Friday, November 30, 2018

जंगल में मंगल

सुयोग्य प्राकृतिक चिकित्सक रमेश जिस मरीज़ को हाथ लगाता, वह ठीक हो जाता किन्तु प्राकृतिक–चिकित्सा के लिए स्थान की काफी आवश्यकता होती है। उसके घर में स्थान का अभाव था। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक–चिकित्सा के मूल आधार शुद्ध मिट्टी, पानी, धूप, हवा के लिए भी गहरी मशक्कत करनी पड़ती थी।
रमेश के पिता अल्प वेतन भोगी थे। रमेश घर की स्थिति से अच्छी तरह से परिचित था। उसने अपने पिताजी से कहा–
‘पिताजी! मुझे एक योजना समझ में आ रही है, मैं जंगली नरभक्षी पशुओं से रहित जंगल में चला जाऊँ। वहीं कुटिया बना कर साधना करूँ, कन्द मूल, फल तो पेट भरने के लिए मिल ही जाएँगे। मेरी साधना तो होगी ही, भगवान ने चाहा तो प्राकृतिक चिकित्सा भी चल जाएगी।’
‘बेवकूफी की बात मत करो। एक तो तुम शहर में रहने के आदी हो चुके हो, दूसरे इतनी दूर जंगल में इलाज करवाने कौन जाएगा।’

 ‘पिता जी! आप एक बार अनुमति तो दें। आखिर हमारे ऋषि–मुनि भी तो जंगल में रह कर ही साधना करते थे। रही मरीज़ों के इतनी दूर जंगल में जाने की बात तो जब एक, दो मरीज़ ठीक होंगे, तब बाकी मरीज़ स्वयं आने लगेंगे। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए मनुष्य कहाँ–कहाँ नहीं जाता है।’
माँ ने कहा–‘मैं तुझे नहीं जाने दूँगी।’
रमेश बोला–‘माँ! मैं गाँधी जी के सपनों को साकार करना चाहता हूँ। उन्होंने रामनाम और प्राकृतिक चिकित्सा को ही स्वास्थ्य का मूल आधार बताया था।’
अब गाँधीवादी माता कुछ बोल न सकीं। पिता जी व माँ ने उसे जंगल में जाने की अनुमति दे दी। वह अपने साथ मात्र एक जोड़ कपड़े, रस्सी, चाकू, एक कुल्हाड़ी, एक बाल्टी, गिलास तथा मार्ग–व्यय के लिए एक हजार रुपए लेकर गया था।
जंगली लोगों के सहयोग से उसने धीरे–धीरे एक कुटिया बना ली। अब वह उनकी भाषा भी समझने लगा। साधना से तेज भी आ गया।
अब वह अपने घर आया। शहर के अस्पतालों में मरणासन्न मरीजों को अपनी कुटिया में आने का निमंत्रण दिया। इलाज पूरी तरह नि:शुल्क था।


जीवन से निराश हो चुके दो मरीज़ों ने सोचा कि वह यों भी ठीक नहीं हो रहे हैं। यह इलाज भी करके देख लिया जाए। अगर नहीं भी ठीक हुए तो अस्पताल की सूइयों से तो बेहतर है कि प्रकृति के समीप ही रहा जाए।
इस प्रकार दो मरीज़ तथा मरीज़ों के घर के दो–दो सदस्य रमेश के साथ गए। वह अपने साथ बनाने, खाने का सामान, कपड़े, बर्तन, बिस्तर आदि भी ले गए।
प्रार्थना, उपवास, साधना व प्राकृतिक चिकित्सा से दोनों मरीज पूर्ण स्वस्थ हो गए। साथ ही उनके घरवाले भी जो उनके साथ गए थे, सच्चे अर्थों में पूर्ण स्वस्थ हो गए।
अब तो रमेश के यहाँ मरीज़ों की भीड़ लगने लगी । मरीज़ों से मिले हुए पैसों से रमेश ने वन–विभाग से थोड़ी सी जमीन खरीद ली व टैक्स भी देने लगा। हालांकि चिकित्सा का कोई निर्धारित शुल्क नहीं था किन्तु लोग अपने सामर्थ्यानुसार धन देने में चूकते नहीं थे।
धीरे–धीरे गाँधीजी के सपनों के अनुरूप उसका आश्रम बहुत बड़े प्राकृतिक चिकित्सालय के रूप में परिवर्तित हो गया। उसने सोचा अगर पूरे देश में इसी प्रकार के आरोग्य–मंदिर बन सकें तो गाँधी जी का स्वास्थ्य सम्बन्धी सपना तो पूरा हो ही जाएगा।
रमेश के माता–पिता उसके आश्रम में आए हुए थे। उन्होंने कहा–‘बेटा! तूने तो जंगल में मंगल कर दिया।’
त्याग व परिश्रम से सब कुछ पाया जा सकता है।
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