मधुमय हो मधुमास बनी तुम मधु का ही तो पान करातीं ।
मधु की मधुर मधुरता क्या हो, जो तुम अमृतपान कराती । ।
मधुमय हो–––––
विकल हुआ मन जभी तुम्हारा दिया जगत को तभी सहारा,
निज दु:ख दु:खी मनोगति हो जब, सुख सरिता को तभी लुटाती ।
मधुमय हो––––––
अन्तर का सौन्दर्य तुम्हारा, है बिखेरता रत्न अनोखे,
रत्नों के तो मोल कहो तब, क्या प्रकाश का मोल भला है ?
मधुमय हो–––––
हो प्रकाश की मूर्तिमान तुम, अंधकार को खुद पी जातीं ।
क्यों दु:ख में तुम दु:खित हृदय हो, अपने को ही दु:ख पहुँचाती । ।
मधुमय हो––––––
क्या समाज इस ‘मधु’ को पाकर, निज विष को देने से चूका ।
यह तो दयामूर्ति तुम ही हो, शीतलता से सबको सींचा । ।
मधुमय हो––––––
व्यथित हृदय, मन स्वयं प्रकाशित, आत्मज्ञान की हो अभिलाषी ।
मातुपिता की आज्ञाकारी, ‘शोभा’ ही हो जग की सारी । ।
मधुमय हो–––––––
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