बच्चा प्रकृति का अमूल्य उपहार है । अत: आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रकृति प्रदत्त इस उपहार को सँभालकर रखें । उसको स्नेह एवं प्रेम से सींचे । उसकी हँसी को और अधिक मुखरित होने दें । उसके बचपन को समझें, उसकी हँसी में हम भी शामिल हों ।
बच्चा तन–मन से बहुत कोमल होता है । वह इतना सहज होता है कि उसे जहाँ अपनत्व व प्यार मिलता है वह उसका ही हो जाता है । अत: जो बात उसे हम प्यार से बता सकते हैं, वह मार–डाँट से नहीं । चिन्ता व तनाव बच्चे के मन पर बहुत बुरा प्रभाव डालते हैं, वह भय के कारण बात तो मान लेता है परन्तु धीरे–धीरे असहज होता जाता है । वह प्यार की भाषा के साथ–साथ भय की भाषा भी समझने लगता है, अर्थात् उसे जो मारता–डाँटता है, उसके डर के कारण वह उसकी बात मान लेता है ।
फिर भी इतना सत्य है कि वह भयवश पढ़ लेता है, रट लेता है या अन्य कार्य कर लेता है, किन्तु उसके विकास की सहज गति अवरुद्ध हो जाती है । जिन बच्चों को अधिक डाँटा–मारा जाता है, उनका मन सदैव आक्रोश से भरा रहता है । अवसर मिलने पर वे अपने से छोटों या निर्बल को सताने लगते हैं । कई बच्चे, जो सहज ही अपनी आक्रोश की भावनाओं को अभिव्यक्त नहीं कर पाते हैं, अपने से निर्बल बच्चे का गला तक दबाते देखे जाते हैं ।
बाल्यावस्था में पूरा प्यार–दुलार पाने वाला बच्चा बड़ा होकर कभी भी समाज का विद्रोही अंग नहीं बन सकता । यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य सदा सुखद घटनाएँ ही याद रखता है । इसी प्रकार बच्चे भी मार को भूल जाते हैं, प्यार को याद रखते हैं, क्योंकि प्यार उनके लिए सुखद होता है । इसलिए प्यार से दी हुई सीख अधिक याद रहती है ।
जिन बच्चों को प्यार कम मिलता है, उनमें बहुत–सी बुराइयाँ पनपने लगती हैं । आज हम अपने बच्चों का बचपन स्वयं खत्म करते जा रहे हैं । ढाई–तीन वर्ष के बच्चे विद्यालय व घर में पढ़ाई के बोझ तले अपना बालपन हमारी अहंतुष्टि के लिए होम करते जा रहे हैं । ‘बार–बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी’, अब दिवास्वप्न लगता है । इस भारी–भरकम पढ़ाई व होमवर्क ने तो बच्चों का बचपन ही खत्म कर दिया है ।
अब हमारे आँगन बच्चों की किलकारियों से सूने हो गए हैं । उनकी उन्मुक्त हँसी पता नहीं कहाँ चली गई है । आज के बच्चों की दिनचर्या विद्यालय, होमवर्क व टी.वी. हो गई है । उनको खेलने का समय ही नहीं मिलता है । रविवार भी होमवर्क व टी.वी. में चला जाता है । विद्यालय व घर दोनों ही जगह उबाऊ अनुशासन ने उनका जीवन दूभर कर रखा है ।
हमने बच्चों को एक शो–पीस की तरह समझना प्रारम्भ कर दिया है । मिलिट्री–अनुशासन की तरह खड़ा बच्चा हमें अच्छा लगता है । वह सॉरी और थैंक्यू की औपचारिकताएँ कर ले, हमें यही अच्छा लगता है । बाल–सुलभ चंचलता का भी कोई महत्त्व होता है, हम यह भूलते जा रहे हैं और इसका ऋण चुकाना पड़ रहा है हमारे नौनिहालों को ।
बहुधा यह देखा जाता है कि शिक्षक व अभिभावक अपनी बात बच्चे पर थोपने का प्रयत्न करते हैं । उसकी रुचि व योग्यता का ध्यान नहीं रखते । इससे बच्चा दब्बू हो जाता है । उसमें आत्महीनता की भावना आ जाती है । वह संकोची हो जाता
है । वह दु:खी और उदास रहता है । बच्चों की भावनाओं, व्यक्तिगत क्षमताओं व योग्यताओं को आदर देना चाहिए ।
हम एक बच्चे की दूसरे से तुलना न करें, क्योंकि प्रत्येक बच्चे में कोई–न–कोई विशेष क्षमता अवश्य होती है । आवश्यकता इस बात की है कि हम बच्चे की उस क्षमता को पहचान कर उसे विकसित करने का प्रयत्न करें । उसे स्वयं को अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान करें ।
बच्चों के लिए दुनिया की हर चीज नई है । हर आदमी व हर काम उनके लिए नया है । इस नवीनता के वातावरण में बच्चा पुलकित होता है, हर्षित होता है, हर चीज के बारे में जानकारी प्राप्त कर अपने को आनन्दित समझता है । इस समय कुछ पूछने पर फटकार दिए जाने पर उसके मन में एक ग्रन्थि बन जाती है, उसकी जिज्ञासा की प्रवृत्ति धीरे–धीरे समाप्त होने लगती है । अब वह अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए गलत रास्तों का प्रयोग करने लगता है या उच्छृंखल हो जाता है । बच्चे की जिज्ञासा को अतृप्त रखना, कुछ भी पूछने पर फटकार देना, उसे भूखा रखने से भी अधिक अहितकर है ।
इसी सन्दर्भ में एक बात विचारणीय है कि प्राय: घर में बड़ा बच्चा अधिक शान्त, संतुष्ट व गम्भीर देखा जाता है । लोग यह कहते देखे जाते हैं कि छोटा बच्चा लाड़–प्यार में बिगड़ जाता है । छोटा सदैव छोटा ही रहता है । छोटे बच्चे के आ जाने से बड़ा अपनी जिम्मेदारी का एहसास करने लगता है, इसलिए वह शान्त हो जाता है ।
हो सकता है इस बात में भी कुछ सत्यता हो, किन्तु इसका एक प्रधान कारण है कि महिला को प्रथम बार गर्भवती होने के सुख का अहसास ही अलग होता है । माँ के मन में शिशु–सम्बन्धी नित नई सुखद कल्पनाएँ आती रहती हैं, वह शान्त, प्रसन्नचित्त व उत्साहित रहती है । उस समय केवल गर्भवती माँ ही नहीं वरन् उसके साथ पिता व घर के अन्य सदस्य भी आने वाले मेहमान की उत्सुकता से प्रतीक्षा करते हैं, गर्भवती माँ के खान–पान व रहन–सहन का पूरा ध्यान रखते हैं ।
इस प्रकार प्रथम शिशु के गर्भ में होने के समय माँ को जो शान्त व स्नेहमय वातावरण मिलता है, वह अन्य शिशुओं के समय नहीं मिल पाता है । स्नेह का पूरा–पूरा प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है ।
प्रथम शिशु के जन्म के समय भी एक उल्लासपूर्ण वातावरण रहता है । जहाँ महिला संसार की सर्वोत्तम रचना करने के उल्लास के साथ मातृत्व के गरिमामय पद को प्राप्त करती है, वहीं पुरुष पितृत्व पद प्राप्त करने के सुखद एहसास से नवागन्तुक शिशु की पूरी देखभाल में लग जाता है ।
पहले बच्चे के लालन–पालन में माँ–पिता व परिवार वालों की जो सहज अनुरक्ति होती है, वह बाद के बच्चों में कम हो जाती है । इसीलिए बड़ा बच्चा अपेक्षाकृत अधिक शाँत, संतुष्ट व गम्भीर होता है ।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि स्नेह का शिशु के जीवन पर स्थायी प्रभाव पड़ता है । वस्तुत: शिशु को स्नेह देकर हम स्वयं भी अनिर्वचनीय सुख पाते हैं ।
विचारणीय प्रश्न है कि आज की कृत्रिमता में जीते हुए हम अपने बच्चों को क्या दे रहे हैं ? ढाई–तीन वर्ष का शिशु भारी बस्ते का बोझ उठाए ए बी सी डी लिखने या पहाड़ा रटने के लिए विवश है । वह होमवर्क के बोझ तले दबा हुआ है । क्या यही उसका बचपन है ? क्या हम उसे उन्मुक्त वातावरण प्रदान कर रहे हैं, जहाँ वह स्वच्छन्दतापूर्वक अपने बचपन का आनन्द ले सके ?
बचपन फिर लौटकर नहीं आता, यह एक ऐसी अनुभूति है, जो वृद्धावस्था तक मन को सहज ही पुलकित कर देती है । क्या हम बच्चे को सहज वातावरण देकर उसकी कोमलता, मासूमियत व भोलेपन का ध्यान रखते हुए उसको बचपन पूरे उल्लास के साथ जीने का अवसर दे सकेंगे ?
बच्चों को कहानियाँ सुनाना
बच्चों को कहानी सुनना बहुत अच्छा लगता है । दूरदर्शन के आगमन के पूर्व शाम होते ही संयुक्त परिवार में बच्चे अपनी दादी–नानी के पास कहानी सुनने पहुँच जाते थे । छोटे परिवार में भी यह कार्य माँ, पिता, दीदी, भइया या पास–पड़ोस की दादी–नानी करती थीं ।
संयुक्त परिवार में बच्चे का सामाजिक, मानसिक, बौद्धिक व भाषा का विकास सहज ही हो जाता था । उस समय अनौपचारिक शिक्षा का एक प्रधान माध्यम दादी–नानी की कहानियाँ थीं । जो बात हम बच्चों को सहज रूप में नहीं सिखा पाते हैं, वही बात वह कहानी के माध्यम से जल्दी सीख लेते हैं । उनके मन पर कहानी द्वारा स्थायी प्रभाव डाला जा सकता है । संक्षेप में कहानियों द्वारा निम्नलिखित लाभ हो सकते हैं—
1– कल्पनाशक्ति का विकास होता है ।
2– भाषा का विकास तथा योग्यता–विस्तार अर्थात् किसी बात को विस्तार से कहने की क्षमता का विकास होता है ।
3– वाक्य संयोजन की प्रतिभा का विकास होता है ।
4– प्रकृति–प्रधान कहानियों को सुनने से प्रकृति के सचित्र सौन्दर्य–बोध का विकास होता है ।
5– नीतिपरक कथाएँ बाल–मस्तिष्क पर दीर्घकालिक प्रभाव डालती हैं ।
6– इतिहास की कठिनतम गुत्थियों को हम कहानी के माध्यम से बाल–मन तक सरलता से पहुँचा सकते हैं ।
7– बाल–हृदय में प्राचीन संस्कृति के प्रति अनुराग उत्पन्न करने के लिए कहानी एक सशक्त माध्यम है ।
इसी प्रकार विज्ञान कथाएँ, जानवरों की कहानियाँ, सामाजिक कहानियाँ तथा अन्य शिक्षाप्रद कहानियाँ बच्चों के सर्वांगीण विकास में सहायक हो सकती हैं ।
कहानी सुनाने की जरूरत
कहानियाँ अच्छी तरह सुनने की क्षमता का विकास करती हैं : ‘अच्छा श्रोता कौन है ? वह जो अन्त तक सुनता रहे ।’ यह बात थोड़ी अजीब है कि अच्छे श्रोता हमारे उस देश में दुर्लभ हो गए हैं, जहाँ कहानी सुनना और सुनाना एक पुरानी और मजबूत मौलिक संस्कृति रही है । मेरा अन्दाज है कि इस परिस्थिति का सम्बन्धबचपन में कहानी सुनाने की अवहेलना से है । ऐसा लगता है कि आधुनिक भारत के पास बच्चों को नियमित रूप से कहानी सुनाने का समय ही नहीं है । इस कमी के परिणाम अब स्पष्ट होते जा रहे हैं ।
* कहानियाँ सुनने से अन्दाज लगाने का प्रशिक्षण मिलता है ।
* कहानियाँ हमारी दुनिया को फैलाती हैं ।
* कहानियाँ शब्दों को अर्थ देती हैं ।
* कहानी कहने का महत्त्व हम बच्चे के भाषाई साधनों के विस्तार से देख सकते हैं । शब्द निहायत निजी सम्पत्ति होते हैं । वे हमें एक बहुत निजी अर्थ में संसार की चीजों को अलग–अलग नाम देने की क्षमता देते हैं । लेकिन दूसरी तरफ शब्द एक ऐसी सामाजिक सम्पत्ति भी हैं जिनका इस्तेमाल हम दूसरों से अपने अनुभव बाँटने के लिए करते हैं । शब्दों की ये दो–तरफा प्रकृति ही उन्हें अर्थ देती है ।’
प्राथमिक शिक्षक जनवरी 2007
प्रो– कृष्ण कुमार – निदेशक
N.C.E.R.T. प्राथमिक शिक्षा के मुद्दे
(D.P.E.P. जनवरी–अप्रैल 2007)
बच्चों के लिए खेल, खेल का अर्थ व आवश्यकता
बच्चों के लिए खेल सहज विकास का अच्छा माध्यम है । बच्चे के लिए खेल ही उसका कार्य है । बच्चा खेल–खेल में जितना अधिक सीख सकता है, बलपूर्वक सिखाने पर उसका दसवाँ भाग भी सीखना कठिन हो जाता है । खेल के द्वारा सीखने में बच्चे की रुचि होती है । अत: वह ज्ञान स्थायी होता है । खेल द्वारा सीखने से एक लाभ यह भी है कि बच्चे की पढ़ाई से अरुचि नहीं होती है । अत: विद्यालय शिक्षा में भी उसकी शिक्षा के प्रति रुचि बनी रहती है ।
बच्चा स्वतंत्रतापूर्वक कार्य कर सके तो उसकी ज्ञान–प्राप्ति की गति में तीव्र विकास होता है । यदि वातावरण नियमों से जकड़ा हुआ होगा तो बच्चे का सहज विकास रुक जाएगा । अत: बच्चे को अनुशासन सिखाने के लिए ऐसे खेलों की व्यवस्था की जानी चाहिए कि उसमें आत्मविश्वास, आत्मनियन्त्रण तथा सामाजिक भावना का विकास हो सके तथा उसे अनुशासन–पालन की शिक्षा भी मिल सके, किन्तु खेल खेल हो, आनन्दपूर्ण हो ।
रवीन्द्रनाथ टैगोर जी के शब्दों में—
‘जब मैं बच्चा था तब छोटी–छोटी चीजों से खिलौने बनाने और अपनी कल्पना में नए–नए खेल इजाद करने की मुझे पूरी आजादी थी । मेरी खुशी में मेरे साथियों का पूरा हिस्सा होता थाय बल्कि मेरे खेलों का पूरा मजा उनके साथ खेलने पर निर्भर करता था । एक दिन हमारे बचपन के इस स्वर्ग में वयस्कों की बाजार प्रधान दुनिया से एक प्रलोभन ने प्रवेश किया । एक अंग्रेज दुकान से खरीदा गया खिलौना हमारे एक साथी को दिया गयाय वह कमाल का खिलौना था– बड़ा और मानो सजीव । हमारे साथी को उस खिलौने पर घमंड हो गया और अब उसका ध्यान हमारे खेलों में इतना नहीं लगता थाय वह उस कीमती चीज को बहुत ध्यान से हमारी पहुँच से दूर रखता था ।
अपनी इस खास वस्तु पर इठलाता हुआ वह अन्य साथियों से खुद को श्रेष्ठ समझता था क्योंकि उनके खिलौने सस्ते थे । मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि अगर इतिहास की आधुनिक भाषा प्रयोग कर सकता तो वह यही कहता कि वह उस हास्यास्पद रूप से श्रेष्ठ खिलौने का स्वामी होने की हद तक हमसे अधिक सभ्य था ।
अपनी उत्तेजना में वह एक चीज भूल गया– वह तथ्य जो उस वक्त उसे बहुत मामूली लगा था कि इस प्रलोभन में एक ऐसी चीज खो गई जो उसके खिलौने से कहीं अधिक श्रेष्ठ थी, एक श्रेष्ठ और पूर्ण बच्चा । उस खिलौने से महज उसका धन व्यक्त होता था, बच्चे की रचनात्मक ऊर्जा नहीं, न ही उसके खेल में बच्चे का आनन्द था और न ही उसकी खेल की दुनिया में साथियों को खुला निमंत्रण ।’
रवीन्द्रनाथ टैगोर के निबंध ‘सभ्यता और प्रगति’ से
(राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005)
‘बच्चा जन्म से ही स्वाभाविक क्षमताओं के साथ पैदा होता है । हमारी शिक्षा–व्यवस्था उन स्वाभाविक क्षमताओं का आदर कर सके और उन क्षमताओं को इस हद तक बढ़ा सके कि उस बच्चे में एक लोकतांत्रिक समाज में सामूहिक भागीदारी के साथ काम करने की क्षमता विकसित की जा सके ।’
—प्रो– कृष्ण कुमार
‘शिक्षा का उद्देश्य और आज की व्यवस्था’
भारतीय आधुनिक शिक्षा अप्रैल, 2005’
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