Sunday, August 5, 2018

आपके हाथ शक्ति का स्त्रोत

    सम्पूर्ण प्रकृति पाँच महातत्त्वों के मिश्रण से बनी है,आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी । हाथ में भी पाँच ही उंगलियाँ होती हैं ।

    भारतीय योगियों के अनुसार ये पाँच उंगलियाँ प्रकृति के इन पाँच महातत्त्वों की प्रतीक हैं । जैसे मध्यमा–आकाश, तर्जनी–वायु, अँगूठा–अग्नि, अनामिका पृथ्वी तथा कनिष्ठिका–जल महातत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती है । योग में उंगलियों को एक–दूसरे से स्पर्श करते हुए किसी स्थिति विशेष में इनकी जो आकृति बनती है, उसे मुद्रा कहते हैं । स्थिति विशेष के अनुसार ही मुद्राओं के अलग–अलग नाम भी हैं । जैसे भौतिक जगत में मुद्रा (धन) का विशिष्ट स्थान है, उसी प्रकार योग में भी इन मुद्राओं का विशिष्ट स्थान है ।

    मुद्रा विज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार शरीर के पंच महातत्त्वों में विकृति या विषमता आने पर रोग होता है । यदि इन पंच महातत्त्वों की विकृति एवं विषमता दूर कर दी जाए तो सम्बन्धित रोग स्वयं दूर हो जाते हैं । जैसा कि उपर्युक्त पंक्तियों में बताया जा चुका है कि हाथ की पाँचों उंगलियाँ अलग–अलग पंच–महातत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं । फलस्वरूप इन उंगलियों के आपसी स्पर्श से इन तत्त्वों को सम अवस्था में किया जा सकता है । पाँचों उंगलियों से अलग–अलग विद्युत प्रवाह भी निकलता है । अतएव जब उंगलियों का रोगानुसार आपसी स्पर्श करते हैं तब विद्युत प्रवाहित होकर शरीर में समाहित शक्ति जागृत हो जाती है और हमारा शरीर दिव्य एवं निरोगी होने लगता है ।

मुद्राओं का लाभ

    मुद्राओं से अनेक लाभ हैं । शरीर निरोगी होता है । मन में सद्भावना, अहिंसा, पवित्रता एवं सदाचार का विकास होता है । जो व्यक्ति अपने जीवन को समृद्ध, निरोगी एवं शक्तिमय बनाना चाहते हैं, उन्हें अपनी आवश्यकतानुसार मुद्राओं का नियमित अभ्यास करना चाहिए ।

मुद्राओं का अभ्यास बालक–वृद्ध, स्त्री–पुरुष सभी कर सकते हैं ।

विभिन्न मुद्राएँ एवं अभ्यास की विधि

    प्रात: शौच, स्नान आदि से निवृत्त होकर, आसन बिछाकर किसी ध्यानात्मक आसन में बैठकर निर्धारित प्राणायाम की साधना करें अथवा 8–10 बार गहरी श्वास लें और छोड़ें । उसके बाद शान्तचित्त, एकाग्र होकर दोनों हाथों से मुद्राएँ करें । विशेष परिस्थितियों में इन्हें एक हाथ से कभी भी कर सकते हैं ।



    मुद्राओं के फल की प्राप्ति हेतु कम–से–कम चालीस (40) मिनट का अभ्यास आवश्यक है किन्तु अभ्यास का समय धीरे–धीरे ही बढ़ाना चाहिए । जो भी मुद्रा करें उसमें प्रयुक्त उंगलियों के अतिरिक्त शेष को सीधा ही रखना चाहिए अन्यथा मुद्राएँ ठीक प्रकार से अपना प्रभाव नहीं दिखातीं । आज के सामान्य व्यक्तियों के लिए चालीस (40) मिनट की बैठक अत्यंत कठिन है । इसलिए प्राणायाम और ध्यान के समय अपनी निर्धारित मुद्रा का अभ्यास लगाकर बैठना व्यावहारिक होगा क्योंकि सामान्यत: पन्द्रह (15) मिनट का प्राणायाम एवं तीस (30) मिनट का ध्यान योगाभ्यासी लगाते ही हैं । यदि साथ में मुद्रा भी कर लें तो पैंतालीस (45) मिनट की मुद्रा स्वत: हो जाती है अर्थात् ‘एक पंथ दो काज’ हो जाते हैं ।



    उपर्युक्त नियम सैद्धान्तिक हैं लेकिन जिन मुद्राओं को यहाँ बताया जा रहा है वह किसी भी अवस्था में की जा सकती हैं । विशेषकर रोग के समय लेटे–बैठे किसी भी स्थिति में उस रोग से सम्बन्धित मुद्रा कर सकते हैं । चलते–फिरते, बातचीत करते हुए भी कर सकते हैं ।



विशेष: मुद्रा–चिकित्सा किसी भी चिकित्सा पद्धति के साथ करने में उस रोग को शीघ्र ठीक करने में सहायता ही करती है । रोग के अनुसार कई मुद्राएँ एक के बाद एक की जा सकती हैं ।



    मुद्राएँ असंख्य हैं, यहाँ पर कुछ अति उपयोगी मुद्राओं की ही चर्चा करेंगे । जैसे,1– ज्ञान मुद्रा, 2– अपान मुद्रा, 3– शून्य मुद्रा, 4– आकाश मुद्रा, 5– सूर्य मुद्रा, 6– वायु मुद्रा, 7– प्राण मुद्रा, 8– पृथ्वी मुद्रा, 9– वरुण मुद्रा, 10– अंगुष्ठ मुद्रा, 11– मृगी मुद्रा और 12– शंख मुद्रा ।



ज्ञान मुद्रा : मस्तिष्क शक्ति विकासक


   
मुद्रा विज्ञान में ज्ञान मुद्रा का विशेष महत्त्व है क्योंकि इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से स्मरणशक्ति एवं एकाग्रता में वृद्धि होती है और नींद अच्छी आती है । इसलिए उपासना एवं ध्यान में प्राय: इसी मुद्रा में बैठते हैं । बच्चों में ज्ञान मुद्रा के निरन्तर अभ्यास से बौद्धिक प्रतिभा बढ़ती है । इस मुद्रा का जितना अधिक अभ्यास करेंगे, उतना ही अधिक लाभ बढ़ता जाएगा ।

 

विधि : किसी ध्यानात्मक आसन में बैठ कर हाथों को घुटनों के ऊपर रख लें और हथेली का मुँह आसमान की ओर कर लें । अब अँगूठे (अग्नि तत्त्व) और तर्जनी (वायु तत्त्व) के ऊपरी पोरों को आपस में स्पर्श करें । इसी को ज्ञान मुद्रा कहते हैं ।

ध्यान दें! : अँगूठे और तर्जनी के अग्रभागों को केवल स्पर्श करें, जोर से दबाएँ नहीं ।



अपान मुद्रा : मूत्र रोगनाशक


     अपान मुद्रा के अभ्यास से शरीर के अन्दर का हर प्रकार का मल एवं गन्दगी धीरे–धीरे बाहर आ जाती है और शरीर निरोग हो जाता है । यदि किसी का मूत्र बन्द हो गया हो या रुक–रुक कर आता हो तो अपान मुद्रा के चालीस (40) मिनट के अभ्यास से खुल जाता है । कुछ दिनों के अभ्यास से रुक–रुक कर मूत्र आना भी ठीक हो जाता है । बहुत से लोगों को पसीना ही नहीं आता जिसके कारण वे बहुत कष्ट में रहते हैं । अपान–मुद्रा के अभ्यास से स्वाभाविक रूप से पसीना आने लगता है ।

विधि : किसी ध्यानात्मक आसन में बैठ कर हाथों को घुटनों के ऊपर रख करके मध्यमा (आकाश तत्त्व) एवं अनामिका (पृथ्वी तत्त्व) के आगे के भागों को अँगूठे (अग्नि तत्त्व) के आगे के भाग से मिलाने से अपान मुद्रा बनती है ।



शून्य मुद्रा : कर्ण रोग नाशक


 
   शून्य मुद्रा के अभ्यास से कान के रोगों में लाभ होता है । जैसे,कान दर्द, कान का बहना, बहरापन आदि में शून्य मुद्रा के नियमित अभ्यास से शीघ्र एवं चमत्कारी लाभ होता है । यदि कान दर्द के शुरू होते ही इस मुद्रा का प्रयोग किया जाए तो 5–10 मिनट में ही दर्द कम हो जाता है । यदि किसी कारण से इस मुद्रा के अभ्यास से कर्ण रोग में पूरा लाभ न मिले तो आकाश मुद्रा का अभ्यास करें ।

विधि : चित्रानुसार मध्यमा उंगली को मोड़कर अँगूठे के नीचे बनी गद्दी वाली जगह को स्पर्श करें तथा अँगूठे से मध्यमा उंगली के ऊपरी भाग को दबाएँ । शेष उंगलियों को सीधा रखें । यह शून्य मुद्रा है ।

शून्य मुद्रा की पूरक आकाश मुद्रा अँगूठे के साथ मध्यमा के पोर को मिलाने से बनती है ।



सूर्य मुद्रा : मोटापा नाशक

   
सूर्य मुद्रा के नियमित अभ्यास से मोटापा घटता है । जो लोग मोटे हैं और किसी भी प्रकार से उनका मोटापा नहीं घटता, वे सूर्य मुद्रा का अवश्य अभ्यास करें ।


    मांगलिक उत्सव, विवाह, पूजन आदि में ललाट पर अनामिका या अँगूठे से तिलक लगाया जाता है । चूँकि वहाँ आज्ञा चक्र होता है, जो तिलक लगाने की इस विधि से अदृष्ट शक्ति ग्रहण कर तेजोमय हो जाता है और व्यक्तित्त्व में निखार आने लगता है ।

विधि : सूर्य मुद्रा के चित्र में बताए अनुसार अनामिका उंगली को मोड़कर अँगूठे से दबाएँ । शेष तीनों उंगलियाँ सीधी खड़ी रखें । यह सूर्य मुद्रा है ।



वायु मुद्रा : वायु रोग नाशक

 
   मुद्रा विज्ञान के अन्वेषकों का कहना है कि उचित आहार विहार के साथ वायु मुद्रा के नियमित अभ्यास से समस्त वायु रोग ठीक हो जाते हैं । वायु से होने वाली हर प्रकार की पीड़ा में वायु मुद्रा के अभ्यास से आराम मिलता है । वायु रोग के अन्तर्गत जोड़ों के दर्द, गठिया, कम्पन रोग, गैस, लकवा, पक्षाघात, हिस्टीरिया आदि अस्सी प्रकार के रोग आते हैं । यदि वायु मुद्रा से वायु रोग में आशातीत लाभ न दिख रहा हो तो उसके साथ–साथ प्राण मुद्रा का अभ्यास करें । चूँकि वायु मुद्रा से शरीर में वायु तत्त्व संतुलित होने लगता है, फलस्वरूप वायु से सम्बन्धित रोग ठीक हो जाते हैं ।

विधि : वायु मुद्रा के चित्र में दिखाए अनुसार तर्जनी को मोड़कर अँगूठे से हल्का सा दबाएँ । शेष तीनों उंगलियाँ सीधी खड़ी रखें । यह वायु मुद्रा है ।



 

प्राण मुद्रा : नेत्र ज्योति एवं प्राण शक्ति विकासक

     प्राण मुद्रा के अभ्यास से नेत्रों की ज्योति व जीवनीशक्ति बढ़ती है । प्राण मुद्रा के अभ्यास से प्राणशक्ति या जीवनीशक्ति बढ़ने के कारण शरीर में रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है, जिसके कारण बीमारियों के बैक्टीरिया और वायरस के आक्रमण का प्रभाव नहीं पड़ता । प्राण मुद्रा के नियमित अभ्यास से हृदय रोगों में लाभ होता है और आत्मबल बढ़ता है ।

विधि : चित्रानुसार कनिष्ठिका, अनामिका एवं अँगूठे के पोरों को एक साथ स्पर्श कराएँ, शेष दोनों उंगलियाँ सीधी रखें । यह प्राण मुद्रा है ।





पृथ्वी मुद्रा : शक्तिवर्द्धक

     जिस तरह से पृथ्वी हमारा पोषण करती है, उसी तरह से पृथ्वी मुद्रा शरीर का पोषण करती है अर्थात् पृथ्वी मुद्रा प्राकृतिक टॉनिक है । दुर्बल एवं पतले–दुबले व्यक्तियों को संतुलित शरीर प्रदान करने में पृथ्वी मुद्रा का नियमित एवं लम्बे समय तक अभ्यास करना चाहिए । वजन संतुलित करने के लिए पृथ्वी मुद्रा एक अचूक उपाय है । पृथ्वी मुद्रा के अभ्यास से स्वभाव में सहिष्णुता का विकास हो जाता है ।

विधि : चित्रानुसार अनामिका को अँगूठे के ऊपरी भाग से स्पर्श कराएँ । शेष तीनों उंगलियाँ सीधी रखें । यह पृथ्वी मुद्रा है ।




वरुण मुद्रा : चर्म रोग नाशक

 
वरुण मुद्रा के नियमित अभ्यास से रक्त संचार सन्तुलित होता है । रक्त शुद्धि होती है, फलस्वरूप चर्म रोग दूर होता है । वरुण मुद्रा के अभ्यास से शरीर में जल तत्त्व की कमी भी दूर हो जाती है ।

विधि : चित्रानुसार कनिष्ठिका और अँगूठे के पोर को मिलाएँ । यह वरुण मुद्रा

 है ।







अँगुष्ठ मुद्रा : खाँसी–जुकाम नाशक

    मुद्रा विज्ञान के अनुसार अँगूठे में अग्नि तत्त्व होता है । अग्नि का गुण गर्मी उत्पन्न करना है । फलस्वरूप अँगुष्ठ मुद्रा के अभ्यास से शरीर में गर्मी बढ़ने लगती है और बढ़ा हुआ कफ जल जाता है या पिघल कर बाहर निकल जाता है । फलस्वरूप खाँसी, जुकाम, सर्दी ठीक हो जाती है । जिन्हें ठण्डक अधिक लगती हो उनको इस मुद्रा के अभ्यास से आराम मिलता है ।



विधि : चित्रानुसार बाएँ हाथ का अँगूठा खड़ा रखकर दोनों हाथों

की उंगलियों को इस प्रकार फँसाएँ कि दाएँ हाथ की पहली उंगली,

बाएँ हाथ के अँगूठे व पहली उंगली के बीच में आ जाए । यह अंगुष्ठ मुद्रा है ।



शंख मुद्रा : वाणी विकार नाशक

   
शंख मुद्रा के नियमित अभ्यास से गले के रोगों और वाणी विकारों में लाभ होता है । भारतीय योगियों का कथन है कि ॐ शब्द के लगातार उच्चारण के साथ ही घंटा और शंख ध्वनियों को सुनने से कैन्सर जैसी तकलीफों में भी शीघ्र लाभ होता है । इसी प्रकार का लाभ शंख मुद्रा के अभ्यास से भी हो सकता है ।



विधि : चित्रानुसार बाएँ हाथ के अँगूठे को दाएँ हाथ की चारों उंगलियों से पकड़ें । अब दाएँ हाथ के अँगूठे को बाएँ हाथ की तर्जनी से मिलाएँ । शेष तीनों उंगलियाँ दाएँ हाथ से बनी मुट्ठी से लगाकर सीधी रखें । यह शंख मुद्रा है ।



अपान–वायु मुद्रा : हार्ट–अटैक रोकथाम

   
इस मुद्रा का उपयोग हृदय रोग (हार्ट–अटैक) के आक्रमण की सम्भावना होने पर प्राथमिक चिकित्सा के रूप में करने के तुरन्त लाभ होता है अथवा यों कहें कि इस मुद्रा को लगवाकर रोगी को आने वाले खतरे से बचाया जा सकता है । फिर किसी योग्य चिकित्सक को दिखा कर रोगी का पूरा इलाज करावें ।



विधि : तर्जनी उंगली के अग्रभाग को अँगूठे की जड़ में लगाकर मध्यमा व अनामिका के अग्रभाग को अँगूठे से मिलाने से अपान वायु मुद्रा बनती है ।

    उपर्युक्त मुद्राएँ राजयेाग की सूक्ष्म मुद्राएँ हैं । इसी प्रकार हठयोग की प्रसिद्ध पुस्तक ‘घेरण्ड संहिता’में पच्चीस प्रकार की स्थूल मुद्राओं का वर्णन है, जिनके अभ्यास से कुण्डलिनी जागरण हो सकता है ।

 

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