प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धान्त की कर्म के सिद्धान्त से तुलना
शरीर की चिकित्सा के लिए अनेकानेक चिकित्सा पद्धतियाँ प्रचलित हैं– एलोपैथिक, होम्योपैथिक, आयुर्वेद, यूनानी, हकीमी आदि । ये सभी चिकित्सा पद्धतियाँ औषधियों पर अधारित हैं । शरीर बीमार हुआ, उसके लिए दवा दी गई, तब शरीर ठीक हुआ ।
प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति एक ऐसी अकेली पद्धति है, जिसमें किसी औषधि की आवश्यकता नहीं होती है । कर्म का सिद्धान्त समझने के लिए भी हमें पहले प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धान्त समझना होगा ।
प्राकृतिक चिकित्सा या कुदरती उपचार क्या है ?
प्राकृतिक चिकित्सा या कुदरती उपचार का अर्थ है कि अपने शरीर को प्रकृति या कुदरत के ऊपर छोड़ दें । शरीर में कोई व्याधि होती है तो भी उसके लिए कोई औषधि न लें । प्रकृति शरीर को स्वयं ठीक कर देगी ।
इस बात को हम अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैं,यानी नदी के बहते हुए पानी में स्वत: शुद्धीकरण की क्षमता होती है । जो सामान्य गन्दगी आती है, उसे साफ करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है । नदी का जल तब ही प्रदूषित होता है, जब हम आवश्यकता से अधिक कचरा उसमें डालते रहते हैं । यदि गंगा, यमुना आदि नदियों में या किसी भी नदी में आज की तारीख से भी कचरा डालना बन्द कर दिया जाए तो नदी का पानी कुछ समय में स्वयं को शुद्ध कर लेगा । एक तरफ तो नदी में पिछला कचरा पड़ा है, दूसरी तरफ अब भी कचरा डालते रहते हैं तो यह नदी की स्वत: शुद्धीकरण क्षमता की सीमा से अधिक हो जाता है और नदी का जल प्रदूषित हो जाता है ।
इसी प्रकार यदि किसी की हड्डी टूट जाए तो शरीर में यह क्षमता होती है कि वह स्वयं जुड़ जाती है । प्लास्टर चढ़वाना केवल इसलिए आवश्यक है कि हड्डी सीधी जुड़े ।
इसी प्रकार शरीर में कोई भी बीमारी होती हो तो प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धान्त यह मानता है कि शरीर में कोई विकार है, यदि उसके लिए कोई दवा न दें तो प्रकृति उस विकार को निकाल कर शरीर को स्वस्थ कर देगी । कहा भी गया है–
‘आहारं पचति शिखि, दोषान् आहारवर्जित: ।’
‘अर्थात् जठराग्नि आहार को पचाती है और आहार के अभाव में दोषों को पचाती है ।’ तात्पर्य यह है कि यदि शरीर को बीमारी की अवस्था में आहार न दिया जाए या शोधक आहार दिया जाए तो शरीर में स्थित जठराग्नि को आहार पचाने के कार्य से छुट्टी मिल जाएगी और वह शरीरस्थ विकारों को पचा कर शरीर को रोगमुक्त कर देगी ।
इसी के साथ यदि शरीर को बीमारी की अवस्था में आराम भी दिया जाए तो शरीर और जल्दी स्वस्थ हो जाता है ।
प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धान्त को निम्न बिन्दुओं से समझा जा सकता है–
· प्रकृति में स्वयं रोग निवारक क्षमता होती है ।
· रोग इस बात का संकेत करते हैं कि शरीर में विकार हैं । प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार रोग शत्रु नहीं मित्र हैं। प्रकृति द्वारा विकार बाहर निकालने का उपक्रम मात्र रोग हैं । जब तीव्र रोग होता है तो इसका अर्थ है,शरीर में विकार की मात्रा काफी अधिक है ।
· तीव्र रोग एकाएक नहीं होता है । शरीर में पहले हल्का रोग होता है । हम शरीर के
उस विकार को निकलने नहीं देते हैं और दवा के द्वारा रोग को दबा देते हैं । इस प्रकार विकार इकट्ठा होते जाते हैं
फिर वह तीव्र रोग के रूप में उभरते हैं ।
· गाँधी जी कहते हैं,‘जो व्यक्ति कुदरत के नियमों का पालन करेगा वह बीमार पड़ेगा ही नहीं । यदि बीमार पड़ेगा भी तो जिन पंचतत्त्वों से यह शरीर बना है, उन्हीं की मदद से उसे सही कर लेगा । पंचतत्त्वों अर्थात्,मिट्टी, पानी, धूप, हवा और आकाश । इनमें रामनाम साथ में चलते रहना चाहिए ।’
· प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने के फलस्वरूप ही बीमारी होती है । सुबह देर से उठना, रात्रि में देर से सोना । देर रात तक खाना, बिना भूख लगे खाना, बिना चबाए खाना अर्थात् दाँतों का कार्य आँतों
से करना आदि ।
· पक्षियों को कोई पढ़ाता नहीं है कि ब्रह्ममुहूर्त में उठो किन्तु कभी प्रात: तीन बजे उठें, पक्षियों का शोर सुनाई पड़ेगा और सन्ध्याकाल में पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड उड़ते हुए दिखाई देंगे, वापस अपने घरौंदों में लौटते हुए ।
अर्थात् पशु–पक्षी भी सहज ही प्रकृति के नियमों के अनुसार चलते हैं । पशु पक्षी बीमार पड़ जाने पर भोजन छोड़ देते हैं, अर्थात् शरीर में जो अपचा भोजन विकार के रूप में विद्यमान है वह दूर हो जाता है, तब वह स्वाभाविक भूख लगने पर ही भोजन करते हैं ।
पशु पक्षियों के समक्ष चाहे जितना मनपसन्द भोजन पड़ा हो, वह उसे तब तक नहीं खाते हैं, जब तक उन्हें भूख न लगी हो । बीमार पड़ने पर वह स्वाभाविक रूप से उपवास कर लेते हैं । हम पालतू पशुओं की आदतें अपनी जैसी डाल लेते हैं अर्थात् बीमार पड़ने पर उसकी दवा करने लगते हैं, उससे रोग दब जाता है, जो बार–बार उभरता है, उसे हम रोग का नाम दे देते हैं ।
इसी प्रकार पालतू पशुओं की आदतें बदल जाती हैं और वह भी बिना भूख लगे खाने लगते हैं ।
कर्म का सिद्धान्त
कर्म के सिद्धान्त और प्राकृतिक चिकित्सा के सिद्धान्त में कोई खास अन्तर नहीं है । हम जिस तरह अपनी जीवनचर्या रखते हैं, वैसा ही स्वास्थ्य रहता है । इसी प्रकार हम जैसे कर्म करते हैं वैसा ही फल प्राप्त होता है । लोक व्यवहार में हम सदा ऐसा नहीं देखते हैं । अक्सर बुरे लोगों का जीवन अच्छा बीतता है और अच्छे लोगों का जीवन बुरा बीतता है । तब सत्कर्म का क्या फल है ? दुष्कर्म का क्या फल है ?
यदि हम शारीरिक स्वास्थ्य को देखें तो जब व्यक्ति उपवास करता है, तब उसके अन्दर के नाना प्रकार के रोग उभरते हैं । प्राकृतिक चिकित्सक उपवास का अर्थ मात्र जल के उपवास से लेते हैं । शरीर में जितनी गन्दगी जमा होती है वह उपवास करने से उभरती है और अन्तत: निकल कर शान्त हो जाती है ।
जब उपवास करने पर शरीर से गन्दगी निकलने लगती है तो उसे हम रोग का नाम दे देते हैं । प्रकृति शरीर से वस्तुत: गन्दगी केवल मल–मूत्र के रूप में ही नहीं निकालती वरन् बुखार, दानों, खाँसी, जुकाम आदि विभिन्न रोगों के माध्यम से भी गन्दगी निकालती है ।
प्राकृतिक चिकित्सक इन रोगों में कोई औषधि न लेने की सलाह देते हैं, जिससे प्रकृति स्वाभाविक रूप से अपना कार्य कर सके । इस प्रकार दवा न देने से रोगों के रूप में उभार द्वारा शरीर का विकार निकल जाता है और शरीर रोगमुक्त हो जाता है ।
वस्तुत: प्राकृतिक चिकित्सक किसी रोग की चिकित्सा नहीं करता है, वह तो केवल शरीर में स्थित विकार को बाहर निकालने में मदद करता है । इसके लिए वह प्राकृतिक तत्त्वों मिट्टी, पानी, धूप, हवा और आकाश तत्त्व की मदद लेता है । आकाश तत्त्व के लिए उपवास द्वारा, शुद्ध वायु व प्राणायाम द्वारा वायु तत्त्व, सूर्य स्नान द्वारा धूप, जल चिकित्सा द्वारा जल तत्त्व की पूर्ति करता है और मिट्टी के लेप द्वारा या नंगे पैर मिट्टी पर टहलने से मिट्टी तत्त्व की पूर्ति होती है ।
यदि रोगी व्यक्ति बीमार पड़ने पर कुछ न करे, तब भी वह ठीक हो
जाएगा । प्राकृतिक–चिकित्सा से विकार थोड़ा जल्दी निकल जाते हैं, लेकिन शरीर में अपने को ठीक करने की क्षमता स्वयं मौजूद होती है । इसी प्रकार जब अच्छे व्यक्ति को बुरा कर्मफल मिलता है तो उसके कर्म भोग कटते हैं । जिस प्रकार उपवास करने पर रोग उभरते हैं व स्वत: ही शान्त हो जाते हैं और व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है, उसी प्रकार कर्मभोग उभर कर शान्त हो जाते हैं। जब हम शरीर को प्रकृति के ऊपर छोड़ देते हैं, तब प्रकृति शरीर में स्थित विकारों को पसीना, बुखार, जुकाम, फोड़ा या अन्य रूप में निकालती है । जब हम प्रकृति को सहजरूप में इस कार्य को करने देते हैं, दवाओं से विकारों को दबाते नहीं हैंय तब शरीर से विकार निकल कर शीघ्र ही शरीर स्वस्थ हो जाता है । इसी प्रकार हमारे पूर्वकृत बुरे कर्मों का फल भी विभिन्न परेशानियों के रूप में मिलता है ।
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