Sunday, August 12, 2018

वेदों में दान का संदेश

हम सुपथ पर चलें
मा प्रगाम पथो वयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिन: ।
मान्त      स्थुर्नो     अरातय: । ।
अथर्ववेद 13/1/59
हे परमपिता! हम सुपथ से कभी दूर न जावें ओर ऐश्वर्ययुक्त देवपूजा, संगतिकरण और दान व्यवहार से भी दूर न जावें । अदानी लोग हमारे बीच न ठहरें । अर्थात् हम सुपथ पर चलें और सुपात्रों को सदा दान देते रहें । 
दान करें
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेता:, सत्यं ब्रवीमि वध इत् स तस्य ।
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं, केवलाघो भवति केवलादी । ।
ऋग्वेद 10/117/6
जो मनुष्य यज्ञ द्वारा देवों की (परमात्मा की) पुष्टि नहीं करता है, न ही दान द्वारा अपने साथियों की पुष्टि करता है । वह मनुष्य व्यर्थ ही भोग–सामग्री को पाता है । सत्य कहता हूँ कि वह भोग–सामग्री उस मनुष्य के लिए मृत्युरूप ही होती है, अर्थात् उसका नाश करने वाली होती है । अकेला खाने (भोगने) वाला मनुष्य केवल पाप को ही भोगने वाला होता है ।
धन कभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता है
पृणीयादिन्नाधमानायतव्यान्द्राधीयां समनुपश्येत पन्थाम् ।
ओहिवर्तन्तेरथ्येवचक्रान्यमन्यमुपतिष्ठन्तराय:॥
ऋग्वेद 10/117/5
याचक को धन अवश्य देना चाहिए । दाता को अत्यन्त लम्बा मार्ग (पुण्य–पथ) मिलता है । जैसे रथ–चक्र नीचे ऊपर घूमता है, वैसे ही धन भी कभी किसी के पास रहता है और कभी दूसरे के पास चला जाता हैµकभी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहता है ।
देने वाले की धन –सम्पत्ति क्षीण नहीं होती है
न वा उ देवा: क्षुधमिद् वधं ददुरुताशितमुपगच्छन्ति मृत्यव: ।
उतो रयि: पृणतो नोपदस्यत्युतापृणन्मर्डितारं न विन्दते । ।
ऋग्वेद 10/117/1
देवों ने क्षुधा (भूख) की जो सृष्टि की है, वह प्राणनाशिनी हैय परन्तु आहार करने पर भी तो प्राण को मृत्यु से छुट्टी नहीं मिलती है ।
देने वाले की धन–सम्पत्ति क्षीण नहीं होती है और जो दान न देने वाला है, उसको कोई सुखी नहीं कर सकता है । अपने धन को सत्कार्यों में लगाता रहूँ
ये नदीनां   संस्रवन्त्युत्सास:  सदमक्षिता: ।
तेभिर्मे  सर्वे:  संस्रावैर्धनं  सं स्रावयामसि । ।
अथर्ववेद 1/15/3
ये जो सदा चलते रहने वाले, कभी बन्द न होने वाले नदियों के स्त्रोत निरन्तर बजते रहते हैंय उन्हीं सब प्रवाहों के साथ की तरह मैं भी अपने धन को (सत्कार्यों में) लगातार प्रवाहित करता रहूँ ।
सौ हाथों से कमाओ, हजार हाथों से बाँटो
शतहस्त समाहर सहस्त्रहस्त संकिर ।
कृतस्य कार्यस्य चेह स्फातिं समावह । ।
अथर्ववेद 3/24/5
है मनुष्य! तू सौ हाथों से धन अर्जन कर और हजार हाथों से बाँट । अर्थात् सत्कर्मों से धन एकत्र करके सुपात्रों को दान दे । इस तरह अपने किए हुए की और किए जाने वाले की बढ़ती हुई फसल को इस संसार में ठीक प्रकार से प्राप्त कर । सत्पात्रों को दिया हुआ तेरा दान बढ़ती हुई फसल के समान तुझे अनन्त गुणा होकर प्राप्त होगा ।

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