Friday, November 23, 2018

चिन्ताएँ, महत्त्वाकांक्षाएँ एवं समय–प्रबन्धन

अभिभावकों की बच्चों के प्रति चिन्ताएँ एवं महत्त्वाकांक्षाएँ
अभिभावकों की अपने बच्चों के प्रति विभिन्न प्रकार की चिन्ताएँ व महत्त्वाकांक्षाएँ हो सकती हैं, जिसका प्रत्यक्ष–अप्रत्यक्ष प्रभाव बच्चे पर पड़ता
है ।
आज के महँगाई के युग में बच्चों के पालन–पोषण व पढ़ाई में खर्च भी कठिन है । यदि धन की समस्या न भी हो तब भी सरकारी विद्यालयों की शिक्षा सस्ती, मनोवैज्ञानिक व अच्छी है, किताबें भी सस्ती व उत्तम कोटि की होती हैं । इसलिए विद्यालय–स्तर पर तो हम बच्चों को सरकारी विद्यालयों में पढ़ा ही सकते हैं । इसके बाद भी डिग्री स्तर पर व रोजगारपरक पाठ्यक्रम Professional Coursesजैसे—इंजीनियरिंग, मेडिकल आदि में भी सरकारी महाविद्यालयों में अपेक्षाकृत कम खर्च है, हालांकि अब डिग्री स्तर (बी.ए., बी.काम., बी.एस.सी. आदि) में भी सरकारी संस्थानों में एडमीशन के लिए उच्च मेरिट होना आवश्यक होता है । ऐसी स्थिति में भी कई विकल्प हो सकते हैं—बच्चे की रुचि, योग्यता व क्षमता के अनुसार उसे आई.टी.आई., टाइप–शार्टहैण्ड कोर्सेज या अन्य कोर्सेज करवाएँ ।
मैं अपनी बेटी के कक्षा दस पास करने के बाद लखनऊ स्थित राजकीय काउंसलिंग सेन्टर में उसको लेकर गई । (उस समय मैं लखनऊ में रहती थी) मुझे अति प्रसन्नता हुई कि मेरा एक रुपया भी खर्च नहीं हुआ । अतियोग्य दक्षता प्राप्त काउंसलर डॉ. डी.के. वर्मा जी ने लगातार तीन दिन मेरी बेटी की काउंसलिंग की । इसी के साथ संस्थान के पुस्तकालय में कॅरियर से सम्बन्धित अनेक पुस्तकों को देखने व समझने का अवसर प्राप्त हुआ । संस्थान की ही एक पुस्तक जो कक्षा बारह के बाद (After 10 + 2)  विभिन्न कॅरियर से संबंधित थी, हमें पढ़ने के लिए दी ।
बच्चों की सस्ती शिक्षा के अभी भी बहुत से अच्छे विकल्प हैं । आवश्यक नहीं है कि बच्चों को वही कोर्स करवाए जाएँ जो सब कर रहे हों ।
मुझे याद है कि जब मैंने कक्षा दस पास की, तब मेरे साथ ही एक लड़की पढ़ती थी, वह थर्ड डिवीजन पास हुई । उसके बाद उसने इण्टरमीडिएट करने के साथ–साथ टाइप–शार्टहैण्ड सीखना शुरू कर दिया । उसकी पूरी लगन व अभिभावकों के सहयोग का परिणाम हुआ कि इण्टरमीडिएट करने के बाद उसका चयन सचिवालय में क्लर्क के पद पर हो गया । हालांकि उस समय कम्पटीशन इतना कठिन नहीं था, फिर भी अपेक्षाकृत उस समय संसाधन व अवसर भी कम थे । अत: यदि बच्चे की क्षमताओं को पहचानकर उन्हें सही दिशा में प्रवृत्त किया जाए तो आज भी बच्चों के लिए बहुत से अवसर मिल जाते हैं ।
आज कम्पटीशन के इस युग में अभिभावक बच्चों की शिक्षा व भविष्य को लेकर बहुत चिन्तित रहते हैं । बच्चा भविष्य में क्या करेगा, इसकी चिन्ता माता–पिता को परेशान किए रहती है । यह चिन्ता एक ओर तो सहज स्वाभाविक है, दूसरी ओर भविष्य की अतिचिन्ता वर्तमान को भी प्रभावित करती है । अब प्रश्न है कि क्या अभिभावकों की बच्चों के भविष्य की चिन्ता करना ठीक नहीं है । उत्तर है – बच्चों के भविष्य की चिन्ता अभिभावक नहीं करेंगे तो कौन करेगा, चिन्ता हो लेकिन अतिचिन्ता न हो । बच्चों के प्रति यही अतिचिन्ता बच्चों का भविष्य बना नहीं रही अपितु भविष्य बिगाड़ रही है ।
बच्चों के भविष्य की अतिचिन्ता का परिणाम यह होता है कि बहुत छोटी आयु से ही हम बच्चों पर पढ़ाई का बोझ डालने लगते हैं, उन्हें अधिक से अधिक पढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं, जिसका परिणाम यह होता है कि बच्चे की सहज, स्वाभाविक समझने की क्षमता कम हो जाती है और बड़ा होने पर भी वह तथ्यों को केवल रट लेता है, समझ नहीं पाता है, जो बच्चे के भविष्य के लिए, उसके सीखने के लिए हानिकारक है ।
बच्चे के अधिगम (सीखने) का जब उसके द्वारा प्राप्त अंकों से आंकलन किया जाता है तब वह हानिकारक होता है । यद्यपि यह सत्य है कि यदि बच्चे की अपने विषय पर अच्छी पकड़ है, तब उसके अच्छे अंक आएँगे ही । इसी का दूसरा पक्ष यह भी है कि यदि बच्चे की विषय पर अच्छी पकड़ नहीं है तब भी उसके अच्छे अंक आ सकते हैं । कैसे ? ––––– बच्चे की विषय पर अच्छी समझ न होने पर भी या तो वह तथ्यांे को केवल रट लेता है या परीक्षा के अनुसार ही शार्टकट तैयार करता है । इस प्रकार उसके परीक्षा में अच्छे अंक तो आ सकते हैं किन्तु विषय की समझ ठीक प्रकार से नहीं होगी जो उसके भविष्य के लिए अहितकर है ।
इस प्रकार की अंकों की मानसिकता (Marks Mentality) बच्चों के लिए बहुत अहितकर है । उद्देश्य होना चाहिए कि बच्चों को पाठ की समझ, विषय की समझ ठीक प्रकार से हो सके । अभिभावकों की महत्त्वाकांक्षा भी इस परिप्रेक्ष्य में प्रभावी भूमिका अदा करती है । जब अभिभावक दूसरे अभिभावकों से मिलते हैं, तब प्राय: आपस में अपने बच्चों के बारे में चर्चा करते रहते हैं । कुछ लोगों के बच्चे तथाकथित अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं या कुछ अभिभावकों के बच्चे परीक्षा में अच्छे अंक लाते हैं । अब बच्चों में तो प्रतिस्पर्धा भले ही न हो किन्तु कुछ अभिभावकों में बच्चों को लेकर जबरदस्त प्रतिस्पर्द्धा की भावना रहती है । जब अभिभावकगण आपस में बातें करते हैं व जिन बच्चों के अच्छे अंक व ग्रेड नहीं आते हैं, वह अपना अपमान महसूस करते हैं व बच्चों पर अपनी झुंझलाहट उतारते हैं व बच्चों को अधिकाधिक अंक लाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं ।
स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा (Healthy Competition) की भावना जहाँ एक ओर अच्छी है, वहीं अस्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा (Unhealthy Competition) बच्चे के अधिगम (Learning) पर ही नहीं, उसकी मानसिकता पर भी कुप्रभाव डालती है ।
सभी अभिभावक चाहते हैं कि बच्चा हर क्रियाकलाप में आगे रहे, उच्चाधिकारी बने, उसकी समाज में प्रतिष्ठा हो । किसी–किसी अभिभावक की यही भावना जब बच्चों पर अतिदबाव डालती है, तब बच्चों के लिए हानिकारक होती है । बच्चे भयभीत रहने लगते हैं, परीक्षाएँ आते ही उनके मन में डर बैठ जाता है कि कहीं परिणाम आशानुरूप न हुआ तब क्या होगा । अत: बच्चों को सहज रूप से बढ़ने दें ।
बच्चों की चिन्ताएँ व महत्त्वाकांक्षाएँ
चिन्तन मस्तिष्क की खुराक होता है तो चिन्ता मस्तिष्क के लिए दाहकारक । बच्चा चिन्तक बने, चिन्तनशील बने, सुविचारक हो अच्छी बात है । जहाँ चिन्तन उसके मस्तिष्क की क्षमता को प्रज्ज्वलित करता है, वहीं चिन्ता की एक छोटी सी चिंगारी बच्चे के व्यक्तित्व को छिन्न–भिन्न करने के लिए काफी है ।
पढ़ाई के प्रति जागरूकता या महत्त्वाकांक्षा होना अच्छी है किन्तु अति नहीं होनी चाहिए । परीक्षाएँ ज्यों–ज्यों नजदीक आती जाती हैं, बच्चे को आभास होता है कि अब क्या होगा ? यदि उसकी आशा के अनुरूप परिणाम नहीं मिला, तब क्या होगा ? वह पहले ही इतना भयभीत हो जाता है कि जो तैयारी वह कर सकता है, वह भी नहीं हो पाती है । अत: परीक्षा को भी सामान्य रूप में लेना चाहिए । यदि शरीर, मन व मस्तिष्क स्वस्थ रहेगा तब जीवन में सुनियोजन के बहुत से अवसर मिलेंगे ।
समय–प्रबन्धन
अभिभावकों का समय प्रबन्धन—आज के दौर में जब कई माताएँ नौकरीपेशा हैं या एकाकी परिवार हैं, तब उनके पास बच्चों के लिए प्राय: समय की कमी रहती है । नौकरीपेशा माताएँ घर–बाहर की चक्की में पिसती रहती हैं, प्रश्न है वह बच्चों के लिए समय कहाँ से निकालें । घरेलू महिलाओं के पास भी घर–बाहर के काम रहते हैं, यद्यपि उनके पास समय अधिक है, फिर भी समय–प्रबन्धन ठीक से नहीं हो पाता है ।
आवश्यकता इस बात की है कि उपलब्ध समय का ही प्रबन्धन इस प्रकार किया जाए कि बच्चों को गुणवत्तापूर्ण समय (Quality time) मिल
सके । चाहे वह पिता हों, कार्यशील माता हों या घरेलू माता अथवा अन्य अभिभावक । यह आवश्यक नहीं है कि हम सारे दिन बच्चों को अपने से चिपकाए ही रहें, वरन् – जो भी समय उनके साथ बिताएँ, वह गुणवत्तापूर्ण हो, अर्थात् उस समय बच्चे पर पूरा ध्यान (Attention) दें । उस समय बच्चे को लगे कि वह अपनी हर–छोटी बड़ी बात अपने माता–पिता व अभिभावक से कह सकता है व उसे उसकी प्रतिक्रिया मिलेगी । उसे लगे कि उसके अभिभावक उसकी बातों में रुचि लेते हैं व उसकी हर समस्या के समाधान के लिए जागरूक रहते हैं ।
जैसे—शाम के समय कुछ ऐसा समय हो, जो सिर्फ बच्चे के लिए हो, उस समय अन्य कोई कार्य न करें । जिस तरह सब कार्य आवश्यक हैं, उसी प्रकार बच्चे को समय देना भी अन्य कार्यों से अधिक आवश्यक है । अवकाश के दिनों को यथासम्भव बच्चों के साथ ही बितायें । उनकी घर–बाहर की समस्याओं को समझें । पढ़ाई में आने वाली कठिनाइयों को समझें । इस हेतु कई कारक हैं जो अभिभावकों के घर में रहते हुए भी बच्चों के लिए हानिकारक हो सकते हैं, जैसे—
दिन भर टेलीविजन चलते रहना—कई घरों में दिन–भर टी–वी– चलता रहता है । चाहे कोई आवश्यक कार्यक्रम आ रहा हो या नहीं । बराबर टी.वी. चलते रहने का बच्चों पर तो बुरा प्रभाव पड़ता ही है, अभिभावकों की आँखों व स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है । एक ओर तो बच्चे भी दिन भर टी–वी– देखने के अभ्यस्त हो जाते हैं, दूसरी ओर अलग कमरे में पढ़ते समय भी उनके ध्यान की एकाग्रता नहीं हो पाती है । घर के पूरे माहौल का प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष प्रभाव बच्चे पर अवश्य ही पड़ता है । घर का वातावरण अच्छा होना चाहिए, अगर घर के बड़े लोग अखबार, पत्रिकाएँ व अन्य पुस्तकें पढ़ते हैं, तब बच्चा भी तदनुरूप ही अध्ययन के लिए प्रेरित होता है ।
राष्ट्रीय समाचार सुनने के लिए टी–वी– अच्छा है । राष्ट्रीय समाचारों से पूरे दिन की सही खबर टी.वी. (दृश्य–श्रव्य साधन) द्वारा हमें अल्प समय में मिल जाती है । अच्छा तो है कि पूरा परिवार एक साथ बैठकर राष्ट्रीय समाचार सुने । इससे एक ओर तो बच्चों की जानकारी बढ़ेगी, दूसरी ओर कुछ स्पष्ट न होने पर बच्चे पूछ सकते हैं या बड़े लोग स्वयं ही बता सकते हैं । राजनीति, खेल या अन्य किसी मुद्दे पर आपस में चर्चा भी हो सकती है ।
मेहमानों की खातिर—हमारे देश की परम्परा रही है कि अतिथियों का स्वागत किया जाए । अच्छी बात है किन्तु इसका प्रभाव बच्चों पर नहीं पड़ना चाहिए । चाहे कितना भी छोटा घर क्यों न हो, एक अलग स्थान ऐसा अवश्य ही होना चाहिए, जहाँ पर बच्चा बैठकर पढ़ सके । वहाँ उसे कोई डिस्टर्ब न करे ।
मेहमान दो तरीके के हो सकते हैं—एक जो घर पर आकर कुछ दिन रहते हैं, दूसरे कुछ देर के लिए आते हैं । बच्चों में सामाजिकता की भावना भी आवश्यक
है । अत: बच्चे किसी के आने पर उनका अभिवादन अवश्य करें, यदि उनके पास समय हो तो थोड़ा–बहुत वार्तालाप भी करें, लेकिन पूरा समय उनकी खातिर में या बातों में ही न लगे रहें । यदि बच्चा बैठा हुआ पढ़ रहा है, तब अत्यावश्यक कार्य होने पर ही उसे उठायें, अन्यथा उसे पढ़ने दें ।
बच्चों को घरेलू कामों में में लगाये रखना—बच्चों को घरेलू काम अवश्य ही सिखाने चाहिए, किन्तु वह सीखना उनके लिए आनन्दप्रद होना चाहिए । बच्चों को प्रेरित करना चाहिए कि जब समय हो तब वह घर का कार्य सीखें । जैसे – छुट्टी वाले दिन आधा घंटा घर का कोई कार्य – जैसे झाड़ू लगाना, कपड़े धोना, सब्जी काटना, भोजन बनाना आदि सीखें । यह अच्छी बात है किन्तु रोज बच्चे घर के काम में लगे रहें तो उनकी पढ़ाई बाधित होती है ।
यदि माँ की तबियत खराब हो जाए या अन्य कोई आवश्यक कार्य पड़ जाए, तब बच्चों को घर के कार्य में अवश्य मदद करनी चाहिए । तात्पर्य है कि बच्चे को घर का काम सिखाने की भावना बड़ों में होनी चाहिए, उन पर बोझ डालने की
नहीं । बच्चों से नियमित रूप से घर के कार्य तब तक नहीं करवाना चाहिए, जब तक अपरिहार्य स्थिति न हो । दूसरी ओर बच्चों में भी यह भावना होनी चाहिए कि वह आवश्यकता पड़ने पर अवश्य मदद करें ।
पढ़ते समय बीच–बीच में बच्चों से बोलते जाना—कुछ अभिभावकों की आदत होती है कि जब बच्चा पढ़ रहा हो, उस समय भी जो बात याद आएगी, बच्चों से बोलते जाएँगे या किसी छोटे से काम के लिए जो वह खुद भी कर सकते हैं, बच्चों को उठाएँगे । जैसे – पंखा चला दो, दरवाजा बन्द कर आओ, एक गिलास पानी दे दो आदि–आदि ।
यद्यपि इस तरह के कार्यों में बच्चे का अधिक समय नहीं लगता है, किन्तु पढ़ने की गति बाधित होती है । साथ ही एकाग्रता में बाधा होती है तथा बच्चा पूरे मन व लगन से पढ़ नहीं पाता है ।
इस प्रकार सुनियोजित समय प्रबन्धन से कम समय में ही बच्चों को एक ओर तो गुणवत्तापूर्ण समय दे सकेंगे, दूसरी ओर छोटी–छोटी बातों को ध्यान में रखकर बच्चों का बहुत सा समय बरबाद होने से बचा सकते हैं, व उनके व अपने समय का उचित उपयोग कर सकते हैं ।
विद्यार्थियों का समय प्रबन्धन
पढ़ने का समय निश्चित हो – पढ़ने का कुछ ऐसा समय निश्चित करें, जब पढ़ना ही पढ़ना है, चाहे विद्यालय खुला हो अथवा न खुला हो, कहीं आना–जाना हो, घर में त्योहार हो या शादी हो ।
सबसे अच्छा समय हो सकता है प्रात: का, प्रात:काल 4 बजे से विद्यालय जाने के समय तक (दैनिक कृत्य का समय छोड़कर) । मान लो विद्यालय नौ बजे पहुँचना है, घर से साढ़े आठ बजे निकलना है । अत: प्रात: चार बजे से साढ़े आठ बजे तक पढ़ सकते हैं, बीच में अपनी सुविधानुसार दैनिक कृत्य व नाश्ता कर सकते हैं । इस प्रकार लगभग चार घण्टे की पढ़ाई निर्विघ्न हो जाएगी ।
विद्यालय में अवकाश का दिन हो, कहीं आना–जाना हो या घर में भी कोई आने वाला हो, सुबह के समय निर्विघ्न पढ़ाई हो सकती है । चाहे त्योहार हो या घर में या घर के आसपास शादी–ब्याह भी हो तो सुबह शान्ति रहती है । अत: इस निश्चित समय की पढ़ाई का लाभ हम उठा सकते हैं । कहीं जाना हो या घर में कोई आनेवाला हो तो भी दिन में या शाम को ही आना–जाना होता है, सुबह–सुबह नहीं ।
सुबह का यह समय तो प्रतिदिन के लिए निश्चित है ही, शाम का या दिन का समय भी अपनी सुविधानुसार निश्चित कर सकते हैं । इसके अतिरिक्त अवकाश के दिनों में अतिरिक्त समय मिलने पर जो भी पढ़ लें, वह तो अच्छा है ही किन्तु जो समय प्रतिदिन के लिए निर्धारित है उसमें तो पढ़ना ही है । सुबह जल्दी उठने के लिए आवश्यक है कि रात को जल्दी सो जाएँ ।
आज का कार्य आज ही करें—आज के लिए निर्धारित कार्य आज ही करें, चाहे वह पढ़ाई का कार्य हो या अन्य कार्य । विद्यालय में पढ़ाया हुआ पाठ यदि रोज का रोज दोहरा लिया जाए तो कठिनाई के बिन्दु इंगित हो जाएँगे । उन कठिनाई के बिन्दुओं का निराकरण भी यथासमय हो जाएगा । इस प्रकार आगे के पाठ समझने में कठिनाई नहीं होगी । इसके अतिरिक्त रोज का पाठ रोज पढ़ने से पढ़ाया हुआ पाठ जल्दी समझ में आ जाएगा ।
मस्तिष्क को थकान की स्थिति में न पहुँचने दें—यदि प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे हों, तब भी जितना पाठ पढ़ने के लिए निर्धारित किया है, उतना उस ही दिन पूरा कर लें किन्तु मस्तिष्क को थकान की स्थिति में न पहुँचने दें । पहली बात तो जितनी अपनी क्षमता हो, उसी के अनुसार ही प्रतिदिन तैयार किए जाने वाले पाठ को निर्धारित करें, अधिक नहीं । जिस प्रकार वही भोजन शरीर का निर्माण करता है जो पच जाता है, उसी प्रकार वही पाठ अधिग्रहीत होता है या सीखा जाता है जो पूर्ण मनोयोग से, थकानरहित मस्तिष्क से पढ़ा जाता है ।
दूसरी बात अपरिहार्य स्थिति को छोड़कर यथासम्भव रोज के लिए निर्धारित पाठ रोज पूरा करें ।
सप्ताह में एक दिन छूटे हुए कार्यों का अतिरिक्त अध्ययन करें—विद्यार्थी चाहे विद्यालय स्तर का हो या प्रतियोगी परीक्षा का, उसे प्रतिदिन के लिए प्रदत्त कार्य या स्वयं निर्धारित किया हुआ पाठ पूरा करना चाहिए । रविवार या अन्य अवकाश के दिन के लिए कोई कार्य नहीं छोड़ना चाहिए । रविवार का या अवकाश का दिन खाली रखना चाहिए । यदि कोई पाठ समझने में कठिनाई होती है या किसी कारण वह पाठ छूट जाता है या कुछ अतिरिक्त अध्ययन करना है, वह उस दिन करें ।
इस प्रकार विद्यार्थी को शिथिल (Relax) होने का भी समय मिल जाएगा और प्रसन्नतापूर्वक उसके द्वारा सभी काम भी पूरे हो जाएँगे ।
पढ़ने व विश्राम में संतुलन हो—पढ़ने का समयबद्ध कार्यक्रम हो, दिन भर किताब लिए हुए बैठे रहना या रात भर जागकर पढ़ना, दोनों ही गलत हैं । पढ़ने और विश्राम दोनों में ही संतुलन आवश्यक है । लगातार पढ़ते रहने से सीखने की गति बाधित होती है । पढ़ाई के साथ बीच–बीच में मस्तिष्क को आराम देना भी आवश्यक है ।
दूसरी ओर आवश्यकता से अधिक आराम करने से भी पढ़ाई कम होगी । इसलिए संतुलित तरीके से पढ़ना आवश्यक है, जिससे पढ़ाई में एक प्रवाह बना रहे और सीखा हुआ या पढ़ा हुआ पाठ अन्तर में उतर जावे और सीखने का वास्तविक उद्देश्य सफल हो सके ।

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