वक्त था दोपहर का, पेड़ के नीचे एक कुत्ता बैठा था। वह प्रतीक्षा कर रहा था कि कोई मनुष्य आए, कुछ खाने को लाए, जिससे उसे भी कुछ हिस्सा मिल जाए।
उसी समय एक मनुष्य आया और पेड़ की छाया में बैठकर खाने की पोटली खोल कर खाने लगा, किन्तु उस खाने में कुत्ते को हिस्सा नहीं मिल सका क्योंकि तभी एक दूसरा मनुष्य आया और पहले व्यक्ति से खाने की पोटली छीन कर भागने लगा।
कुत्ते ने रोका और कहा–‘तुम छीनकर भागने की बजाए प्रेम से माँगते या याचना करते और दोनों लोग मिलकर खाते तो कितना अच्छा होता। हम कुत्ता होकर भी बिना भूख के छीना झपटी नहीं करते हैं किन्तु मनुष्यों में संग्रह की प्रवृत्ति होने के कारण प्रेम और सहानुभूति खत्म होती जा रही है।’
जबकि भगवान ने प्रेम, सहानुभूति, दया, करुणा ये सारे गुण मनुष्य में सहज, स्वाभाविक रूप में दिए हुए हैं। किन्तु––––मनुष्य ने उसमें स्वार्थपरता का पर्दा डाला हुआ है।
प्रेम, सहानुभूति, दया व करुणा मनुष्य के सहज स्वाभाविक गुण हैं।
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