Monday, January 28, 2019

नर्सरी शिक्षा : क्या, कब, क्यों व कैसे ?- पुस्तक मंगाने हेतु संपर्क - मोबाइल.- 9654135918 e-mail : chilbil.shubh@gmail.com

बच्चों को पहली कक्षा से पूर्व शिक्षा प्राप्ति के लिए तैयार करने हेतु जो शिक्षा अनौपचारिक रूप से या बिना पाठ्यक्रम निर्धारित किए हुए दी जाती है उसे पूर्व प्राथमिक शिक्षा, शाला पूर्व शिक्षा या स्कूल रेडीनेस प्रोग्राम या नर्सरी शिक्षा कहते हैं । पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिए नर्सरी और के0 जी0 विद्यालयों की स्थापना बच्चे की विद्यालय के प्रति रुचि जाग्रत करने के लिए हुई थी । उद्देश्य यह था कि इनके माध्यम से स्कूल से ऊबने वाले बच्चों की संख्या में कमी की जाए, किन्तु अब तो इन विद्यालयों में तीन वर्ष की आयु से ही बच्चों को पढ़ना–लिखना सिखाया जाने लगा है, यह गलत है । नर्सरी शिक्षा का उद्देश्य बच्चे को अक्षर ज्ञान करवाना नहीं वरन् उसकी क्षमता का अधिकतम सीमा तक विकास करना और विद्यालय के प्रति रुचि जाग्रत कर उसे पढ़ने के लिए तैयार करना 
है ।
सरकारी विद्यालयों में भी कुछ सप्ताहों के लिए पूर्व प्राथमिक शिक्षा या नर्सरी शिक्षा की बहुत आवश्यकता महसूस की जा रही है ताकि बच्चा विद्यालय के वातावरण से परिचित हो सके तथा प्राथमिक शिक्षा के लिए तैयार हो सके । इसीलिए सन् 1999 में देश के केन्द्रीय विद्यालयों में पहली कक्षा में एडमीशन के बाद छ: सप्ताह का स्कूल रेडीनेस प्रोग्राम प्रारम्भ किया गया । 
बच्चों का बचपन–प्रकृति का अमूल्य उपहार है । जिस प्रकार खेत के तैयार हो जाने पर उसमें बीज डालने पर बहुत अच्छी फसल तैयार होती है, उसी प्रकार बच्चे की पढ़ाई प्रारम्भ होने से पूर्व यह आवश्यक है कि उसकी पढ़ाई के प्रति रुचि जाग्रत की जाए । विद्यालय उसकी सुखद कल्पनाओं की परिपूर्ति का स्थान हो । इस पुस्तक में नर्सरी शिक्षा के उद्देश्य, केन्द्रीय विद्यालय के बच्चोंं पर किया गया प्रायोगिक अनुभव व निष्कर्ष, नर्सरी शिक्षक की प्राथमिक गतिविधियाँ, नर्सरी शिक्षा का कार्यान्वयन, बच्चों के स्वस्थ विकास हेतु कुछ गतिविधियाँ, बच्चों के मानसिक रोग (निदान, कारण और समाधान), बच्चों के संतुलित विकास में शिक्षक व अभिभावकों का योगदान वर्णित है । शिक्षा के माध्यम के रूप में खेल व खेल–सामग्री की उपलब्धता व निर्माण के बारे में भी बताया गया है । 
बच्चों के खेल, कहानियाँ व कुछ लोकप्रचलित पहेलियाँ तथा शिशुगीत भी दिए गए हैं । शिशुगीतों, कहानियों आदि का शिशु मन पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव के बारे में भी वर्णन है ।

प्राकृतिक जीवनशैली से सम्पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति -पुस्तक मंगाने हेतु संपर्क - मोबाइल.- 9654135918 e-mail : chilbil.shubh@gmail.com

प्राकृतिक जीवनशैली से सम्पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति पुस्तक का सार–संक्षेप
इस पुस्तक में शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य को अक्षुण्ण रखने के लिए जीवनयापन के तरीके की ओर इंगित किया गया है । यदि प्रकृति के नियमों का पालन किया जाए और मन को शान्त रखा जाए तो बीमार पड़ने की सम्भावना भी समाप्त हो सकती है । प्राकृतिक जीवनशैली का अर्थ है कि अपने शरीर को प्रकृति या कुदरत के ऊपर छोड़ दें । इस बात को हम इस प्रकार अधिक अच्छी तरह समझ सकते हैंµनदी के बहते हुए पानी में स्वत: शुद्धीकरण की क्षमता होती है । जो सामान्य गन्दगी आती है, उसे हमें साफ करने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है, नदी स्वत: साफ कर लेती है । नदी का जल तब ही प्रदूषित होता है, जब हम आवश्यकता से अधिक कचरा उसमें डालते रहते हैं । यदि गंगा, यमुना आदि नदियों में या किसी भी नदी में आज की तारीख से भी कचरा डालना बन्द कर दिया जाए तो नदी का पानी कुछ समय में स्वयं को शुद्ध कर लेगा । एक तरफ तो नदी में पिछला कचरा पड़ा है, दूसरी तरफ अब भी कचरा डालते रहते हैं तो यह नदी की स्वत: शुद्धीकरण क्षमता की सीमा से अधिक हो जाता है और नदी का जल प्रदूषित हो जाता है ।
इसी प्रकार शरीर में कोई भी बीमारी होती है तो प्राकृतिक चिकित्सा का सिद्धान्त यह मानता है कि शरीर में कोई विकार है तो प्रकृति उस विकार को निकाल कर शरीर को स्वस्थ कर देगी ।
प्राकृतिक जीवनशैली पर कुछ विभूतियों के विचार दिए गए हैं । यौगिक सूक्ष्म व्यायाम एवं सूर्य नमस्कार तथा हस्तमुद्राओं का भी सचित्र वर्णन है । सरल व सहज प्राणायाम के तरीके और अपक्वाहार क्या, कब, क्यों व कैसे करें वर्णित है ।

मातृचेतना: लघु उपन्यास- पुस्तक मंगाने हेतु संपर्क - मोबाइल.- 9654135918 e-mail : chilbil.shubh@gmail.com

मातृचेतना उपन्यास में निहित मूलभाव

इस लघु उपन्यास लिखने का कारण है कि पाठक सहज ही इसे एक या दो बैठकों में पढ़ लें । इससे पढ़ने की रोचकता भी बनी रहती है और उपन्यास का संदेश भी सहज ही ग्राह्य होता है । यह उपन्यास बुजुर्गों के प्रति सहज संवेदनाओं को जागरूक करता है ।
जो बच्चा माँ का पल्लू पकड़ कर पीछे–पीछे घूमता था, वह इतना संवेदनशून्य कैसे हो जाता है कि वृद्धावस्था में उन्हें बृद्धाश्रम का रास्ता दिखा देता है । जिस देश की परम्परा रही है कि यहाँ पर मृतकों तक को तर्पण दिया जाता है, श्राद्ध किया जाता है । उस देश में उन्हें जीवित अवस्था में वृद्धाश्रम में भेज देना उचित नहीं है ।
इस उपन्यास में वृद्धाश्रमों में रह रहे बुजुर्गों की दशा, वृद्धाश्रम में आने के कारण और उनके निवारण की तरफ संकेत किया गया है । बुजुर्ग हो गए लोगों को महत्त्वहीन समझना हमारी भूल है । वह कुछ न भी करें तो उनके अन्तर से निकला हुआ आशीर्वाद ही हमारे लिए काफी है । कई बार बुजुर्ग लोगों की भी बच्चों से बहुत अधिक अपेक्षाएँ होती हैं । सामञ्जस्य दोनों तरफ से आवश्यक
है । 
मातृचेतना तो हर प्राणी में जन्म के साथ ही सहज स्वाभाविक होती है । इस संसार में उसे लाने वाले उसके माता–पिता ही तो होते हैं । शिशु का प्रथम परिचय अपनी माता से ही होता है । 
प्रश्न है कि बड़े होते–होते कहाँ चली जाती है यह सहज स्वाभाविक चेतना । इस लघु उपन्यास को लिखने का उद्देश्य ही यह है कि लोगों की सहज संवेदनाएँ उनके मन में स्थिर रहें । सर्वत्र मातृ देवो भव, पितृ देवो भव की ध्वनि गुञ्जायमान हो । 


डॉ– शोभा अग्रवाल ‘चिलबिल’
मो॰ – 09654135918 09335924979
ई मेल–chilbil.shubh@gmail.com

पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी बाल नाटक -पुस्तक मंगाने हेतु संपर्क - मोबाइल.- 9654135918 e-mail : chilbil.shubh@gmail.com

आज तो धरती का अस्तित्व ही खतरे में है। प्रदूषण और अन्य पर्यावरणीय समस्या हमारे सिर पर काल की तरह मंडरा रही हैं। इस समय हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता है- हमारे अपने अस्तित्व की रक्षा।
मानव की ही अनेक क्रियाएँ पर्यावरण के संतुलन को बिगाड़ती हैं। उदाहरण के लिए नदी के जल में अपने को स्वच्छ करने की प्राकृतिक क्षमता होती है। हम इसमें घरेलू और कारखानों से निकलने वाला कूड़ा-कचरा, प्लास्टिक आदि इतनी ज़्यादा मात्रा में डाल देते हैं कि जल स्वयं को स्वच्छ नहीं कर पाता और हम इस अस्वच्छ जल को प्रदूषित जल का नाम देते हैं। पेयजल का संकट सभी विकसित और विकासशील देशों के बीच चर्चा का मुख्य विषय है।
औद्योगीकरण और शहरीकरण के कारण जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, भू प्रदूषण तथा ध्वनि प्रदूषण बढ़ रहा है। जो हमारे स्वास्थ्य के लिए गम्भीर रूप से हानिकारक है। ऐसे ही पानी के अत्यधिक दोहन के कारण पृथ्वी का भूजल स्तर नीचे जा रहा है, जो चिन्ता का विषय है। देखें कि कैसे हम छोटे-छोटे उपायों द्वारा समस्याओं को दूर करके धरती को स्वर्ग बना सकते हैं।
बचपन में हम भी तुम्हारी तरह माँ के हाथ की बनी गुझिया, मिठाइयाँ वगैरह खूब खाया करते थे। खूब शरारत करते, खेलते, पढ़ते और मौजमस्ती करते। बड़े लोग जो कहते मान लेते और खुद चिन्तामुक्त रह कर मजे करते रहते। चलो आज अपनी दादी के हाथ की अनोखी मिठाइयों (नाटकों) का आनन्द लो। इन नाटकों की यह भी विशेषता है कि कोई नाटक किसी भी समय व किसी भी अवसर पर खेला जा सकता है। यह नाटक नुक्कड़ नाटक के रूप में भी खेले जा सकते हैं।
दादी 
चिलबिल

स्वस्थ मन सफल जीवन - पुस्तक मंगाने हेतु संपर्क - मोबाइल.- 9654135918 e-mail : chilbil.shubh@gmail.com

सभी के जीवन में विभिन्न प्रकार के उतार–चढ़ाव आते रहते हैं । यदि हर परिस्थिति में शान्तचित्त से स्थिर मन से सोचे तो गम्भीर समस्या भी छोटी लगने लगती है । जीवनधारा से जुड़ी हुई इस पुस्तक में मन को स्वस्थ रखने के सहज साध्य उपायों का वर्णन है ।
जिसका बचपन दुलार भरा होगा, बड़े होने पर भी उसका मस्तिष्क स्वस्थ रहेगा । वह विपरीत परिस्थितियों में भी स्वयं को समायोजित कर लेगा ।
इस पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें बचपन को ही सँवारने को बताया गया है । सत्य है यदि जीवन की नींव सुदृढ़ होगी तो जीवन तो सुखद होगा ही ।
शिवसंकल्प तथा स्वस्थ सोच मनुष्य को सदा प्रसन्न रखते हैं । हम अपना जीवन प्रबन्धन कैसे करें ? हमारे प्राचीन शास्त्रों जैसे, वेद, उपनिषद, पुराण, बाइबिल आदि में मन को स्वस्थ व प्रसन्न रखने के बारे में बहुत कुछ लिखा है । उसका कुछ अंश इस पुस्तक में देने का प्रयास है ।
इस पुस्तक में एक ओर तो विभिन्न शास्त्रों के उदाहरण दिए हैं । दूसरी ओर राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् द्वारा अनुमोदित राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 द्वारा भी यह प्रमाणित करने का प्रयास किया है कि बचपन उल्लासपूर्ण होना चाहिए ।
पूरी पुस्तक सहज व सुखद जीवनयापन की ओर इंगित करती है ।

हमारी संस्कृति : निबंध संग्रह - पुस्तक मंगाने हेतु संपर्क - मोबाइल.- 9654135918 e-mail : chilbil.shubh@gmail.com

हमारी सांस्कृतिक धरोहर क्या है ? वेदों व उपनिषदों आदि में क्या है ? हमारे मनीषियों का चिन्तन क्या है ?
यदि बच्चों को प्रारम्भ से ही सहज जीवन व्यतीत करने दिया जाए, परिवार में प्यार–दुलार मिले तो हमारी संस्कृति स्वयं ही समृद्ध होगी व ऊँचाई के नए आयामों का संस्पर्श कर सकेगी । परिवार में गरीबी हो सकती है किन्तु बच्चे का बचपन सहज हो, मानसिक बोझ व चिन्ताओं से लदा हुआ न हो ।
निर्भया जैसे काण्ड हमारी संस्कृति के लिए दाग हैं । ऐसी घटनाएँ भविष्य में न हो, उनका कारण व निवारण प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । वास्तविक मूल्यपरक शिक्षा क्या है ? मूल्यों को कैसे सहजरूप में बालहृदय में स्थापित किया जा सकता है, वर्णित है ।
इसका प्रत्यक्ष उदाहरण एक लेख में वर्णित है,‘जब राष्ट्रपति की पोती को घर में खाने के लिए चावल नहीं मिला ।’ यह सत्य घटना उस समय की है जब देश में अनाज की कमी थी । इसलिए जनता से आह्वान किया गया कि वह सप्ताह में एक दिन अन्न न खावें । तत्कालीन राष्ट्रपति ने इस नियम को अपने घर में भी लागू किया तथा घर में बच्चों तक को उस दिन अन्न खाने के लिए नहीं दिया जाता था ।
यदि ऐसा सभी लोग करें तो हमारी संस्कृति एक आदर्श संस्कृति बन सकती है ।

वेदों में सम्पूर्ण स्वास्थ्य तथा एकेश्वरवाद- पुस्तक मंगाने हेतु संपर्क - मोबाइल.- 9654135918 e-mail : chilbil.shubh@gmail.com

वेद वैदिक संस्कृत में लिखे गए हैं। अतः सबके लिए सुपाठ्य नहीं हैं। वेदों में अनेक विषय वर्णित हैं। उनमें से इस पुस्तक में दो ही विषय लिए गए हैं. सम्पूर्ण स्वास्थ्य और एकेश्वरवाद। यह पुस्तक सबके लिए सुपाठ्य हो, इसलिए सरल भाषा में संक्षिप्त रूप में लिखी गई है।
ईश्वर एक है, वह सर्वव्यापक, सर्वदर्शी, पूर्ण, सनातन, सर्वनियन्ता, सभी का पालक, जगत का धारक, सर्वसुखप्रदाता, अजन्मा व अनेक नामों वाला है। उसको किसी भी रूप में भजा जा सकता है। वह सर्वथा अपार, सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त है। आवश्यकता है उसके प्रति पूर्ण समर्पण की।
स्वास्थ्य में शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य सभी कुछ आ जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए मूलरूप से प्रकृति के नियमों का पालन करना आवश्यक है। जैसे सूर्योदय के पूर्व जागरण, सूर्य-दर्शन व शुद्ध वायु का सेवन आदि।
मन को स्वस्थ रखने के लिए मन की स्थिरता व सबलता आवश्यक है। हर परिस्थिति में हम प्रसन्न रहें, शान्त रहें व सत्संगति हो। आलस्य का त्याग करके पुरुषार्थ करें व सत्य का पालन करें। परमात्मा पर पूर्ण श्रद्धा व विश्वास हो। 
वेदों के ज्ञान के सहज प्रस्तुतीकरण का लघु प्रयास है।

Saturday, January 5, 2019

स्वावलम्बन


पतंग ने पक्षी से कहा–‘मैं तुमसे ऊँची उड़ सकती हूँ।’
पक्षी ने कहा–‘भले ही तुम मुझसे ऊँची उड़ जाओ किन्तु तुम ऊँचे उड़ कर भी स्वयं कुछ नहीं कर सकतीं, स्वावलम्बी नहीं हो।’


‘तुम क्या कर सकते हो?’
‘मैं अपनी मीठी बोली से दूसरों का मन बहला सकता हूँ। अपना भोजन स्वयं इकट्ठा कर सकता हूँ। तुम्हारी लम्बी धारदार डोर तो किसी के लग जाए तो वह शरीर के किसी अंग को काट भी सकती है।’
पक्षी की उपेक्षा करके पतंग और तन कर ऊपर की ओर उड़ चली। तभी किसी दूसरी पतंग ने उसे काट दिया और वह नीचे गिर पड़ी।
नीचे गिरते हुए वह अपनी असमर्थता, के बारे में सोच रही थी। इतने में नीचे बैठा हुआ पक्षी स्वयं उड़ कर बहुत दूर ऊपर चला गया।
`तभी पतंग ने देखा कि एक मजदूर अपनी दिनभर की कमाई से दाल–रोटी बना कर खा रहा है और एक भिखारी––––भूख से चिल्ला रहा है, माँग रहा है कि कुछ खाने को मिल जाए।
`पतंग ने भिखारी से कहा–‘स्वावलम्बी बनो।’
स्वावलम्बी बनो।


स्वार्थपरता का पर्दा


वक्त था दोपहर का, पेड़ के नीचे एक कुत्ता बैठा था। वह प्रतीक्षा कर रहा था कि कोई मनुष्य आए, कुछ खाने को लाए, जिससे उसे भी कुछ हिस्सा मिल जाए।

उसी समय एक मनुष्य आया और पेड़ की छाया में बैठकर खाने की पोटली खोल कर खाने लगा, किन्तु उस खाने में कुत्ते को हिस्सा नहीं मिल सका क्योंकि तभी एक दूसरा मनुष्य आया और पहले व्यक्ति से खाने की पोटली छीन कर भागने लगा।
कुत्ते ने रोका और कहा–‘तुम छीनकर भागने की बजाए प्रेम से माँगते या याचना करते और दोनों लोग मिलकर खाते तो कितना अच्छा होता। हम कुत्ता होकर भी बिना भूख के छीना झपटी नहीं करते हैं किन्तु मनुष्यों में संग्रह की प्रवृत्ति होने के कारण प्रेम और सहानुभूति खत्म होती जा रही है।’
जबकि भगवान ने प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा ये सारे गुण मनुष्य में सहज, स्वाभाविक रूप में दिए हुए हैं। किन्तु––––मनुष्य ने उसमें स्वार्थपरता का पर्दा डाला हुआ है।
प्रेम, सहानुभूति, दया व करुणा मनुष्य के सहज स्वाभाविक गुण हैं।


साहसी बच्ची


एक पाँच वर्षीया बालिका अपने मामा के यहाँ आई हुई थी। रात्रि में वह अपनी नानी के पास सो रही थी। अचानक उसे कुछ खटपट की आवाज सुनाई दी। उसने उठकर देखा कि अन्दर कमरे की तरफ से आवाज आ रही है।
धीरे–धीरे वह दबे पाँव उठी और अंधेरे में ही उस आवाज की तरफ बढ़ने लगी। उसने छेद से देखा कि अन्दर कोठरी में कुछ लोग सामान बाँध रहे हैं और कोठरी का दरवाजा बन्द है। वह फिर वापस अपने कमरे में गई। कमरे का ताला उठाकर चुपके से आई व कोठरी को बाहर से बन्द कर वापस नानी के पास आ गई, अब नानी को जगाकर सारी बातें बतार्इं।
नानी व उस बच्ची ने शोर मचा दिया। घर व गाँव वाले लोग इकट्ठे हो गये। पुलिस बुला ली गई। चोर पकड़ लिये गये।

उस बालिका को उसके साहस के लिए सरकार की ओर से पुरस्कार मिला। इस प्रकार गाँव के लोगों को उस बालिका के साहस के कारण आये दिन होने वाली चोरियों से मुक्ति मिली।
मुसीबत में साहस से काम लो


समय की गणना


‘एक वर्ष में कितने दिन होते हैं?’
‘तीसौ न पैंसठ दिन।’ सब विद्यार्थी एक साथ बोले।
आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों से जब गणित के नए अध्यापक रमाकान्त सर ने पहले ही दिन यह प्रश्न पूछा तो बच्चों के चेहरे पर मुस्कान उभर आयी कि इतना छोटा सा जवाब तो सभी को मालूम होगा।
लेकिन आगे उन्होंने पूछा–‘यदि प्रतिदिन पन्द्रह मिनट कोई काम किया जाए तो एक वर्ष में कितने घंटे काम होगा?’
अब बच्चे गणना करने लगे–
365 x 15 मिनट = 5475 मिनट
5475 X 60 = 91 घंटे पन्द्रह मिनट
सबसे पहले सुरेश बोला–‘सर इक्यानबे घंटे पन्द्रह मिनट।
‘ठीक है, अन्य बच्चों को भी कर लेने दो ।’
जब सब बच्चे कर चुके तब गुरुजी ने कहा– सोचो! यदि किसी कार्य में प्रतिदिन पन्द्रह मिनट का समय दिया जाए तो एक वर्ष में इक्यानबे घंटे पन्द्रह मिनट काम हो जाएगा ।
स्वाति ने कहा–‘सर! यदि हम रोज पन्द्रह मिनट भी अधिक पढ़ें तो एक वर्ष में इक्यानबे घंटे पन्द्रह मिनट अधिक पढ़ाई हो सकेगी ।
बिल्कुल ठीक कहा स्वाति तुमने! मैं यह नहीं कहता कि तुम लोग दिन भर पढ़ते ही रहो। पढ़ो भी, खेलो भी, पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं में भी भाग लो व समाचार पत्र पढ़ो, किन्तु समय बरबाद मत करो ।’
‘सर! समय को बरबाद करने से तात्पर्य!’ विनीत ने पूछा।
‘जैसे सर्दी के दिनों में नींद खुल जाने पर भी आलस्यवश आधा घंटा बिस्तर पर ही पड़े रहें । ऐसी स्थिति में यदि बिस्तर से उठने का मन नहीं भी है तो बिस्तर पर बैठ कर ही कोई किताब या समाचार पत्र पढ़ सकते हैं । इसी प्रकार पाँच–पाँच, दस–दस मिनट करके बहुत सा समय बचाया जा सकता है ।’
‘सर! समय का बड़ा महत्त्व है।’ –विनीत इतनी गम्भीरता से बोला कि सब हँस पड़े ।
‘अच्छा ! मैं तुम्हें एक नारा देता हूँ– समय बचाओ, सफलता पाओ ।’
सब बच्चे समवेत स्वर में बोले– ‘समय बचाओ, सफलता पाओ ।’
समय की कीमत पहचानो ।


सफलता का रहस्य


‘आँटी सोमेश है।’
‘हाँ! लेकिन सो रहा है।’
‘सो रहा है? उसकी तबियत ठीक नहीं है क्या?’
‘तबियत तो ठीक है, लेकिन कल रात में दो बजे तक पढ़ाई की है, इसलिए अभी सो रहा है।’
अहमद चला गया किन्तु सोचने लगा कि सोमेश को कैसे समझाया जाए। उसने निश्चय किया कि जब सोमेश मिलेगा तो उसे समझाएगा।
शाम को सोमेश अहमद के घर आया।
‘अरे सोमेश तू! मैं तुम्हारे घर सुबह नौ बजे गया था, तब तुम सो रहे थे।’
‘हाँ मित्र! कल रात को दो बजे तक पढ़ाई की थी । इसलिए सुबह देर में तो उठना ही था।’
 
‘हाँ आँटी बता रही थीं ।’
‘जब मैं देर से सोता हूँ तो मेज पर पर्ची लिख कर रख देता हूँ कि इतने बजे सोया हूँ, जिससे सुबह माँ देख ले और मुझे न उठाये ।’
‘हाँ यह तो ठीक है किन्तु––––’ इतने में राबर्ट भी आ गया–‘आओ राबर्ट आओ ।’ दोनों बोले ।
‘क्या बातें हो रही हैं?’
‘हम सबके मतलब की बात है, अच्छा ही है कि तुम भी आ गए।’ –अहमद बोला।
‘हाँ तो सोमेश तुम कल रात में दो बजे सोये और सुबह दस बजे उठे । इससे तुम्हारी थकान बढ़ गई और कार्यशक्ति कम हो गई।’अहमद ने समझाते हुए कहा।
‘कैसे?’ कैसे कम हो गई कार्य शक्ति।’
‘रात्रि सोने के लिए होती है और दिन काम करने के लिए। तुम थके होने के बावजूद रात में देर तक जागते रहे, पढ़ते रहे। सुबह ताजी हवा चलती है, सूर्य की रोशनी होती है। उदित होते हुए सूर्य की जीवनदायी किरणों के प्रभाव से तुम वंचित रहे।’
बीच में बात काटते हुए सोमेश बोला–‘सही कहते हो शायद इसीलिए अभी से मेरे चश्मा लग गया।’
‘बिल्कुल ठीक! हाँ! और सुबह देर से उठने से हाजमा भी ठीक नहीं रहता फलस्वरूप स्वास्थ्य खराब हो जाता है।’
‘मेरे भी शरीर में हर समय दर्द बना रहता है। क्या करूँ? इतना पढ़ने के बाद भी अच्छे नम्बर नहीं आ पाते। मैं भी रात के दो–दो बजे तक पढ़ता हूँ।’ –राबर्ट बोला।
‘दोस्तों! तुम लोग गलत तरीके से पढते हो। रात को नौ बजे तक पढ़ो, फिर आराम से सो जाओ। सुबह पाँच बजे तरोताज़ा उठोगे। शरीर और मस्तिष्क दोनों ही कार्य करने में पूरी तरह सक्षम होंगे। स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा और पढ़ाई में भी मन लगेगा। पढ़ाई भी अधिक होगी और नम्बर भी अच्छे आएँगे।’
‘ठीक है पंडित जी! हम आपकी बात मानेंगे।’राबर्ट और सोमेश एक स्वर में बोले।
‘कल्याण हो।’जब आशीर्वाद की मुद्रा में अहमद ने अपना हाथ ऊपर उठाया तो तीनों एक साथ खिलखिला कर हँस पड़े।
रिजल्ट आया– तीनों ही मित्र बहुत अच्छे अंको से पास हो गए थे। सोमेश ने भावुक होते हुए कहा–‘अहमद! तुमने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी। रात को जल्दी सोने और सुबह जल्दी उठने से मेरे जीवन की दशा और दिशा दोनों ही बदल गयी। अब मेरा स्वास्थ्य भी ठीक रहता है और मन भी प्रसन्न रहता है ।’
इतने में राबर्ट बाहर से चिल्लाता हुआ आया–‘अम्मी! लड्डू खाइए, माँ ने अभी–अभी बनाए हैं।’
अम्मी ने आकर तीनों बच्चों के मुँह में लड्डू डाला और स्वयं भी खाया व आशीर्वाद दिया–‘खुदा करे, तुम लोग खूब पढ़ो-लिखो, अच्छे इन्सान बनो और तुम्हारी दोस्ती सदा कायम रहे।’
प्रकृति के नियमों का पालन करो।


सक्सेना जी बने स्टूडेन्ट


पड़ोस के सक्सेना साहब मेरे पास बैठे हुए थे कि मेरा बेटा प्रवीन आया, बोला–‘पापा पचास रुपए दे दीजिए, प्रोजेक्ट का सामान लाना है।’

‘तुम्हारे स्कूल में ही प्रोजेक्ट क्यों नहीं बनवाया जाता है। अब रात के बारह बजे तक जाग कर प्रोजेक्ट बनाओगे।’
‘क्या करूँ पापा? जो काम करना है, वह तो करना ही है। लेकिन प्रोजेक्ट बनाने में मज़ा भी खूब आता है।’
‘ठीक है लेकिन अपनी सेहत का भी तो ध्यान रखना चाहिए।’ मैंने प्रवीन से कहा–‘जाओ माँ से रुपए ले लो।’ प्रवीन चला गया।
‘बच्चा जितनी अधिक मेहनत करेगा, उतना ही अच्छा रहेगा। अभी से ही मेहनत की आदत पड़ी रहेगी तो जीवन में कष्ट नहीं होगा।’ सक्सेना जी बोले।
‘ठीक है सक्सेनाजी! मेहनत की आदत तक तो ठीक है, किन्तु शरीर की क्षमता से अधिक मेहनत से सिवाय बीमारी के और कुछ नहीं मिलता। खाली पड़े रहना भी उतना ही घातक है जितना जरूरत से अधिक काम।’
‘शायद आप ठीक कहते हैं।’
इतने में ही सक्सेना जी का बेटा विवेक आया बोला–‘पापा! बाबा का फोन आया है, वह कल सुबह की गाड़ी से आ रहे हैं। अंकल प्रवीन कहाँ है? उससे नोट्स लेने हैं । मैं आज स्कूल नहीं गया था।’
मैंने कहा–‘प्रवीन चौराहे तक गया है, आता ही होगा। तुम स्कूल क्यों नही गए थे?
‘मेरी तबियत ठीक नहीं थी।’
मैंने देखा विवेक की आँखों के नीचे काले गड्ढे पड़े हुए थे। मैंने पूछा-‘विवेक कितने बजे सोते हो ?’
‘अंकल! होमवर्क पूरा करते–करते बारह–एक तो बज ही जाते हैं।’
‘उठते कितने बजे हो?’
‘पापा तो चार बजे उठाते हैं, लेकिन पाँच बजे तक उठ ही जाता हूँ।’
‘सक्सेना जी! आपने देखा विवेक की आँखों के नीचे काले गड्ढे पड़े हुए हैं।’
‘हाँ सतीश जी! यह अक्सर बीमार भी पड़ जाता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इसकी नींद पूरी न होती हो।’
‘बिल्कुल ठीक! शरीर भगवान की दी हुई एक मशीन है, जिसे कब और कितना आराम करना है। यह शरीर स्वयं बता देता है। हम आवश्यकता से अधिक आराम करेंगे तो शरीर के अंगों का सुचारू रूप से संचालन नहीं होगा। फलस्वरूप पाचन प्रभावित होगा और रोग घेरेंगे। इसी प्रकार अधिक काम करने पर शरीर को पूरा आराम न मिलने पर भी अनेकानेक रोग घेर लेते हैं।’
‘लेकिन अंकल! फिर काम कैसे पूरा होगा?’ विवेक ने कहा।
‘जब तुम पूरी नींद लोगे तो शरीर में स्फूर्ति रहेगी। काम जल्दी व सुव्यवस्थित होगा। पाठ भी जल्दी समझ में आएगा।’
‘अंकल! आप सही कह रहे हैं। जिस दिन पूरी नींद सो लेते हैं, मन प्रसन्न रहता है, पढ़ाई में भी मन लगता है और याद भी जल्दी होता है।’
‘अच्छा सतीश जी! अब मैंने निश्चय किया है कि रात को नौ बजे विवेक को सुला दिया करेंगे, जिससे सुबह पाँच बजे वह नींद पूरी होने पर अपने आप उठ जावे।’ सक्सेना जी ने उठते हुए कहा–‘और हाँ! आज से हम आपके स्टूडेन्ट बन गए।’
सब हँसने लगे।
पूरी नींद लेना आवश्यक है।


विमलेश-आपदा का प्रबंधन


केन्द्रीय–विद्यालय की कक्षा नौ में गुरु जी आपदा–प्रबंधन के बारे में पढ़ा रहे थे।
गुरु जी ने कहा–‘आपदाएँ कई तरह की होती हैं-प्राकृतिक आपदा, मानवकृत आपदा व अन्य भी कई तरह की आपदाएँ होती हैं। हमें इन आपदाओं के कारण समझकर उनके प्रबंधन के बारे में विचार करना है।
पूजा ने कहा–‘सर!’ घरेलू–आपदाएँ, विद्यालय की आपदाएँ आदि भी हो सकती हैं। इसके प्रबंधन के बारे में भी पढ़ाएँगे।’
“हाँ पूजा! आपदाएँ कई प्रकार की होती हैं। आपदा घर, विद्यालय कहीं की भी हो सकती है, उस आपदा के कारण जानकर उसका बचाव कैसे हो, इसी को आपदा–प्रबंधन कहते हैं।
मैं तुम लोगों को एक प्रोजेक्ट देता हूँ, तुम लोग घर, विद्यालय, मानवकृत या प्राकृतिक आपदा, किसी भी आपदा से सम्बन्धित एक विषय लेकर उस आपदा के कारण व निवारण के विषय में लिखो।’
गुरुजी यह कह कर बैठे ही थे कि विमलेश उचक कर गुरुजी के पास आ गया और हाथ लहराते हुए बोला–‘गुरुजी! मैं किस आपदा के बारे में प्रोजेक्ट बनाऊँ।’
गुरुजी हँसकर बोले–‘नाटकीय ढंग से क्यों पूछ रहे हो, चाहे जिस आपदा पर प्रोजेक्ट बनाओ, यह तुम्हारी स्वेच्छा पर निर्भर है।’
दुर्गेश्वर बोला–‘सर’ ये तो स्वयं आपदा है।’
‘ऐसे नहीं कहते हैं।’ गुरुजी ने कहा।
पूजा के दिमाग में एक बिजली सी कौंधी उसे अपने प्रोजेक्ट का विषय मिल गया। सभी विद्यार्थियों ने विभिन्न आपदाओं के प्रबंधन पर प्रोजेक्ट बनाए किन्तु पूजा ने एक अनोखा प्रोजेक्ट बनाया, जिसका विषय था–‘विमलेश-आपदा का प्रबंधन।’
सबने प्रोजेक्ट जमा किया। जब पूजा का प्रोजेक्ट गुरुजी ने देखा तब पूछा– ‘पूजा ये क्या लिखा है।’

डरते–डरते पूजा बोली–‘सर! पढ़िए तो, यह एक अलग तरह की आपदा है। इसका प्रबंधन भी बहुत आवश्यक ह ।’
खैर––––गुरुजी पढ़ते गए, एक ओर तो उनका हँसते–हँसते बुरा हाल था। दूसरी ओर इस प्रोजेक्ट में गहराई के साथ संदेश भी था। पूजा का प्रोजेक्ट इस प्रकार था–
विमलेश-आपदा का प्रबंधन
पर्यावरणीय आपदाएँ जैसे भूकम्प, ज्वालामुखी या सुनामी लहरों से तो आत्मरक्षा के उपाय भी किए जा सकते हैं। साम्प्रदायिक दंगों व युद्ध की स्थिति पर भी काबू पाया जा सकता है किन्तु विमलेश-आपदा को सम्भालना हमारे वश में नहीं है। इसके लिए तो किसी मूर्धन्य विद्वान मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता है।
विमलेश-आपदा का परिचय
विमलेश हमारी कक्षा में पढ़ने वाला एक बुद्धिमान छात्र है। उसमें एक ही बीमारी है। वह सदा अपनी हरकतों से ध्यान–आकर्षित करने का प्रयास करता है। इस ध्यानाकर्षण प्रक्रिया में वह कई रास्ते अपनाता है। यथा–

* जोर–जोर से चिल्लाना।
* अकारण ताली बजाना।
* हर समय बोलते रहना।
* दो लोगों की बात के बीच में एकदम चिल्ला कर विघ्न डाल देना।
* अजीब तरह से हाथ–पैर, मुँह व पूरा शरीर हिलाना।
* विद्यालय से आते–जाते व साइकिल चलाते समय अपनी हरकतों से विद्यालय के बच्चों व राहगीरों का ध्यानाकर्षण करना आदि।
विमलेश–आपदा का विमलेश व अन्य लोगों पर दुष्प्रभाव
विमलेश के इन क्रियाकलापों के दुष्प्रभाव कई रूपों में होते हैं। यथा–
1– विमलेश पर दुष्प्रभाव-विमलेश की इस ध्यानाकर्षण प्रक्रिया का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव विमलेश पर ही पड़ता है। उसका विकास बाधित होता है। वह पूर्ण मनोयोग से पढ़ नहीं पाता है। जो ध्यान उसे अपनी पढ़ाई में लगाना चाहिए, वह दूसरों के ध्यानाकर्षण पर लगाता है। फलस्वरूप पढ़ाई बाधित होती है।
2– कक्षा के विद्यार्थियों पर दुष्प्रभाव– विमलेश के हर समय बोलते रहने व अजीब–अजीब हरकतों से कक्षा का वातावरण स्वस्थ नहीं रह पाता है फलस्वरूप अन्य विद्यार्थियों का अध्ययन भी बाधित होता है।
3– अध्यापकों पर दुष्प्रभाव– विमलेश की अजीबोगरीब हरकतों के कारण अध्यापक का ध्यान बार–बार उसकी ओर चला जाता है। उसको रोकने–टोकने व समझाने में भी कुछ समय लगता है। फलस्वरूप अध्यापन की गति भी प्रभावित होती है।
4– परिवार पर दुष्प्रभाव– विमलेश के बुद्धिमान होते हुए भी वह न तो पढ़ाई में, न ही अन्य किसी क्षेत्र में अव्वल आ पाता है। अत: माता–पिता उसके भविष्य को लेकर चिन्तित रहते हैं। उसके हर समय के चुलबुलेपन से उसके माता–पिता व भाई बहन परेशान रहते हैं।
विमलेश-आपदा का प्रबंधन
इस आपदा से बचाव के प्रबंधन में जो घटक प्रभावित हैं, वह सब ही उसका सार्थक उपाय भी कर सकते हैं यथा-माता–पिता, भाई–बहन, सहपाठी व अध्यापक। सबके सम्मिलित प्रयास से न केवल इस आपदा से ही छुटकारा पाया जा सकता है वरन् विमलेश समाज के लिए बहुत उपयोगी भी हो सकता है। कतिपय उपाय निम्नवत् हैं–
1– माता पिता उसे पर्याप्त समय दें।
2– अभिभावक, भाई–बहन व अध्यापक एवं सहपाठी सभी लोग उसकी पूरी बात ध्यान से सुनें। उसे यह लगे कि उसकी बातों का भी कोई महत्त्व है। जब उसकी बातों को महत्त्व दिया जाएगा तो वह स्वयं ही सार्थक बातें करने लगेगा।
3– उसकी बातें सुनकर प्यार व सहानुभूतिपूर्वक उसे उसकी गल्ती बताई जाए अर्थात् उसे गल्ती की दशा व दिशा दोनों से ही अवगत करवाया जाए। सुधारात्मक उपाय भी किए जाएँ।
4– उसे खेलने का भरपूर अवसर दिया जाए।
5– पढ़ाई में उसे जिस बिन्दु पर मार्गदर्शन की आवश्यकता हो या जिस बिन्दु पर पिछड़ापन हो, उसे दूर किया जाए। यदि वह किसी विषय में बहुत पिछड़ गया है तो उसे अतिरिक्त कक्षा या घर पर विषय–विशेष की ट्यूशन दी जाए।
आशा करती हूँ कि विमलेश-आपदा का प्रबन्धन इस भाँति करने से वह आपदा न होकर घर, विद्यालय, समाज व देश का उपयोगी अंग हो सकता है।
जब विमलेश सामान्य व्यवहार करने लगे तब यदि उसकी प्रतिभा को सही दिशा निर्देशन दिया जाए तो वह अपनी विशिष्ट प्रतिभा से घर, विद्यालय, समाज व देश का नाम भी रोशन कर सकता है।
*      *      *       *
गुरुजी ने इस प्रोजेक्ट को न केवल स्वयं ही पढ़ा वरन् इसे प्राचार्य जी, अन्य अध्यापकों तथा विमलेश के घर वालों को भी पढ़वाया व सभी ने मिलकर सम्मिलित सुधारात्मक उपाय भी किए।
कक्षा के विद्यार्थियों को भी समझाया कि विमलेश अच्छा लड़का है। उसकी पूरी बात सुनकर उसके साथ प्यार से व्यवहार करें तथा उसे अपने साथ खिलावें।
कक्षा के महत्त्वपूर्ण कार्य उसे सौपे जाने लगे, जैसे फीस एकत्रित करते समय उसका सहयोग लेना आदि। उसे कक्षा का द्वितीय मॉनीटर भी बना दिया गया।
कहना न होगा कि कुछ ही महीनों के प्रयास से विमलेश कक्षा में  सामान्य बच्चे की तरह व्यवहार करने लगा व पढ़ाई के स्तर में भी आश्चर्यजनक सुधार हुआ। खेलकूद में तो राज्य स्तरीय प्रतियोगिताओं में भाग लेने लगा।
सभी सहपाठियों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करो ।


लोभ



एक किसान पीपल के पेड़ के नीचे दोपहर को आराम कर रहा था। तभी उसने एक काला नाग देखा। वह हाथ जोड़ कर बैठ गया और कहा–‘नागदेवता मैं तुम्हें रोज दूध पिलाया करूँगा’ नाग वापस चला गया।

अब किसान नियम से नागदेवता के लिए एक कटोरे में दूध लाकर उनके बिल के सामने रख देता। नाग दूध पीने के बाद उसमें एक सोने की मुहर डाल देता था। इस प्रकार प्रतिदिन एक सोने की मुहर मिलने से किसान की सारी दरिद्रता दूर हो गयी।
एक दिन किसान को कहीं बाहर जाना था। अत: उसने अपने बेटे को नागदेवता को दूध पिलाने का आदेश दिया। दूसरे दिन बेटा दूध लाकर रख गया। जब कटोरा उठाने आया तो उसमें उसने एक सोने की मुहर देखी। इसी प्रकार लगातार दो दिन तक मोहर पाने के बाद उसने सोचा कि लगता है साँप की बाँबी में कोई खजाना है, क्यों न बाँबी खोद कर खजाना निकाल लिया जाय।
लोभवश उसने कुछ विचार न किया और बाँबी खोद डाली। नाग ने बाहर निकल कर उसे डस लिया।
इस प्रकार बहुत लोभ नहीं करना चाहिए।
लोभ से सदा हानि ही होती है।


मूर्ख वैज्ञानिक


एक बार दो दोस्त जंगल की सैर करने निकले। उनका नाम रमेश तथा सुरेश था। उन लोगों ने तुरन्त मरे हुए प्राणी में प्राणों का संचार करने की विद्या सीखी थी। चलते–चलते रास्ते में एक शेर मिला, जिसे किसी शिकारी ने गोली से मार दिया था।
रमेश ने कहा–‘चलो प्रयोग करके देखें कि हम इस शेर को जीवित कर पाते हैं या नहीं।’
सुरेश ने कहा–‘पागल मत बनो। अगर यह शेर जीवित हो गया तो हम दोनों को मार कर खा डालेगा।’
सुरेश ने रमेश को बहुत समझाया, जब रमेश किसी तरह नहीं माना, तब सुरेश पेड़ के ऊपर चढ़ गया।
तब रमेश ने अपने प्रयोग द्वारा शेर को जीवित किया। जीवित होते ही शेर ने दहाड़ कर झपट्टा मारकर रमेश को मार डाला।


सुरेश अपने दोस्त की दुर्दशा देखकर उसकी मूर्खता पर आँसू बहाता रह गया।
ज्ञान का उपयोग विवेक के साथ करो।


मुझे गेंद नहीं चाहिए


‘मुझे कास्को गेंद चाहिए। कितनी छोटी सी चीज़ माँग रहा हूँ। अन्य बच्चों के पास तो बड़ी–बड़ी चीजें हैं।’ नितिन बोला।
‘बेटा! दुनिया में सभी लोग एक समान नहीं हो सकते। अन्य बच्चों के माता–पिता धनी हैं। हमारे पास भी गुज़ारे लायक धन है भगवान ने जितना दिया है, उसका धन्यवाद करना चाहिए।’ माँ ने कहा।
‘यदि हम इतने गरीब हैं कि एक गेंद भी नहीं खरीद सकते तो भगवान को किस बात का धन्यवाद दें?’
‘भर पेट भोजन मिल रहा है, पर्याप्त वस्त्र हैं, अपना मकान है। तुझे अच्छी शिक्षा मिल रही है। हम सभी स्वस्थ हैं, आनन्दित हैं, सुमति है और क्या चाहिए?’ दादी ने समझाते हुए कहा ।
‘लेकिन दादी! अन्य लोगों के पास ज्यादा पैसा क्यों है? हमारे पास कम क्यों है?’

‘यह तो अपना–अपना भाग्य है ?’
पापा ने हस्तक्षेप करते हुए कहा– नितिन! तुम कल सुबह मेरे साथ सैर करने चलना। तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा।’
‘लेकिन मुझे तो सुबह स्कूल जाना है।’
‘कल स्कूल मत जाना।’ पापा ने हँसते हुए कहा।
‘नहीं मैं स्कूल की नागा नहीं करूँगा।’
जब सभी लोग हँसने लगे तब नितिन को याद आया कि कल इतवार है । ‘––––अरे––––’ वह भी हँसने लगा ।
दूसरे दिन नितिन पापा के बिना जगाए ही जग गया और सैर के लिए तैयार हो गया सर्दी के मौसम के अनुसार अच्छी तरह गर्म कपड़े पहन लिए।
चलते–चलते दोनों स्टेशन के पास पहुँचे।
पापा ने कहा–‘देखो!’
नितिन ने देखा फुटपाथ पर पड़े हुए लोग ठंड से ठिठुर रहे थे।
वह लोग आगे बढ़े-फुटपाथ के किनारे एक स्त्री–पुरुष और तीन छोटे–छोटे बच्चे बैठे थे। दोनों तरफ र्इंटे रख कर चूल्हा जला कर खाना बना रहे थे।
‘पापा! ये लोग यहीं रहते हैं।’
‘हाँ बेटा! मैं रोज इसी तरह के मजदूरों को देखता हूँ, यह लोग इसी समय पूरे दिन का खाना बना कर एक थैले में बनाने, खाने के बर्तन व अपना सामान लेकर मजूदरी करने चले जाएँगे। बच्चे भी इन्हीं के साथ जाएँगे। मजदूरी मिल गई तो ठीक अन्यथा दूसरे दिन शायद भोजन भी न मिले।’
‘फिर यह लोग शाम को यहीं वापस आएँगे।’
‘जरूरी नहीं है कि पुलिस वाले दूसरे दिन इन्हें यहाँ सोने ही दें । ऐसी स्थिति में ये लोग फिर अन्य कहीं बसेरा ढूँ ढ़ेंगे।’
‘बस पापा बस! जब पैसे बचें तो इनके बच्चों के लिए स्वेटर खरीद दीजिएगा। मुझे गेंद नहीं चाहिए।
सब पर दया करो।


माँ की पढ़ाई


‘प्रिया! चलो नाश्ता कर लो।’
‘माँ! मुझे भूख नहीं है।’
‘भूख हो या न हो, थोड़ा–थोड़ा खाते रहना चाहिए।’
‘माँ! मेरी योग–शिक्षिका बताती हैं– बिना भूख लगे नहीं खाना चाहिए।’
‘मुझे अधिक पढ़ाओ मत! चुपचाप खा लो।’
‘नहीं, अब हम बिना भूख लगे नहीं खाएँगे।’ नितिन बोला।
‘क्यों?’ माँ ने कुछ गुस्से में कहा।
‘क्योंकि बिना भूख के खाने से अपच हो जाता है।’
अब माँ सोचने लगी– ‘सत्य तो है, पहले इन लोगों की तबियत अक्सर खराब रहती थी। अब तो बिल्कुल ठीक है, बुखार भी नहीं आया। एक दिन स्कूल जाकर इनके टीचर से मिलूँगी।
एक दिन माँ विद्यालय गर्इं। चपरासी से कहा– ‘मुझे योग–शिक्षिका जी से मिलना है।’
चपरासी उन्हें योग–शिक्षिका के पास ले गया।
‘प्रणाम मैडम!’
‘प्रणाम!’

‘मेरे दो बच्चे नितिन और प्रिया आपके विद्यालय में पढ़ते हैं। आपकी बहुत तारीफ करते हैं। कहते हैं कि बिना भूख लगे नहीं खाना चाहिए। यह हमारी टीचर ने बताया है।’
‘हाँ! बिना भूख लगे खाने से अपच हो जाता है। इसलिए कड़ी भूख लगने पर ही खाना चाहिए भूख न लगने का अर्थ है कि शरीर में पहले से अपचा भोजन है। जब शरीर उसे पचा लेता है, तब भूख लगती है।’
‘बिना भूख लगे खाने से बीमार क्यों हो जाते हैं?’
‘अपचा भोजन विकार के रूप में जमा होता रहता है। यही विकार विभिन्न रोगों के रूप में प्रकट होता रहता है।’
‘बहुत अच्छी बातें आपने बतार्इं। अन्य कुछ उपयोगी जानकारी भी दें।’ माँ बोलीं।
‘रात को जल्दी सो जाना चाहिए। सुबह अपने आप जल्दी नींद खुल जाएगी। बाकी बातें फिर बच्चों को पढ़ाना है।’
‘प्रणाम! मैं आपकी बातों को ध्यान में रखूँगी।’ माँ ने आदर के साथ कहा।
बच्चे विद्यालय से आए तब माँ ने कहा–‘बच्चों! आज मैं तुम्हारे विद्यालय गई थी। योग टीचर से मिली थी। बहुत अच्छा लगा। तुम लोग रात को जल्दी सो जाया करो।
    और–––भोजन भी कड़ी भूख लगने पर ही किया करो।’
  दोनों बच्चे– (एक साथ खुशी से) ‘हमारी प्यारी माँ!’ लिपट जाते हैं।
    नितिन शरारत से बोला–‘आज तो माँ भी पढ़ आई।’
माँ– (नितिन की नाक पकड़ कर) ‘शरारती कहीं का।’
प्रकृति के नियमों के पालन से मनुष्य स्वस्थ रह सकता है।


भगवान जो करता है, अच्छा करता है


‘भगवान जो करता है, अच्छा ही करता है।’ मंत्री जी बोले।
राजा हँसने लगे–‘मंत्री जी! अगर आपके ऊपर कोई विपत्ति आ जावे, तब भी आप यही कहेंगे।’
‘अवश्य ही सरकार।’
‘ठीक है समय आने पर देखेंगे।’
एक बार राजा और मंत्री अपने सैनिकों के साथ वन–विहार को निकले। झाड़ियों में फँस कर राजा की अंगुली कट गई। राजा दर्द  के मारे चिल्लाने लगे। एक ओर राजा की मरहम–पट्टी हो रही थी, दूसरी ओर मंत्री जी ने कहा– ‘सरकार! भगवान जो करता है अच्छा ही करता है। भगवान की दया है कि अधिक चोट नहीं लगी।’
राजा दर्द से पहले ही त्रस्त थे। मंत्री के उपदेश सुनकर आगबबूला हो उठा। उसने सैनिकों से कहा–‘इस मंत्री को खूब पीटो, तब इसे पता चलेगा कि भगवान जो करता है, वह अच्छा करता है कि नहीं।’
राजा के आदेश पाकर न चाहते हुए भी सैनिक मंत्री की पिटाई करने लगे। मंत्री जी पिटते रहे और कहते रहे–‘भगवान जो करता है, अच्छा ही करता है, इस पिटाई में भी मेरी कुछ भलाई ही होगी।’
यह सुनकर राजा को दर्द की अवस्था में भी हँसी आ गई, उन्होंने कहा–
‘सैनिकों! मंत्री जी को अब छोड़ दो, पिट–पिट कर भी कह रहे हैं कि पिटाई में भी भगवान कुछ भलाई कर रहा है। लगता है मंत्री जी पागल हो गए हैं, भला पिटाई में क्या भलाई हो सकती है।’
मंत्री जी पिटाई के कारण लंगड़े हो गये थे, फिर भी उन्होंने कहा–
‘सरकार! हमारे लिए जो भी होता है, सभी क्रियाकलापों में भगवान की दया छुपी होती है। हम समझ नहीं पाते हैं। मैं तो यही मानता हूँ कि मेरी पिटाई में भी भगवान की कुछ न कुछ दया छुपी है।’
राजा सहित सभी सैनिक भी हँसने लगे। राजा ने कहा–‘मंत्री जी! अब आपका दिमाग खराब हो गया है। अब आप राजकाज के लायक नहीं रहे। आप आराम करिए। आज तक के आपके निष्ठापूर्ण कार्य को देखते हुए आपको राज्य की ओर से पेंशन दी जाएगी।’
यह बातें हो ही रही थीं कि कुछ डाकू आ गए। अपनी धर्मान्ध कुप्रथा के अनुसार देवी माँ को बलि चढ़ानी थी। डाकुओं के सरदार ने कहा–‘राजा को ले चलो, देवी माँ प्रसन्न हो
जाएँगी।’
डाकू लोग राजा को पकड़कर सरदार के पास ले गए और कहा–‘सरदार! राजा की अंगुली कटी हुई है।’ सरदार बोला–‘अरे बेवकूफों तुम्हें पता नहीं है क्या, देवी को बिना अंगदोष के मनुष्य की ही बलि चढ़ायी जाती है। राजा को छोड़ दो, मंत्री को पकड़ लाओ।’

डाकू मंत्री को लेकर चलने लगे तो मंत्री को लंगड़ाता देखकर डाकुओं ने उन्हें भी छोड़ दिया। इतनी देर में सैनिकों को सम्भलने का मौका मिल गया और उन्होंने डाकुओं को खदेड़ दिया।
अब मंत्री जी मौन थे। राजा कह रहे थे–‘मंत्री जी! आप सत्य कहते हैं, भगवान जो करता है, अच्छा ही करता है। अगर मेरी अंगुली न कटी होती या आपकी पिटाई के कारण आप लंगड़े न हुए होते तो आज मेरी या आपकी बलि चढ़ गई होती। आप पागल नहीं हैं, आदर के पात्र हैं। आप अपने पद पर बने रहें। मैं आपको मुँह माँगा पुरस्कार दूँगा।’
‘सरकार! पुरस्कार तो मुझे मिल गया। आपने इस बात को स्वीकार कर लिया कि भगवान जो करता है, अच्छा करता है। आप देश के राजा हैं–‘यथा राजा तथा प्रजा’ अत: आपकी इस मान्यता से प्रजा भी लाभान्वित होगी ही। जब प्रजा भी भगवान के हर विधान को मंगलमय मानेगी तो देश में हर ओर खुशहाली आ जाएगी।’
भगवान का हर विधान मंगलमय है ।


पानी का मूल्य


‘पानी फेंक दो, फिर खाली बोतल से कैच–कैच खेलेंगे।’
‘नहीं–नहीं पानी मत फेंको, पानी बहुत कीमती होता है।’
‘अरे पागल हो क्या? पानी भी कहीं कीमती होता है?’
‘हमारे घर में तो पानी बहता रहता है, कोई खर्च नहीं होता है।’
‘अगर पानी न मिले तो क्या हो?’
‘अच्छा चलो कुछ और खेला जाए, फालतू बातें करने से क्या फायदा?’
बच्चे खेलने लगते हैं। पार्क में बैठी हुई सुलभा आँटी यह सब सुन रही थीं। सोचने लगी कि यदि अभी से इन्हें सही बात बता दी जाए या यूँ कहें कि दिमाग में बात ठीक प्रकार से बैठा दी जाए तो समाज का कम से कम कुछ हिस्सा तो सुधर ही जाएगा।
उन्होंने बच्चों को अपने पास बुलाया, बैठाया और प्यार से बोलीं–
 
‘अगर तुम्हारे पास केवल दस रुपए हैं और तुम किसी ऐसी जगह पर हो, जहाँ दस रुपए में केवल पानी मिले या केवल खाना मिले तो तुम क्या लोगे?’
‘पानी लेंगें।’ एक बच्चा बोला।
‘क्यों ?’
‘अगर पानी नहीं पियेंगे तो मर भी सकते हैं, बिना खाये तो फिर भी कुछ दिन रह सकते हैं।’ यह बात राजू ने कही, जो कह रहा था कि पानी बहुत कीमती होता है।
‘और यदि तुम्हारे पास दस रुपए भी न हों और तुम्हें बहुत तेज़ प्यास लगी हो तब?’ सुलभा आँटी ने पूछा।
‘मैं ढाबे वालों के बरतन माँज दूँगा।’ रवि ने कहा ।
‘बरतन माँजना तुम्हें आता भी है?’ गुंजन ने रवि को चिढ़ाते हुए कहा।
‘बरतन न माँज पाने की स्थिति में मैं अपनी कमीज़ उतार कर दे दूँगा।’ राजू बोला।
‘इसका मतलब पानी तुम्हारी कमीज़ से मँहगा है।’ सुलभा आँटी समझाते हुए बोलीं।
‘हाँ आँटी! पानी तो हर चीज़ से मँहगा हुआ क्योंकि हम जान बचाने के लिए पानी का कोई भी दाम चुकाने के लिए तैयार हो जाएँगे ।’ गुंजन ने राजू से पहले ही बोल दिया।
‘सचमुच पानी बहुत कीमती होता है, मैं फालतू में ही रवि से पानी फेंकने को कह रहा था।’ पंकज को अपनी ग़लती का एहसास हुआ।
‘तो अब कभी पानी मत बर्बाद करना।’ सुलभा को खुशी हुई कि बच्चों को पानी का महत्त्व अच्छी तरह से समझ में आ गया ।
‘हम कभी पानी बर्बाद नहीं करेंगे।’ बच्चे समवेत स्वर में बोले।
जल–संसाधन का संरक्षण (बचत) करो।


पतलू की मुसीबत

पतलू एक दुबला–पतला, सीधा–सादा लड़का था। एक दिन उसकी छोटी बहन ने एक कप तोड़ दिया। माँ ने सोचा कि पतलू ने ऐसा किया है। उसने गुस्से में पतलू की पिटाई कर दी।
पतलू रोने लगा। वह स्कूल आया। वहाँ पर सोचता रहा कि माँ ने बिना जाने ही मेरी पिटाई कर दी। गुड़िया ने कप तोड़ा था। वह तो बोल नहीं पाती है, लेकिन माँ को मेरी बात तो सुननी चाहिए थी। पतलू का ध्यान कक्षा में नहीं था।
इतने में टीचर ने पूछा–‘अभी मैंने क्या बताया है?
पतलू चुपचाप खड़ा हो गया, क्योंकि उसे नहीं मालूम था कि क्या पढ़ाया जा रहा है। अत: टीचर ने भी उसे सजा दी।
टीचर के सजा देने के कारण उसका मन उदास था। अत: वह घर में भी उदास बना रहा।
शाम को माँ ने पतलू को उदास देखकर सारी बातें पूछीं, फिर प्यार से समझाया कि तुम घर की बात स्कूल में ले गये, स्कूल

की बात घर में लाये । इसीलिए परेशान हो। मन को दु:ख पहुँचाने वाली घर की बात घर में छोड़ दिया करो, स्कूल की स्कूल में।
हर परिस्थिति में प्रसन्न रहो।


दुर्घटना से देर भली

“और सुन यह ऑफिस टाइम होता है, इसलिए इधर और उधर दोनों तरफ देखकर ही सड़क पार किया कर।”
माँ की तमाम हिदायतों के बावजूद प्रशान्त की हरकतों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह हाथ छोड़कर साइकिल चलाता और मस्त रहता। वह कहता–‘मुझे कुछ नहीं होता।’
माँ ने समझाया–‘बेटा! दुर्घटना से देर भली। धीरे–धीरे साइकिल चलाया करो। जल्दबाजी में अगर चोट लग गयी
तो।’
बीच में बात काट कर वह बोला–‘हड्डी टूट जाएगी तो बहुत अच्छा है, स्कूल तो नहीं जाना पड़ेगा।’
माँ ने उसके कान खींचते हुए कहा–‘चुप नालायक कहीं का, ऐसी गन्दी बातें बोलता है।’
प्रशान्त हँसता हुआ खेलने चला गया।
और एक दिन वही हुआ, जिसका माँ को डर था। सामने से ट्रक आ रही थी। ट्रक ड्राइवर ने जोर का ब्रेक लगाया किन्तु ब्रेक लगाते–लगाते भी प्रशान्त की साइकिल को ज़ोर का धक्का लगा और ट्रक जोर की चीख के साथ रुक गई।
प्रशान्त बच तो गया किन्तु पैर में फ्रैक्चर हो गया। ट्रक ड्राइवर भला आदमी था। उसने प्रशान्त को अपनी ट्रक पर लिटाया व साइकिल को भी ट्रक पर रखा। सड़क के दो लोग भी साथ हो लिए और निकटस्थ अस्पताल में ले गये। इस बीच प्रशान्त से फोन नं॰ पूछ कर उसके घर पर फोन कर दिया। अस्पताल में उसकी माँ भी आ गई व प्रशान्त की फर्स्ट एड भी हो गई। एक्सरे से पता चला कि उसके बाएँ पैर में बुरी तरह फ्रैक्चर है। प्लास्टर चढ़ा दिया गया।
एक सप्ताह अस्पताल में रहने के बाद डॉक्टर ने उसे घर ले जाने की अनुमति दे दी किन्तु पूरी तरह ठीक होने के लिए उसे लगभग तीन महीने तक बिस्तर पर रहना पड़ा। बिस्तर पर पड़े–पड़े वह ऊब गया।

अब उसके दोस्त उससे मिलने आते तो वह उनसे कहता–
‘रास्ते में साइकिल धीरे चलाओ, सदा सड़क के दोनों ओर देखकर ही सड़क पार किया करो। दुर्घटना से देर भली।’
यातायात के नियमों का पालन करो।


तोते का दाह संस्कार

‘माँ! आज तोता लेट कर सो रहा है।’
‘हाँ बुआजी! जल्दी आइए वरना तोता जग जाएगा।’
‘बच्चों तोता लेटकर नहीं सोता है।’
‘वही तो हम भी कह रहे हैं, तोता लेट कर नहीं सोता है किन्तु आज लेटा है।’
‘देखो तुम लोग इतना शोर कर रहे हो, यह फिर भी नहीं उठ रहा है न। यह तो––––’
‘हाँ! इसकी तबियत खराब होगी। चलिए इसे डॉक्टर को दिखा देते हैं।’
‘इसे डॉक्टर को दिखाने की जरूरत नहीं है । यह तो––––’
बुआ जी की बात पूरी होने के पहले ही पूजा बोली–‘बुआजी! यहाँ डॉक्टर सक्सेना बहुत अच्छे हैं। हम लोग जब बीमार पड़ते हैं, तब उन्हीं को दिखाते हैं।’

‘बुद्धू! पशु–पक्षियों के डॉक्टर अलग होते हैं। चलो मामा जी से पूछते हैं कि यहाँ पर जानवरों का अस्पताल कहाँ है?’  छुट्टियों में ननिहाल आए हुए नितिन ने ममेरी बहन पूजा से कहा।
तब तक मामा–मामी भी वहाँ आ गए। नानी तख्त पर बैठी हुई सब्जी काट रही थीं और सब तमाशा देख रही थीं। वे बच्चों की नादानी पर मुस्करा रही थीं।
‘अरे मामा जी जल्दी करिए, तोते को पशु–पक्षियों के डॉक्टर के पास ले चलिए, इसकी तबियत बहुत खराब है। देर होने पर मर भी सकता है।’
‘ठीक कहा तुमने नितिन! तोता मर ही चुका है।’

‘क्या?’ सभी बच्चों का मुँह आश्चर्य और दु:ख के साथ खुला रह गया।
‘हाँ! क्योंकि तोता या कोई भी पक्षी लेटकर नहीं सोता है। जब पक्षी मर जाता है तब ही लेटता है।’मामी जी बोलीं।
‘वही तो मैं भी इतनी देर से कहना चाह रही थी।’बुआ जी ने कहा।
बच्चों ने पिंजरा नीचे उतार लिया और सब बच्चे उदास होकर तोते के चारों ओर बैठ गए। अपूर्वा तो रोने लगी।
मामा जी बोले–‘चलो बच्चों उठो, आज तुम लोगों को लखनऊ का चिड़ियाघर दिखाने ले चलेंगे। वहाँ पर तुम्हें बहुत से पशु–पक्षियों के बारे में जानकारी मिल सकेगी। चलो जल्दी तैयार हो जाओ ।’
बच्चों के उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर वह मामी जी से बोले–‘पूड़ी–सब्जी बना दो, साथ ले जाएँगे। हो सकता है देर लगे, बच्चे तब तक भूखे हो जाएँगे।’
पर बच्चे उदास बैठे रहे। सबसे बड़ा गौरव था । वह दार्शनिक अन्दाज़ में बोला–‘पापा! पहले इसके दाहसंस्कार का इंतजाम करिए। ऐसी स्थिति में तो हम भोजन भी नहीं करते। घूमना तो दूर की बात है।’
‘बेवकूफी की बात मत करो अभी जमादार आएगा, तब उसे इसको दे देंगे। वह इसे फेंक देगा।’
‘पापा! क्या मैं मर जाऊँगा तो मुझे भी जमादार को फेंकने के लिए दे देंगे।’
‘बदतमीज!’ कहते हुए मामाजी का एक जोरदार थप्पड़ गौरव के गाल पर पड़ा। हालांकि बाद में वह पछताने लगे।
गौरव की आँखों से आँसू निकलने लगे। अन्य बच्चे भी रोने लगे, उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि गौरव ने क्या गलत कह दिया है।
अब नानी बच्चों के पास आकर प्यार से बोलीं–‘बच्चों चलो उठो! पशु–पक्षियों का दाहसंस्कार नहीं होता है। तुम लोगों के लिए दूसरा तोता खरीद देंगे।’
अब गौरव फफक कर रो उठा–‘दादी! हमें दूसरा तोता नहीं चाहिए। यह कोई मिट्टी का खिलौना नहीं था। यह तोता तो हमारे साथ खेलता था। कभी उड़कर हमारे कन्धे पर बैठ जाता था, कभी अपनी कटोरी का खाना न खाकर हमारी थाली का भोजन जूठा कर देता था। जब हम उसे पकड़ने के लिए दौड़ते थे तब वह ऊपर उड़कर किसी कोने में बैठ जाता था। जब हम थक कर बैठ जाते थे, तब चुपके से हमारे कन्धे पर बैठ जाता था।’
‘हाँ नानी। हम उसे भूल नहीं सकते वह हमारा दोस्त था। दिन भर तो वह हमारे साथ खेलता था। शाम को वह अपने आप अपने पिंजरे में चला जाता था और पिंजरा बन्द करने के लिए आवाज देता था। पिंजरे को वह अपना सोने और खाने का कमरा समझता था।’
इतने में जमादार की आवाज आई। मामा जी ने तोता उसे दे दिया । कोई बच्चा डर के मारे कुछ बोल तो न सका किन्तु सभी बच्चे उदास थे व दिन भर ठीक से कुछ खा पी न सके।
उनका निश्छल मन यह नहीं सोच पा रहा था कि मनुष्यों की भाँति पशु–पक्षियों का भी दाहसंस्कार क्यों नहीं होता है। उनकी मृत्यु पर शोक क्यों नहीं मनाया जाता है?––––क्यों?
प्राणिमात्र पर दया मनुष्य का सहज स्वाभाविक गुण है।


डकैत अंकल, मिठाई खा लो

‘बच्चों चलो तैयार हो जाओ, आज घूमने चलेंगे। माँ ने जल्दी–जल्दी काम निबटाते हुए बच्चों को आवाज दी।
घूमने के नाम पर बच्चे तुरन्त उठ गए व खुशी–खुशी तैयार भी हो गए। राजू और पिंकी की बुआ के बच्चे शिवम व प्रियम भी आए थे। अत: वे बहुत खुश थे। तैयार होकर सबने लस्सी पी। माँ ने रास्ते के लिए पूड़ी सब्जी बना ली, पापा ने पैकिंग करके एक थैले में रख लिया।
चारों बच्चे तथा माता–पिता शहर जाने के लिए बस पर बैठे। उनका घर गाँव में था। गाँव से शहर लगभग चालीस किलोमीटर दूर था। अत: वे लोग सबेरे जल्दी ही चल दिये थे।
जहाँ बस चली तो पिंकी माँ की गोद में सिर रख कर सो गई। थोड़ी दूर चलने पर बस तेज हिचकोले के साथ रुकी। पिंकी की नींद खुल गई।
उठते ही बोली–‘माँ भूख लगी है, पूड़ी सब्जी दो।’
पापा ने एक पैकेट निकाल कर पिंकी को दिया। पिंकी को खाते देखकर सब बच्चों को भूख लग आयी। पापा ने सबको एक–एक पैकेट निकाल कर दे दिया।
‘देखा पैकेट बना देने में कितनी आसानी हो गई वरना बस में खाना निकाल कर देने में कितनी परेशानी होती।’ पापा बोले।
‘हाँ! आप सही कह रहे हैं। मैंने सोचा था कि बस से उतर कर खाएँगे, लेकिन बच्चों का क्या भरोसा, कब भूख लग आए। अगर खाना इकट्ठा बँधा होता तो वाकई परेशानी होती।’ माँ ने कहा।
जब बच्चे खा चुके तब राजू ने सबके खाली पैकेट एक जगह इकट्ठा कर लिए व कहा–‘बस से उतरने पर कूड़ेदान में डाल देंगे।’
इतने में एक गड्ढा आने के कारण बस उछली। अन्य यात्रियों को जहाँ पीड़ा हुई, वहीं बच्चे खुशी से ताली बजा कर चिल्लाने लगे। शहर आने पर वे बस से उतर कर सबसे पहले चिड़ियाघर गए।
शिवम् ने कहा–‘मामा जी! हाथी की सवारी करेंगे।’
जब बच्चे हाथी पर चढ़ने के लिए आए तो पिंकी को हाथी ने सूँड़ में लपेट लिया। पिंकी के साथ ही सभी लोग चिल्लाने लगे किंतु हाथी ने पिंकी को पीठ पर बैठा लिया। अब सब आश्वस्त हुए।
महावत ने सबको बताया–‘जानवर अकारण किसी को तंग नहीं करते। हाथी बच्चों को बहुत प्यार करते हैं। इसीलिए उसने बच्ची को उठा कर पीठ पर बैठा लिया।’
अब सब बच्चों ने महावत से कहा–‘हाथी से कहिए कि हमें भी सूँड़ से उठा कर अपनी पीठ पर बैठाए।’
‘बेटा हाथी अपनी मर्जी से सूँड़ में लपेटता है।’ इतने में हाथी की पीठ पर बैठी हुई पिंकी चिल्लाने लगी–‘भइया तुम लोग भी ऊपर आ जाओ, मुझे अकेले डर लग रहा है।’
खैर हाथी की पीठ पर सब बच्चे चढ़ गए। हाथी मस्त चाल से चलने लगा।

राजू ने कहा– ‘पापा हमें आइसक्रीम खरीद कर दे दीजिए। हाथी पर बैठ कर खाने में बड़ा मजा आएगा।’
महावत ने मीठी घुड़की दी, बेचारे बच्चे चुप हो गए। इतने में प्रियम् ने गाना शुरू कर दिया। शिवम् उछला तो महावत चिल्लाया–‘उछल–कूद मत करो, हाथी बिगड़ जाएगा तो हम सब मरेंगे।’
अन्तत: महावत ने बड़बड़ाते हुए सबको हाथी से उतार दिया, बोला–‘बड़े शरारती बच्चे हैं।’
सब हाथी से उतर कर आइसक्रीम खाने लगे। चिड़ियाघर और म्यूजियम देखने के बाद सब लोग बाजार गए, कपड़े खरीदे, चाट खाई और वापस बसस्टेशन आकर बस पर बैठ गए। बस पर बैठते ही थके होने के कारण बच्चे सो गए। पापा माँ से बोले–‘तुम भी झपकी लगा लो, तब तक मैं सब सामान व बच्चों को देख रहा हूँ।’
थोड़ी दूर चलने पर बस में एक नवविवाहित जोड़ा व कुछ बाराती भी सामान सहित बस में बैठ गए।
बच्चे बस रुकने व शोर–शराबे के कारण जाग गए। सब उत्सुकतापूर्वक बारात व दूल्हा–दुल्हन को देखने लगे। बस चलने लगी। तब बारातियों को मिठाई के पैकेट बाँटे गए।
प्रियम् अपनी जबान निकाल कर बोला–‘आ जा मेरे मुँह में मिठाई आ जा।’ सब हँस पड़े। मिठाई बाँटने वाले ने सुन लिया। उसने बच्चों को भी एक–एक पैकेट मिठाई दी।
बच्चों ने माता–पिता की अनुमति लेकर मिठाई उदरस्थ करनी प्रारम्भ करी ही थी कि अब बस अगले पड़ाव पर रुकी। उतरने वाले उतर गए, चढ़ने वाले चढ़ गए। बस चलने वाली थी कि मुँह पर कपड़ा बाँधे हुए कुछ लोग बस पर चढ़ गए। उनमें से एक आदमी ड्राइवर के पास जाकर खड़ा हो गया और बस चलाने का आदेश दिया। अन्य लोग बारात के पास जाकर खड़े हो गए। सबने बन्दूकें निकाल लीं व बारातियों से कहा–‘निकाल कर रख दो सब।’

बच्चे भी समझ गए कि ये डकैत हैं। सभी यात्री भयभीत थे। बच्चों ने इशारों में ही योजना बनाई। शिवम उठकर एक डकैत के पास गया, बोला-‘डाकू अंकल मिठाई खाएँगे ।’
‘हुँ–––––हूँ तेरी ये हिम्मत।’ डाकू गुर्राया ।
‘गल्ती हो गई डाकू अंकल।’ डरने का नाटक करता हुआ शिवम् बोला। इतने में बच्चों ने बिना मौका दिए हुए मिठाई डाकुओं की आँख की तरफ फेंकी। जब तक डाकू सम्भलते, सब बच्चों सहित बस के अन्य यात्री डाकुओं पर एक साथ टूट पड़े।
इतने में कंडक्टर ने अपने मोबाइल से फोन करके घटना तथा बस रुकने की निश्चित जगह पुलिस को बता दी। बस वहाँ रुकी, तब तक पुलिस भी आ गई थी। यात्रियों ने डाकुओं की चटनी बना दी थी। डाकू पकड़ लिए गए।
अब सबसे शरारती शिवम् ने बारातियों से कहा–‘अंकल सभी यात्रियों को मिठाई खिलाइए ताकि मन से कड़वाहट निकल जाए और सब मीठे मुँह से अपने घर जावें। हाँ, हमारे लिए दो–दो पैकेट, डाकुओं को इतना पीटने के बाद पेट में चूहे कूदने लगे।’
अभी तक हतप्रभ रहे यात्रियों में मुस्कराहट छा गई। दूसरी तरफ दूल्हे के पिता भावावेश तथा खुशी में रो पड़े और उन्होंने बच्चों को छाती से लगा कर कहा–‘भगवान तुम्हारे जैसे बच्चे सबको दे।’
अब तक ड्राइवर भी हादसे से उबर चुका था। अत: बस चलने लगी। पूरी बस में एक ओर मिठाई बँटने लगी, दूसरी ओर बच्चों ने गाना शुरू कर दिया।
मुसीबत में साहस से काम लो।


चावल के दाने

रविवार का दिन था। सब लोग साथ में भोजन कर रहे थे।
वन्दना ने भोजन समाप्त करने के बाद भी थोड़े से दाल–चावल थाली में छोड़ दिए।
पापा ने कहा–‘वन्दना ! तुम उतना ही भोजन लिया करो, जितना खा सको, तुम अक्सर जूठा छोड़ देती हो, जो फेंकना पड़ता है।’
‘क्या करूँ पापा? मैंने लिया तो अन्दाज़ से ही था, लेकिन बच गया। आप ही तो कहते हैं कि जबर्दस्ती खाने से पेट खराब होगा।’
‘हाँ! जबर्दस्ती तो नहीं खाना चाहिए किन्तु भोजन फेंकना भी उचित नहीं है। इसलिए थोड़ा कम भोजन लो, जब और भूख लगे तब दोबारा ले लो, इससे खाना जूठा नहीं बचेगा व फेंकना नहीं पड़ेगा।’
माँ ने कहा–‘अच्छा वन्दना! बताओ हमारे देश की आबादी कितनी है?’
‘लगभग एक अरब बाइस करोड़।’
‘शाबाश, अगर हर व्यक्ति रोज केवल एक चावल का दाना फेंके तो कितने दाने फेंके गए।’
‘एक अरब बाइस करोड़ दाने।’
‘यदि एक ग्राम चावल में लगभग दस दाने आवें तो एक अरब बाइस करोड़ दाने का कितने क्विंटल चावल हो जाएगा।’
वन्दना दौड़कर कागज, पेंसिल ले आई व गणना करने लगी।
एक ग्राम में– 10 दाने
एक किलोग्राम में– 10 x1000 =10,000 दाने
एक क्विंटल में– 10000 x100 =10,00,000 (दस लाख दाने)
10,00,000 (दस लाख) दाने में– एक क्विंटल
एक अरब बाइस करोड़ (1,22,00,00,000) दाने में
12,20,000,000/ 10,00,000 =1,220 क्विंटल

बाप रे बाप एक अरब चावल के दानों में एक हजार दो सौ बीस क्विंटल चावल। पूरा का पूरा गोदाम भर जाएगा।
‘हाँ अब कुछ सोचो। मात्र एक चावल का दाना प्रतिदिन प्रति व्यक्ति बरबाद न करे तो प्रतिदिन एक हजार दो सौ बीस क्विंटल चावल बच सकता है।
तुम जानती हो वन्दना। एक मजदूर एक दिन में लगभग ढाई सौ ग्राम चावल खा सकता है। बताओ एक हजार दो सौ बीस क्विंटल चावलों से कितने मजदूरों का पेट भर सकता है?’
वन्दना ने गणना करके बताया–
‘चार लाख अट्ठासी हजार मजदूरों का पेट भर सकता है। यह सोच कर ही अपने से ग्लानि हो रही है कि प्रति व्यक्ति, प्रति दिन एक दाना बचाने से देश के चार लाख अट्ठासी हजार लोगों का पेट भर सकता है और मैं––––कितना खाना फेंकती थी।’
माता–पिता के कुछ कहने से पूर्व ही वन्दना उछल कर दादी से लिपटते हुए बोली–‘दादी! मैं समझ गयी हूँ, अब मैं एक दाना भी बरबाद नहीं करूँगी। आप तो समझाते–समझाते हार गर्इं थीं। अब समझ में आया। दादी! मुझे माफ कर दो।’
दादी उसे प्यार करते हुए बोलीं–‘तू तो मेरी प्यारी बिटिया है। जब समझे तभी सवेरा। आज मैं तेरे लिए लड्डू बनाऊँगी।’
‘अरे वाह––––लड्डू वन्दना खुशी से चिल्लायी।
खाद्य पदार्थों की बरबादी मत करो।


खेल का महत्त्व

चीकू और मीकू दो मित्र थे। चीकू खेल, पढ़ाई तथा हर काम में आगे रहता था। मीकू दिन भर तथा रात में भी देर तक पढ़ता रहता था, किन्तु फिर भी पढ़ाई में पीछे रहता था। एक दिन उनकी अध्यापिका ने बच्चों से पूछा–‘तुम लोग विद्यालय से जाने के बाद क्या करते हो ?’
चीकू बोला–‘कपड़े बदलकर खाना खाते हैं। थोड़ी देर आराम करते हैं फिर खेलने जाते हैं, लौटकर थोड़ी देर पढ़ते हैं। सुबह उठने के बाद भी थोड़ी देर पढ़ते हैं।’
इसी प्रकार अन्य बच्चों ने भी अपने विषय में बताया।
मीकू गुमसुम–सा बैठा हुआ था। अध्यापिका ने प्यार से पूछा–‘मीकू बेटे! तुम घर जाने के बाद क्या करते हो?’
मीकू ने कहा–‘ कपड़े बदलकर खाना खाते हैं। फिर रात को देर तक पढ़ते रहते हैं। सुबह उठने के बाद भी पढ़ते हैं।’’
अध्यापिका ने कहा–‘खेलते नहीं हो।’
मीकू–‘नहीं’

अध्यापिका–‘यह तो ठीक नहीं है, जितना जरूरी पढ़ना है, उतना ही खेलना भी। पढ़ाई के समय पढ़ाई व खेल के समय खेलना चाहिए। शाम को हर बच्चे को थोड़ी देर जरूर खेलना चाहिए। इससे शरीर स्वस्थ रहता है, मन प्रसन्न रहता है। जब हम स्वस्थ व प्रसन्न रहेंगे तो, हमारा मन पढ़ाई में भी लगेगा।’
मीकू बोला–‘अब मैं भी रोज खेला करूँगा।’ इस प्रकार मीकू भी खेलने लगा। साथ ही पढ़ाई भी करता था। अब वह खुश रहता था व पढ़ाई में भी अच्छा हो गया था ।
स्वस्थ रहने के लिए खेल भी आवश्यक है।
