती है । बच्चे को भूखा रखने से भी अधिक अहितकर है कि वह तनावग्रस्त रहे । गीता मुख्यत: मनुष्य को तनावरहित जीवन जीने का मार्ग निर्देशित करती है ।
अर्जुन जब शस्त्र छोड़ कर बैठ गया तब उनके गुरू श्रीकृष्ण ने कहा—
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥
गीता 2/2 । ।
और
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥
गीता 2/3 । ।
अर्थात् हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुष द्वारा आचारित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति की वृद्धि करने वाला ही है । इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती है । हे परन्तप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।
विद्यार्थी का मोह त्याग—यदि इसी बात को विद्याध्ययन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो पाठशाला के लिए तैयार होकर गया छात्र वहाँ पहुँच कर घर के मोह में ही पड़ा रहे और वहाँ से भागने के लिए आतुर हो जाए तब भी तो उसे मोह भंग की ही शिक्षा प्रदान करनी पड़ेगी ।
मोह का सम्बन्ध केवल आध्यात्म से ही न होकर व्यावहारिक जीवन से भी है । घर की सुख–सुविधाओं और आराम का आदी बच्चा जब विद्यालय जाता है तब उसे घर की सुख–सुविधाओं के साथ–साथ अपनी माता के सान्निध्य का मोह भी त्यागना पड़ता है ।
इन्द्रियनिग्रह
अर्जुन कहता है—
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढ़चेता: ।
यच्छेªय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥
गीता 2/7 । ।
अर्थात् कायरतारूप दोष में उपहृत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए ।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं—
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा: ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
गीता 2/14 । ।
और
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
गीता 2/15 । ।
अर्थात् हे कुन्ती पुत्र! सर्दी–गर्मी और सुख–दु:ख के देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन करय क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दु:ख–सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को इन्द्रिय आदि विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ।
विद्यार्थी के लिए इन्द्रिय निग्रह आवश्यक—विद्यार्थी के लिए भी प्रथम आवश्यकता इन्द्रियनिग्रह की है । सर्दी–गर्मी, सुख–दु:ख की परवाह न करके जो सतत् विद्याध्ययनरत रहता है, वही ज्ञानप्राप्ति कर पाता है । इन्द्रिय सुख को प्रधानता देने वाला विद्यार्थी ज्ञानार्जन की ओर अग्रसर नहीं हो पाता है ।
लोकाचार व कर्तव्यपालन
आगे भगवान अर्जुन को लोकाचार की बात भी समझाते हैं—
अथ चेत्त्वमिंम धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।
तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥2/33॥
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥2/34॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा: ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥2/35॥
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता: ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम् ॥2/36॥
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: ॥2/37॥
गीता 2/33 से 2/37 । ।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं—‘यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है । जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे । तेरे बैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दु:ख क्या होगा ? युद्ध करके या तो तू मारा जा कर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम जीत कर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा ।
विद्यार्थी का कर्त्तव्यपालन—जिस प्रकार पिता का कर्तव्य है परिवार के लिए धनोपार्जन करना, माता का कर्तव्य है बच्चों का पालन–पोषण करना । उसी प्रकार विद्यार्थी का कर्तव्य है विद्याध्ययन करना । लोकाचार भी यही कहता है कि जो बच्चा पढ़ाई करता है, उसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं, जो नहीं पढ़ता है उसकी निन्दा होती है । विद्याध्ययन में निष्काम भाव से रत विद्यार्थी जीवन में सफलता प्राप्त करता है । इसलिए गीता का सन्देश मानव जीवन के सभी पहलुओं के लिए है कि सभी को अपने–अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए । इससे लोक–परलोक हर जगह मनुष्य आनन्द का उपभोग करता है ।
निरासक्त कर्म
निरासक्त कर्म की शिक्षा देते हुए श्रीकृष्ण जी कहते हैं—
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कमफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥2/47॥
योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धîसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥2/48॥
गीता 2/46 से 2/48 । ।
अर्थात् तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में नहीं । इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।
हे धनंजय! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर । समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम ‘समत्व’ है) ।
यदि पूर्ण मनोयोग से निरासक्त भाव से कर्म किया जाएगा तो सफलता भी अवश्य ही मिलेगी ।
स्थितप्रज्ञ
अर्जुन के द्वारा स्थितप्रज्ञ के विषय में पूछने पर श्रीकृष्ण जी कहते हैं—
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥2/55॥
दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह: ।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥2/56॥
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2/57॥
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश: ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2/58॥
गीता 2/55 से 2/58 । ।
श्रीकृष्ण जी बोले—हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है । उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है ।
दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा नि:स्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ, शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है । कछुआ सब ओर से अपने अङ्गों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए) ।
विद्यार्थी की स्थिरबुद्धि ही ज्ञानप्राप्ति का सुगम साधन है—स्थिर बुद्धि ज्ञान प्राप्ति की पहली आवश्यकता है । ज्ञानार्जन की ओर अग्रसर विद्यार्थी शाँत मस्तिष्क से, सुख–दु:ख, वातावरण के प्रभाव से ऊपर उठकर विद्याश्रम के नियमों में बँधकर ही स्थिररूप से ज्ञान प्राप्त कर पाता है । विद्यार्थी को यदि घर बाहर का कोई भी सुखद या दु:खद समाचार उद्वेलित नहीं करता है, तब ही उसकी बुद्धि स्थिर समझनी चाहिए । विद्यार्थी की एकाग्रता की मूलभूत आवश्यकता बुद्धि की स्थिरता है । अर्जुन को जिस प्रकार की एकाग्रता मछली की आँख बेंधने के लिए थी, उसी प्रकार की एकाग्रता विद्याध्ययन के लिए चाहिए ।
विभ्रमित अर्जुन
विभ्रमित हुए चित्त वाला अर्जुन कहता है—
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्माणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥
गीता 3/1 । ।
अर्थात् हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयङ्कर कर्म में क्यों लगाते हैं ?
विद्यार्थी का विभ्रम —
भ्रमितविद्यार्थी दिशाहीन सा समर्थ गुरू की अपेक्षा करता है । आज का विद्यार्थी तो वैसे भी रोजगारपरक शिक्षा की अपेक्षा करता है । शिक्षाप्राप्ति के बाद भी वरिष्ठ छात्रों को रोजगार न मिलता देख वह भ्रमित हो जाता है व कर्महीनता की ओर बढ़ता है । उस समय उसको आवश्यकता होती है गुरू के सही मार्गदर्शन की । आज भी यदि विद्यार्थी परिणाम की चिन्ता छोड़ कर एकाग्रचित्त होकर विद्याध्ययन में रत हो जाए तो अवश्य ही जीवन में सफलता प्राप्त करेगा ।
विद्यार्थी जो भी पढ़े पूर्ण मनोयोग से पढ़े । आज भी हर क्षेत्र में रोजगार हैं किन्तु आवश्यकता है विषय पर, तथ्यों पर गहरी पैठ की ।
कर्म का महत्त्व
श्री भगवान कहते हैं—
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्नयसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥3/4॥
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: ॥3/5॥
गीता 3/4 से 3/5 । ।
अर्थात् प्राणी न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यानिष्ठा को ही प्राप्त होता है ।
नि:सन्देह कोई भी प्राणी किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सभी प्राणी प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुए कर्म करने के लिए हैं ।
इसलिए पूर्ण निष्ठा से निरासक्त भाव से कर्म करना चाहिए ।
भी । अनुभूति जब आत्मपरक होती है, तब वही आत्मा की आवाज, आत्मानुभूति कहलाती है । आत्मानुभूति ही मनुष्य का प्रथम लक्ष्य है और आत्म–साक्षात्कार अन्तिम लक्ष्य । आत्मानुभूति कैसे हो? यही गीता का प्रारम्भ है और आत्म–साक्षात्कार गीता का अन्त ।
चिरन्तन सत्य को कुरुक्षेत्र के माध्यम से गुरू शिष्य परम्परा का निर्वाह करते हुए सरल एवं बोधगम्य भाषा में जनसाधारण को बता दिया गया है । गुरू कृष्ण यूँ तो सभी बातें एक ही श्लोक में अपने शिष्य अर्जुन को कह देते हैं—
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर: ॥
गीता 3/30 । ।
गुरू अपने सुयोग्य किन्तु भ्रमित एवं व्यथित शिष्य से कहते हैं कि सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और सन्तोषरहित होकर युद्ध कर ।
यदि शिष्य सद्गुरू को अपनी समस्त चिन्ताओं को सौंपकर चिन्तारहित हो जाए व कर्तव्यकर्म करता रहे तो सहज ही आत्मज्ञान व आत्मसाक्षात्कार सम्भव है । मैं गुरू–शिष्य के इस संवाद को आज के शिक्षार्थी के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करना चाहूँगी । तनाव व कुण्ठा बच्चे के मस्तिष्क पर बहुत बुरा प्रभाव डालती है । बच्चे को भूखा रखने से भी अधिक अहितकर है कि वह तनावग्रस्त रहे । गीता मुख्यत: मनुष्य को तनावरहित जीवन जीने का मार्ग निर्देशित करती है ।
अर्जुन जब शस्त्र छोड़ कर बैठ गया तब उनके गुरू श्रीकृष्ण ने कहा—
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥
गीता 2/2 । ।
और
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥
गीता 2/3 । ।
अर्थात् हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुष द्वारा आचारित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति की वृद्धि करने वाला ही है । इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती है । हे परन्तप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।
विद्यार्थी का मोह त्याग—यदि इसी बात को विद्याध्ययन के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो पाठशाला के लिए तैयार होकर गया छात्र वहाँ पहुँच कर घर के मोह में ही पड़ा रहे और वहाँ से भागने के लिए आतुर हो जाए तब भी तो उसे मोह भंग की ही शिक्षा प्रदान करनी पड़ेगी ।
मोह का सम्बन्ध केवल आध्यात्म से ही न होकर व्यावहारिक जीवन से भी है । घर की सुख–सुविधाओं और आराम का आदी बच्चा जब विद्यालय जाता है तब उसे घर की सुख–सुविधाओं के साथ–साथ अपनी माता के सान्निध्य का मोह भी त्यागना पड़ता है ।
इन्द्रियनिग्रह
अर्जुन कहता है—
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढ़चेता: ।
यच्छेªय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥
गीता 2/7 । ।
अर्थात् कायरतारूप दोष में उपहृत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए ।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं—
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदु:खदा: ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥
गीता 2/14 । ।
और
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥
गीता 2/15 । ।
अर्थात् हे कुन्ती पुत्र! सर्दी–गर्मी और सुख–दु:ख के देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति, विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन करय क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दु:ख–सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को इन्द्रिय आदि विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ।
विद्यार्थी के लिए इन्द्रिय निग्रह आवश्यक—विद्यार्थी के लिए भी प्रथम आवश्यकता इन्द्रियनिग्रह की है । सर्दी–गर्मी, सुख–दु:ख की परवाह न करके जो सतत् विद्याध्ययनरत रहता है, वही ज्ञानप्राप्ति कर पाता है । इन्द्रिय सुख को प्रधानता देने वाला विद्यार्थी ज्ञानार्जन की ओर अग्रसर नहीं हो पाता है ।
लोकाचार व कर्तव्यपालन
आगे भगवान अर्जुन को लोकाचार की बात भी समझाते हैं—
अथ चेत्त्वमिंम धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।
तत: स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥2/33॥
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥2/34॥
भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा: ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ॥2/35॥
अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता: ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम् ॥2/36॥
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय: ॥2/37॥
गीता 2/33 से 2/37 । ।
श्रीकृष्ण जी कहते हैं—‘यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है । जिनकी दृष्टि में तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे । तेरे बैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निन्दा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे, उससे अधिक दु:ख क्या होगा ? युद्ध करके या तो तू मारा जा कर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा संग्राम जीत कर पृथ्वी का राज्य भोगेगा । इस कारण हे अर्जुन! तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा ।
विद्यार्थी का कर्त्तव्यपालन—जिस प्रकार पिता का कर्तव्य है परिवार के लिए धनोपार्जन करना, माता का कर्तव्य है बच्चों का पालन–पोषण करना । उसी प्रकार विद्यार्थी का कर्तव्य है विद्याध्ययन करना । लोकाचार भी यही कहता है कि जो बच्चा पढ़ाई करता है, उसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं, जो नहीं पढ़ता है उसकी निन्दा होती है । विद्याध्ययन में निष्काम भाव से रत विद्यार्थी जीवन में सफलता प्राप्त करता है । इसलिए गीता का सन्देश मानव जीवन के सभी पहलुओं के लिए है कि सभी को अपने–अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए । इससे लोक–परलोक हर जगह मनुष्य आनन्द का उपभोग करता है ।
निरासक्त कर्म
निरासक्त कर्म की शिक्षा देते हुए श्रीकृष्ण जी कहते हैं—
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कमफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥2/47॥
योगस्थ: कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्धîसिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥2/48॥
गीता 2/46 से 2/48 । ।
अर्थात् तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में नहीं । इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।
हे धनंजय! तू आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धि वाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर । समत्व (जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम ‘समत्व’ है) ।
यदि पूर्ण मनोयोग से निरासक्त भाव से कर्म किया जाएगा तो सफलता भी अवश्य ही मिलेगी ।
स्थितप्रज्ञ
अर्जुन के द्वारा स्थितप्रज्ञ के विषय में पूछने पर श्रीकृष्ण जी कहते हैं—
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥2/55॥
दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह: ।
वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥2/56॥
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2/57॥
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश: ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2/58॥
गीता 2/55 से 2/58 । ।
श्रीकृष्ण जी बोले—हे अर्जुन! जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और आत्मा में ही संतुष्ट रहता है । उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है ।
दु:खों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में जो सर्वथा नि:स्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ, शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है । कछुआ सब ओर से अपने अङ्गों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए) ।
विद्यार्थी की स्थिरबुद्धि ही ज्ञानप्राप्ति का सुगम साधन है—स्थिर बुद्धि ज्ञान प्राप्ति की पहली आवश्यकता है । ज्ञानार्जन की ओर अग्रसर विद्यार्थी शाँत मस्तिष्क से, सुख–दु:ख, वातावरण के प्रभाव से ऊपर उठकर विद्याश्रम के नियमों में बँधकर ही स्थिररूप से ज्ञान प्राप्त कर पाता है । विद्यार्थी को यदि घर बाहर का कोई भी सुखद या दु:खद समाचार उद्वेलित नहीं करता है, तब ही उसकी बुद्धि स्थिर समझनी चाहिए । विद्यार्थी की एकाग्रता की मूलभूत आवश्यकता बुद्धि की स्थिरता है । अर्जुन को जिस प्रकार की एकाग्रता मछली की आँख बेंधने के लिए थी, उसी प्रकार की एकाग्रता विद्याध्ययन के लिए चाहिए ।
विभ्रमित अर्जुन
विभ्रमित हुए चित्त वाला अर्जुन कहता है—
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्माणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥
गीता 3/1 । ।
अर्थात् हे जनार्दन! यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर हे केशव! मुझे भयङ्कर कर्म में क्यों लगाते हैं ?
विद्यार्थी का विभ्रम —
भ्रमितविद्यार्थी दिशाहीन सा समर्थ गुरू की अपेक्षा करता है । आज का विद्यार्थी तो वैसे भी रोजगारपरक शिक्षा की अपेक्षा करता है । शिक्षाप्राप्ति के बाद भी वरिष्ठ छात्रों को रोजगार न मिलता देख वह भ्रमित हो जाता है व कर्महीनता की ओर बढ़ता है । उस समय उसको आवश्यकता होती है गुरू के सही मार्गदर्शन की । आज भी यदि विद्यार्थी परिणाम की चिन्ता छोड़ कर एकाग्रचित्त होकर विद्याध्ययन में रत हो जाए तो अवश्य ही जीवन में सफलता प्राप्त करेगा ।
विद्यार्थी जो भी पढ़े पूर्ण मनोयोग से पढ़े । आज भी हर क्षेत्र में रोजगार हैं किन्तु आवश्यकता है विषय पर, तथ्यों पर गहरी पैठ की ।
कर्म का महत्त्व
श्री भगवान कहते हैं—
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्नयसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥3/4॥
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: ॥3/5॥
गीता 3/4 से 3/5 । ।
अर्थात् प्राणी न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यानिष्ठा को ही प्राप्त होता है ।
नि:सन्देह कोई भी प्राणी किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सभी प्राणी प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुए कर्म करने के लिए हैं ।
इसलिए पूर्ण निष्ठा से निरासक्त भाव से कर्म करना चाहिए ।
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