Sunday, August 12, 2018

सदाचरण


अनुपयोगी धन को मुझसे जुदा  कर दे
या मा लक्ष्मी: पतयालूरजुष्टा, अभिचस्कन्द वन्दनेन वृक्षम् ।
अन्यत्रास्मत् सवितस्तामितो धा:, हिरण्यहस्तो वसु नो रराण: । ।
अथर्ववेद 121–7/115/2
हे परमेश्वर! मेरे पास असेवित, काम न आने वाली लक्ष्मी पड़ी हुई है । अतएव वह मुझे दुराचार में गिराने वाली है । जैसे वन्दना बेल जिस वृक्ष पर लगती है वह उसे बिल्कुल सुखा देती है । तू मुझसे इस अनुपयोगी धन को मुझसे जुदा  कर दे ।
हे परमेश्वर! तेरे हिरण्यहस्त से मुझे ऐसा धन प्राप्त होता रहे जो ऐश्वर्य को बढ़ाने में सहायक हो, प्रीतिमय सेवा में काम आवे ।
पापी बुद्धि से मुक्ति
यास्ते     शिवास्तन्व:     काम      भद्रा:, 
याभि:     सत्यं    भवति    यद्    वृणीषे ।
ताभिष्ट्वमस्माँ अभिसंविशस्व, अन्यत्र पापीरप वेशया धिय: । ।
अथर्ववेद 9/2/25
हे संकल्पदेव! जो तेरे मंगलमय और कल्याणकारी स्वरूप हैं, जिन स्वरूपों से तू जो कुछ करता है, वह सत्य हो जाता है । उन अपने स्वरूपों के साथ तू हमारे अन्दर प्रविष्ट हो और जो पापी बुद्धियाँ व संकल्प हैंय उनको हमसे दूर कर दे ।
पाप कमाई के धन से मुक्ति
एता एना व्याकरं खिले गा विष्ठिता इव ।
रमन्तां पुण्या लक्ष्मीर्या: पापीस्ता अनीनशम् । ।
अथर्ववेद 7/115/4
मैं अपने घर में रखी हुई सैकड़ों प्रकार की धन सम्पत्ति का विवेकपूर्वक पृथक्करण करता हूँ । जैसे विविध प्रकार की गौओं का पृथक्करण किया जाता 
है । जो पुण्य कमाई का धन है वह मेरे यहाँ रहे, आनन्द दे । जो पाप–कमाई का धन है, उसे मैं आज ही विनष्ट किए देता हूँ ।
विद्वानों की सेवा
प्रघासिनो हवामहे  मरुतश्च  रिशादस: ।
करम्भेण            सजोषस: । ।
यजुर्वेद 3/44
हे प्रभु! हम लोग अविद्यादि से अलग हो कर बार–बार प्रीति से सेवन  करने वाले, पके हुए भोजन करने वाले अतिथि लोग और यज्ञ करने वाले विद्वान् लोगों को सत्कारपूर्वक बुलावें । अर्थात् गृहस्थियों के लिए उचित है कि वह वैद्यों, शूरवीर और यज्ञ करने वालों, विद्वानों को बुला कर, उनकी मन, वचन, कर्म से यथेष्ट सेवा करें और उनके वचनों को ग्रहण करें ।
सत्यप्रिय वाणी के संगी बनें 
अक्रन्कर्म कर्मकृत: सह वाचा मयोभुवा ।
देवेभ्य: कर्म कृत्वास्तं प्रेत सचा भुव: । ।
यजुर्वेद 3/47
जो लोग सत्यप्रिय वाणी के साथ परस्पर संगी हो कर कर्मों को करते हुए अपने अभीष्ट कर्म को करते हैं । वे देवताओं के लिए योग्य कर्म का अनुष्ठान करके पूर्ण सुख को प्राप्त होते हैं ।
सदाचरण
परि माग्ने दुश्चरिताद्वाधस्वा मा सुचरिते भज ।
उदायुषा  स्वायुषोदस्थाममताँ 2 । ।अनु । ।
यजुर्वेद 4/28
हे जगदीश्वर! जिस कर्म से मैं उत्तमतापूर्वक प्राणधारण करने वाले जीवन से अमृतत्व को प्राप्त होऊँ, उससे मुझको संयुक्त करके दुष्टाचरण से पृथक करके मुझको सदाचरण में प्रवृत्त कीजिए ।
परोऽपेह्यसमृद्धे वि ते हेतिं नयामसि ।
वेद त्वाहं निमीवन्तीं नितुदन्तीमराते । ।
अथर्ववेद 5/7/7
हे असमृद्धि! परे चली जा । तेरी बरछी को हम अलग हटाते हैं । हे अदान शक्ति! निर्धनता! मैं तुमको निर्बल करने वाली और भीतर चुभने वाली जानता हूँ । अर्थात् मनुष्य निर्धनता को प्रयत्नपूर्वक दूर हटावे ।

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