पतंग ने पक्षी से कहा–‘मैं तुमसे ऊँची उड़ सकती हूँ।’
पक्षी ने कहा–‘भले ही तुम मुझसे ऊँची उड़ जाओ किन्तु तुम ऊँचे उड़ कर भी स्वयं कुछ नहीं कर सकतीं, स्वावलम्बी नहीं हो।’
‘तुम क्या कर सकते हो?’
‘मैं अपनी मीठी बोली से दूसरों का मन बहला सकता हूँ। अपना भोजन स्वयं इकट्ठा कर सकता हूँ। तुम्हारी लम्बी धारदार डोर तो किसी के लग जाए तो वह शरीर के किसी अंग को काट भी सकती है।’
पक्षी की उपेक्षा करके पतंग और तन कर ऊपर की ओर उड़ चली। तभी किसी दूसरी पतंग ने उसे काट दिया और वह नीचे गिर पड़ी।
नीचे गिरते हुए वह अपनी असमर्थता, के बारे में सोच रही थी। इतने में नीचे बैठा हुआ पक्षी स्वयं उड़ कर बहुत दूर ऊपर चला गया।
`तभी पतंग ने देखा कि एक मजदूर अपनी दिनभर की कमाई से दाल–रोटी बना कर खा रहा है और एक भिखारी––––भूख से चिल्ला रहा है, माँग रहा है कि कुछ खाने को मिल जाए।
`पतंग ने भिखारी से कहा–‘स्वावलम्बी बनो।’
स्वावलम्बी बनो।
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