Sunday, August 12, 2018

वेदों में सत्संगति

वेदों में सत्संगति
मात्वाभूराअविष्यवोमोपहस्वानआदभन् ।
माकीम्    ब्रह्मद्विषो     वन: । ।
ऋग्वेद 8/47/23
हे मेरे मन! तुझको मूर्ख स्वार्थ–पीड़ित लोग मत नष्ट करें, मत दबा दें और उपहास करने वाले लोगों से भी दूर रह । ज्ञान व परमेश्वर से प्रीति न रखने वाले मनुष्यों की संगति मत कर ।
जुआ मत खेलो
प्रावेपामबृहतोमादयन्तिप्रवातेजाइरिणेवर्वृताना: ।
सोमस्येवमौजवतस्यभक्षोविभीदकोजागृविर्मह्यमच्छान् । ।
ऋग्वेद 10/34/1
जुआरी कहता है, बड़े–बड़े पासे जिस समय नक्शे (पासा खेलने के स्थान) के ऊपर इधर–उधर चलते हैं, उस समय उन्हें देखकर मुझे बड़ा आनन्द होता है । मूजवान् पर्वत पर उत्पन्न उत्तम सोमलता का  रस पीकर जैसे प्रसन्नता होती है, वैसे ही बहेरे (वृक्ष) के काठ से बना अक्ष (पासा) मेरे लिए प्रीतिप्रद और उत्साहदाता है ।
नमामिमेथनजिहीळएषाशिवासखिभ्य उतमह्यउत्तमह्यमासीत् ।
अक्षास्याहमेकपरस्यहेतोरनुव्रतामपजायामरोधम् । ।
ऋग्वेद 10/34/2
मेरी यह रूपवती पत्नी कभी मुझसे उदासीन नहीं हुई, न कभी मुझसे लज्जित हुई । वह पत्नी मेरी और मेरे बन्धुओं की विशेष सेवा–शुश्रूषा करती थी किन्तु केवल पासे (जुए) के कारण मैंने उस परम अनुरागिनी पत्नी को छोड़  दिया ।
द्वेष्टिश्वश्रूरपाजायारुणद्धिननाथितोविन्दतेमर्डितारम् ।
अश्वस्येवजरतो वरुयस्यनाहंविन्दामिकितवस्यभोगम् । ।
ऋग्वेद 10/34/3
जो जुआरी (कितव) जुआ खेलता है, उसकी सास उसकी निन्दा करती हैं और उसकी स्त्री उसको छोड़ देती है । जुआड़ी किसी से कुछ माँगता है तो उसे कोई नहीं देता है । जैसे बूढ़े घोड़े को कोई नहीं खरीदता है, वैसे ही जुआड़ी का कोई आदर नहीं करता है ।
अन्येजायांपरिमृशन्त्यस्ययस्यागृधद्वेनेवज्यक्ष: ।
पितामाताभ्रातरएनमाहुर्नजानीमोनयताबद्धमेतम्! । ।
ऋग्वेद 10/34/4
पासे का आकर्षण बहुत बुरा है । यदि किसी के धन के प्रति जुआरी की लोभ दृष्टि हो जाए तो उसकी पत्नी विरोधी हो जाती है । जुआड़ी के माता, पिता और सहोदर भ्राता कहते हैं‘हम इसे नहीं जानते । जुआड़ियों! इसे पकड़ कर ले 
जाओ ।’
यदादीध्येनदविषाण्येभि: परायत्भ्योवहीयेसखिभ्य: ।
न्युप्ताश्वबभ्रवोवाचमकतँएमीदेषांनिष्कृतंजारिणीव । ।
ऋग्वेद 10/34/5
जिस समय मैं इच्छा करता हूँ कि अब पासा नहीं खेलूँगा, उस समय साथी जुआड़ियों के पास से हट जाता हूँ किन्तु नक्शे पर पीले पासों को देखकर नहीं ठहरा जाता है । जैसे भ्रष्टा नारी उपपति के पास जाती है, वैसे ही मैं भी जुआड़ियों के घर जाता हूँ ।
समामेतिकितव: पृच्छमानोजेष्यामीतितन्वाशूशुजान% ।
अक्षासोअस्यवितिरन्तिकामप्रतिदीव्नेदधत आकृतानि । ।
ऋग्वेद 10/34/6
जुआड़ी अपनी छाती फुला कर कूदता हुआ जुए के अड्डे पर जाता है और कहता है,‘मैं जीतूँगा । कभी–कभी पासा जुआड़ी की इच्छा पूरी करता है और कभी विपक्ष के जुआड़ी की इच्छा पूरी करता है । अर्थात् कभी–कभी विपक्ष का जुआड़ी जीत जाता है ।
अक्षासाइदंकुशिनोनितोदिनोनिकृत्वानस्तपनास्तापयिष्णव% ।
कुमारदेष्णाजयत:पुनर्हणोमध्वासंपृक्ता:कितवस्यबर्हणा ।
ऋग्वेद 10/34/7
कभी–कभी वही पासा बेहाथ हो जाता है, अंकुश के समान घूमता है, बाण के सदृश छेदता है, छुरे के समान काटता है, तप्त पदार्थ के समान सन्ताप देता है ।
जो जुआड़ी विजयी होता है, उसके लिए पासा सन्तान के जन्म के समान आनन्ददाता होता है, मधुरिमा से युक्त होता है और मानो मीठे वचनों से सम्भाषण करता है । दूसरी ओर हारे हुए जुआड़ी को तो प्राय: मार ही डालता है ।
त्रिपञ्चाश:क्रीळतिव्रातएषांदेव  इवसवितासत्यधर्मा ।
उग्रस्यचिन्मन्यवेनानमन्तेराजाचिदेभ्योनमइत्कृणोति । ।
ऋग्वेद 10/34/8
तिरपन पासे नक्शे के ऊपर मिलकर विहार करते हैं । मानो सत्यस्वरूप सूर्यदेव संसार में विचरण करते हैं । कोई कितना बड़ा उग्र क्यों न होय परन्तु पासा किसी के वश में नहीं आ सकता । राजा तक पासे को नमस्कार करते हैं । इस मन्त्र में व्यञ्जना है ।
नीचावर्तन्त उपरिस्फुरन्त्य हस्तासोहस्तवन्तं सहन्ते ।
दिव्याअंङ्गाराइरिणेन्युप्ता: शीता: सन्तोहृदयंनिर्दहन्ति ।
ऋग्वेद 10/34/
पासे कभी नीचे उतरते हैं और कभी ऊपर उठते हैं । इनके हाथ नहीं हैंय परन्तु जिनके हाथ हैंय वे इनसे हार जाते हैं । वे श्रीसम्पन्न हैं, जलते हुए अंगारे के समान ये नक्शे के ऊपर बैठे हैं । ये छूने में ठण्डे हैं, किन्तु हृदय को जलाते हैं ।
जायातप्यतेकितवस्यहीनामातापुत्रस्यचरत:  क्वस्वित् ।
ऋणावाबिभ्यद्धनमिच्छमानोन्येषामस्तमुपनक्तमेति । ।
ऋग्वेद 10/34/10
जुआड़ी की स्त्री दीन–हीन वेश में यातना भोगती रहती है । जुआड़ी की माता यह सोचकर व्याकुल रहती है कि उसका पुत्र कहाँ–कहाँ घूमा करता है । जो जुआड़ी को उधार देता है, वह इस सन्देह में रहता है कि उसका धन उसे वापस मिलेगा कि नहीं । जुआड़ी बेचारा दूसरे के घर पर रात काटा करता है ।
स्त्रियंदृष्टायकितवंततापान्येषांजायांसुकृतंचयोनिम् ।
पूर्वाह्रेअश्वान्युयुजेहिबभ्रून्त्सो अग्नेरन्तेवृषल:पपाद । ।
ऋग्वेद 10/34/11
अपनी स्त्री की दशा देखकर जुआड़ी का हृदय फटा करता है । अन्यान्य स्त्रियों का सौभाग्य और सुन्दर अट्टालिका देखकर जुआड़ी को सन्ताप होता है । जो जुआड़ी प्रात: काल घोड़े की सवारी कर आता है, वही सन्ध्या–समय दरिद्र के समान जाड़े से बचने के लिए आग तापता हैµशरीर पर वस्त्र भी नहीं रहता ।

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