मातृचेतना उपन्यास में निहित मूलभाव
इस लघु उपन्यास लिखने का कारण है कि पाठक सहज ही इसे एक या दो बैठकों में पढ़ लें । इससे पढ़ने की रोचकता भी बनी रहती है और उपन्यास का संदेश भी सहज ही ग्राह्य होता है । यह उपन्यास बुजुर्गों के प्रति सहज संवेदनाओं को जागरूक करता है ।
जो बच्चा माँ का पल्लू पकड़ कर पीछे–पीछे घूमता था, वह इतना संवेदनशून्य कैसे हो जाता है कि वृद्धावस्था में उन्हें बृद्धाश्रम का रास्ता दिखा देता है । जिस देश की परम्परा रही है कि यहाँ पर मृतकों तक को तर्पण दिया जाता है, श्राद्ध किया जाता है । उस देश में उन्हें जीवित अवस्था में वृद्धाश्रम में भेज देना उचित नहीं है ।
इस उपन्यास में वृद्धाश्रमों में रह रहे बुजुर्गों की दशा, वृद्धाश्रम में आने के कारण और उनके निवारण की तरफ संकेत किया गया है । बुजुर्ग हो गए लोगों को महत्त्वहीन समझना हमारी भूल है । वह कुछ न भी करें तो उनके अन्तर से निकला हुआ आशीर्वाद ही हमारे लिए काफी है । कई बार बुजुर्ग लोगों की भी बच्चों से बहुत अधिक अपेक्षाएँ होती हैं । सामञ्जस्य दोनों तरफ से आवश्यक
है ।
मातृचेतना तो हर प्राणी में जन्म के साथ ही सहज स्वाभाविक होती है । इस संसार में उसे लाने वाले उसके माता–पिता ही तो होते हैं । शिशु का प्रथम परिचय अपनी माता से ही होता है ।
प्रश्न है कि बड़े होते–होते कहाँ चली जाती है यह सहज स्वाभाविक चेतना । इस लघु उपन्यास को लिखने का उद्देश्य ही यह है कि लोगों की सहज संवेदनाएँ उनके मन में स्थिर रहें । सर्वत्र मातृ देवो भव, पितृ देवो भव की ध्वनि गुञ्जायमान हो ।
डॉ– शोभा अग्रवाल ‘चिलबिल’
मो॰ – 09654135918 09335924979
ई मेल–chilbil.shubh@gmail.com
इस लघु उपन्यास लिखने का कारण है कि पाठक सहज ही इसे एक या दो बैठकों में पढ़ लें । इससे पढ़ने की रोचकता भी बनी रहती है और उपन्यास का संदेश भी सहज ही ग्राह्य होता है । यह उपन्यास बुजुर्गों के प्रति सहज संवेदनाओं को जागरूक करता है ।
जो बच्चा माँ का पल्लू पकड़ कर पीछे–पीछे घूमता था, वह इतना संवेदनशून्य कैसे हो जाता है कि वृद्धावस्था में उन्हें बृद्धाश्रम का रास्ता दिखा देता है । जिस देश की परम्परा रही है कि यहाँ पर मृतकों तक को तर्पण दिया जाता है, श्राद्ध किया जाता है । उस देश में उन्हें जीवित अवस्था में वृद्धाश्रम में भेज देना उचित नहीं है ।
इस उपन्यास में वृद्धाश्रमों में रह रहे बुजुर्गों की दशा, वृद्धाश्रम में आने के कारण और उनके निवारण की तरफ संकेत किया गया है । बुजुर्ग हो गए लोगों को महत्त्वहीन समझना हमारी भूल है । वह कुछ न भी करें तो उनके अन्तर से निकला हुआ आशीर्वाद ही हमारे लिए काफी है । कई बार बुजुर्ग लोगों की भी बच्चों से बहुत अधिक अपेक्षाएँ होती हैं । सामञ्जस्य दोनों तरफ से आवश्यक
है ।
मातृचेतना तो हर प्राणी में जन्म के साथ ही सहज स्वाभाविक होती है । इस संसार में उसे लाने वाले उसके माता–पिता ही तो होते हैं । शिशु का प्रथम परिचय अपनी माता से ही होता है ।
प्रश्न है कि बड़े होते–होते कहाँ चली जाती है यह सहज स्वाभाविक चेतना । इस लघु उपन्यास को लिखने का उद्देश्य ही यह है कि लोगों की सहज संवेदनाएँ उनके मन में स्थिर रहें । सर्वत्र मातृ देवो भव, पितृ देवो भव की ध्वनि गुञ्जायमान हो ।
डॉ– शोभा अग्रवाल ‘चिलबिल’
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