मैं तुमको देखती हूँ, सोंचती हूँ, डूब जाती हूँ कहीं,
अव्यक्त प्राप्य स्नेह हृदय स्थित हो रहा यहीं ।
आँखों में है स्नेह का सागर, चेहरे से वात्सल्य टपकता है ।
जी चाहता है इस घन को, इस स्नेह हो अपने में ही समेट लूँ ।
कभी न हो अलग मेरे जीवन से सदा रहे यह स्नेहिल किरण,
जिसका आलम्बन ले कर ही मै जी सकूँ, कुछ कर सकूँ । ।
करुँगी भी क्या मेरा अस्तित्व ही कहाँ,
मिट जाए मेरा अस्तित्व यही कामना है,
नहीं यह भी कामना नही, केवल शान्ति पा सकूँ ।
इस विशाल वटवृक्ष की छाया में शान्ति पा सकूँ चिरशान्ति ।
जब छायाप्रद वृक्ष होगा तो पत्ते भी झड़ेंगें ही ।
जहाँ स्नेह का सागर होगा, वहाँ कठोरता भी होगी ही ।
क्यों विचलित होता है मन, इतनी सी कठोरता से,
समद्र में रत्न ढ़ूँढ़ोगे तो कष्ट तो होगा ही ।
ढ़ूँढ़ने भी कहाँ चले, जब मिल रहे हैं स्वयं ही,
बिखरे हुए हैं रत्न चुन सको तो चुन लो।
है विशाल समुद्र सामने फिर प्यास की तृष्णा क्यों?
जब हो विशाल जलाशय सामने, फिर उदपान में क्यों जाते हो?
होता है संस्पर्श मन का मन से,
मन का ही मन से क्यों, अन्तरतम से क्यों नहीं?
अन्तरतम ही क्यों, जब विभेदरेखा ही नही?
क्यों मैं चाहूँ मुझे कोई जाने, क्यों मैं चाहूँ मैं कुछ पाऊँ ?
पाना ही क्या है, जब सब कुछ मिला हुआ है,
मिला ही नहीं वह मेरा अपना है,
अपना भी क्या है, जब मैं ही कुछ नहीं ।
काश! अब प्यास न रहे, थकान न रहे,
इस विशाल छत्रछाया में जो सदा मेरे पास है
शान्ति पा सकूँ, केवल शान्ति, चिरशान्ति ।
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