Friday, November 23, 2018

बच्चों के मस्तिष्क की सहजता

जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है कि मस्तिष्क सहज रहे । जब बच्चे का जन्म होता है, तब उसका जीवन व मस्तिष्क सहज होता है । सहजता ही जीवन का मूलाधार है ।
यदि मकान की नींव सही पड़ जाए तो मकान का निर्माण अच्छा होता है और वह मकान आँधी–पानी में भी नहीं गिरता है ।
इसी प्रकार बच्चों का अच्छा बचपन हो, उनकी पूर्व प्राथमिक व प्राथमिक शिक्षा ठीक हो तो बच्चे बड़े होने पर पूर्ण प्रफुल्लित, सुयोग्य, सच्चरित्र व समायोजित मानसिकता वाले बनेंगे । जरा विचार करें—
आज तक आपने कोई भी छोटा बच्चा अपराधी प्रवृत्ति का नहीं देखा
होगा ।
 जो बच्चे अपराधी हो जाते हैं, वे भी थोड़ा बड़े होने पर हीअपराधी होते हैं । शिशु अर्थात् छह वर्ष तक का बच्चा अपराधी मानसिकता का नहीं होता है ।
 शिशु चिड़चिड़ा हो सकता है, तोड़–फोड़ करने वाला व जिद्दी हो सकता है किन्तु अपराधी प्रवृत्ति का नहीं हो सकता है । शिशु की इन मानसिक समस्याओं के अनेक कारण हो सकते हैं ।
 ये सभी कारण भी अर्जित Acquired होते हैं, घर–परिवार व समाज की स्थिति–परिस्थिति के कारण होते हैं ।
 बच्चे का दिमाग क्लीन स्लेट की तरह है, हम उसमें जो चाहे लिख सकते हैं, अर्थात् बच्चे के दिमाग में जैसे चाहें, वैसे संस्कार डाले जा सकते हैं ।
 इसका प्रमाण यह है कि आज तक किसी भी बच्चे को मातृभाषा सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ी । एक मंदबुद्धि बच्चा भी मातृभाषा या स्थानीय भाषा सहज ही ग्रहण कर लेता है ।
 एक लड़की जो घर में अपने बड़ों को या माता को खाना बनाते देखती है, वह सहज ही थोड़ा प्रयास करने पर खाना बनाना सीख जाती है । उसे किसी कूकरी क्लास की आवश्यकता नहीं पड़ती है ।
 हिन्दू का बच्चा हिन्दू संस्कारों वाला होता है, वह उन्हीं बातों को सही समझता है, जो उसे सिखाई जाती हैं । वह वेद, पुराण, गीता, रामायण, यज्ञ, मन्दिर आदि में विश्वास रखने वाला होता है ।
 इसी प्रकार ईसाई के बच्चे की ईसाई धर्म के रीति–रिवाजों में रुचि भी होती है व विश्वास भी ।
 मुसलमान की सन्तान कुरान, शरीयत व मस्जिद में विश्वास रखती है । पक्का मुसलमान पाँच वक्त नमाज अदा करना अपना कर्तव्य समझता है ।
अब जरा खुले दिमाग से विश्लेषण करें तो कुदरत का सत्य तो केवल एक ही होगा । हर धर्म के धर्मग्रन्थों में अलग–अलग बातें लिखी हैं । उस धर्म–विशेष का समर्थक केवल उसी बात को सत्य मानता है, जो उसके धर्म की पुस्तकों में लिखी हैं । हिन्दू कहते हैं वेद परमात्मा की वाणी है, मुसलमान कहते हैं कि कुरान ऊपर से आई है या अल्लाह की आवाज है । इसी प्रकार ईसाई बाइबिल को ईश्वरकृत कहते हैं ।
इन सब चीजों के मूल में कहा जा सकता है कि बचपन से हम जिस वातावरण में रहते हैं या हमें जो कुछ सिखाया जाता है, हम तदनुकूल ही आचरण करने लगते हैं । हमारे घर–परिवार, पास–पड़ोस के संस्कारों के साथ ही हमारी शिक्षा–दीक्षा जैसी होती है, वैसी ही हमारी सोच होती है । वैसी ही हमारी मानसिकता बनती जाती है ।
महान विचारक जे. कृष्णमूर्ति के अनुसार—
‘अज्ञानी वह व्यक्ति नहीं है जो विद्वान नहीं है, अज्ञानी वह है जो स्वयं अपने को नहीं जानता और ऐसा विद्वान मूढ़ है, जो समझ अथवा बोध के लिए किताबों पर, जानकारियों पर और प्रमाण पर निर्भर रहता है । बोध केवल आत्मज्ञान से आता है और आत्मज्ञान आता है अपनी समस्त मानसिक प्रक्रिया के प्रति सहजता से । इस प्रकार शिक्षा का वास्तविक अर्थ स्वयं अपने को समझना है, क्योंकि हममें से प्रत्येक में सम्पूर्ण अस्तित्व समाहित है ।
सारांश यह है कि बच्चा स्वयं का अध्ययन करना सीखे । स्वयं के बारे में सीखना ही वास्तविक सीखना है ।’
प्रश्न यह है कि यह कैसे हो ?
देखें राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद द्वारा निर्मित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के अनुसार—‘स्कूली पाठ्यचर्या और परीक्षा व्यवस्था दोनों में, जो बच्चों को बहुत सी जानकारी रटने और उसे उगलने के लिए विवश करती है, मूलभूत परिवर्तन किए जाएँ । यांत्रिक तरीके से परखे जाने के लिए सीखने की प्रक्रिया बच्चे से बच्चा होने का सुख छीन लेती है तथा स्कूली जानकारी को प्रतिदिन के अनुभव से अलग कर देती है ।
माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952) द्वारा की गई परिकल्पना स्मरण योग्य है—‘लोकतंत्र में नागरिकता की परिभाषा में कई बौद्धिक, सामाजिक व नैतिक गुण शामिल होते हैं : एक लोकतांत्रिक नागरिक में सच को झूठ से अलग छाँटने, प्रचार से तथ्य अलग करने, धर्र्मान्धता और पूर्वाग्रहों के खतरनाक आकर्षण को अस्वीकार करने की समझ व बौद्धिक क्षमता होनी चाहिए । वह न तो पुराने को इसलिए नकारे क्योंकि वह पुराना है, न ही नए को इसलिए स्वीकारे क्योंकि वह नया है – बल्कि उसे निष्पक्ष रूप से दोनों को परखना चाहिए और साहस से उसको नकार देना चाहिए जो न्याय व प्रगति के बलों को अवरुद्ध करता
हो ।––––’
‘लोकतंत्र प्रत्येक व्यक्ति के मनुष्य के रूप में सम्मान व योग्यता में आस्था पर आधारित होता है ––––अत: लोकतांत्रिक शिक्षा का उद्देश्य है – व्यक्तित्व का पूर्ण व चहुँमुखी विकास – अर्थात् एक ऐसी शिक्षा जो विद्यार्थियों को एक समुदाय में जीने की बहुआयामी कला में दीक्षित करे । बहरहाल, यह स्पष्ट है कि एक व्यक्ति अकेेले न तो रह सकता है, न ही विकसित हो सकता है ––––उस शिक्षा का कोई लाभ नहीं है जो अपने साथी नागरिकों के साथ शालीनता, सामंजस्य, कार्य–कुशलता के साथ जीने की शैली के लिए आवश्यक गुणों को पोषित न करती हो ।’
(माध्यमिक शिक्षा आयोग 1952–53, पृ– 20)
‘बाल केन्द्रित शिक्षा–शास्त्र का अर्थ है, बच्चों के अनुभवों, उनके स्वरों और उनकी सक्रिय सहभागिता को प्राथमिकता देना । इस प्रकार के शिक्षाशास्त्र में बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकास व अभिरुचियों के मद्देनजर शिक्षा को नियोजित करने की आवश्यकता होती है ।’
(राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005, पृ– सं– 15)
‘बच्चों की आवाज व अनुभवों को कक्षा में अभिव्यक्ति नहीं मिलती है । प्राय: केवल शिक्षक का स्वर ही सुनाई देता है । बच्चे केवल अध्यापक के सवालों का जवाब देने के लिए या अध्यापक के शब्दों को दोहराने के लिए ही बोलते हैं । कक्षा में वे शायद ही कभी स्वयं कुछ करके देख पाते हैं । उन्हें पहल करने के अवसर भी नहीं मिलते हैं । किताबी ज्ञान को दोहराने की क्षमता के विकास के बजाय पाठ्यचर्या बच्चों को इतना सक्षम बनाए कि वे अपनी आवाज ढूँढ़ सकें, अपनी उत्सुकता का पोषण कर सकें, स्वयं करें, सवाल पूछें, जाँचें, परखें और अपने अनुभवों को स्कूली ज्ञान के साथ जोड़ सकें ।’
(राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 पृ– 15)
‘बच्चे उसी वातावरण में सीख सकते हैं, जहाँ उन्हें लगे कि उन्हें महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है । हमारे स्कूल आज भी सभी बच्चों को ऐसा महसूस नहीं करवा पाते हैं । सीखने का आनंद व संतोष के साथ रिश्ता होने की बजाय भय, अनुशासन व तनाव से सम्बन्ध हो तो यह सीखने के लिए अहितकारी होता
है ।’
(राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 पृ– सं– 16)
अब देखें किशोरावस्था में हमारी वर्तमान शिक्षा–प्रणाली का किशोरों पर क्या असर पड़ सकता है—
‘किशोरावस्था अस्मिता के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण समय है । स्वयं के बारे में समझने की प्रक्रिया का सम्बन्ध शारीरिक बदलाव और वयस्क के रूप में सामाजिक और शारीरिक माँगों से संगति बिठाने से है । स्वतंत्रता, घनिष्ठता, मित्रमंडली पर निर्भरता आदि कुछ ऐसे सरोकार हैं, जिनको पहचानने और उनसे निपटने की दिशा में उचित सहयोग देने की जरूरत है ।
बाहर की दुनिया तथा व्यक्ति की उस तक पहुँच और वहाँ आने–जाने की स्वतंत्रता व्यक्तित्व निर्माण को प्रभावित करती है । लड़कियों के विषय में यह तथ्य विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि प्राय: सामाजिक परम्पराएँ उन्हें चारदीवारों के भीतर रहने को बाध्य कर देती हैं ।
यही परम्पराएँ लड़कों के लिए ठीक इसके विपरीत रूढ़ि को प्रोत्साहित करती हैं, जो लड़कों को बाहरी व शारीरिक क्रियाकलापों से जोड़ती हैं । इस तरह की रूढ़ियाँ किशोरावस्था में अधिक प्रबल हो जाती हैं, जो शरीर के बढ़ने का समय होता है । इन शारीरिक बदलावों का प्रभाव किशोर जीवन के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर पड़ता है ।
अधिकतर किशोर इन परिवर्तनों का सामना बिना पूर्व ज्ञान एवं समझ के करते हैं, जो उन्हें खतरनाक स्थितियाँ जैसे – यौन रोगों, यौन दुर्व्यवहार, एच.आई.वी.एड्स एवं नशीली दवाओं के सेवन का शिकार बना सकती हैं ।
यह समय होता है जब आत्मसात किए गए विचारों व मानदण्डों पर प्रश्न उठाया जाता है, साथ ही अपने दोस्तों का मत बहुत महत्त्वपूर्ण बन जाता है । किशोरों की इन आवश्यकताओं को पहचानकर उनको जीवन में संकट से निपटने के कौशल सीखने की दिशा में सामाजिक और भावनात्मक सहारा दिया जा सकता है । साथ ही, मित्रों के दबाव और लिंग सम्बन्धी प्रचलित मान्यताओं से निपटने की दशा में भी उन्हें तैयार किया जा सकता है । इस प्रकार के सहयोग के अभाव में इन बदलावों को लेकर भ्रम और नासमझी की स्थिति पैदा हो सकती है और इससे किशोरों की अकादमिक और अन्य गतिविधियाँ प्रभावित हो सकती
हैं ।
(राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005, पृ– 18)
शैक्षिक कार्य की गुणवत्ता, उससे सीख पाने की योग्यता और विद्यार्थी के लिए उसकी महत्ता को प्रभावित करती है । वे अभ्यास जो बहुत सरल होते हैं, या बहुत कठिन, जो बार–बार एक ही बात यांत्रिक रूप से दोहराते हैं, जो पाठ्य–पुस्तक को याद करने पर आधारित होते हैं, जो बच्चे को आत्माभिव्यक्ति व प्रश्न पूछने की अनुमति नहीं देते, शिक्षक के जाँच कार्य पर ही निर्भर रहते हैं, वे बच्चे को आज्ञा पालन करने वाली कठपुतली बना देते हैं । शिक्षार्थी अपने विचारों व विवेक को महत्त्व देना नहीं सीखते हैं ।
वह यह सीखते हैं कि ज्ञान दूसरों के द्वारा बनाया जाता है और उन्हें सिर्फ ज्ञान को ग्रहण करना चाहिए । इसीलिए अध्यापकों पर यह जिम्मेदारी आ जाती है कि जो बच्चे स्वाभाविक रूप से शिक्षा के प्रति उत्साहित नहीं लगते उन्हें वह प्रोत्साहित करें ।
शिक्षार्थी नियंत्रित होना स्वीकार कर लेते हैं और यह चाहने लगते हैं कि उन्हें नियंत्रण में रहना आए । यह अंतत: संज्ञानात्मक, आत्मचिन्तन और उस लचीलेपन के विकास के लिए हानिकारक हैं, जो दरअसल अधिगम से विद्यार्थी को सशक्त बनाने के लिए आवश्यक है ।
इस शैक्षिक वातावरण में बढ़ते हुए कई विद्यार्थी सातवीं कक्षा तक पहुँचते–पहुँचते आत्मविश्वास, स्वयं को अभिव्यक्त करने और स्कूली अनुभवों का अर्थ निकालने की क्षमता खो बैठते हैं । वे बार–बार परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए उसी यांत्रिक रटन्त विद्या का सहारा लेते हैं ।
जबकि स्वतंत्र विचार प्रक्रिया और हल करने के विविध तरीकों को प्रोत्साहित करने वाले चुनौतीपूर्ण कार्य शिक्षार्थियों में स्वतंत्रता, रचनात्मकता और आत्मानुशासन को प्रोत्साहित करते हैं । ‘क्विज’ संस्कृति को बढ़ावा देने के बदले जहाँ तत्काल सही जवाब देना जरूरी होता है, हमें विद्यार्थियों को गहन व सार्थक अधिगम पर समय व्यतीत करने देना चाहिए ।
सीखने के वे कार्य जो यह सुनिश्चित करने के लिए रचे गए हैं कि बच्चे पाठ्य–पुस्तकों के अलावा अन्य स्रोतों से भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित होंगे, इस दर्शन को संप्रेषित करते हैं कि बच्चे खुद ही खोज करके एवं प्रमाण जुटा कर सीखते हैं एवं ज्ञान का सृजन करते हैं और अध्यापक या पाठ्य–पुस्तक का ज्ञान पर प्रभुत्व नहीं होता है ।
बच्चे अपने खुद के अनुभवों से, पुस्तकालयों से और स्कूल के बाहर अन्य स्रोतों से ज्ञान तलाश सकते हैं । इस संदर्भ में अधिगम की दृष्टि से सांस्कृतिक विरासत स्थल बेहद महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं । न केवल इतिहास बल्कि सभी विषयों के शिक्षकों को पुरातत्त्व महत्त्व के स्थलों के प्रति बच्चों में एक आदरभाव और उनकी महत्ता समझने व उनका अन्वेषण करने की इच्छा को पोषित करना चाहिए ।
(राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, पृष्ठ 23 –24)
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है – ‘स्कूल के दिनों में मुझे सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात से हुई कि स्कूल विश्व की सम्पूर्णता से रहित था ।’
सत्य है विद्यालय तो वह स्थान होना चाहिए जहाँ बच्चे को पूरा विश्व नजर आए, उसमें जो भी जिज्ञासाएँ हैं वे शान्त हो सकें । वह स्वयं को अभिव्यक्त कर सके, चाहे उसकी अभिव्यक्ति खेल द्वारा हो, जिज्ञासाएँ हों, प्रश्न हों या कला के द्वारा अपने को अभिव्यक्त करे । उसे अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता हो ।
यदि उसे अभिव्यक्ति के स्वस्थ व आनन्दमय अवसर नहीं मिलेंगे तो वह रोने, चीखने, जिद्द करने या मारने–पीटने द्वारा अपने को अभिव्यक्त करेगा । विद्यालय ही नहीं अभिभावक भी यह भूल जाते हैं कि नन्हे–मुन्ने बच्चों की शरारतें सहज, स्वाभाविक हैं ।
जिस आँगन में बच्चे की किलकारी नहीं गूँजती, शरारतें नहीं होतीं,  चीजों की फरमाइश नहीं होती, रोना–धोना, चीख–पुकार, शोर–शराबा नहीं होता, उस आँगन में खामोशी और मायूसी छायी रहती है । हम भूल जाते हैं कि बच्चे तो वे कोमल और रंग–बिरंगे फूल हैं, जिन्हें देखकर मन खुशी से झूम उठता है ।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद, नई दिल्ली द्वारा निर्मित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या कार्यक्रम 2005 (National Curriculum Framework 2005) इस बात पर बल देता है कि बच्चा बाहरी जीवन के अनुभवों से विद्यालय में प्रदत्त ज्ञान को जोड़ सके ।
हम सोचते हैं कि बच्चा क्या, कैसे और कितना सीख ले, कितनी जल्दी हमारे समाज के नियम के अनुरूप ढल जाए, कितनी जल्दी उसे अधिक–से–अधिक सिखा दें । यही गलती उसके विकास को बाधित करती है, जिसका दंड उसकी पढ़ाई की गति को ही नहीं, उसके सम्पूर्ण विकास को बाधित करने के रूप में उसको भोगना पड़ता है ।
‘बच्चे का भविष्य अब इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है कि बच्चे के ‘वर्तमान’ को अनदेखा किया जा रहा है, जो बच्चे, समाज व राष्ट्र के लिए अहितकर है ।’
(राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005, पृ– 2  (ङ))
और शिक्षा बिना बोझ के (Learning Without Burden) समिति की रिपोर्ट ने सिफारिश की कि स्कूली पाठ्यचर्या और परीक्षा व्यवस्था दोनों में, जो बच्चों को बहुत–सी जानकारी रटने और उसे उगलने के लिए विवश करती है, मूलभूत परिवर्तन किए जाएँ । यांत्रिक तरीके से परखे जाने के लिए सीखने की प्रक्रिया बच्चे से बच्चा होने का सुख छीन लेती है तथा स्कूली जानकारी को प्रतिदिन के अनुभव से अलग कर देती है ।
छोटे बच्चों की याददाश्त फोटोग्राफिक होती है । पाँच वर्ष के बच्चे पूरी–की–पूरी किताब रटकर सुना सकते हैं, लेकिन वास्तव में वह कुछ नहीं समझते हैं । बिना समझे इस रटन्त विद्या का उनके मस्तिष्क पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि बिना समझे रटने से उन्हें आनन्द नहीं आता है ।
कुछ चीजें बच्चों को रटवाना आवश्यक है, जैसे – गिनती व पहाड़ा, लेकिन गिनती व पहाड़ा रट जाने के साथ ही यदि इसके मूलभाव को समझा दिया जाए तो बच्चे को रटने के साथ ही आनन्द की प्राप्ति होती है व उसका पढ़ने में भी मन लगेगा और प्राप्त ज्ञान भी स्थायी होगा । जैसे 1 और 1 त्2य इसके साथ ही दो पेंसिलें या दो रबड़ या दो अन्य कोई चीजें सामने रखकर उसे गिनती और इसी प्रकार पहाड़ा सिखाया जा सकता है । इस प्रकार बच्चों के मन में गिनती या पहाड़े का प्रत्यय यब्वदबमचजद्ध स्पष्ट हो जाएगा ।
सरकारी विद्यालयों में पहली कक्षा में कम–से–कम पाँच वर्ष के बच्चे का दाखिला होता है, तभी उसे पढ़ना–लिखना सिखाया जाता है अर्थात् राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के अनुसार कम–से–कम इतने बड़े बच्चों के लिए ही पढ़ना उपयुक्त
है । जबकि प्राइवेट स्कूल बच्चे से यही अपेक्षा तीन–साढ़े तीन वर्ष की आयु में करते हैं । शिशु की शैशवावस्था की कोमल भावनाओं को कठोर नियंत्रण में बद्ध कर दिया जाता है ।
यही नहीं उसके विद्यालय से आने के बाद उसके माता–पिता भी उससे होमवर्क करवाते हैं । घर व विद्यालय में बच्चे को पढ़ाई के लिए मार भी पड़ती है ताकि बच्चे अच्छे नम्बर लाएँ ।
इन विद्यालयों में खेल या कविता, कहानी का उपयोग भी इस तरह किया जाता है कि वह अध्यापक के वर्चस्व व दमन का माध्यम बन जाता है । जैसे–बच्चे से कहा गया – ‘ट्विंकल–ट्विंकल लिटिल–स्टार’याद करो तो उसे इसका अर्थ समझे बिना रटना पड़ता है । इस कविता के सौन्दर्य–बोध से वह अवगत नहीं हो पाता है । हमारा उद्देश्य बच्चे को कविता रटवाना नहीं है वरन् उसे विद्यालय शिक्षा के लिए तैयार करना है ।
माता–पिता भी चाहते हैं कि तीन वर्ष की आयु से ही बच्चे को अधिक–से–अधिक पढ़ाया जाए । वह ऐसे विद्यालय ढूँढते हैं जहाँ बच्चे को अधिक पढ़ाया जाए । घर के लिए भी होमवर्क मिले । माता–पिता का तर्क यह होता है कि आजकल इतना कम्पटीशन है, इतना कोर्स है कि शुरू से ही बच्चों की पढ़ाई पर अधिक ध्यान देना होगा ।
ज्ञातव्य है कि अत्यन्त विकसित देशों में बच्चों को छ: वर्ष तक औपचारिक शिक्षा से मुक्त रखा गया है । शिशु को खेल, कहानी, गीत, संगीत आदि का आनन्द उठाने का पर्याप्त अवसर दिया जाता है । यही उसकी असली शिक्षा है, किन्तु हम तो आज अपनी ही संतान को मानसिक रूप से पंगु बना रहे
 हैं ।
हमारे समाज में पहले संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी । दादी माँ बच्चों को कहानियों के माध्यम से बहुत कुछ सिखा देती थीं । बच्चा परिवार के बीच में रहकर सामाजिक ज्ञान प्राप्त करता था । साथ ही समायोजन व स्वाभाविक स्नेह, अनुराग आदि भी पा लेता था । अब संयुक्त परिवार बहुत कम रह गए हैं । अत: अब ऐसे नर्सरी स्कूलों में बच्चों को भेजा जाए, जहाँ पर वास्तविक रूप से नर्सरी शिक्षा के उद्देश्य की पूर्ति हो ।
अभिभावकों को चाहिए कि छोटी उम्र में बच्चों पर पढ़ाई का दबाव न डालें । न ही टीचर से कहें कि यह चार वर्ष का हो गया तथा आपकी नर्सरी में एक वर्ष से पढ़ रहा है, अभी तक इसे पूरी गिनती लिखनी नहीं आती ।
इस आयु में सबसे बड़ी शिक्षा यही है कि बच्चों के उत्सुकता भरे प्रश्नों का जवाब दें या ज्यादा–से–ज्यादा स्नेह दें । स्नेह बच्चे की प्राथमिक आवश्यकता
 है । अनेक अनुसंधानों से जो बात उभरकर सामने आई है, वह यह कि शिशु को डंडे की मार से नहीं पढ़ाना चाहिए । मनोवैज्ञानिक तनाव का शिशु पर बुरा असर पड़ता है । शिशु के दिमाग पर चिंता सबसे बुरा असर डालती है ।
शिशु हर समय व्यस्त रहना चाहता है, उसे कुछ करने के लिए चाहिए किन्तु वह चाहता है कि उस क्रिया में उसे आनन्द मिले । खेल में भी उसे आनन्द मिलता है । आनन्दयुक्त क्रिया ही उसे प्रिय होती है, चाहे हमारी परिभाषा में वह खेल हो या कोई कार्य या पढ़ना–लिखना । यूँ तो आनन्दयुक्त क्रिया हर एक को प्रिय होती है किन्तु बड़े होने पर तो बच्चा कुछ सीखने की इच्छा रखता है और वह यह सोचकर भी सीख लेता है कि कुछ सीखना उसके काम आएगा । दूसरी ओर शिशु केवल आनन्दयुक्त क्रिया ही करना चाहता है, इसी से वह प्रसन्न रहता है । प्रसन्नता उसके लिए आवश्यक भी है और अनिवार्य भी ।
शिशु के लिए उसके माता–पिता व अध्यापक सर्वसमर्थ होते हैं । चिन्ता उसके मन पर इतना बुरा प्रभाव डालती है, जितना भूख भी नहीं । भूख तो उसे थोड़ी देर के लिए व्यथित करती है किन्तु चिन्ता तो मन में स्थायी स्थान बना लेती है । हमें ऐसे विद्यालयों का विरोध करना होगा, जहाँ पर तीन वर्ष की आयु से बच्चों को पढ़ाने लगते हैं ।
शिशु के लिए कैसा वातावरण प्रदान करना है, इसके लिए आज के परिवेश में और भी सुनियोजित रूपरेखा की आवश्यकता है क्योंकि अब संयुक्त परिवार बहुत कम हैं । अत: एकाकी बच्चा क्या करे ? शिशु व्यस्त भी हो, प्रसन्न भी, अपनी क्षमता का अधिकतम सीमा तक विकास भी कर सके । अपने वातावरण से अधिकतम ग्रहण भी कर सके । इसके लिए हमें सोचना है कि हम अपने शिशुओं को क्या दें ?
शिशु की क्रियाशीलता को कैसे गति दें, यह भी एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है । उसकी जिज्ञासा को हम शान्त करें, यह उसका अधिकार है, उसको प्रसन्न रहने का अवसर दें, यह उसकी आवश्यकता है और चिन्तामुक्त रहना सम्यक विकास हेतु अनिवार्यता है ।
सहजता ही तो जीवन का मूल सिद्धान्त है । जब मनुष्य सहज होता है तभी तो उसकी चिन्तन क्षमता में अभिवृद्धि होती है । जब मस्तिष्क में सब कुछ ठूँस –ठूँस कर भरा हुआ है, तब बच्चे के मन में स्वतंत्र चिन्तन का स्थान कहाँ रहेगा । स्वचिन्तन ही तो प्रगति का आधार है । अत: शिशु का मस्तिष्क सहज रहे । ढाई–तीन वर्ष के बच्चे के मस्तिष्क में विचारों को ठूँस–ठूँस कर भरना, न जाने कितने विषयों में हम उसे दक्ष बनाने का प्रयास करते हैं ।
नर्सरी शिक्षा के नाम पर ढेर सारी सूचनाएँ उसके मस्तिष्क में भर दी जाती हैं । जैसे—पढ़ना–लिखना, गणित की शिक्षा आदि तथा भावविहीन कविताएँ
आदि । साथ में होती है विद्यालय के प्रति भयपूर्ण छवि और सूखा, कुम्हलाया हुआ चेहरा, जिसमें आनन्द का लक्षण नजर नहीं आता है । बच्चा एक सुकोमल, प्यारा, अबोध प्राणी है । वह हर समय उमंग में भरा रहना चाहता है । हर समय क्रियाशील रहना चाहता है । उसकी एक अनोखी दुनिया होती है । उसकी कल्पना की दुनिया बड़ी रंग–बिरंगी होती है । वह वास्तविकता में भी उसी प्रकार जीना चाहता है । बच्चा परमात्मा की पवित्रतम कृति है ।
बच्चा सहजतम सब कुछ सीखना चाहता है, लेकिन जब हम बोझ के रूप में, कठोर अनुशासन के साथ उसे कुछ सिखाना चाहते हैं तो उसकी आशाओं पर तुषारापात हो जाता है । उसकी इन्द्रधनुषी कल्पना और सीखने की इच्छा भंग हो जाती है । बच्चे के मन में बहुत से प्रश्न होते हैं, सीखने की उसकी इच्छा, योग्यता व क्षमता हमसे कहीं अधिक होती है । आवश्यकता है कि कैसे उसे स्वतंत्र रूप से उभारा जाए । बच्चे घर और बाहर के समयबद्ध सीखने के कार्यक्रम से ऊब जाते
 हैं । पढ़ाई से उन्हें नफरत हो जाती है, माता–पिता और शिक्षक उसे प्रतिद्वन्द्वी के रूप में दिखाई देने लगते हैं ।
बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए उसके जीवन के प्रथम छ: वर्ष बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं । मनुष्य का अधिकांश मानसिक विकास शैशवावस्था में ही हो जाता है । इस समय बच्चे को जैसा चाहे वैसा ढाला जा सकता है । उसके शरीर को स्वस्थ बनाया जा सकता है, मानसिक प्रक्रियाओं का विकास करवाया जा सकता है । अच्छी भावनाओं का बीजारोपण करके अच्छे चरित्र की नींव डाली जा सकती है । शैशवकाल पूरे जीवन की नींव है । इस प्रकार शैशवकाल में बच्चे को प्रफुल्लित, आनन्दित किन्तु सहज, स्वाभाविक जीवन देकर स्वस्थ व्यक्तित्त्व का निर्माण किया जा सकता है ।

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