वेदों में परस्पर मित्रता की कामना
परस्पर मित्रता हो
अक्ष्यौ नौ मधुसंकाशे अनीकं नौ समञ्जनम् ।
अन्त: कृणुष्व मां हृदि मन इन्नौ सहासति । ।
अथर्ववेद 7/36/1
हम दोनों मित्रों की दोनों आँखें ज्ञान का प्रकाश करने वाली हों । हम दोनों का मुख यथावत् विकास वाला होवे । हमें अपने हृदय के भीतर कर लो । हम दोनों का मन भी एकमेव हो । अर्थात् हम सदा ही प्रीतिपूर्वक रहें ।
सभी के प्रति मित्रभाव हो
दृते दृंह मा मित्रस्य मा चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षन्ताम् ।
मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे ।
मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे । ।
यजुर्वेद 36/18
हे परमात्मा! तुम मुझे दृढ़ बनाओ । सर्वभूत मुझे मित्र की दृष्टि से देखें । मैं भी सर्वभूतों को मित्र की ही दृष्टि से देखूँ । हम परस्पर मित्र की दृष्टि से देखें ।
सभी का एकमत हो
संगच्छध्वं संवदध्वं संवोमनांसि जानताम् ।
देवाभागंयथापूर्वे संजानाना उपासते । ।
ऋग्वेद 10/191/2
हे स्तीताओं! तुम मिलकर रहो । एक साथ स्तोत्र पढ़ो और तुम लोगों का मन एक सा हो । जैसे प्राचीन देवता एकमत होकर अपना हविर्भाग स्वीकार करते हैं, वैसे ही तुम लोग भी एकमत होकर रहो ।
सबके विचार एक हों
समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सह चित्तमेषाम् ।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रयेव: समानेनवोहविषाजुहोमि । ।
ऋग्वेद 10/191/3
इन पुरोहितों की स्तुति एक सी हो, इनका आगमन एक साथ हो और इनके मन (अन्त:करण) तथा चित्त (विचारजन्य ज्ञान) एकविध हों ।
द्वेषभाव न हो
नयसीद्वति द्विष: कृणोष्युक्थशंसिन: ।
नृभि: सुवीर उच्यसे । ।
ऋग्वेद 6/45/6
हे प्रभु! तू द्वेष करने वाले के द्वेषभाव को निश्चय ही निकाल डालता है । तू उन्हें अपना प्रशंसक बना देता है । सच्चे मनुष्यों से तू सुवीर कहलाता है ।
ईर्ष्या से मुक्त हों
ईर्ष्याया ध्राजिं प्रथमां प्रथमस्या उतापराम् ।
अग्निं हृदह्यं शोकं तं ते निर्वापयामसि । ।
अथर्ववेद 6/18/1
परमात्मा की वाणी है, हे ईर्ष्यासंतप्त पुरुष! हम ईर्ष्या की पहली ही वेगवती गति को, ज्वाला को बुझाते हैं । पहली के बाद वाली ज्वाला को भी बुझाते हैं । इस तरह हे मनुष्य! तेरी उस हृदय में जलने वाली अग्नि को तथा उसके शोक–संताप को बिल्कुल शान्त कर देते हैं ।
अर्थात् मनुष्य दूसरे की वृद्धि देख कर कभी ईर्ष्या न करे ।
द्वेष की परम्परा का अवसान
इदमुच्छ्रेयो अवसानमागां, शिवे मे द्यावापृथिवी अभूताम् ।
असपत्ना: पृदिशो मे भवन्तु,
न वै त्वा द्विष्मो अभयं नो अस्तु । ।
अथर्ववेद 19/41/1
हे भाई! मैं ही तेरे साथ द्वेष करना छोड़ देता हूँ । अब यह ही कल्याणकर है कि मैं अब समाप्ति पर आ जाऊँ, शत्रुता की परम्परा का विराम कर दूँ । द्यौ और पृथिवी भी मेरे लिए अब कल्याणकारी हो जाएँ । सभी दिशाएँ मेरे लिए शत्रु–रहित हो जाएँ । मेरे लिए अब अभय ही अभय हो जाए ।
हम सदा निर्वैर हों
अनमित्रं नो अधरादनमित्रं न उत्तरात् ।
इन्द्रानमित्रं न पश्चादनमित्रं पुरस्कृधि।।
अथर्ववेद 6/40/3
हे प्रभु इन्द्र! हमारे लिए नीचे से निर्वैरता, हमारे लिए ऊपर से निर्वैरता, हमारे लिए पीछे से निर्वैरता और हमारे लिए आगे से निर्वैरता तू हमारे लिए कर
दे । अर्थात् हम सदा निर्वैर हो कर रहें ।
परिवार में सब मिलकर रहें
इहैव स्तं मा वि यौष्टं विश्वमायुर्व्यश्नुतम् ।
क्रीडन्तौ पुत्रैर्नप्तृभिर्मोदमानौ स्वस्तकौ । ।
अथर्ववेद14/1/22
हे वर-वधू! यहाँ गृहस्थाश्रम के नियमों में ही तुम दोनों रहो । कभी अलग मत होओ । पुत्रों के साथ तथा नातियों के साथ क्रीड़ा करते हुए, हर्ष मनाते हुए और उत्तम घर वाले तुम दोनों सम्पूर्ण आयु को प्राप्त होओ । इस मन्त्र में आपसी प्रेम व संयुक्त परिवार का संदेश है ।
अनुव्रत: पिता पुत्रो माता भवतु संमना: ।
जाया पत्ये मधु वाचं वदतु शान्तिवान् । ।
अथर्ववेद 3/30/2
पुत्र पिता के अनुकूल व्रती हो कर माता के साथ एक मन वाला होवे । पत्नी पति से मधुवत् अर्थात् मधु से सनी के समान और शान्तिप्रद वाणी बोले ।
अर्थात् सन्तान माता–पिता की आज्ञाकारी और माता–पिता सन्तानों के हितकारी हों । पति–पत्नी आपस में मधुरभाषी और मित्र हों ।
ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पय: कीलालं परिस्त्रुतम् ।
स्वधा स्थ तर्पयत् मे पितृन् । ।
यजुर्वेद 2/34
पितरों को अनेक प्रकार के उत्तम–उत्तम रस, स्वादिष्ट जल, अमृतमय औषधि, दूध घी, स्वादिष्ट भोजन, रस से भरे हुए फलों को दे कर तृप्त करो । परधन का त्याग करके अपने को प्राप्त धन का उपयोग करने वाले होओ ।
अर्थात् जिस प्रकार पितर अर्थात् माता–पिता आदि ने हमें पाला है, उसी प्रकार हमें भी उनकी सेवा व सत्कार करना चाहिए ।
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्मा स्वसारमुत स्वसा ।
सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया । ।
अथर्ववेद 3/30/3
भाई भाई से द्वेष न करें । बहन बहन से भी नहीं । एकमत वाले और एकव्रती हो कर कल्याणी रीति से वाणी बोलो । अर्थात् परिवार में सब प्रेमपूर्वक रहें ।
स्त्रियों को सम्मान
यो जाम्या अप्रथयस्तद् यत् सखायं दुधूर्षति।
ज्येष्ठो यदप्रचेतास्तदाहुरधरागिति।।
अथर्ववेद 20/128/2
जो मनुष्य कुलस्त्री को गिराता है । वह पुरुष और जो मित्र को मारना चाहता है ओर जो अतिवृद्ध हो कर भी अज्ञानी है । वह लोग अधोगति को प्राप्त होते हैं । अर्थात् जो कुलीन स्त्री का अपमान करता है या मित्रघाती है या वयोवृद्ध हो कर भी अज्ञानी है अर्थात् परमात्मा को नहीं भजता है, वह अधोगति को प्राप्त होता है ।
सम्राज्ञी एधि श्वशुरेषु सम्राज्ञी उत देवृषु ।
ननान्दु: सम्राज्ञी एधि सम्राज्ञी उत श्वश्र्वा: । ।
अथर्ववेद 14/1/44
हे वधू!! तुम अपने श्वसुर, सास देवरों तथा ननदों के मध्य सम्राज्ञी हो । अर्थात् वधू! अपने विद्या और बुद्धि के बल से तथा अपने कर्तव्यों से छोटे–बड़े सबके मध्य प्रतिष्ठित हो । वधू! को भी ससुराल पक्ष के लोगों को सम्मान देना चाहिए ।
अघोरचक्षुरपतिघ्नी स्योना शग्मा सुशेवा सुयमा गृहेभ्य: ।
वीरसूर्देवृकामा सं त्वयैधिषीमहि सुमनस्यमाना । ।
अथर्ववेद 14/2/17
हे वधू! तू घर वालों के लिए प्रिय दृष्टि वाली, पति को न सताने वाली, सुखदायिनी, कार्यकुशला, सुन्दर सेवा वाली, सुन्दर मनवाली, वीरों को उत्पन्न करने वाली और प्रसन्न चित्त वाली हो । तेरे साथ मिल कर हम सब घर वाले बढ़ते रहें
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