वैदिककाल से आज तक स्त्रियों की स्थिति
वैदिककाल में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी । अनेक विदुषी हुई हैं, जिन्होंने अध्ययन, ज्ञानार्जन व तपस्या द्वारा वेदमन्त्रों का साक्षात्कार किया ।
वेदों की दृष्टा कुछ ऋषिकाएँ
घोषा: सर्वत्र वेदों का घोष करने वाली, राजा कक्षिवान की पुत्री घोषा ने ऋग्वेद के दशम मण्डल के 39वें और 40वें सूक्त का साक्षात्कार किया । ऋषिका घोषा कहती हैं, ‘मैं राजकन्या घोषा घूम–घूम कर वेद का सन्देश पहुँचाने वाली स्तुतिकर्त्री हूँ । घोषा द्वारा प्रतिपादित सूक्तों से स्पष्ट है कि उस समय पुत्रियों को भी पुत्रों की ही भँाति शिक्षा का अधिकार था । कन्याओं का पालन–पोषण भी पुत्रों की तरह ही होता था ।
दक्षिणा:ऋग्वेद के दशम मण्डल के 107वें सूक्त का साक्षात्कार दक्षिणा द्वारा किया गया । इनमें दान के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है ।
गोधा:ऋग्वेद के दशम मण्डल के 134वें सूक्त का साक्षात्कार गोधा द्वारा किया गया । इस सूक्त में इन्द्र का वर्णन है ।
सार्पराज्ञी:ऋग्वेद के दशम मण्डल के 189वें सूक्त का साक्षात्कार सार्पराज्ञी द्वारा किया गया । इसमें सूर्य का विस्तृत वर्णन है ।
शची:ऋग्वेद के दशम मण्डल के 159वें सूक्त का साक्षात्कार शची द्वारा किया गया ।
सरमा:ऋग्वेद के दशम मण्डल के 108वें सूक्त की ऋषिका सरमा हैं । इस सूक्त में ऋग्वेदकाल में नारी की स्थिति व निर्भीकता का वर्णन है ।
सूर्या:ऋग्वेद के दशम मण्डल के 85वें सूक्त का साक्षात्कार करके ऋषिका सूर्या ने पाणिग्रहण संस्कार की स्थापना की ।
इन्द्राणी:ऋग्वेद के दशम मण्डल के 145वें सूक्त तथा 86वें सूक्तों की द्रष्टा इन्द्राणी हैं । वह इन्द्र की पत्नी थीं ।
अपाला:ऋग्वेद के आठवें मण्डल के 91वें सूक्त का साक्षात्कार ऋषिका अपाला ने किया । इस सूक्त से यह ज्ञात होता है कि उस समय अर्थात् ऋग्वेदकाल में नारी स्वतन्त्र थी ।
लोपामुद्रा:ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 179वें सूक्त की ऋषिका लोपामुद्रा हैं । यह विदर्भ देश के राजा की इकलौती सन्तान थीं ।
श्रद्धा:ऋग्वेद के दशम मण्डल के 151वें सूक्त का साक्षात्कार करके ऋषिका श्रद्धा ने श्रद्धा के महत्त्व को प्रतिपादित किया ।
उर्वशी:ऋग्वेद के दशम मण्डल के 95वें सूक्त में उर्वशी और पुरूरवा का संवाद मिलता है ।
अदिति:अदिति महर्षि कश्यप की पत्नी तथा देवताओं की माता हैं । उन्होंने ऋग्वेद के चैथे मण्डल के 18वें सूक्त की पाँचवीं, छठी तथा सातवीं ऋचा का साक्षात्कार किया ।
वागाम्भृणी:ऋग्वेद के दशम मण्डल के 125वें सूक्त का साक्षात्कार
ऋषिका वागाम्भृणी ने किया । इस सूक्त में वाणी के महत्त्व को प्रतिपादित किया है ।
शश्वती:ऋग्वेद के आठवें मण्डल के प्रथम सूक्त की 34वीं ऋचा की द्रष्टा शश्वती हैंै ।
रोमाशा:इन्होंने ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 26वें सूक्त का साक्षात्कार किया ।
विश्ववारा:इन्होंने ऋग्वेद के पाँचवें मण्डल के दूसरे अनुवाक के 28वें सूक्त का साक्षात्कार किया । इस सूक्त में अग्निदेव की स्तुति की गई है ।
जुहू:इन्होंने ऋग्वेद के दशम मण्डल के 109वें सूक्त का साक्षात्कार किया ।
स्थानाभाव के कारण सभी विदुषियों का वर्णन कर पाना सम्भव नहीं है । विदुषी नारियों की यह परम्परा दीर्घकाल तक चलती रही । शास्त्रार्थ मेंभी अनेक स्त्रियों ने पुरुषों को पराजित किया । समयानुसार स्थितियों में परिवर्तन आया ।
महाभारतकाल में स्त्रियों की स्थिति
महाभारतकाल में स्त्रियों की स्थिति का आकलन द्रौपदी की स्थिति को देखकर किया जा सकता है । द्रौपदी का चीरहरण, हमारी समाज व्यवस्था, देश व धर्म के लिए कलंक है । इससे बुरा कुछ हो ही नहीं सकता । शायद उस कुकृत्य का खामियाजा आज भी हम भुगत रहे हैं । महाभारत काल के राजा ऐसी आवरणहीन संस्कृति दे गए हैं––––कि आज भी दीपावली पर जुआ खेला जा रहा है और स्त्री पर अत्याचार हो रहे हैं ।
भारत में स्वतंत्रता से पूर्व समाज स्वीकृत वेश्यालय व नगरवधू
भारत में स्वतंत्रता से पूर्व तक समाज–स्वीकृत कोठों का प्रचलन आम बात थी । इनके लिए हर शहर में निश्चित स्थान पर रेड लाइट एरिया हुआ करते थे ।
समाज के विभिन्न वर्गों की हैसियत के अनुसार अलग–अलग रेड–लाइट एरिया होते थे, जिनमें अलग–अलग वर्ग की वेश्याएँ होती थीं । वहाँ पर अलग–अलग वर्ग तथा अलग–अलग सामाजिक–आर्थिक स्थिति के पुरुष जाते थे व अपनी हवस का शिकार उन बेबस स्त्रियों को बनाते थे ।
पुरुषों के इस कृत्य को समाज में बुरा नहीं माना जाता था, अपितु वेश्यालय में जाना रईसों की शान का प्रतीक था । यह एक स्टेटस सिम्बल माना जाता था ।
राजमहल व रईसों के घरों में नगरवधुओं को बुलाना प्रतिष्ठा का विषय माना जाता था । यह नगरवधुएँ रईसों व राजाओं के मनोरंजन का साधन थीं । उनकी नृत्यकला व गायनकला रईसों के लिए कला न होकर मात्र मनोरंजन और उन महिलाओं (नगर वधुओं) के अंग–प्रदर्शन देखकर सुखी होने का साधन थीं ।
और तो और, कई जमींदार, रईस लोग व राजा इन नगरवधुओं को अपने घर पर भी ले आते थे––––ब्याह कर नहीं––––ऐश के लिए ।
इन जमींदारों, रईसों व राजाओं की अपनी विवाहित पत्नियाँ तो होती ही थीं, इन नगरवधुओं को भी अपनी हैसियत के अनुसार ये लोग अपने घर के किसी कमरे में सामान की तरह सजा देते थे और अपनी हैसियत को प्रदर्शित करते थे ।
जरा सोचिए––––क्या दशा होती होगी उन नगरवधुओं की, वेश्यालय में रह रही उन स्त्रियों की, जिन्होंने हमारी–आपकी तरह ही माँ के गर्भ से जन्म लिया ।
ये वेश्याएँ या नगरवधुएँ भी या तो मजबूर लड़कियाँ होती होंगी या वेश्यालय में ही जन्म लेने के कारण वह भी वेश्या बनती होंगी । जो लड़कियाँ वेश्यालय में जन्म लेती होंगी, वह भी तो उन्हीं कुकर्मियों, रईसजादों व राजाओं की सन्तानें होती होंगी, जो वेश्यालयों में जाकर अपनी हवस का शिकार उन बेबस स्त्रियों को बनाते थे ।
और––––भूल जाते थे कि जिन स्त्रियों से वह सम्बन्ध बना रहे हैं, वह स्त्रियाँ भी तो उनकी आने वाली सन्तान की माता हैं ।
––––उन सम्मानित व प्रतिष्ठित लोगों की वेश्याओं के द्वारा उत्पन्न कन्या को ? ––––वह भी तो वेश्या ही बनती थीं और––––इन सम्मानित व प्रतिष्ठित लोगों की आँखें नहीं खुलती थीं कि इनकी अपनी ही सन्तानों का क्या हो रहा है ?
मैं सोचती हूँ कि ऐसा नहीं है कि इनकी चेतना कभी इन्हें झकझोरती नहीं होगी, किन्तु समाज के झूठे रीति–रिवाजों व झूठी मान–प्रतिष्ठा के कारण लोग अपनी चेतना को दबा देते होंगे या उसकी आवाज को अनसुना कर देते होंगे ।
बिल्कुल उसी प्रकार जैसे,आज लड़की वालों से दहेज लेना अपना अधिकार समझा जाने लगा है ।
प्रश्न है कि समाज की स्त्रियाँ तब क्या करती रहीं या आज क्या कर रही हैं ? शिक्षा–संस्थाएँ, शिक्षाविद् तब क्या करते रहे व आज क्या कर रहे हैं ? क्यों दुर्दशा सदा स्त्री की ही होती रही ? क्यों स्त्री भोग्या समझी जाती रही ? क्यों आज भी इक्कीसवीं सदी की पढ़ी–लिखी स्त्री, कार्यशील स्त्री मजबूर है ? पुरुष–पीड़िता, दहेज–पीड़िता है ?
घरेलू यौन–अपराध (Sexual crimes in Homes)
घरेलू यौनापराधों में निम्न अपराध हो सकते हैं,
क’. भाई–बहन का यौन–सम्बन्ध
ख. पिता–बेटी का यौन सम्बन्ध
ग. ससुर–बहू का यौन सम्बन्ध
घ. देवर–भाभी का यौन सम्बन्ध
ङ. जीजा–साली का यौन सम्बन्ध
च. नौकर का किसी के साथ सम्बन्ध
इन सम्बन्धों में भी कई रूप हो सकते हैं,
क. केवल गुप्ताँगों को छूकर या सहलाकर छोड़ देना ।
ख. पूर्ण सम्बन्ध बनाना ।
कभी–कभी यह सम्बन्ध दोनों पक्षों की सहमति से होते हैं, कभी लड़की या स्त्री का बलात्कार होता है । कभी लड़की किसी मजबूरीवश स्वयं को समर्पित करती जाती है । यह भी एक प्रकार से बलात्कार ही है ।
अत: हम केवल घरेलू बलात्कार का ही वर्णन करेंगे । यहाँ पर मैं एक सत्यकथा को दे रही हूँ । इस कथा में पात्रों का नाम, स्थान आदि देना न्यायसंगत नहीं है, किन्तु कथानक (Story)अक्षरश: सत्य है –
एक लड़की, जिसके सगे भाइयों ने उसे पाँच वर्ष की उम्र से लगातार बलात्कार का शिकार बनाए रखा, लड़की जिसका नाम रागिनी (कपोल कल्पित नाम) था, उसने अतिसम्पन्न, समाज के अतिप्रतिष्ठित परिवार में जन्म
लिया । वह सात भाई–बहनों में सबसे छोटी थी, सुन्दर थी, प्यारी थी व बुद्धि में कुशाग्र थी ।
प्यार में पलती–बढ़ती धीरे–धीरे वह पाँच वर्ष की हो गई । दादी–बाबा की दुलारी, माता–पिता का खिलौना, भाई–बहनों की स्नेहपात्र रागिनी दिन–भर उछलती–कूदती लेकिन––––वह काला दिन भी आ गया, जब––––
जब उसके सबसे बड़े भाई उमेश (काल्पनिक नाम) ने बड़े प्यार से गोद में उठाया व ऊपर के कमरे में पुचकारता हुआ ले गया, और––––उस हवेली के बन्द कमरे में अपनी उस छोटी, सगी पाँच वर्षीया बहन के साथ कुकृत्य कर डाला । उस बच्ची के गुप्तांग से रक्त की धारा फूट पड़ी, वह दर्द से व भय से चिल्ला
पड़ी ।
उमेश ने रक्त पोछा व उसे डराया कि किसी को कुछ मत बताना ।
सहमी सी रागिनी नीचे जाकर माँ के पास सो गई । उसने डर के मारे माँ से भी कुछ नहीं बताया लेकिन––––रक्तस्राव के कारण रागिनी की कच्छी में रक्त लग गया और––––माँ ने पूछा, तब डरते व सहमते हुए वह बोली, ‘भाईजी ने ऐसा किया है, लेकिन उन्होंने कहा है कि किसी को मत बताना, बताने पर वह बहुत मारेंगे ।’
खैर––––माँ ने उसकी कच्छी बदली, दूध–हल्दी पिलाया और प्यार से समझाया,‘ठीक है बेटी । अब घर में या बाहर किसी को भी इस बात के बारे में मत बताना ।’
माँ ने अपने प्यारे–दुलारे बेटे उमेश को डाँटा किन्तु–––– ? प्रकृति की नियामक शक्ति भी उस डाँट पर शर्मा जाती है । माँ की बोली में डाँट कम तथा याचना अधिक थी । इतनी बड़ी घटना होने पर भी आक्रोश नहीं था ।
हैरत की बात तो यह है कि––––बड़े भाई उमेश का यह क्रम बन्द नहीं
हुआ । उसने और अधिक निडर होकर बहन रागिनी के साथ निरन्तर सम्बन्ध बनाए रखा ।
हैरान–परेशान कोमल सी वह प्यारी बच्ची बचपने को तो भूल ही गई । उसकी चहक, उसकी शरारतें सब न जाने कहाँ लुप्त हो गईं । जब जी चाहता बड़ा भाई उमेश उसे गोद में उठाकर ले जाता और डरा–धमकाकर अपनी हवस पूरी कर लेता ।
धीरे–धीरे यह बात रागिनी के पिता राघवेन्द्र (काल्पनिक नाम) को भी पता चली । उन्होंने हँसकर अपनी पत्नी से कहा,‘चलो अच्छा ही हुआ, घर की बात घर में ही रह गई ।’
राघवेन्द्र का बड़ा बिजनेस था । उमेश की आयु इक्कीस वर्ष हो चुकी थी । वह चाहते तो तुरन्त उमेश की शादी कर सकते थे, किन्तु––––वह मोटा दहेज देने वाली पार्टी का इन्तजार करते रहे । लड़के को शादी की आवश्यकता है, इस ओर उनका ध्यान नहीं गया ।
इस हृदय–विदारक, घृणास्पद व अमानवीय घटना को उन्होंने अति सहज रूप में लिया और तिल–तिल करके बलिवेदी पर चढ़ती रही वह सुकुमारी, अबोध, निरपराध कन्या ।
लेकिन––––बात इतने पर भी नहीं थमी । पूरे घर में बात फैल चुकी थी । निर्लज्ज बेटा उमेश घर में आराम से रह रहा था । कोई आता तब उमेश के माता–पिता अपने बेटों के गुणों को गाते नहीं थकते थे, कहते,‘देखिए, हमारे बेटे शराब, सिगरेट, बीड़ी, पान सबसे दूर हैं । इनमें कोई बुरी आदत नहीं है । हमारे चारों बेटे राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न का स्वरूप हैं ।’
वाह रे भगवन! क्या यही हमारी संस्कृति है, क्या यही हमारी सभ्यता है ? भाई बहन के पवित्र सम्बन्ध का यह स्वरूप ? और गर्व करने वाले निर्लज्ज माता–पिता का स्वरूप ।
इतना भी हुआ होता तो शायद कम था––––किन्तु अपने तथाकथित राम जैसे भाई का अनुसरण छोटे भाई विवेक (काल्पनिक नाम) ने भी किया । उसका विवेक शायद जाग चुका था, उसने भी बहती गंगा में हाथ धोना चाहा ।
धीरे–धीरे रागिनी दस वर्ष की हो गई––––और ––––एक दिन दूसरे भाई विवेक ने भी सब कुछ कर डाला । रागिनी चीखी–चिल्लाई किन्तु उस अमानुषिक हवेली में उसकी चीत्कार सुनने वाला कौन था ? कौन–––– ? माता–पिता ? नहीं ––––और ––––तब क्यों नहीं आसमान फट पड़ा ? क्यों नहीं कोई कृष्ण आ गये ? वह निरपराध बच्ची–––– ?
अब रागिनी भी पूरी तरह आक्रामक हो उठी थी और उसने खुलकर विरोध करना चाहा, किन्तु––––उसकी बात कौन सुनता । वह माता–पिता, भाई–बहनों सबके होते हुए भी अनाथ थी । ऐसी अनाथ जो अपने को अनाथ नहीं कह सकती थी । अनाथालय में नहीं जा सकती थी, कहीं शरण भी नहीं ले सकती थी ।
इसी प्रकार की अनेकानेक घटनाएँ पर्दे के अन्दर व पर्दे के बाहर होती रहती हैं । उनका उल्लेख करने का कोई औचित्य नहीं है ।
इस सत्य घटना के उल्लेख का तात्पर्य केवल यह है कि हम अपना विश्लेषण करें । हम देखें कि हमारे समाज में क्या–क्या कमियाँ रही हैं, जिनका वीभत्स रूप रागिनी ने झेला ।
कहाँ परिवर्तन आ सकता है ? कैसे हम सुखद समाज का निर्माण कर सकते हैं ?
आज स्त्रियों के प्रति मानसिकता
समस्या के समाधान हेतु स्त्रियों के प्रति आज क्या मानसिकता है, यह समझना अति–आवश्यक है । नारी का रूप अवश्य बदला है, स्थितियाँ बदली हैं, सुविधाएँ परिवर्तित हुई हैं । आज स्त्री घर की चारदीवारी में ही बन्द नहीं है, किन्तु––––मैं आज भी दावे के साथ कहती हूँ कि नहीं बदली है तो स्त्री के प्रति पुरातन मानसिकता या यूँ कह लें कि कहीं–कहीं पर तो स्त्री की स्थिति और भी बदतर हो गई है ।
यह सत्य है कि कुछ समय पहले स्त्री केवल घर की शोभा थी, घर की चारदीवारी में बन्द थी, किन्तु उसके कुछ अधिकार थे । ऐसे अधिकार जो अलिखित संविधान की तरह माने जाते थे । जैसे,विवाह होते ही स्त्री को उस घर की मालिकिन या यूँ कहें कि घर की रानी मान लिया जाता था ।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक यह कहा जाता था कि जिस घर में डोली आई है, वही उसका घर है । आजीवन वहाँ पर रहकर अर्थी भी वहीं से निकलेगी ।
औद्योगीकरण के फलस्वरूप और टूटते परिवारों की अवधारणा से इस मानसिकता में परिवर्तन आया ।
मैं एक ऐसे समृद्ध परिवार को जानती हूँ,जिनके लड़के का देहान्त उन्नीस वर्ष की आयु में हो गया था । लड़के की पत्नी की आयु सत्रह वर्ष की थी, उसकी गोद में छह माह का लड़का था । (यह लगभग सत्तर वर्ष पूर्व की घटना है, उस समय विवाह की आयु लड़की की अठारह वर्ष और लड़के की इक्कीस वर्ष निर्धारित नहीं थी) उस महिला और उसके छह माह के पुत्र को पूरे जीवन उस भरे–पूरे सम्मिलित परिवार में सम्मान के साथ रखा गया । जब वह छह माह का बच्चा जवान हुआ, तब उसे घर, जमीन, सम्पत्ति सबमें बराबर का हिस्सा
मिला ।
आज ऐसी स्थिति नहीं है, पति का देहान्त होते ही महिला को वर्तमान सम्पत्ति में कुछ हिस्सा भले ही मिल जाए किन्तु आजीवन जिम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है ।
दहेज की विकराल स्थिति और कारण ,
दहेज प्रथा का जितना विरोधकिया गया, दहेज का दानव उतना ही मुँह फाड़ता गया । आज स्त्रियों की असंतोषजनक स्थिति का एक बहुत बड़ा कारण दहेज है ।
दहेज प्रथा के विकराल रूप धारण कर लेने के कारण क्या हो सकते हैं ? जरा विचार करें तो समझ में आ जाएगा कि आज शादियों में दिखावा बहुत हो गया है । शादियाँ खर्चीली होती जा रही हैं ।
पहले शादी रईसों की हो या गरीबों की सबके यहाँ बारातियों को समय पर नाश्ता व समय पर भोजन पंक्तिबद्ध बैठाकर करवाया जाता था । अब लगभग सभी शादियों में भोजन के स्टाल लग जाते हैं । Buffer System अच्छा है किन्तु इतने अधिक स्टॉल लगे रहते हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं है । धनवानों को तो फर्क नहीं पड़ता है, किन्तु जिनके पास धन की कमी है, उनके लिए परेशानी हो जाती है ।
इसी प्रकार सजावट व बैण्ड बाजों में बेइन्तहा खर्च होता है । इन सब खर्चों के कारण शादियाँ महँगी होती जा रही हैं । शादी में काफी खर्च करने पर भी लड़की–लड़के के पल्ले कुछ नहीं पड़ता है ।
लड़के वाले यह भी चाहते हैं कि जो भी खर्च हो, वह लड़की वाले से ले लिया जाए । लड़की वाला अन्य खर्च तो करता ही है, माँगे जाने पर मजबूर होकर लड़के वालों को नगद धनराशि (Cash) भी देता है । वह धनराशि यदि लड़की के नाम पर जमा कर दी जाए तो गनीमत है । कम से कम लड़की का भविष्य तो सुरक्षित रहेगा किन्तु––––लड़की के पिता से प्राप्त धनराशि भी लड़के वाले शान–शौकत और दिखावे में खर्च कर देते हैं ।
नतीजा यह होता है कि लड़की के पास स्त्री–धन के नाम पर थोड़ा–बहुत जेवर ही बचता है ।
पहले लड़की को उसके माता–पिता अपनी हैसियत के अनुसार सोने–चाँदी के जेवर देते थे । लड़के वाले भी बहू को जेवर चढ़ाते थे । यह जेवर स्त्री धन माना जाता था । यह जेवर या स्त्री–धन मृत्युपर्यन्त स्त्री की निजी सम्पत्ति माना जाता था । बीच–बीच में तीज–त्योहारों में स्त्री के जेवरों की यथाशक्ति वृद्धि का प्रयास होता था ।
आज कुछ ही बुद्धिमान लोग हैं, जो शादी के दिखावे में बहुत कम खर्च करते हैं ।
अत: यदि दहेज के विकराल रूप को रोकना है, तो खर्चीली शादियों को रोकना होगा । यदि लड़का व लड़की के माता–पिता समृद्ध हैं तो दोनों पक्षों को मिलकर नव–दम्पत्ति के नाम बैंक में कुछ रुपया लम्बे समय के लिए फिक्स कर देना चाहिए, जो उनके भविष्य में काम आवे । अधिक अच्छा तो यह है कि लड़का–लड़की स्वावलम्बी हों व स्वयं धनोपार्जन करें ।
यदि दहेज प्रथा समाप्त हो जाती है, तब स्त्रियों की स्थिति में वैसे ही काफी सुधार आ जाएगा ।
नौकरीपेशा महिलाएँ और उनकी घरेलू स्थिति
नौकरीपेशा महिलाएँ स्वाभाविक रूप से आर्थिक रूप से स्वावलम्बी होती
हैं । अर्थ–प्रधान होना पुरुष प्रधान समाज होने का मुख्य कारण माना जाता था । यह मान्यता थी कि पुरुष कमाता है और स्त्री उस पर आर्थिक रूप से आश्रित है । यद्यपि आज स्थितियाँ बदल गई हैं किन्तु नौकरीपेशा स्त्रियों की घरेलू स्थिति क्या है ?
नौकरीपेशा स्त्री आज घर–बाहर की चक्की में पिस रही है । वह जी रही है एक मशीनी जिन्दगी । आज भी घर की पूरी जिम्मेदारी महिला की ही समझी जाती है । साथ ही पढ़ी–लिखी व कार्यशील महिला होने के कारण वह बाहर के भी बहुत से कार्य कर रही है ।
घरेलू स्त्रियों की स्थिति,घरेलू स्त्रियों की स्थिति कहीं–कहीं नौकरीपेशा महिलाओं से बेहतर भी है क्योंकि कम से कम उनके ऊपर कार्यालय के काम का बोझ तो नहीं है । उन्हें आराम का समय भी मिल जाता है ।
स्त्रियों के प्रति समाज की मानसिकता में भोग्या स्वरूप का कारण,मुझे याद है कि एक बार मैं महिला–जागरूकता की एक मीटिंग में गई थी, जिसमें सभी महिलाएँ काफी पढ़ी–लिखी थीं । कुछ नौकरीपेशा महिलाएँ भी थीं ।
एक महिला सिर पर पल्ला रखे हुए, स्टेज पर आईं । इतना तक तो ठीक था, यह उनकी व्यक्तिगत रुचि का विषय हो सकता है । वह काफी पढ़ी–लिखी भी थीं ।
उन्होंने भाषण देना प्रारम्भ किया,‘महिलाओं को अपनी संस्कृति बचाए रखनी चाहिए, पुरानी मान्यताओं को अपनाना चाहिए, सिर पर पल्ला रखना चाहिए । हमारे पढ़े–लिखे होने का यह अर्थ नहीं है कि हम अपनी जड़ों से दूर हो जाएँ ।
हमें ससुर व जेठ से पर्दा करना चाहिए । हमारी जो प्राचीन मान्यताएँ थीं, उनका कुछ अर्थ था । हम आधुनिकता की दौड़ में अपना निजत्व भूल गए हैं । आज ससुर व बहू एक मेज पर खाना खा रहे हैं, यह उचित नहीं है । लड़की और बहू में फर्क बना रहना चाहिए, आदि–आदि ।’
हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा । संयोजिका ने कहा, ‘कितना अच्छा है कि आज पढ़ी–लिखी, प्रबुद्ध इक्कीसवीं सदी की महिलाएँ भी अपनी संस्कृति को नहीं भूली हैं।’
मुझसे रहा नहीं गया । मैंने इस विषय पर दो मिनट का समय लेकर बोलना चाहा कि ‘पर्दा प्रथा ठीक नहीं है’तब हॉल में उपस्थित लगभग सभी महिलाओं ने यह कहकर शान्त कर दिया कि यह तो अपना–अपना विचार है ।
वास्तविकता यह है कि पुरानी गलत मान्यताओं के सही होने का हवाला शायद कुछ लोग इसलिए देते हैं कि कहीं न कहीं हमारे मन में प्रशंसा की चाह
है । ऐसी स्त्रियों की घर–बाहर प्रशंसा होती है कि इतनी पढ़ी–लिखी होकर भी अपनी पुरानी मान्यताओं का निर्वाह कर रही हैं ।
यह सत्य है कि वह स्त्री तो आदर व प्रशंसा का पात्र बन जाती है किन्तु उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है अन्य स्त्रियों को । जरा हम विचार करें कि हम क्या कर सकते हैं ? वास्तव में हमें इसके लिए किसी आन्दोलन की आवश्यकता न हो कर सहज जीवन की आवश्यकता है । स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह समाज का एक हिस्सा हैं । आवश्यकता है समाज में सबके मिलजुल कर रहने की । सहजता ही तो जीवन का मूल सिद्धान्त है ।
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