Monday, August 6, 2018

मेरुदंड और शक्तिचक्र


योगशास्त्र के अनुसार सात प्रमुख चक्र हैं जो मेरुदण्ड के मूल से सिर के शीर्ष स्थान तक सुषुम्ना नाड़ी में अवस्थित हैं । प्रत्येक चक्र की आकृति खिले हुए कमल के पुष्प की भाँति है और इन कमल के दलों की संख्या एवं रंग अलग–अलग हैं । भौतिक रूप से इन चक्रों का सम्बन्ध प्रमुख नाड़ी जालों तथा अन्त:स्रावी ग्रन्थियों से है ।

Image result for मेरुदंड और शक्ति चक्रमेरुदंड में सप्तचक्रों की स्थिति
सीधे इन चक्रों का ध्यान करते हुए योगसाधक साधना करें तो नाड़ी जालों एवं अन्त:स्रावी ग्रंथियों पर शीघ्र एवं शक्तिशाली प्रभाव होते हैं ।
शक्ति चक्रों की स्थिति और कार्य
मूलाधार चक्र
इस चक्र का स्थान गुदामूल माना जाता है । यह स्थूल तत्त्व पृथ्वी का स्थान है । यह चक्र पूरे भौतिक शरीर को नियंत्रित करता है तथा उसे शक्ति देता है । यह मेरुदंड का आधारस्थल होने के कारण उसे बल प्रदान करता है । रक्त उत्पादन और उसकी गुणवत्ता, एड्रीनल ग्लैंड्स, प्रजनन अंग आदि को प्रभावित करता है । यह चक्र शरीर के ताप पर असर डालता है । बच्चों के विकास तथा उनकी शक्ति पर भी प्रभाव डालता है ।
इस चक्र में असंतुलन या विकार आने पर पाचन सम्बन्धी रोग, शरीर की हड्डियों के जोड़ों में दर्द, रीढ़ की हड्डी संबंधी रोग, रक्त संबंधी विकार, एलर्जी, घावों का देर से भरना आदि शिकायतों में से कोई भी हो सकती है ।
जिन व्यक्तियों का मूलाधार चक्र पूर्ण रूप से सक्रिय रहता है, उनका स्वास्थ्य ठीक रहता है । वास्तव में यह हमारे शरीररूपी वृक्ष का मूल या जड़ है । अत: इसका महत्त्व स्पष्ट है ।
स्वाधिष्ठान चक्र 
यह चक्र उपस्थमूल के पीछे, पेडू के पास, मेरुदंड में स्थित माना जाता है । इसका संबंध एड्रीनल ग्लैंड्स (Adreanal glands) से भी होता है । यह विशेष रूप से काम–अंगों तथा मूत्राशय से संबंध रखता है । इस चक्र की शक्ति पर आज्ञारव्य चक्र, विशुद्धारव्य चक्र और मूलाधार चक्र की क्रियाओं का पर्याप्त प्रभाव पड़ता है । इसके अतिरिक्त यह अन्य समस्त चक्रों पर भी थोड़ा प्रभाव डालता है । इसका तत्त्व जल है अर्थात् पंचमहाभूतों में से जल का प्राणतत्त्व इसका आधार है ।
मणिपूरक चक्र
यह चक्र नाभि के पीछे मेरुदंड में स्थित माना जाता है । यह भौतिक और सूक्ष्म शरीर का केंद्र है । यहाँ से ऊर्जा का संतुलन होता है । यह पाचन संस्थान य  ( Digestive System) से संबंध रखता है और उसे नियंत्रित करता है । इसका तत्त्व अग्नि या सूर्य है ।
अनाहत चक्र
यह हृदय के पीछे उससे थोड़ा ऊपर मेरुदंड में स्थित माना जाता है । यह विशेष रूप से हृदय को नियंत्रित करता है । यह व्यक्ति की कोमल और उदार भावनाओं तथा प्रेम का केंद्र है । यह फेफड़ों, श्वास–प्रश्वास तथा रक्तप्रवाह को प्रभावित करता है । इसका मुख्य तत्त्व वायु है ।
अनाहत चक्र में विकार आने पर फेफड़े तथा हृदय के रोग हो जाते हैं । मनोमस्तिष्क के भावना–प्रधान रोग जैसे अवसाद होना, मन में भय बैठ जाना, अत्यधिक भावुक होना, चिंतित तथा तनावग्रस्त रहना आदि भी अनाहत चक्र में दोष आ जाने के कारण होते हैं क्योंकि अनाहत चक्र का सीधा संबंध आज्ञारव्य, विशुद्धारव्य तथा सहस्रार चक्रों से रहता है ।
विशुद्धारव्य चक्र
यह चक्र कंठ के पीछे मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी में स्थित माना जाता है । यह थायराइड और पैराथायराइड ग्लैंड्स से संबंध रखता है । विशुद्धारव्य चक्र में विकार आने पर थायराइड संबंधी रोग हो जाते हैं ।
यह चक्र गले, फेफड़ों, हृदय तथा रक्तप्रवाह पर भी प्रभाव डालता है । इस चक्र में विकार आने पर गले में सूजन, दमा, जुकाम, खाँसी तथा गले संबंधी अन्य रोग हो सकते हैं ।
यह चक्र शरीर पर रोगों के कीटाणुओं या विषाणुओं के द्वारा होने वाले आक्रमणों का सामना करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
आज्ञारव्य चक्र
यह चक्र भ्रूमध्य में स्थित माना जाता है । भ्रूमध्य से सिर के पीछे की ओर सीधी रेखा मेरुदंड तक खींची जाए तो यह रेखा मेरुदंड में जहाँ मिलेगी, इसकी वास्तविक स्थिति उस स्थान पर होगी । यह पिट्यूटरी ग्रन्थि को नियंत्रित करता है । यह अन्य सभी चक्रों का स्वामी माना जाता है और उन्हें आवश्यक निर्देश देता है । यह नेत्रों तथा नासिका को भी प्रभावित करता है ।
सहस्त्रार चक्र
यह चक्र सिर के मध्य में स्थित माना जाता है । यह पीनियल ग्रंथि, मस्तिष्क और पूरे शरीर पर अपना अधिकार रखता है । इसका सीधा संबंध आज्ञारव्य चक्र से होता है । आकाश तत्त्व (प्राणशक्ति) के प्रवेश करने का यह मुख्य द्वार है ।
सहस्त्रार चक्र के विकारग्रस्त होने पर पीनियल ग्लैंड्स और मस्तिष्क संबंधी रोग हो सकते हैं । यह शरीर की वृद्धावस्था, रोगों से लड़ने की शक्ति, शरीर तथा मनोमस्तिष्क को परिस्थितियों के अनुकूल बनाने की क्षमता को नियंत्रित करता है ।
साधक प्राणायाम तथा ध्यान द्वारा इन चक्रों पर मन एकाग्र करके उनकी शक्ति एवं संतुलन में वृद्धि कर लेते हैं । इसके फलस्वरूप उन्हें कोई रोग–शोक नहीं होता और वे सदैव स्वस्थ तथा प्रसन्न रहते हैं ।

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