आज भोजन की व्यवस्था मैं करूँगी
माँ ने प्रीति से कहा-
‘बेटी! मैं जानती
हूँ कि तुम्हारी पढ़ाई की व्यस्तता है, लेकिन छुट्टी वाले दिन केवल
आधा घंटा या पन्द्रह मिनट रसोई
का काम सीख लो।’
प्रीति माँ से प्यार से बोली- ‘ठीक है माते! आप जैसा
कहेंगी वैसा ही करूँगी।’
प्रीति एम.बी.बी.एस. कर रही थी। दाखिला उसी शहर में मिल गया था। इसलिए उसे छात्रावास में रहने
की आवश्यकता नहीं पड़ी।
माँ प्रीति को समझाती रहीं
कि पढ़ाई-लिखाई
अपनी जगह है। अब वह बड़ी हो गई है, कल को उसकी
शादी होगी। घर का काम भी आना चाहिए।
प्रीति माँ से हाँ-हाँ कर देती, पर कुछ काम सीखती
नहीं थी।
माँ भी आखिर माँ होती
है। एक दिन प्रीति की छुट्टी थी। प्रीति के पिताजी उसके भाई को लेकर किसी
काम से शहर से बाहर गए थे। घर में केवल प्रीति, उसकी
माँ व दादी
थीं।
माँ ने प्रीति से कहा-
‘आज मेरी तबियत
ठीक नहीं है। तुम रसोई में मेरे साथ सहायता करो।’
प्रीति ने देखा व कहा-
‘आपके बुखार तो नहीं है लेकिन
‘माँ! आप आराम
करो, आज भोजन
की व्यवस्था में करूँगी।’
माँ बोली-
‘तुझे आता भी है भोजन बनाना,
जो बनाएगी।’
प्रीति ने माँ के गले में हाथ डाल कर कहा- ‘माँ!
आप थोड़ी देर के लिए सो जाओ, आपको आराम
मिल जाएगा। जब आप उठोगी, तब थाली तैयार मिलेगी।’
माँ लेट गईं, थके होने
के कारण नींद
आ गई। जब वह उठीं तो प्रीति ने कहा-
‘माँ! उठिए। दादी
को भी बुला
लेती हूँ, भोजन
तैयार है, भोजन
करिए।’
माँ को आश्चर्य हुआ, फिर भी उन्होंने कहा- ‘लाओ, देखूँ क्या है?’
दादी भी आ गईं। माँ ने कहा- ‘आज भोजन प्रीति ने बनाया है।’
दादी बहुत
खुश हुईं। प्रीति दो थालियों में भोजन लेकर आई। दादी प्रीति को भोजन लाते देख कर बोलीं- ‘वाह मेरी बिटिया! जुग-जुग जिओ।’
जब प्रीति ने भोजन की थाली लाकर रखी तो भोजन देखकर
माँ का पारा
हाई हो गया।
वह बोलीं- ‘यह भोजन तुमने बनाया
है। तुमने बाजार
से लाकर भोजन
रख दिया। तुम तो कह रही थीं कि आज तुम भोजन बनाओगी।’
प्रीति बोली-
‘माँ! मेरी बात तो सुन लो।’
माँ गुस्से में बोलीं- ‘मुझे
कुछ नहीं सुनना
है। मुझे बाजार
का नहीं खाना
है। तुम मना कर देतीं तो मैं खुद बना लेती।’
दादी बोलीं-
‘अरे, प्रीति की बात तो सुन लो।’
माँ भुनभुनाते हुए चुप हो गईं।
प्रीति ने कहा- ‘प्यारी-प्यारी माँ!
मैंने आपसे यह नहीं कहा-था कि भोजन मैं बनाऊँगी....’
‘तो क्या
कहा-था?’ माँ गुस्र्साइं।
‘माँ! पूरी
बात तो सुनो।
मैंने कहा-था आज भोजन की व्यवस्था मैं करूँगी। व्यवस्था तो मैंने
ही की है न।’
दादी खिलखिला कर हँस पड़ीं-
‘सही बात है, भोजन की व्यवस्था तो इसी ने की है। थोड़ी
देर पहले ही तो मुझसे कह कर बाहर गई थी कि दादी!
अभी दस मिनट
में आ रही हूँ।’
प्रीति गाना
गाते हुए बोली-
‘प्यारी-प्यारी माँ! राजदुलारी माँ!
खा लो, खा लो माँ!
माँ-दादी खाएँगी, मुन्नी खुश हो जा जाएगी।’
माँ भी हँसने लगीं। बोलीं-
‘जाओ अपनी भी थाली ले
आओ।’
प्रीति अपनी
थाली भी ले आई। सबने प्रीति के द्वारा व्यवस्था किए हुए भोजन
का आनन्द लिया।
प्रीति बोली- ‘जब समय मिलेगा, तब शरारतों पर पुस्तक लिखूँगीं।
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