Monday, August 6, 2018

वेदों में परमात्मा का सहारा तथा भक्तिरस का पान

परमात्मा का सहारा
आ त्वा रम्भं न जिव्रयोररम्भा शवसस्पते ।
उश्मसि   त्वा    सधस्थ   आ । ।
ऋग्वेद 8/45/20
हे सब बलों के स्वामी परमेश्वर! जैसे वृद्ध व्यक्ति लाठी का सहारा करता है, उसी तरह मैंने तेरा सहारा किया है । अब मैं तुझे अपने आमने–सामने देखना चाहता हूँ।
परमात्मा सब कुछ देने में समर्थ है
ईशे ह्यग्निरमृतस्य भूरेरीशे राय: सुवीर्यस्य दातो: ।
मा त्वा वयं सहसावन्नवीरा माप्सव% परिषदाम मादुव: । ।
ऋग्वेद 7/4/6
परमेश्वर निश्चय ही बहुत प्रकार से अमरपन, आध्यात्मिक ऐश्वर्य देने में समर्थ हैं और सुन्दर वीरता सहित धन के, भौतिक ऐश्वर्य के देने में समर्थ हैं । हे  परमेश्वर! हम तुम्हारी वीरता रहित, कायर होकर, विकृत होकर, असेवक होकर उपासना मत करें । अर्थात् हम सब कमजोरियों को हटा कर, निर्भय होकर, सब काम–क्रोधादि मलिनताओं को दूर करके शुद्ध स्वरूप बनकर तुम्हारी आराधना करें, उपासना करें ।
वह अतुलनीय है
न घा त्वद्रिगप वेति मे मनस्त्वे इत् कामं पुरुहूत शिश्रय ।
राजेव      दस्म     निषदोऽधि      बर्हिष्यस्मिन्
सुसोमे         अवपानमस्तु          ते । ।
अथर्ववेद  20/17/2
हे परमेश्वर! तेरी तरफ गया मेरा मन अब कभी लौटता नहीं है, तुझसे हटता नहीं है । हे बहुत लोगों द्वारा पुकारे गए परमेश्वर! अपनी सब इच्छा, मनोरथ व कामना को तुझमें ही मैंने आश्रित कर दिया है । हे परमसुन्दर! तू राजा की तरह मेरे हृदयसिंहासन पर बैठ जा । तुम मेरे भक्तिरस का पान करो ।
पूरा विश्व आर्य हो जाए
इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम्।
अपघ्नन्तो अराव्णः।।
ऋग्वेद 9/63/5
परमेश्वर की बड़ाई करते हुए, श्रेष्ठ कर्म करते हुए, सबको उत्तम कार्य करने वाला बनाते हुए कृपण पापियों को परे हटाते हुए चलो ।
परमेश्वर सभी प्राणिमात्र के स्वामी हैं
त्वमीशिषे सुतानामिन्द्र त्वमसुतानाम् ।
त्वं  राजा   जनानाम्
ऋग्वेद 8/64/3
हे सकल ऐश्वर्य सम्पन्न परमेश्वर! आप उत्पन्न हुए पदार्थों के शासक हैं । आप ही सब लोक–लोकान्तरों व प्राणिमात्र के स्वामी हैं ।
कुछ भी पाने के लिए परमात्मा की ही प्रार्थना करो
इन्द्रोदिव इन्द्र ईशे पृथिव्या इन्द्रो अपामिन्द्र इत् पर्वतानाम् ।
इन्द्रो वृधामिन्द्र इन्मेधिराणामिन्द्रः क्षेमे योगे हव्य इन्द्र: । ।
ऋग्वेद 10/89/10
इन्द्ररूपी परमेश्वर द्युलोक पर शासन कर रहा है । वही इन्द्र पृथ्वी का शासक है । वही इन्द्र जलों का, मेघों का, वृद्धि वालों का और मेधावियों का स्वामी है । प्राप्त पदार्थों की रक्षा के लिए, अप्राप्त पदार्थों की प्राप्ति के लिए वह परमेश्वर ही प्रार्थना करने योग्य है । 
न त्वावाँ अन्यो दिव्यो न पार्थिवो न जातो न जनिष्यते ।
अश्वाजयन्तो मघवन्निन्द्रवाजिनो गव्यन्तस्त्वा हवामहे । ।
ऋग्वेद 7/32/23
हे परम ऐश्वर्य सम्पन्न परमेश्वर! आप जैसा व आपसे भिन्न न द्युलोक में और न ही पृथिवी पर हुआ और न होगा । घोड़ों तथा गौवों आदि की इच्छा करते हुए ज्ञान और अन्न बलादि से युक्त हो कर आपकी प्रार्थना और उपासना करते हैं ।
हमें शुभकर्मों की ओर ले चलो
इन्द्र  क्रतुं  न  आभर  पिता  पुत्रेभ्यो  यथा ।
शिक्षाणो अस्मिन पुरुहूत यामनि जीवा ज्योतिरशीमहि । ।
ऋग्वेद 7/32/26
हे इन्द्ररूप परमेश्वर! जैसे पिता अपने पुत्रों को अच्छे ज्ञान और शुभ कर्मों को सिखलाता है । वैसे ही आप भी हमें ज्ञान ओर शुभ कर्मों की ओर ले चलो । हे बहुपूज्य परमेश्वर! हमें शिक्षा दो । इस जीवनयात्रा में जीते हुए हमें आपकी दिव्य ज्योति प्राप्त होवे ।
परमेश्वर हमारी प्रार्थना अवश्य सुनता है
विशां राजानमभुतमध्यक्षं धर्मणामिभम्।
अग्निमीळे स उ श्रवत।।
ऋग्वेद 8/43/24
सब राजाओं के भी राजा, धर्मकार्यों के अधिष्ठाता अर्थात् फलप्रदाता इस अग्निदेव की मैं स्तुति करता हूँ। वह परमेश्वर हमारी प्रार्थना अवश्य सुनता है।
परमात्मा समस्त ब्रह्माण्ड का रक्षक है
त्वमग्न इन्द्रो वृषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः।
त्वं ब्रह्मा रयिविद् ब्रह्मणस्पते त्वं विधर्त्तः सचसे पुरंध्या।।
ऋग्वेद 2/1/3
हे प्रभु! आप सारे ऐश्वर्य के स्वामी और श्रेष्ठ पुरुषों पर सुख की वर्षा करने वाले, स्तुति के योग्य, नमस्कार करने योग्य सर्वत्र व्यापक हैं। सारे ब्रह्माण्ड के रक्षक! आप ही जगत को धारण करने वाले हैं। आप अपनी उदारता से भक्त को प्यार करते हैं। आप ही धन के स्वामी ब्रह्मा हैं।
परमात्मा की उपासना से आध्यात्मिक शान्ति
नैनं प्राप्नोति शपथो न कृत्या न अभिशोचनम्।
नैनं विषकन्धमश्नुते यस्त्वा बिभर्त्याञ्जन।।
अथर्ववेद 4/9/5
हे संसार को व्यक्त करने वाले ब्रह्म! जो व्यक्ति तुझको धारण करता है, उसे न तो क्रोधवचन, न ही हिंसाक्रिया और न ही महाशोक पहुँचता है। उसे सदा ही आध्यात्मिक शान्ति मिलती है।

वह अक्षयदाता है
दुहे सायं  दुहे  प्रातर्दुहे मध्यन्दिनं परि ।
दोहा ये अस्य सयन्ति तान् विद्यमानुपदस्वत: । ।
अथर्ववेद4/11/12
वह परमेश्वर हमें सायंकाल में सब ओर से पूर्ण करता है । प्रात:काल में पूर्ण करता है । मध्याह्न काल में पूर्ण करता है । जो लोग परमात्मा के इस अनन्य प्रवाह को बटोरते रहते हैं, उनको वह अक्षयदाता जानता है ।
हम पापकर्मों से छूटें
उत  देवा  अवहितं देवा उन्नयथा पुन: ।
उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुन: । ।
अथर्ववेद 4/13/1
हे देवों! अधोगत पुरुष को तुम अवश्य उठाते हो और दानशील देवताओं! अपराध करने वाले प्राणी को तुम फिर जिलाते हो। अर्थात् देवता और महात्मा लोग अपराधियों को पापकर्मों से छुड़ा कर उनका जीवन सफल बनाते हैं।
सत्यसंकल्प सत्य होवे
मह्यं यजन्तां मम यानीष्टाकूति: सत्या मनसो मे अस्तु ।
एनो मा नि गां कतमच्चनाहं विश्वेदेवा अभि रक्षन्तु मेह । ।
अथर्ववेद5/3/4
मेरे पाने योग्य इष्ट कर्म मुझको मिलें । मेरे मन का संकल्प सत्य होवे । मैं किसी भी पापकर्म को कभी न प्राप्त होऊँ । सब देवता सब ओर से मेरी रक्षा करें ।
आप ही भजनीय हैं
त्वमग्ने द्रविणोदा अरंकृते त्वं देवः सविता रत्नधा असि।
त्वं भगो नृपते वस्व ईशिषे त्वं पायुर्दमे यस्तेविधत्।।
ऋग्वेद 2/1/7
हे भगवन! श्रेष्ठ आचरणों से अलंकृत पुरुष के लिए आप धन के दाता, रमणीय पदार्थों को धारण करने वाले सबके स्वामी! आप ही भजनीय हैं, धन के नियन्ता हैं। सब इन्द्रियों का दमन करके जो आपकी भक्ति, प्रार्थना व उपासना करता है, आप ही उसके रक्षक हो।
हम सब आपके बान्धव हैं
त्वमग्ने प्रमितस्त्वं पितासि नस्त्वं वयस्कृत्तवजामयो वयम् ।
सं त्वा राधः शतिनः सं सहस्त्रिणः सुवीरं यन्ति व्रतपामदाभ्य । ।
ऋग्वेद 1/31/10
हे परमेश्वर! आप श्रेष्ठ ज्ञान वाले और हमारे पालक, पिता और
जीवनदाता हैं । हम सब आपके बान्घव हैं । सर्वसमर्थ हो कर भी नियमों के रक्षक! हम आपकी शरण में आए हैं । आप सहस्त्रों प्रकार के ऐश्वर्य के स्वामी हैं ।
तू न्यायकारी तथा सज्जनों का पालक है
त्वमग्ने राजा वरुणो धृतवृतस्त्वं मित्रो भवसि दस्म ईड्य: ।
त्वमर्यमा सत्पतिर्यस्य सम्भुजं त्वमंशो विदथे देव भजयु: । ।
ऋग्वेद 2/1/4
हे सबके पूज्य अग्निरूपी परमात्मा! तू ही सबका राजा वरुण है । तू ही नियमों को धारण करने वाला दर्शनीय सबका मित्र और स्तुति करने योग्य है । तू न्यायकारी व सज्जनों का पालक है ।
हम अपराधहीन होवें 
यो मृळयाति चक्रुषे चिदागो वयं स्याम वरुणे अनागा: ।
अनुव्रतान्यदितेर्ऋधन्तो यूयं पात स्वस्तिभि: सदान: । ।
ऋग्वेद 7/87/7
जो प्रभु अपराध करने वाले पर भी दया करता है, उस श्रेष्ठ परमेश्वर के समीप हम अपराधहीन होवें । उसके नियमों के अनुसार आचरण करें ।
हे महान पुरुषों! हमारे लिए कल्याण का मार्ग प्रशस्त करो ।
दानशील हो कर परमात्मा की भक्ति करो
अहं भुवं वसुन: पूर्व्यस्पतिरहं धनानि संजयामि शश्वत: ।
मां हवन्ते पितरं न जन्तवोहं दाशुषे विभजामि भोजनम् । ।
ऋग्वेद 10/48/1
परमात्मा उपदेश देते हैं, ‘मैं धन का मुख्य स्वामी हूँ । मैं सनातन धनों को उत्तम रीति से प्राप्त कराता हूँ । सब मनुष्य पिता की भाँति मुझे धनप्राप्ति के लिए पुकारते हैं । मैं दानशील व्यक्ति के लिए अनेक प्रकार के धन और भोजनादि सुन्दर–सुन्दर पदार्थ देता हूँ ।   
अहं  भूमिमददामार्यायाहं  वृष्टिं  दाशुषे मर्त्याय ।
अहमपो अनयं वावशाना मम देवासोअनुकेतमायन् । ।
ऋग्वेद 4/26/2
परमात्मा का उपदेश है,‘मैं आर्य पुरुष को पृथ्वी देता हूँ । मैं दानशील पुरुष के लिए धन की वर्षा करता हूँ । मैं ही बड़े शब्द करने वाले जलों को पृथ्वी पर लाया हूँ । देवता लोग मेरे ज्ञान के अनुसार चलते हैं ।
हम ईश्वरीय उपदेशों के उल्लंघन वाले न बनें
अथं ते अन्तमानां विद्याम सुमतीनाम् ।
मा न: अतिख्य: आ गहि । ।
ऋग्वेद 1/4/3
हे प्रभु! आपकी आज्ञा में स्थित सुन्दर मति वाले महात्माओं के सम्पर्क से हम आपके यथार्थ स्वरूप को जान लेवें । हमें ईश्वरीय उपदेशों के उल्लंघन वाला मत बनाओ । हम तुम्हें प्राप्त करें ।
आप जैसा दूसरा कोई नहीं है
त्वं भुव: प्रतिमानं पृथिव्या ऋष्ववीरस्य बृहत: पतिर्भू: ।
विश्वमाप्रा अन्तरिक्षं महित्वा सत्यमद्धा नकिरन्त्यस्त्वावान् । ।
ऋग्वेद 1/52/13
हे भगवन! आप अन्तरिक्ष और विस्तृत भूमि के प्रत्यक्ष मापने वाले बड़े द्युलोक के स्वामी हैं । सम्पूर्ण अन्तरिक्ष को आपने अपने आलोक से परिपूर्ण किया है । यह परमसत्य और निश्चित है कि आप जैसा दूसरा कोई नहीं है । अत: एक आप ही उपासना के योग्य हो ।
हमें बल दो
बलं  धेहि  तनूषु  नो बलमिन्द्रिानळुत्सु न:।
बलं तोकाय तनयाय जीवसे त्वं हि बलदा असि । ।
ऋग्वेद 3/53/18
हे इन्द्र! हमारे शरीर में बल दो । हमारे बैलादि पशुओं को भी बल दो । हमारी सन्तानों को भी बल दो । हमारे सुखपूर्वक जीने के आप ही हेतु हो । आप ही बलप्रदाता हो । इसलिए आपसे ही बल प्रदान करने के लिए प्रार्थना करते हैं ।
हम अमर हों     
त्वं च सोम नो वशो जीवातुं न मरामहे । प्रियस्तोत्रो वनस्पति: । ।
ऋग्वेद 1/91/6
स्तुतिप्रिय और सारी औषधियों के पालक प्रभु! तुम हमारी जीवनौषधि की अभिलाषा करो तो हम मृत्युरहित हो जाएँ । अर्थात् हम मुक्त हो कर जीवन–मरण के चक्र से मुक्त हो जाएँ ।
परमात्मा के प्रकाश से हम प्रकाशित हों
तद्विप्रासो विपन्यवो जागृवासः समिन्धते ।
विष्णोर्यत्              परमपदम् । ।
ऋग्वेद 1/22/21
स्तुतिवादी और मेधावी मनुष्य जो संसार के व्यवहारी पुरुषों से भिन्न हैं, और जागे हुए हैं । वह परमात्मा के उस प्रकाश से अपने को प्रकाशित करते हैं ।
परमात्मा हमको सरल नीति से अपने पास बुलावे
ऋजुनीती नो वरुणो मित्रो नयतु विद्वान् ।
अर्यमा       देवै:     सजोषा: । ।
ऋग्वेद 1/90/1
सर्वोत्तम और सबसे प्रेम करने वाला सर्वत्र न्यायकारी विद्वानों के साथ प्रेम करने वाला परमात्मा हमको सरल नीति से ले जावे ।
हमारे पाप सर्वथा विनष्ट हों   
त्वं हि विश्वतोमुख विश्वत: परिभूरसि ।
अप         नः शोशुचदधम्।।
ऋग्वेद 1/97/6
हे परमात्मन! आपका मुख सब दिशाओं में है । आप सब ओर देख रहे हैं । आप सर्वत्र व्याप्त हैं । हमारे पाप सर्वथा विनष्ट हों ।
हमें राक्षसों से बचाओ
पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तेरराव्णः।
पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहभानो यविष्ठय।।
ऋग्वेद 1/36/15
हे विशाल किरण वाले परमात्मा! हमें राक्षसों से बचाओ। धूर्त धारणा रखने वालों से बचाओ। पीड़ा देने वाले और हनन करने वाले लोगों से हमारी रक्षा करो।
परमात्मा में सभी धन अटल हैं
आ सूर्ये न रश्मयो ध्रुवासो वैश्वानरे दधिरेऽग्ना वसूनि।
या पर्वतेष्वोधीष्वप्सु या मानुषेष्वसि तस्य राजा।।
ऋग्वेद 1/59/3
सूर्य में जैसे किरणें स्थिर हैं, ऐसे ही परमात्मा में सब धन सब ओर से अटल रहते हैं। जो धन पर्वतों में, जलों में, औषधियों में और जो मनुष्यों में हैं, उस सबके स्वामी आप हैं।
हम कभी दु:खी न हों
देवो देवानामसि मित्रोअद्भुतो वसुर्वसूनामसि चारुरध्वरे।
शर्मन्त्स्याम तव सप्रथस्तमेऽग्ने सख्ये मा रिषामा वयं तव । ।
ऋग्वेद 1/94/13
हे प्रभु! आप विद्वानों के भी परम विद्वान हो और उन विद्वानों के आश्चर्यरूप आनन्द देने वाले मित्र हो । वसुओं के वसु हो । यज्ञ में अत्यन्त शोभायमान हो । आपकी अतिविस्तीर्ण सुखदायक मित्रता में हम स्थिर रहें, कभी दु:खी न हों ।
अजन्मा परमात्मा हमारे लिए शान्तिदायक हो   
शं नो अज एकपाद् देवो अस्तु शं न: अहिर्बुध्न्यः शं समुद्र: ।
शे नो अपां नपात् पेरुरस्तु शं न: पृश्निर्भवतुदेवगोपा । ।
ऋग्वेद 7/35/13
अजन्मा, एक पग वाला अर्थात् एकरस व्यापक, प्रकाशस्वरूप सुखप्रद परमात्मा हमारे लिए शान्तिदायक हो । अहिंसक, आदि कारण, सबको सींचने वाला परमेश्वर हमारे लिए शान्तिदायक हो । सबका स्पर्श करने वाला देवताओं का रक्षक परमात्मा हमारे लिए शान्तिदायक हो । 
ज्ञानी पुरुष हृदयकमल में तुझे प्रत्यक्ष करता है
त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत।
मूर्ध्नो विश्वस्य वाधतः।।
सामवेद
हे ज्ञानप्रद परमात्मन! तुझको ज्ञानी पुरुष मस्तिष्क से और सबके वाहक हृदयकमल में प्रत्यक्ष करता है ।
हमें पूर्ण कीजिए
अग्ने विवस्वदा भरास्मभ्यभूतये महे । देवो ह्यसि नो दृशे । ।
सामवेद
हे जगदीश! पूर्णरक्षा के लिए शुभ कर्मों को हमारे लिए पूर्ण कीजिए क्योंकि आप ही हमारे स्वरूप को देखने के लिए प्रकाश हैं ।
नमन करते हुए आपकी उपासना करें
उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
नमो     भरन्त        एमसि । ।
सामवेद
हे मार्गदर्शक प्रभु! परमात्मन! हम लोग मन, बुद्धि व कर्म से प्रतिदिन नमन की भावना लिए हुए प्रतिदिन प्रात: और सायं आपकी उपासना करें ।
उपासक तुमको प्राप्त होवें
प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे ।
मरुद्भिरग्न     आ      गहि । ।
 सामवेद
हे ज्ञानमय परमेश्वर आनन्दलाभ के लिए उपासक हृदयदेश में तुम्हारा ध्यान करते हैं । वह तुमको प्राप्त होवें ।
अग्ने मृड महाँ अस्यय आ देवयुं जनम् । इयेथ बर्हिरासदम् । ।
सामवेद
हे पूजनीय ईश्वर! हमको सुख दो । तुम महान हो और देवयजन चाहने वाले मनुष्य को प्राप्त होने वाले हो । सद्कार्य करने वाले के हृदय में विराजते हो ।
विद्यादि धनों को प्राप्त करवाइए
त्वं नश्चित्र ऊत्या वसो राधांसि चोदय।
अस्य रायस्त्वमग्ने रथीरसि विदा गाधं तुचे तु नः।।
सामवेद
हे घट–घटवासी! ज्ञानस्वरूप! आप हमारी रक्षा के साथ विद्यादि धनों को प्राप्त करवाइए क्योंकि आप ही इस धन के दाता हैं । हमारी सन्तानों को भी आश्रय दीजिए ।
हमारी स्तुतियाँ स्वीकार करो
अदर्शि   मातुवित्तमो     यस्मिन्व्रतान्यादधुः।
उपो षु जातमार्यस्य वर्धनमगि्ंन नक्षन्तु नो गिर: । ।
सामवेद
योगभूमि को उत्तम प्रकार से जानने वाले लोग जिस परमात्मा में कर्मों को अर्पण कर देते हैं, वह साक्षात हो जाता है । उस साक्षात हुए उपासक की उन्नति करने वाले परमात्मा को हमारी स्तुतियाँ उपस्थित हों ।
हमारी रक्षा के लिए ऊँचा हाथ करिए
ऊर्घ्वं ऊ षु ण ऊतये तिष्ठा देवो न सविता ।
ऊर्ध्वोवाजस्य सविता यदिञ्जभिर्वाधद्भिर्विह्वयामहे । ।
सामवेद
हे परमात्मा! हमारी रक्षा के लिए ऊँचा हाथ करिए और हमें सूर्य के समान प्रकाशित उच्चाभाव से आत्मिक बल दीजिए । हम स्नेहभक्ति वाले मेधावियों की शरण में हैं । आपका पूजन करते हैं ।
आ वो राजानमध्वरस्य रुद्रं होतारं सत्ययजं रोदस्यो: ।
अग्नि पुरा तनयित्नोर चित्ताद्भिरण्य रूपमवसे कृणुध्वम् । ।
सामवेद
हे मनुष्यों! तुम्हारे बिजली के तुल्य, मृत्यु से पहले ही योग यज्ञ के राजा कर्मफलदाता पापियों का रोदन करने वाले द्यावापृथिवी के मध्य में सच्चा यज्ञ करने वाले ज्योतिस्वरूप प्रकाशमान परमात्मा को रक्षा के लिए बुलाओ । 
प्रज्ञा को प्राप्त होऊँ
सदसस्पतिमद्भुतं   प्रियमिन्द्रस्य काम्यम् ।
सनिं             मेधामयासिषम्।।
   सामवेद
जीवात्मा के उपास्य आश्चर्यस्वरूप हितकारी कर्मफलप्रदाता ईश्वर की उपासना से प्रज्ञा को प्राप्त होऊँ ।
आ व: इन्द्र कृविं यथा वाजयन्त: शतक्रतुम् ।
मंहिष्ठं      सिञ्च      इन्दुभि: । ।
 सामवेद
परमात्मा कहते हैं, हे मनुष्यों! मैं परमेश्वर तुममें अनन्त कर्म वाले अनन्त पूजनीय अपनी आत्मा को सींचता हूँ । जैसे अन्न की उत्पत्ति चाहने वाले लोग जलों से खेती को सींचते हैं ।
परमात्मा से समीपता
त्रातारोदेवाअधिवोचतानोमानोनिद्राईशतमोतजल्पि:
वयंसोमस्यविश्वहप्रियास:सुवीरासोविदथमावदेम । ।
ऋग्वेद 8/48/14
हे रक्षक परमात्मा! हमसे बात करो, हमें बताओ । हम कभी निद्रा व आलस्य के वशीभूत न हों और न ही व्यर्थ, अनर्गल वार्तालाप की इच्छा हमें दबाए । हम सदा देवों के देव सोमरूपी परमात्मा के प्यारे होते हुए और श्रेष्ठ वीर होते हुए ज्ञान को फैलाते रहें ।
यो न: शश्वत्पुराविथाऽमृध्रोवाजसातये ।
सत्वं    न    इन्द्र      मृळय । ।
ऋग्वेद 8/69/2
हे  इन्द्ररूपी परमात्मा! जिस अहिंसक एवं अहिंसनीय तूने हमारी पहले सदा बल–प्राप्ति के लिए रक्षा की है, वही तू हमें सुखी कर । अर्थात् तू सर्वथा अहिंसक तथा प्रेममय और सर्वसमर्थ है कि तुझे कभी हिंसा करने की जरूरत नहीं रहती । तू अहिंसक होकर सदैव ही हमारी रक्षा करता आया है ।
कामनाएँ आशीर्वाद के रूप में परिणत हों
विश्वाहिमर्त्यत्वनाऽनुकामा शतक्रतो ।
अगन्म       वज्रिन्नाशस: । ।
ऋग्वेद 8/81/13
हे प्रभूतसंकल्प परमेश्वर! हम सब ही मरणशील मनुष्य हैं । सब कामनाओं के अनुगत हैं । हे परमात्मा! हम तुमसे प्रार्थना करते हैं कि हमारी ये कामनाएँ आशीर्वाद के रूप में परिणत हो जाएँ ।
परमात्मा को अपना मित्र बना लो
न पापासो   मनामहे   नारायासोनजल्हव: ।
यदिन्निवन्द्रं वृषणं सचासुते सखायंकृणवामहै । ।
ऋग्वेद 8/50/11
हम न तो पापी होकर, न अदानी होकर, न अप्रज्ज्वलित होकर इन्द्र (परमेश्वर) को मानते हैं, या उनकी उपासना करते हैं । हम तो बलवान कामों के वर्धक परमेश्वर को अपने यश कर्मों, अपने अच्छे कर्मों में सम्मिलित होकर, तन्मय हो कर सखा बना लेते हैं, मित्र बना लेते हैं ।
त्वामग्नेमनीषिणस्त्वांहिन्वन्तिचित्तिभि: ।
त्वां    वर्धन्तु  नो   गिर: । ।
ऋग्वेद 8/44/19
हे अग्नि रूप परमेश्वर! तुझे मनीषी लोग प्रीणित करते हैं, बढ़ाते हैं । तुझे अपनी चित्त शुद्धि से या कर्मों से बढ़ाते हैं तथा हमारी ये वाणियाँ भी तुम्हारी महिमा बढ़ाएँ ।
आनन्द से तृप्त मनुष्य की ऊर्ध्वगति होती है 
तरत्समन्दीधावति धारासुतस्यान्धस: ।
तरत्समन्दी        धावति । ।
ऋग्वेद 9/58/1
जो भक्त स्वयं तृप्त होकर, आन्दमग्न मनुष्य होता है । वह तर जाता है अर्थात् उसे भगवत्प्राप्ति हो जाती है । वह उत्पन्न की गई आध्यात्मयुक्त प्राण व वाणी की धारा के साथ ऊपर वेग से उठ जाता है । वह आनन्द से तृप्त मनुष्य ऊर्ध्वगति से ऊपर चढ़ जाता है ।
न हि तेषाममा चन नाध्वसु वारणेषु । ईशे         रिपु्रघस: । ।
यजुर्वेद 3/32
जो धर्मात्मा मनुष्य हैं उनके घर और मार्ग चोर, डाकू, व्याघ्र आदि से युक्त न हों, शत्रु न हों । अर्थात् धर्मात्मा मनुष्य को कहीं भय नहीं होता है ।
आगन्म विश्ववेदसमस्मभ्यं वसुवित्तमम् ।
अग्ने सम्राडभि द्युम्नमभि सहऽआयच्छस्व । ।
यजुर्वेद 3/38
हे जगदीश्वर! आप हम लोगों के लिए प्रकाशस्वरूप उत्तम यश व उत्तम बल को सब ओर से देते हो । इसलिए हम लोग पृथ्वी आदि लोकों को जानने व सब सुखों को जानने वाले आपको सब प्रकार से प्राप्त होवें ।
सदा व इन्द्रश्चकृषत् आ उपा नु स सपर्यन् ।
न   देवो   वृत्त:   शूर इन्द्र: । ।
सामवेद 23/1/1/3
हे मनुष्यों! परमेश्वर तुम्हें सदैव अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है । वह नि:सन्देह समीप ही समीपता के साथ तुम्हारी सेवा कर रहा है । वह महापराक्रमी इन्द्रदेव रूपी परमात्मा आच्छादित नहीं है । अर्थात् पूर्ण समर्पण व विश्वास से हम उसका साक्षात्कार कर सकते हैं ।
ईश्वर का गुणगान
यं ग्रामा यदरण्यं या: सभा अधिभूभ्याम् ।
ये संग्रामा: समितयस्तेषु चारु वदेम ते । ।
अथर्ववेद 12/1/56
हे परमेश्वर! इस भूमि पर जो गाँव हैं, जो जंगल हैं, जो सभाएँ होती हैं, जो संग्राम होते हैं और समितियाँ होती हैं उन सबमें हम तेरे लिए उत्तम वाणी बोलें, तेरा ही गुणगान करें ।
हमारे हृदय में विराजिए
अग्न आ याहि वीतये गृणानो हव्यदातये ।
नि  होता   सत्सि   बर्हिषी ।
सामवेद
हे प्रकाशमय परमात्मन! आप हमारे ज्ञानरूपी ध्यान में प्राप्त होइए । आप स्तुति किए हुए हैं । आप सब पदार्थों के दाता हैं । हमारे हृदय में प्रकाश करने के लिए और भक्ति का फल देने के लिए हमारे हृदय में विराजिए ।
सप्त ऋषय: प्रतिहिता: शरीरे सप्त रक्षन्ति सदमप्रमादम् ।
सप्ताप: स्वपतो                 लोकमीयुस्तत्र जागृतो
अस्वप्नजौ      सत्रसदौ     च    देवौ  । ।
यजुर्वेद 34/55
सात ऋषि हमारे शरीर में निहित हैं । चक्षु, श्रवण, रसना, घ्राण, मन, बुद्धि और त्वचाद वह सातों अप्रमाद भाव से शरीर की रक्षा करते हैं । सुषुप्तावस्था में यह आत्मा में लीन हो जाते हैं । कभी न सोने वाले प्राण और अपान सदा जागते रहते हैं ।
सांसारिक चकाचौंध से दूर रहें
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
योऽसावादित्ये   पुरुष:  सोऽसावहम् ।
यजुर्वेद 40/17
सुनहले पात्र द्वारा सत्य का मुँह ढका हुआ है । वह जो आदित्य में परमपुरुष है, वह मैं ही परमात्मा हूँ। अर्थात् यश, धन, समृद्धि आदि की चकाचौंध से दूर रह कर परमात्मा का वरण करो ।
सभी मन्त्रों का सार है कि हम सर्वभावेन परमात्मा के प्रति समर्पण करके प्रकृति के नियमों का पालन तथा सदाचरण करते हुए स्वयं आनन्दित रहें । इस तरह हम हर प्रकार के दु:खों, रोग, क्लेश आदि से सदा दूर रह कर आनन्दित जीवन बिताएँगें । शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आत्मिक रूप से आनन्दित रहेंगे ।

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