Thursday, November 29, 2018

आत्मबोध


तेरा प्रकाश सर्वत्र होने पर भी–––
मैं बार–बार क्यों विचलित हो जाती हूँ ?
जब तूने इतना दिया तो अब, मैं अलग कैसे ?
सर्वत्र प्रकाश, शान्ति व आनन्द है, फिर दु:ख, चिन्ता क्यों ?
जो तू दे रहा है, कर रहा है, वह उचित ही है ।
फिर मैं क्यों अहंरूप में सोंचती हूँ ?
आत्म ही नित्य है, आत्म में ही क्यों न स्थित हो ।
आत्मदोष असम्भव है, अहंदोष हो सकता है ।
फिर–––––
अहं को विलग कर मैं––––
बार–बार विनती करती हूँ
अहंभाव न आने पावे,
कर्म समर्पित होवें तुझमें । ।


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