Friday, November 23, 2018

आपका मस्तिष्क अपारशक्तियों का सागर



            स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा लास एन्जल्स कैलिफोर्निया में दिए हुए भाषण के अंश
सम्पूर्ण ज्ञान हममें ही निहित है
            स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं सम्पूर्ण ज्ञान हममें ही निहित है आत्मा स्वभावत: ही पूर्ण है, किन्तु यह पूर्णत: माया से ढका हुआ है आत्मा के शुद्ध स्वरूप पर प्रकृति के आवरण पर आवरण चढ़े हुए हैं तब ऐसी अवस्था में हमें क्या करना पड़ता है ? वास्तव में हम अपनी आत्मा की बिल्कुल उन्नति नहीं करते जो पूर्ण है, उसका विकास कौन कर सकता है ? हम केवल परदा दूर हटा देते हैं और आत्मा अपने नित्यशुद्ध, नित्यमुक्त रूप में प्रकट हो जाती है
––––शुद्ध हृदय ही सत्य के प्रतिबिम्ब के लिए सर्वोत्तम दर्पण है, इसलिए यह सारी साधना हृदय के शुद्धीकरण के लिए ही है, और ज्यों ही वह शुद्ध हो जाता है, त्यों ही सम्पूर्ण सत्य उसी क्षण उस पर प्रतिबिम्बित हो जाता है अगर तुम्हारा हृदय पर्याप्त शुद्ध होगा तो दुनिया के सारे सत्य उसमें प्रकट हो जायेंगे ––––तब हम मानो कोई नई ही भाषा बोलने लगेंगे और दुनिया हमें नहीं समझ सकेगी, क्योंकि इन्द्रिय ज्ञान के सिवाय उसे और दूसरा ज्ञान ही नहीं है सच्चा धर्म पूर्ण रूप से द्वैतातीत है विश्व में रहने वाले प्रत्येक जीव में इन्द्रियातीत होने की शक्ति सुप्त भाव में विद्यमान है
शरीरस्थ प्राण का नियंत्रण प्राणायाम से होता है
            प्राणायाम नामक श्वासोच्छ्वास के अभ्यास से श्वासोच्छ्वास नियमित होता है और प्राण की क्रिया में नियमित गति उत्पन्न होती है जब प्राण की गति नियमित होती है तो सब कार्य ठीकठीक होने लगते हैं जब योगियों का शरीर उनके वश में हो जाता है, तब यदि शरीर के किसी अंग में रोग उत्पन्न होता है तो वे जान लेते हैं कि उस अंग में प्राण की गति अनियमित हो रही है और फिर वे प्राण को उस विकृत अंग की ओर प्रेरित करते हैं जिससे उसकी गति फिर से नियमित रूप से शुरू हो जाती है
दूर देश के प्राण का भी नियंत्रण कर सकते हैं
            जिस तरह तुम अपने शरीरस्थ प्राण को नियमित कर सकते हो, उसी प्रकार अगर तुम काफी शक्तिमान हो तो यहाँ से ही एक दूर देश के मनुष्य के प्राण का भी नियंत्रण कर सकते हो प्राण यहाँ से वहाँ तक एक ही है उसमें कहीं पर खण्ड नहीं है, एकत्व ही उसका लक्षण है, धर्म है आधिभौतिक, आधिदैविक, आध्यात्मिक, मानसिक, नैतिक और तात्त्विक सभी दृष्टियों से सब एक ही है जीव तो सिर्फ उसकी एक लहर, एक स्पन्दन है बाह्य भौतिक प्रकृति को जो स्पन्दित करता है, वही तुम्हारे भीतर भी स्पन्दित हो रहा है जिस तरह सरोवर में बर्फ में विभिन्न घनत्व के भिन्नभिन्न स्तर होते हैं, उसी प्रकार यह विश्व ब्रह्माण्ड भी जड़ भूतों का एक विभिन्न स्तर वाला समुद्र है सूर्य, चन्द्र, तारे और हम स्वयं भी इस महाकाश में अलगअलग घनत्व की वस्तुएँ हैं, लेकिन वह आकाश तत्त्व अखण्ड है, एकरस है
मन के अवचेतन क्षेत्र पर अधिकार किस तरह कर सकते हैं
            यदि मनुष्य अपनी आत्मचेतना को अनन्तगुनी कर ले, उसका अनुभव सर्वत्र करे तो वह ईश्वररूप बन सकता है सम्पूर्ण विश्व पर अपना अधिकार चला सकता है
––––व्यावहारिक मनोविज्ञान प्रथम हमें यह सिखलाता है कि हम अपने मन के अवचेतन क्षेत्र पर अपना अधिकार किस तरह चला सकते हैं हम जानते हैं कि हम ऐसा कर सकते हैं इसीलिए कि हम जानते हैं कि मन का चेतन क्षेत्र ही इस अवचेतन क्षेत्र का कारण है हमारे जो लाखों पुराने जाग्रत विचार और चेतनायुक्त कार्य हैं, वे ही घनीभूत होकर प्रसुप्त हो जाने पर हमारे अज्ञान संस्कार बन जाते हैं हमारा इधर ख्याल ही नहीं जाता, हमें उनका ज्ञान नहीं होता, हम उन्हें भूल जाते हैं देखो, यदि प्रसुप्त अज्ञात संस्कारों में बुरा करने की शक्ति है तो उनमें अच्छा करने की भी शक्ति है हमारे भीतर नाना प्रकार के संस्कार भरे पड़े हैं मानो एक गठरी में बहुत सी चीजें बँधी हुई हैं उन्हें हम भूल गये हैं, हम उनका विचार तक नहीं करते उनमें से बहुत से संस्कार तो वहीं पड़े सड़ते रहते हैं और वास्तव में भयानक बनते जाते हैं वे ही प्रसुप्त कारण एक दिन मन के चेतन क्षेत्र पर उठते हैं और मानवता का नाश कर देते हैं
            अतएव सच्चा मनोविज्ञान इस बात की कोशिश करेगा कि ये प्रसुप्त भाव चेतन मन द्वारा नियन्त्रित हों मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को जाग्रत करना, जिससे कि वह अपना पूर्ण स्वामी बन जाए, एक बड़ा कार्य है शरीरान्तर्गत यकृत आदि इन्द्रियों की सहज क्रियाओं को भी हम अपना हुक्म मानने के लिए लगा सकते हैं
            अवचेतन क्षेत्र को अपने अधिकार में लाना हमारी साधना का पहला भाग
है दूसरा है चेतन क्षेत्र के परे चले जाना जिस तरह अवचेतन क्षेत्र चेतन क्षेत्र के नीचे उसके अतीत की एक अवस्था है जब मनुष्य इस अतीन्द्रिय, अवचेतन अवस्था को पहुँच जाता है तब वह मुक्त हो जाता है, ईश्वरत्व को प्राप्त हो जाता है तब मृत्यु अमरत्व में परिणत हो जाती है, दुर्बलता असीम शक्ति बन जाती है और अज्ञान की लौह श्रृंखलाएँ दूर हो जाती हैं वह अनन्त ज्ञानातीत अवस्था ही, यह इन्द्रियातीत राज्य ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है
            अतएव यह स्पष्ट है कि हमें दो कार्य अवश्य ही करने होंगे एक तो यह कि इड़ा और पिंगला के प्रवाहों का नियमन कर अवचेतन कार्यों को नियमित करना, और दूसरा इसके साथ ही साथ चेतन के भी परे चले जाना
            ग्रन्थों में कहा है कि योगी वही है जिसने दीर्घ काल तक चित्त की एकाग्रता का अभ्यास करके इस सत्य की उपलब्धि कर ली है अब सुषुम्ना का द्वार खुल जाता है और इस मार्ग से वह प्रवाह शुरू हो जाता है, जो इसके पहले वहाँ कभी नहीं गया था और वह (जैसा कि आलंकारिक भाषा में कहा है) धीरेधीरे विभिन्न कमलचक्रों में से होता हुआ, कमलदलों को खिलाता हुआ अन्त में मस्तिष्क तक पहुँच जाता है, वह जान लेता है कि वह स्वयं परमेश्वर ही है हममें से प्रत्येक व्यक्ति, बिना किसी अपवाद के, योग की इस अन्तिम अवस्था को प्राप्त कर सकता है
            आसन, प्राणायाम इत्यादि योग के सहायक हैं अवश्य, लेकिन वे केवल शारीरिक क्रियाएँ मात्र हैं मुख्य तैयारी तो मन की है सबसे पहले यह आवश्यक है कि हमारा जीवन शान्तिपूर्ण तथा समाधान युक्त हो
––––पहले ईश्वर के ठीकठीक अन्वेषण में लगे रहो और बाद में सब कुछ तुम्हें स्वयं ही मिल जाएगा ’ ––––आध्यात्मिक जीवन का सबसे बड़ा सहायक हैध्यान ध्यान के द्वारा हम अपनी भौतिक भावनाओं से अपने आपको स्वतंत्र कर लेते हैं और अपने ईश्वरीय स्वरूप का अनुभव करने लगते हैं ध्यान करते समय हमें बाहरी साधनों पर अवलम्बित नहीं रहना पड़ता गहरे अँधेरे स्थान को भी आत्मा की ज्योति दिव्य प्रकाश से भर देती है बुरी से बुरी वस्तु में भी वह अपना सौरभ उत्पन्न कर सकती है वह अत्यन्त दुष्ट मनुष्य को भी देवता बना देती हैऔर सम्पूर्ण स्वार्थी भावनाएँ, सम्पूर्ण शत्रुभाव नष्ट हो जाते हैं
दूसरा मनुष्य क्या सोच रहा है या भविष्य में क्या सोचेगा जाना जा सकता है
            सारे युगों से, संसार के सब लोगों का अलौकिक घटनाओं में विश्वास चला रहा है हम सभी ने अद्भुत चमत्कारों के बारे में सुना है और हममें से कुछ ने उनका स्वयं अनुभव भी किया है इस विषय का प्रारंभ आज मैं स्वयं देखे हुए चमत्कारों को बतला कर करूँगा मैंने एक बार ऐसे मनुष्य के बारे में सुना, जो किसी के मन के प्रश्न का उत्तर प्रश्न सुनने से पहले ही बता देता था मुझे यह भी बतलाया गया कि वह भविष्य की बातें भी बताता है मुझे उत्सुकता हुई और अपने कुछ मित्रों के साथ मैं वहाँ पहुँचा हममें से प्रत्येक ने पूछने का प्रश्न अपने मन में सोच रखा था गलती हो, इसलिए हमने वे प्रश्न कागज पर लिखकर जेब में रख लिए थे ज्यों ही हममें से एक वहाँ पहुँचा, त्यों ही उसने हमारे प्रश्न और उनके उत्तर कहना शुरू कर दिये फिर उस मनुष्य ने कागज पर कुछ लिखा, उसे मोड़ा और उसके पीछे मुझे हस्ताक्षर करने के लिए  कहा और बोला, ‘इसे पढ़ो मत, जेब में रख लो, जब तक मैं इसे फिर माँगू इस तरह उसने हर एक से कहा बाद में उसने हम लोगों को हमारे भविष्य की कुछ बातें बतलायीं फिर उसने कहा—‘अब किसी भी भाषा का कोई शब्द या वाक्य तुम लोग अपने मन में सोच लो मैंने संस्कृत का एक लम्बा वाक्य सोच लिया वह मनुष्य संस्कृत बिल्कुल जानता था उसने कहा, ‘अब अपनी जेब का कागज निकालो कैसा आश्चर्य! वही संस्कृत का वाक्य उस कागज पर लिखा था और नीचे यह भी लिखा था किजो कुछ मैंने इस कागज पर लिखा है, वही यह मनुष्य सोचेगा,’ और यह बात उसने एक घण्टा पहले ही लिख दी थी फिर हममें से दूसरे को, जिसके पास भी उसी तरह का एक दूसरा कागज था, कोई एक वाक्य सोचने को कहा गया उसने अरबी भाषा का एक फिकरा सोचा अरबी भाषा का जानना तो उसके लिए और भी असम्भव था वह फिकरा थाकुरान शरीफका, लेकिन मेरा मित्र क्या देखता है कि वह भी कागज पर लिखा है      हममें से तीसरा था डॉक्टर, उसने किसी जर्मन भाषा की वैद्यकीय पुस्तक का वाक्य अपने मन में सोचा उसके कागज पर वह वाक्य भी लिखा था
            यह सोच कर कि कहीं पहले मैंने धोखा खाया हो, कई दिनों बाद मैं फिर दूसरे मित्रों को साथ लेकर वहाँ गयाय लेकिन इस बार भी उसने वैसी ही आश्चर्यजनक  सफलता पायी ’ ––––प्राचीन समय में हजारों वर्ष पूर्व ऐसी बातें आज की अपेक्षा और भी अधिक परिणाम में हुआ करती थीं ––––ये बातें भी ठीक वैसी ही नियमबद्ध हैं, जैसी भौतिक जगत् की अन्यान्य बातें ––––वे लोग जिस सिद्धान्त पर पहुँचे हैं, वह यह है कि यह सारा अद्भुत सामर्थ्य मनुष्य के मन में अवस्थित है मनुष्य का मन समष्टि मन का अंश मात्र है प्रत्येक मन दूसरे हर एक मन में संलग्न है प्रत्येक मन, वह चाहे जहाँ रहे, सम्पूर्ण विश्व के व्यापार में प्रत्यक्ष भाग ले रहा है
            इस घटना के सम्बन्ध में मेरा व्यक्तिगत मत है कि जो व्यक्ति भविष्य में सोचे जाने वाले विचारों को पहले से कागज पर लिख देता था, जिस भाषा को वह जानता तक था, उसका कारण यह हो सकता है कि सामने वाला व्यक्ति क्या सोचेगा उसका चित्र उसके सामने जाता था उसी चित्र को वह कागज पर उकेर देता था भाषा जानते हुए भी वह उस सोची जाने वाली इबारत को कागज पर उतार देता था, चाहे वह किसी भी भाषा की हो इस घटना से यह भी सिद्ध होता है कि मनुष्य भविष्य में क्या सोचेगा यह भी जाना जा सकता है
विचार संक्रमण (मन एक अखण्ड वस्तु)
            क्या तुम लोगों ने विचार संक्रमण (Thought transference) का चमत्कार देखा है ? यहाँ एक मनुष्य कुछ विचार करता है और वह विचार अन्यत्र किसी दूसरे मनुष्य में प्रकट हो जाते हैं एक मनुष्य अपने विचार दूसरे मनुष्य के पास भेजना चाहता है इस दूसरे मनुष्य को यह मालूम हो जाता है कि इस तरह का सन्देश उसके पास रहा है वह उस सन्देश को ठीक उसी रूप में ग्रहण करता है, जिस रूप में वह भेजा गया था पूर्व साधनाओं से यह बात सिद्ध होती है यह केवल आकस्मिक घटना नहीं है, दूरी के कारण कुछ अन्तर नहीं पड़ता वह सन्देश उस दूसरे मनुष्य तक पहुँच जाता है और वह दूसरा मनुष्य उसे समझ लेता है
            अगर मेरा मन एक दूसरी स्वतंत्र वस्तु होता, जो वहाँ विद्यमान है, और मेरा मन एक दूसरी स्वतंत्र वस्तु होता, जो यहाँ विद्यमान है, और इन दोनों मनों में यदि कोई सम्बन्ध होता, तो मेरे विचार तुम्हारे पास कैसे पहुँच पाते ? सर्वसाधारण व्यवहार से मेरा विचार सीधा तुम्हारे पास नहीं पहुँचताय पर प्रथम मेरे विचार को आकाशतत्त्व के स्पन्दनों में परिणत होना पड़ता है ये स्पन्दन फिर तुम्हारे मस्तिष्क में पहुँचते हैं वहाँ फिर से इन स्पन्दनों का तुम्हारे अपने विचार में रूपान्तर होता है इस तरह मेरा विचार तुम्हारे पास पहुँचता है
            यहाँ पहले विचार विश्लिष्ट होकर आकाश तत्त्व में मिल जाता है और फिर उसी का वहाँ संश्लेषण हो जाता हैइस तरह का चक्राकार कार्यक्रम चलता है परन्तु विचारसंक्रमण (Thought transference) में इस तरह की कोई चक्राकार क्रिया नहीं होती, इसमें मेरा विचार सीधासाधा तुम्हारे पास पहुँच जाता है
            इससे स्पष्ट है कि मन एक अखण्ड वस्तु है, जैसा कि योगी कहते हैं मन विश्वव्यापी है तुम्हारा मन, मेरा मनये सब विभिन्न मन उस समष्टि मन के अंश मात्र हैं, मानो समुद्र पर उठने वाली छोटीछोटी लहरें हैंय और इस अखण्डता के कारण ही हम अपने विचारों को एकदम सीधे बिना किसी माध्यम के आपस में संक्रमित कर सकते हैं –––––हम सदा यही कहा करते हैं कि हमारे कर्मों पर, हमारे विचारों पर हमारा अधिकार नहीं चलता यह अधिकार हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? यदि हम सूक्ष्म गतियों पर नियंत्रण कर सकें और विचार के विचार बनने एवं कार्य रूप में परिणत होने से पूर्व ही यदि उसको मूल में ही अधीन कर सकें, तो इस सबको नियंत्रित कर सकना हमारे लिए सम्भव होगा
            अब अगर ऐसा कोई उपाय हो, जिसके द्वारा हम सूक्ष्म कारणों का, इन सूक्ष्म शक्तियों का विश्लेषण कर सकें, उन्हें समझ सकें और अन्त में अपने अधीन कर सकें, तभी हम खुद पर अपना अधिकार चला सकेंगे जिस मनुष्य का मन उसके अधीन होगा, निश्चय ही वह दूसरों के मनों को भी अपने अधीन कर सकेगा ––––यदि हम इन सूक्ष्म कारणों पर अपना अधिकार चला सकें तो हम अपने भौतिक दु:खों को अधिकांशत: दूर कर सकते हैं यदि ये सूक्ष्म गतियाँ हमारे अधीन हो जाएँ तो हम अपनी चिन्ताओं को दूर कर सकते हैं यदि हम इन सूक्ष्म शक्तियों को अपने अधीन कर लें तो अनेक अपयश टाले जा सकते हैं –––
––––मैंने ऐसा मनुष्य देखा है, जो आँखें बन्द कर लेता है और फिर भी बता देता है कि दूसरे कमरे में क्या हो रहा है ––––अगर मनुष्य कोने में बैठे हुए दूसरे मनुष्य के मन में क्या चल रहा है, यह जान सकता है, तो वह दूसरे कमरे में बैठे रहने पर भी क्यों जान सकेगा, और इतना ही क्यों, कहीं पर भी बैठकर क्यों जान सकेगा ?
अपनी आत्मा का प्रतिष्ठान करो
            अनेकों बार मैं मृत्युमुख में पड़ा हूँ, क्षुधातुर रहा हूँ, पैर फटे हैं और थकावट आयी, लगातार कई दिनों तक मुझे अन्न नहीं मिला और अक्सर मैं एक पग भी नहीं चल सकता थाय मैं पेड़ के नीचे बैठ जाता और ऐसा मालूम होता था कि अब प्राण निकले बोलना मुझे कठिन हो जाता था और मैं विचार तक नहीं कर सकता था अन्त में मेरा मन इस विचार पर लौट आया—‘मुझे डर कहाँ ? मैं कैसे मर सकता हूँ ? सोऽहम्!’ ––––ऐसा विचार आने पर मैं नवचैतन्य पा उठ खड़ा होता, और यह देखो, तुम लोगों के सामने आज जीताजागता खड़ा हूँ इस तरह जबजब अन्धकार का आक्रमण हो, तो अपनी आत्मा का प्रतिष्ठान करो, और जो प्रतिकूल है, नष्ट हो जाएगा, क्योंकि आखिर यह सब स्वप्न ही है
            आपत्तियाँ पर्वत जैसी भले ही हों, सब कुछ भयावह और अन्धकारपूर्ण भले ही दिखे, पर जान लो, यह सब माया है डरो मत, यह भाग जाएगी इसे कुचलो और यह लुप्त हो जाती है इसे ठुकराओ और यह मर जाती है डरो मत, कितनी बार असफलता मिलेगी, यह सोचो, चिन्ता करो, काल अनन्त है आगे बढ़ो, पुन: पुन: अपनी आत्मा का प्रतिष्ठान करो! प्रकाश अवश्य ही
आएगा
––––स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा मेडिसिन स्क्वेयर कन्सर्ट हाल, न्यूयार्क में दिये हुए भाषण का अंश
माँगो और तुम्हें दिया जाएगा
            ईसा के उन वचनों को याद रखो, ‘माँगो और वह तुम्हें दे दिया जाएगा, ढूँढ़ो और तुम पाओगे, खटखटाओ और तुम्हारे लिए दरवाजा खोल दिया जाएगा ये शब्द अक्षरश: सत्य हैं ये तो रूपक हैं, काल्पनिक ईश्वर के श्रेष्ठतम पुत्रों में से एक के हृदयोद्गार हैं, जिनका हमारे इस संसार में अवतार हुआ था ये शब्द साक्षात्कार के फलस्वरूप मिले थे, पुस्तकों से उद्धृत किये हुए नहीं थे ये हमें उन महापुरुषों से प्राप्त हुए हैं, जिन्होंने ईश्वर का अनुभव प्राप्त किया था, स्वयं परमात्मा का साक्षात्कार किया थाय ईश्वर से बातें की थीं, जो ईश्वर के साथ रहते थेहम और आप जिस प्रकार इस इमारत को देख रहे हैं, उससे भी सौ गुना अधिक प्रत्यक्ष रूप से जिन्होंने ईश्वर को जाना था पर ईश्वर की चाह किसे है ? यही प्रश्न है क्या आप समझते हैं कि संसार का यह सारा जनसमुदाय ईश्वर प्राप्ति की इच्छा रखते हुए भी ईश्वर को नहीं पा सक रहा है, यह असम्भव है
स्वामी विवेकानन्द जी द्वारा लन्दन में दिये हुए व्याख्यान का अंश
            मैं सब कुछ कर सकता हूँवेदान्त सबसे पहले मनुष्य को अपने ऊपर विश्वास करने के लिए है ––––वेदान्त कहता है कि जो व्यक्ति अपने आप पर विश्वास नहीं करता, वह नास्तिक है अपनी आत्मा की महिमा में विश्वास करने को ही वेदान्त में नास्तिकता कहते हैं बहुत से लोगों के लिए यह एक भीषण विचार है, इसमें कोई सन्देह नहीं, और हममें से अधिकांश सोचते हैं कि यह कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता, किन्तु वेदान्त दृढ़ रूप से कहता है कि प्रत्येक व्यक्ति इस सत्य को जीवन में प्रत्यक्ष कर सकता है इसकी उपलब्धि में स्त्रीपुरुष, बालकबालिका, जाति या लिंग आदि से सम्बद्ध किसी प्रकार का भेद बाधक नहीं हैक्योंकि वेदान्त दिखा देता है कि वह सत्य पहले से ही सिद्ध है और पहले से ही विद्यमान है
हममें ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति निहित है
            हममें ब्रह्माण्ड की समूची शक्ति पहले से ही है हम लोग स्वयं ही अपने नेत्रों पर हाथ रखकरअन्धकार’ ‘अन्धकारकहकर चीत्कार करते हैं जान लो कि तुम्हारे चारों ओर कोई अन्धकार नहीं है हाथ हटाने पर ही तुम देखोगे कि यहाँ प्रकाश पहले से ही वर्तमान था अन्धकार कभी था ही नहीं, दुर्बलता कभी नहीं थी हम लोग मूर्ख होने के कारण ही चिल्लाते हैं कि हम दुर्बल हैं, मूर्खतावश ही चिल्लाते हैं कि हम अपवित्र हैं ––––
––––वेदान्त पाप स्वीकार नहीं करता, भ्रम स्वीकार करता है वेदान्त कहता है कि सबसे बड़ा भ्रम हैअपने को दुर्बल, पापी, हतभाग्य कहनायह कहना कि मुझमें कुछ भी शक्ति नहीं है, मैं यह नहीं कर सकता आदिआदि कारण, जब तुम इस प्रकार सोचने लगते हो, तभी तुम मानो बन्धन Üाृखला में एक कड़ी और जोड़ देते हो जो कोई अपने को दुर्बल समझता है, वह भ्रान्त है, वह जगत में एक असत् विचार प्रवाहित करता है –––––हमें दूसरों को घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं दुर्बलता और सबलता में भेद केवल परिमाणगत है प्रकाश और अन्धकार में भेद केवल परिमाणगत है, पाप और पुण्य के बीच भी भेद केवल परिमाणगत है, एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवल परिमाणगत ही है, प्रकारगत नहीं, क्योंकि वास्तव में सभी वस्तुएँ वही एक अखण्ड वस्तुमात्र हैं सब वही एक हैं, जो अपने को विचार, जीवन, आत्मा या देह के रूप में अभिव्यक्त करता है और उनमें अन्तर केवल परिमाण का है
            अत: जो किसी कारणवश हमारे समान उन्नति नहीं कर पाये, उनके प्रति घृणा करने का अधिकार नहीं है किसी की निन्दा मत करो किसी की सहायता कर सकते हो तो करो, नहीं कर सकते हो तो हाथ पर हाथ रखकर चुपचाप बैठे
रहो उन्हें आशीर्वाद दो, अपने रास्ते जाने दो गाली देने अथवा निन्दा करने से कोई उन्नति नहीं होती इस प्रकार से कभी कोई कार्य नहीं होता दूसरे की निन्दा करने में हम अपनी शक्ति लगाते हैं आलोचना और निन्दा अपनी शक्ति वृथा खर्च करने का उपाय मात्र है ––––
            आत्मविश्वासआत्मविश्वास का आदर्श ही हमारी सबसे अधिक सहायता कर सकता है यदि इस आत्मविश्वास का और भी विस्तृत रूप से प्रचार होता और यह कार्यरूप में परिणत हो जाता, तो मेरा दृढ़ विश्वास है कि जगत में जितना दु: और अशुभ है, उसका अधिकांश गायब हो जाता मानव जाति के समग्र इतिहास में सभी महान स्त्री पुरुषों में यदि कोई महान प्रेरणा सबसे अधिक सशक्त रही है तो वह है आत्मविश्वास वे इस ज्ञान के साथ पैदा हुए थे कि वे महान बनेंगे और वे महान बने भी मनुष्य कितनी भी अवनति की अवस्था में क्यों पहुँच जाए, एक समय ऐसा अवश्य आता है, जब वह उससे बेहद आर्त होकर एक ऊर्ध्वगामी मोड़ लेता है, और अपने में विश्वास करना सीखता है किन्तु हम लोगों को इसे शुरू से ही जान लेना अच्छा है हम आत्मविश्वास सीखने के लिए इतने कटु अनुभव क्यों प्राप्त करें ?
            मनुष्य मनुष्य के बीच जो भेद है वह केवल आत्मविश्वास की उपस्थिति तथा अभाव के कारण ही है, यह सरलता से ही समझ में सकता है इस आत्मविश्वास के द्वारा सब कुछ हो सकता है मैंने अपने जीवन में ही इसका अनुभव किया है, अब भी कर रहा हूँ जैसेजैसे आयु बढ़ती जा रही है, उतना ही यह विश्वास दृढ़तर होता जा रहा है जिसमें आत्मविश्वास नहीं है, वही नास्तिक है ––––विश्वास का अर्थ हैसबके प्रति विश्वास, क्योंकि तुम सभी एक हो अपने प्रति प्रेम का अर्थ है सब प्राणियों से प्रेम, समस्त पशुपक्षियों से प्रेम, सब वस्तुओं से प्रेमक्योंकि तुम सब एक हो यही महान विश्वास जगत को अधिक अच्छा बना सकेगा यही मेरा विश्वास है वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है, जो सच्चाई के साथ कह सकता है, ‘मैं अपने सम्बन्ध में सब कुछ जानता हूँ क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी इस देह के भीतर कितनी ऊर्जा, कितनी शक्तियाँ, कितने प्रकार के बल अब भी छिपे पड़े हैं ?
            अपने को जानोमनुष्य में जो है, उस सबका ज्ञान कौन सा वैज्ञानिक प्राप्त कर सकता है ? लाखों वर्षों से मनुष्य पृथ्वी पर है, किन्तु अभी तक उसकी शक्ति का पारमाणविक अंश मात्र ही प्रकाशित हुआ है अतएव तुम कैसे अपने को जबर्दस्ती दुर्बल कहते हो ? ऊपर से दिखने वाली इस पतितावस्था के पीछे क्या सम्भावना है, क्या तुम यह जानते हो ? तुम्हारे अन्दर जो है, उसका थोड़ासा तुम जानते हो तुम्हारे पीछे है शक्ति और आनन्द का सागर
––––‘आत्मा वा अरे श्रोतव्य:’—अस आत्मा के बारे में सुनना चाहिए दिन रात श्रवण करो कि तुम्हीं वह आत्मा हो दिनरात यही भाव अपने में और तुम्हारी नसनस में समा जाए सम्पूर्ण शरीर को इसी एक आदर्श के भाव से पूर्ण कर दो—‘मैं अजर, अविनाशी, आनन्दमय, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, नित्य ज्योर्तिमय आत्मा हूँ’—दिनरात यही चिन्तन करते रहो, जब तक कि यह भाव तुम्हारे जीवन का अविच्छेद्य अंग नहीं बन जाता ––––अपने से किसी दूसरे से कभी यह कहो कि तुम दुर्बल हो ––––तुम अपने को पापी समझते हो यह  तुम्हें शोभा नहीं देता तुम अपने को दुर्बल समझते हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है ––––
प्रेम सत्य है, घृणा असत्य है
            प्रेम सत्य है घृणा असत्य है क्योंकि वह अनेकत्व को जन्म देती है घृणा ही मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती हैअतएव वह गलत और मिथ्या हैय यह एक विघटक शक्ति हैय वह पृथक करती है, नाश करती है प्रेम जोड़ता है, प्रेम एकत्व स्थापित करता है ––––क्या विश्व के इतिहास में तुम्हें पैगम्बरों की शक्ति के स्त्रोत का पता नहीं चला ? क्या वह बुद्धि में था ? उनमें से क्या कोई दर्शन सम्बन्धी सुन्दर पुस्तक लिखकर छोड़ गया है ? किसी ने ऐसा नहीं किया वे केवल कुछ थोड़ी सी बातें कह गए हैं ईसा की भाँति भावना करो, तुम भी ईसा हो जाओगेय बुद्ध के समान भावना करो, तुम भी बुद्ध बन जाओगे
भावना ही बल हैभावना ही जीवन है, भावना ही बल है, भावना ही तेज हैभावना के बिना कितनी ही बुद्धि क्यों लगाओ, ईश्वरप्राप्ति नहीं होगी बुद्धि चलनशक्ति शून्य अंगप्रत्यंग के समान है जब भावना उसे अनुप्राणित करके गतियुक्त करती है, तभी वह दूसरे का हृदय स्पर्श करती है ––––हम लोगों में से प्रत्येक को पैगम्बर बनना पड़ेगाऔर तुम स्वरूपत: वही हो बस केवल यह जान लो यह कभी सोचना कि आत्मा के लिए कुछ असम्भव है ऐसा सोचना ही भयानक नास्तिकता है यदि पाप नामक कोई वस्तु है तो वह है यह कहना है कि मैं दुर्बल हूँ अथवा अन्य कोई दुर्र्बल है
            पवित्रात्मा पुरुषों की आँखों में जो एक विशेष प्रकार की ज्योति का आविर्भाव होता है, वह वास्तव में अन्त:स्थ सर्वव्यापी आत्मा की ही ज्योति है वह ज्योति ही ग्रहों, सूर्य, चन्द्र और तारों में प्रकाशित हो रही है
––––मनुष्य देह में स्थित मानव आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है पशु भी भगवान के मन्दिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मंदिर हैताजमहल जैसा यदि मैं उसकी उपासना नहीं कर सका, तो अन्य किसी भी मंदिर से कुछ भी उपकार नहीं होगा जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य देहरूपी मंदिर में उपविष्ट ईश्वर की उपलब्धि कर सकूँगा, जिस क्षण मैं प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख भक्ति भाव से खड़ा हो सकूँगा और वास्तव में उनमें ईश्वर देख सकूँगा, जिस क्षण मेरे अन्दर यह भाव जाएगा, उसी क्षण मैं सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाऊँगाबाँधने वाले पदार्थ हट जाएँगे और मैं मुक्त हो जाऊँगा ––––हम केवल आशाएँ किये चले जा रहे हैं, उनका अन्त नहीं––––वेदान्त कहता है, इसी आशा का त्याग
 करो क्यों आशा करते हो ? तुम्हारे पास सब कुछ है तुम्हीं सब कुछ हो तुम आत्मा हो, तुम सम्राट स्वरूप हो, तुम भला किसकी आशा करते हो ? यदि राजा पागल होकर अपने देश मेंराजा कहाँ है ?’ ––––‘राजा कहाँ है ?’ खोजता फिरे तो वह कभी राजा को नहीं पा सकता, क्योंकि वह स्वयं ही राजा है वह अपने राज्य के प्रत्येक ग्राम में, प्रत्येक नगर में, यहाँ तक कि प्रत्येक घर में खोज करे, खूब रोएचिल्लाए, फिर भी राजा का पता नहीं लग सकताय क्योंकि वह व्यक्ति स्वयं ही राजा है इसी प्रकार हम लोग यदि जान सकें कि हम ईश्वर हैं और इस अन्वेषणरूपी व्यर्थ चेष्टा को छोड़ सकें, तो बहुत ही अच्छा हो इस प्रकार अपने को ईश्वरस्वरूप जान लेने पर ही हम सन्तुष्ट और सुखी हो सकते हैं यह सब पागलों जैसी चेष्टा छोड़ कर जगत् रूपी मंच पर एक अभिनेता के समान कार्य करते चलो
            इसी प्रकार की अवस्था आने से हम लोगों की सम्पूर्ण दृष्टि परिवर्तित हो जाती है अनन्त: कारागार स्वरूप होकर यह जगत खेलने का स्थान बन जाता है प्रतियोगिता की जगह बनकर यह भौंरों के गुंजन से परिपूर्ण बसन्तकाल का रूप धारण कर लेता है पहले जो जगत् नरककुण्ड जैसा लगता था, वही अब स्वर्ग बन जाता है ––––तुम्हीं लोग अपने एक अंश को बाहर प्रक्षिप्त करते हो, किन्तु वास्तव में तुम्हीं असली वस्तु होतुम्हीं प्रकृत उपास्य देवता हो यही वेदान्त का मत है और यही यथार्थ में व्यावहारिक है–––
––––क्या तुम लोगों को बाइबिल का वह कथन याद नहीं है, ‘यदि तुम अपने भाई को, जिसे तुम देख रहे हो, प्यार नहीं कर सकते, तो ईश्वर को, जिसे तुमने कभी नहीं देखा, भला कैसे प्यार कर सकोगे
हममें अनन्त शक्ति है
            ससीम व्यक्ति मनुष्य अपना उत्पत्ति स्थल भूल जाता है, और अपने को नितान्त पृथक समझने लगता है व्यष्टीकृत और विभेदीकृत सत्ताओं के रूप में हम अपना स्वरूप भूल जाते हैं अत: अद्वैतवाद हमें विभेदीकरण को त्याग देने की शिक्षा नहीं देता, वरन् उसके रूप को समझ लेने को कहता है हम वस्तुत: वही अनन्त पुरुष हैं, हमारे व्यक्तित्व जल की उन धाराओं के सदृश हैं, जिनमें वह अनन्त सत्ता अपने को अभिव्यक्त कर रही है ––––हममें अनन्त सत्ता, अनन्त शक्ति, अनन्त आनन्द विद्यमान है हम लोगों को उन्हें उपार्जित नहीं करना है, वे सब हममें हैं, हमें तो उन्हें केवल प्रकाशित मात्र करना है ––––मनुष्य की आत्मा के भीतर अनन्त शक्ति भरी पड़ी है, मनुष्य को उसका ज्ञान हो या हो उसे केवल जानने की ही अपेक्षा है धीरेधीरे मानो वह अनन्त शक्तिमान दैत्य जागृत होकर अपनी शक्ति का ज्ञान प्राप्त कर रहा है और जैसेजैसे वह सचेतन होता जाता है, वैसेवैसे एक के बाद एक उसके बंधन हटते जाते हैं,  श्रृंखलाएँ छिन्नभिन्न होती जाती हैं
सहायता सदा अन्दर से मिलती है
            यदि देश में केवल दो सौ नरनारी देश के सच्चे हितैषी हों, तो पाँच दिन में सतयुग सकता है
            वेदान्त कहता है, दूसरे की सहायता से हमारा कुछ नहीं हो सकता हम रेशम के कीड़े के समान हैं अपने ही शरीर से अपने आप जाल बना कर उसी में आबद्ध हो गये हैं किन्तु यह बद्धभाव चिरकाल के लिए नहीं है हम लोग उससे तितली के समान बाहर निकल कर मुक्त हो जाएँगे हम लोग अपने चारों ओर इस मर्मजाल को लगा देते हैं और अज्ञानवश सोचने लगते हैं कि हम बद्ध हैं और सहायता के लिए रोतेचिल्लाते हैं, किन्तु बाहर से कोई सहायता नहीं मिलती, सहायता मिलती है भीतर से
            दुनिया के सारे के सारे देवताओं के पास तुम रो सकते हो, मैं भी बहुत वर्ष इसी तरह रोता रहा, अन्त में देखा कि मुझे सहायता मिल रही है, किन्तु यह सहायता भीतर से मिली भ्रान्तिवश इतने दिनों तक जो अनेक प्रकार के काम करता रहा, उस भ्रान्ति को मुझे दूर करना पड़ा यही एकमात्र उपाय है मैंने स्वयं अपने को जिस जाल में फँसा रखा है, वह मुझे ही काटना पड़ेगा और उसे काटने की शक्ति भी मुझमें ही है
अँधेरा मत भगाओ, प्रकाश करो
            जिन्हें हम भूलें या अशुभ कहते हैं, वह हम दुर्बल होने के कारण करते हैं, और हम दुर्बल हैं अज्ञानी होने के कारण मैं पाप शब्द के बजाय भूल शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझता हूँ पाप शब्द यद्यपि मूलत: बड़ा अच्छा शब्द था, किन्तु अब उसमें जो व्यंजना गई है, उससे मुझे भय लगता है हमें किसने अज्ञानी बनाया ? स्वयं हमने हम लोग स्वयं अपनी आँखों पर हाथ रखकरअँधेरा, अँधेरा चिल्लाते हैं हाथ हटा लो और प्रकाश हो जाएगा क्योंकि मानव की प्रकाश स्वरूप आत्मा का प्रकाश सदा विद्यमान है –––
हम पापी नहीं हैं
            अतएव यदि मैं तुम्हें यह उपदेश दूँ कि तुम्हारी प्रकृति अशुभ है, और यह कहूँ कि तुमने कुछ भूलें की हैं, इसलिए अब तुम अपना जीवन केवल पश्चाताप करने तथा रोनेधोने में ही बिताओ, तो इससे तुम्हारा कुछ भी उपकार होगा, वरन् उससे तुम और भी दुर्बल हो जाओगे ऐसा करना तुम्हें सत्पथ के बजाय असत्पथ दिखाना होगा
            यदि हजारों साल तक इस कमरे में अँधेरा है कह कहकर रोते रहो, तो क्या अँधेरा चला जाएगा ? कभी नहीं! एक दियासलाई जलाते ही कमरा प्रकाशित हो उठेगा अतएव जीवन भर मैंने बहुत दोष किये हैं, मैंने बहुत अन्याय किया हैय यह सोचने से क्या तुम्हारा कुछ भी भला हो सकेगा ? हममें बहुत से दोष हैं, यह किसी को बतलाना नहीं पड़ता ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करो, एक क्षण में सब अशुभ चला जाएगा

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