ठाकुर दानबहादुर सिंह के दिन तंगहाली में गुज़र रहे थे। ज्यादातर जमीन भाई बहनों व बच्चों की शादी की भेंट चढ़ गयी थी। थोड़ी सी जमीन बची थी, उससे सारे खर्चे नहीं निकलते थे।
थक हार कर वह शहर आ गए व रिक्शा चलाने लगे। लेकिन अधिक दिन तक रिक्शा नहीं चला सके क्योंकि इतनी मेहनत की आदत तो थी नहीं। शहर में ही एक मंदिर में शरण मिल गयी थी। रात में वह वहीं सो जाते थे। उनके अच्छे आचरण से प्रभावित होकर मन्दिर के ट्रस्टी श्री कुमार साहू जी ने उन्हें एक कपड़े की दुकान में नौकरी दिलवा दी। वह अपने खाने–पीने में बहुत थोड़ा खर्च करते थे। कोशिश यह करते थे कि अधिक से अधिक पैसा बचा कर घर में दिया जाय।
उनके छोटे बेटे की शादी थी। पास में पैसा नहीं था। उन्होंने ठकुराइन से कहा–‘अपने पास थोड़ी सी ज़मीन बची है, उसे बेच दिया जाए क्या?’
ठकुराइन ने माथा ठोकते हुए कहा–‘शादी–ब्याहों में पानी की तरह पैसा बहाने के परिणामस्वरूप ही तो हमारी ये दशा हो गयी है। अब बाकी बची जमीन मैं नहीं बिकने दूँगी।’
‘ठकुराइन! आखिर शादी में दावत देनी होगी, बहू को जेवर कपड़ा देना होगा। बारात का खर्च आदि कहाँ से आएगा?’
‘आजकल सभी वर्गों में सामूहिक विवाह का प्रचलन हो गया है। इसमें आदमी अपनी सामर्थ्यानुसार अंशदान करता है। आप ठाकुर शमशेर सिंह जी से मिलिए न।’
शाम को वह ठाकुर शमशेर सिंह जी के यहाँ इस प्रस्ताव को लेकर गए। ठाकुर शमशेर सिंह धनी तो थे ही, उनसे आयु में भी बहुत बड़े थे। अत: ठाकुर दानबहादुर सिंह ने उनके पैर छूते हुए कहा–‘ठाकुर साहब! आपसे तो हमारी माली हालत छिपी नहीं है। ठकुराइन कह रही थीं कि छोटे लड़के का विवाह सामूहिक–विवाह में कर दिया जाए।’
‘बिल्कुल ठीक! बहुत अच्छा सोचा है। लेकिन सामूहिक विवाह किसी मजबूरीवश न किया जाए तो अच्छा है। मैं भी अपने लड़के का विवाह इसी पच्चीस मार्च को होने वाले सामूहिक विवाह में कर रहा हूँ।’
‘ठाकुर साहब! आपको क्या आवश्यकता पड़ गयी, सामूहिक विवाह में लड़के की शादी करने की?’ दानबहादुर सिंह ने आश्चर्य से पूछा।
‘दानबहादुर! ठाकुरों ने अपनी सारी सम्पत्ति झूठी शान–प्रतिष्ठा में खत्म कर दी। उससे न तो अपना हित हो पाया, न ही दूसरों का। यदि हमारे पास सामर्थ्य है तो हम दूसरों का हित क्यों न करें?’
‘मैं अपने बेटे की शादी में चार–पाँच लाख तो खर्च करता ही। मैं अभी भी चार–पाँच लाख ही खर्च करूँगा, लेकिन उससे केवल मेरे लड़के की शादी न होकर अन्य निर्धन जोड़ों का भी विवाह होगा। सबका विवाह एक ही स्तर से होगा। यह मैं अपनी मान–प्रतिष्ठा मे लिए नहीं कर रहा हूँ, वरन् समाज को सही दिशा दिखा रहा हूँ क्योंकि खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र बनाती हैं।’
जब दानबहादुर सिंह ठाकुर शमशेर सिंह जी के यहाँ से लौट रहे थे तो उन्हें मितव्ययिता और मान–प्रतिष्ठा की नई परिभाषा समझ में आ गई थी।
मितव्ययिता कर दूसरों की मदद करो।
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