अकेलेपन की व्यथा ने खोजा, साथी का साथ ।
व्यथित मन की खोज ने,
एकाकीपन की व्यथा को और भी बढ़ाया था ।
घर की चारदीवारी में बंद, रात्रि की नीरवता ने–
मनुज के साथ की आकांक्षा को, और भी बढ़ाया था ।
पड़ोसियों के व्यंग्यबाणों ने, समाज की रीतिरिवाजों ने–––
दूसरे के साथ की इच्छा को, और भी बढ़ाया था ।
काम से लौट कर ढोते हुए, सब्जी के थैले ने–––
जीवन साथी की खोज को, और भी बढ़ाया था ।
किन्तु–––––
अन्तर की शान्ति ने मुझे चेताया–––
अकेलेपन की व्यथा को दूर भगाया–––
और कहा–
आत्म को पहचान कर यदि, पा सके अब शान्ति मन तो,
ज्ञान की गति क्या, स्वयं ही ज्ञान मय हो मन–सरोवर ।
प्राणगति, प्राण कराण, जीवनी है शक्ति अनुपम ।
वात्सल्ययुक्ता प्रेममय वह, स्नेहशीला है अव्यक्ता ।
व्यथितमन की वेदना को, है वही अवलम्ब देती ।
है सदा सहयोगिनी वह, मातृवत् औषधि लगाती ।
मनुज का तो साथ दुर्लभ, चेतना सबको सुलभ है ।
मनुज का जीवन क्षणिक है, एक केवल नित्य वह है ।
नाश हो यदि स्वयंवपु का, चेतना फिर भी सदा है । ।
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