Tuesday, December 11, 2018

नई कहानियाँ नई दिशाएँ

नई कहानियाँ नई दिशाएँ 

(Kindle Edition)


पेपर बैक संस्करण हेतु संपर्क करें -
Mob. - 9335924979, 9654135918

e-mail : chilbil.shubh@gmail.com

Monday, December 3, 2018

समय–बोध से सम्बन्धित कविताएँ

गोपू भैया
घड़ी पहनकर गोपू भइया, ले बस्ता स्कूल गए , मिला राह में एक मदारी, गोपू जी सब भूल गए । ।
गोपू जी रुक गए घड़ी ने, तब बतलाई बात , रुको नहीं चल पड़ो कि जैसे मैं चलती दिन रात । ।

घड़ी
टिक–टिक–टिक–टिक चलती है, घड़ी कभी न रुकती है ।
हमको है यह पाठ सिखाती, कितनी अच्छी बात बताती । ।
काम समय से करना सीखो, हरदम आगे बढ़ना सीखो । ।

पशु–सम्बन्धित कविताएँ

चूहा मुन्ना
चूहा मुन्ना जाग रहा था, माँ के आगे भाग रहा था ।
तेज दौड़ कर माँ ने रोका, दूध लिए तब माँ ने टोका ।।
चीं–चीं चूहा मुन्ना बोला, नहीं पिऊँगा दूध मैं अम्मा । 
रबड़ी और मलाई लाओ, मुझे मिठाई खूब खिलाओ ।।

बिल्ली
बिल्ली आई एक अनोखी, लाई साथ में सीटी चोखी ।
सीटी खूब बजाती है, दूध मलाई खाती है । ।
अम्मा डाँट लगाती हैं, भाग के वह छिप जाती है । ।

अनुशासन से सम्बन्धित कविताएँ

सोच समझ कर मुख को खोलो, कभी न गन्दी बातें बोलो ।
सदा बड़ों की बातें मानो, अनुशासन में रहना जानो । ।

प्यारे बच्चे
पढ़ते लिखते रहते जो, प्यार दुलार  पाते वह ।
खाते खेलते भी जो, आँखों के तारे हैं वह । ।
अनुशासन में रहते जो, टीचर के प्यारे हैं वह ।
माँ की बात मानें जो, सबसे ही न्यारे हैं वह । ।

अच्छे बच्चे
सूरज से हम चम चम चमकें, चन्दा से शीतल मन होवें ।
पुष्पों की खुश्बू से हम सब, महकें अपने घर आँगन में ।
कोयल सा हम मीठा बोलें, चिड़िया सा हम हँस कर खेलें ।
कुत्ते सी हम आज्ञा मानें, मोर समान नाचते डोलें । ।

भावप्रधान कविताएँ

प्यारे भइया
प्यारे–प्यारे भइया, राजदुलारे भइया ।
सबसे प्यारे भइया, आँखों के तारे भइया । ।


प्यारी गुड़िया
प्यारी–प्यारी गुड़िया, शक्कर की पुड़िया ।
शक्कर मीठी नहीं है, जितनी मीठी गुड़िया । ।


शैतान गुड़िया
देखो मेरी गुड़िया रानी, करती है कितनी शैतानी ।
पूड़ी सब्जी खूब बनाती, फेंके बर्तन, डाले पानी । ।


बन्दर राजा
बन्दर राजा घूम रहे हैं, डाल–डाल पर कूद रहे हैं ।
भूख लगी तो तोड़े आम, डण्डा पड़ा भूल गए नाम । ।

वातावरण से परिचय

बादल
टहल रहे हैं बादल सारे, कितने सुन्दर कितने प्यारे ।
पानी लाते रिमझिम कर हैं, बच्चों की आँखों के तारे । ।

तारे और मुन्ना राजा
टिम–टिम तारे चमक रहे हैं, आँख मिचौली खेल रहे हैं ।
चंदामामा देख रहे हैं, मुन्ना राजा सोच रहे हैं । ।

रेल
छुक–छुक, छुक–छुक खेलें खेल, देखो कितनी सुन्दर रेल ।
राजू , पिंकी, मुन्ना, भइया, सब चलते हैं ठेलम ठेल । ।
इंजन बना हुआ है राजू , गार्ड बना है प्यारा पप्पू ।
छुक–छुक करती भागे रेल, दिल्ली आया रुक गई मेल । ।

तारे
आसमान में निकले तारे, कितने सुन्दर कितने प्यारे ।
चम–चम चमक रहे हैं तारे, लगते अच्छे तारे न्यारे । ।

संस्कृति का ज्ञान

रक्षाबन्धन
रक्षाबन्धन का त्योहार, भाई बहन का अनुपम प्यार ।
राखी बाँधे बहन, भाई दे उसको रक्षा का उपहार । ।


महीने के दिन
अप्रैल, जून, सितम्बर, नवम्बर इनके दिन हैं तीस ।
अट्ठाइस दिन की फरवरी, बाकी सब इकतीस । ।

स्वच्छता से सम्बन्धित कविता

साफ सुथरे बच्चे
सबके मन को भाते बच्चे, फूलों से मुस्काते बच्चे ।
साफ सुथरे रहते जो, रोज ही नहाते जो । ।
दाँत साफ रखते जो, कपड़े साफ रखते जो ।
सबके मन को भाते वो, फूलों से मुस्काते जो । ।

स्वास्थ्य (आहार) से सम्बन्धित कविताएँ

डॉक्टर बन्दर
बन्दरिया जी की शादी में, दूल्हा डॉक्टर बन्दर ।
बर्फी, लड्डू , हलवा, पूड़ी, थाली आयी सज कर । ।
तिनक उठ खड़ा दूल्हा बोला, नहीं खाऊँगा ये सब ।
मुझे चाहिए पौष्टिक भोजन, रोटी, दाल और पालक ।
पत्ते वाली सब्जी हो और लाल चुकन्दर गाजर । ।

इसी प्रकार समभाव की कविता
डॉक्टर दूल्हा
दीदी जी की शादी में, दूल्हा आया डॉक्टर ।
पकवानों से सजे थाल को, लेकर आया नौकर । ।
जीजा बोले तब गुस्से में, लाये हो ये क्यों कर ।
रोटी, सब्जी, दाल, दूध ही भोजन होता रुचिकर । ।

चना–मूँग
चना, मूँग और मोठ भिगोकर, जिसने–जिसने खाया ।
टीका हँस–हँस कर जिसने भी, डॉक्टर से लगवाया । ।
मट्ठा, सब्जी, दालें खाकर, स्वस्थ शरीर बनाया ।
खेलकूद में और पढ़ने में, अव्वल नम्बर पाया । ।

करेला
सुन्दर प्यारा–प्यारा, लगता सबसे न्यारा ।
हरा करेला आया, सबके मन को भाया । ।
सब्जी जिसने खाया, फुड़िया दूर भगाया ।
सुन्दर प्यारा–प्यारा, लगता सबसे न्यारा । ।

पौष्टिक आहार
खाएँ हम सब ऐसे, खिल जाएँ फूल जैसे ।
चने की दाल के साथ, मक्का की रोटी , पालक के शाक के साथ चने की रोटी ।
खाएँ हम सब ऐसे, खिल जाएँ फूल जैसे , हरे पत्ते की सब्जी, रोटी मोटी–मोटी ।
पालक की सब्जी, रोटी छोटी–छोटी , खाएँ हम सब ऐसे, खिल जाएँ फूल जैसे । ।

नीम
चैत की बयार में, कोपल है नीम की ,शुद्ध करे रक्त को, है बहुत कीमती ।
 रोगों को दूर करे, फोड़ों को नष्ट करे , रोज खाओ, न कोई जरूरत हकीम की । ।

तुलसी
नित्य चार पत्ती तुलसी की, जो कोई है खाता ।
सब रोगों को दूर भगाकर, लम्बी सैर लगाता । ।

चरित्र निर्माण से सम्बन्धित कविताएँ

बत्ती
हुई रात तब मुन्ना पढ़ते, बत्ती वहीं जलाते हैं ।
पढ़–लिख कर जब सोने जाते, बत्ती बन्द कर जाते हैं । ।

खाना
अपनी माँ जो खाना देती, सबसे अच्छा खाना देती ।
गोलू की पूड़ी मत देखो, पिंकी की चूड़ी मत देखो । ।
अपना घर है छोटा प्यारा, सबसे सुन्दर सबसे न्यारा । ।

फूल
कितने सुन्दर कितने प्यारे, फूल खिले हैं न्यारे–न्यारे ।
नहीं तोड़ कर उन्हें गिराओ, उन जैसे तुम भी मुस्काओ । ।

समयबद्धता
उठो सवेरे शीश नवाओ, दाँत साफ कर रोज नहाओ ।
करो कलेवा, पढ़ने जाओ, विद्यालय से न कतराओ । ।
पढ़ना सीखो, लिखना सीखो, कभी नहीं तुम लड़ना सीखो ।
भेदभाव को दूर भगा कर, मिल जुल कर तुम रहना सीखो ।

Sunday, December 2, 2018

सुमति



‘सिर दर्द के मारे फटा जा रहा है। समझ में नही आ रहा है कि क्या करूँ?’
‘करोगे क्या? कुछ झाड़–फूँक करवाओ या देवी का अनुष्ठान करो, लगता है, देवी नाराज़ हो गई हैं।’ पत्नी निर्णायक स्वर में बोली।
‘देवी तो नाराज़ है किन्तु मैं कैसे कह दूँ कि घर के किसी एक सदस्य का सर्वनाश कर दो।’ व्यथित होते हुए रामकिशन बोले।
बात यह थी कि आज प्रात: पूजा करते समय उन्हें लगा था कि देवी कह रही हैं कि ‘मैं तुमसे नाराज़ हूँ। घर के किसी एक सदस्य पर विपत्ति आएगी। तुम बता दो कि किस पर विपत्ति आए कल तक का समय देती हूँ।’ तबसे ही पूरा घर परेशान था।
नवविवाहिता पुत्रवधू ने कहा–‘पिताजी मैं एक सलाह
दूँ।’
रामकिशन पुत्रवधू से कुछ बोल तो नहीं पाए किन्तु उन्हें बहुत बुरा लगा कि उनसे आधी उम्र की बहू प्रिया क्या सलाह देगी, फिर भी बोले–‘बताओ क्या बता रही हो, तुम्हारी भी सुन लूँ।’
‘आप देवी जी से कह दीजिए कि आप चाहे घर के जिस सदस्य पर विपत्ति लावें, केवल घर में परस्पर सुमति रहे।’
‘क्यों।’
‘पिता जी! आप देवी जी से इतना कहिए, हमारे ऊपर विपत्ति नहीं आएगी क्योंकि जहाँ पर सुमति होती है, वहीं पर आनन्द होता है।’ बहू विनती के स्वर में बोली।
खैर––––दूसरा दिन आया। देवी जी आयीं, अन्य कोई विकल्प न देखकर रामकिशन जी ने देवी जी को प्रणाम करके कहा–‘भगवती! आप इतना आशीर्वाद दीजिए कि घर के सदस्यों में परस्पर सुमति बनी रहे। अब आपकी इच्छा है, यदि आवश्यक ही है किसी पर विपत्ति आना तो घर के किसी भी एक सदस्य पर विपत्ति आ जावे।’

देवी जी ने मुस्कराते हुए कहा– ‘रामकिशन!
जहाँ सुमति  तहँ सम्पति  नाना ।
जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना ॥
अत: मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ कि तुम्हारा परिवार सदा सुख समृद्धि से भरा रहेगा। तुमने सुमति की कामना की है। अत: तुम्हारे परिवार में कभी विपत्ति आ ही नहीं सकती, क्योंकि सुमति होने पर एक व्यक्ति के ऊपर विपत्ति आने पर पूरा परिवार मिलजुल कर उस समस्या को सुलझा लेता है।’
सुमति से ही समृद्धि मिलती है।


समस्या–समाधान


‘सारे कुटीर–उद्योग तो मशीनीकरण के आगे समाप्त होते जा रहे हैं। मैं तुम्हें कौन सा रास्ता बताऊँ घरेलू काम का।’
‘क्यों? पहले औरतें बड़ी, पापड़ बना–बना कर पूरी गृहस्थी चलाती थीं।’
बीच में बात काटते हुए अनन्त अपनी पत्नी वसुधा से बोला–‘यही तो मैं कह रहा हूँ। अब तो बड़ी–पापड़ भी मशीन से बनने लगे हैं, मशीन के बने बड़ी–पापड़ आदि देखने में साफ–सुथरे व अच्छे भी लगते हैं और हाथ के बने बड़ी–पापड़ों से सस्ते भी बैठते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि घर के बने बड़ी–पापड़ कौन खरीदेगा? गाँधी जी इसीलिए तो मशीनीकरण का विरोध करते थे। उनकी कुटीर–उद्योग की अवधारणा भारत के लिए वरदान थी, किन्तु अत्यन्त दु:ख के साथ


कहना पड़ता है कि-अब तो टेरीखादी तक बनने लगी है।’

अनन्त एक सरकारी कार्यालय में लिपिक के पद पर कार्यरत था। उसके पिता का देहान्त हो गया था। घर में माँ व दो छोटे भाई थे, अनन्त के भी दो छोटे बच्चे थे। कुल मिलाकर सात लोगों का परिवार था। भाई अभी पढ़ ही रहे थे। पिता की प्राइवेट नौकरी होने के कारण पेन्शन का कोई प्रावधान नहीं था। खाने के अतिरिक्त भाइयों व बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी था। यूँ तो मितव्ययता से खर्च करने पर सभी खर्च आराम से चल रहे थे, किन्तु आगे आने आने वाले खर्चों की चिन्ता स्वाभाविक ही थी।
वसुधा कह रही थी–‘अभी तो सब ठीक–ठीक चल ही रहा है किन्तु तुम्हारे भाई विपुल और वैभव पढ़ाई में अच्छे हैं। आगे पढ़ाई का खर्च बढ़ेगा, उसके लिए भी तो अभी से व्यवस्था करनी है।’
‘भाभी! तुम परेशान मत हो। हम लोग ट्यूशन कर लेते हैं। कम से कम पढ़ाई का खर्च तो निकलेगा ही।’–विपुल ने कहा ।
‘बेवकूफी की बात मत करो। तुम लोगों का काम सिर्फ पढ़ाई करना है। दिन भर ट्यूशन करोगे तो पढ़ोगे कब? मैं चाहती हूँ कि तुम लोग पढ़–लिखकर किसी अच्छे पद पर पहुँच जाओ।’
‘लेकिन भाभी’
‘लेकिन–वेकिन कुछ नहीं। तुम्हें घरेलू समस्याओं व खर्च से कोई मतलब नहीं है। जाओ तुम अपने कमरे में जा कर पढ़ो।’आदेशात्मक स्वर में वसुधा बोली।
विपुल उठ कर अपने कमरे में चला जाता है।
‘बहू! मैं सोच रही हूँ कि गाँव की खेती बेच दें, करने वाला भी कोई नहीं है। खर्च की भी सुविधा हो जाएगी।’माँ जी बोलीं।
‘हाँ माँ कह तो ठीक रही हैं।’अनन्त ने माँ की बात का समर्थन करते हुए कहा।
‘माँ जी! खेती, जमीन–जायदाद व जेवर आड़े वक्त के लिए होते हैं। वैसे भी खेती तो हमारे पुरखों की विरासत है। कब क्या जरूरत पड़ जाए? हम और खेत न भी खरीद सकें तो कम से कम जो हैं उसे तो रहने दें। मेरी सम्मति तो खेती बेचने की नहीं है, आगे आप लोगों की इच्छा।’ वसुधा ने कहा ।
‘बहू तू कहती तो ठीक है, लेकिन तू विपुल और वैभव को ट्यूशन भी नहीं करने देना चाहती, पढ़ाना भी चाहती है, आखिर गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलेगी?’
‘माँ जी! मैं मेहनत करूँगी। मैं किसी घरेलू–उद्योग के बारे में विचार कर रही हूँ।’
इस प्रकार बहुत से घरेलू–उद्योगों के बारे में सोचती रही वसुधा और योजनाएँ बनती गर्इं, बिगड़ती गर्इं। अन्तत: एक दिन वसुधा ने कहा–‘अभी सिलाई के काम का तो पूरी तरह मशीनीकरण नहीं हुआ है। घर में सिलाई मशीन तो है ही, कल से ही बोर्ड लगाकर सिलाई का काम शुरू कर देते हैं। मोहल्ले के लोगों से भी कह देंगे, धीरे–धीरे प्रचार भी हो जाएगा। अच्छी सिलाई होगी तो लोग आवेंगे ही।’
और––––शुरू हो गया सिलाई का काम।
शाम को अनन्त ने आकर पूछा–‘आज कितना काम आया?’
‘आज पड़ोस का एक सलवार सूट सिलने आया था। दिन भर लग कर सिला व तैयार करके दे भी आई। पचास रुपए मिले, क्या बुरा है?’
‘हाँ! शुरूआत तो अच्छी है । हाँ! एक काम करो, अभी जो कमाई हो, उसे घर–खर्च में मत लगाओ, अलग जमा करती जाओ।’
‘क्यों ?’
‘जब कुछ पैसे इकट्ठे हो जाएँगे, तब एक नई मशीन ले लेना, जिसमें पीको भी होता है । तब तुम आसानी से
साड़ी के फाल भी लगा सकोगी।’

धीरे–धीरे वसुधा के पास इतने पैसे इकट्ठा हो गए कि उसने एक नई मशीन खरीद ली। अब वह पीको का काम भी करने लगी। उसने एक पार्ट–टाइम दर्जी भी रख लिया। वह पैन्ट, शर्ट, कोट आदि सिल लेता था।
अनन्त ने भी साथ दिया। वह अपने ऑफिस के लोगों का काम व दुकानों से भी काम लाने लगा।
इस प्रकार धीरे–धीरे काम बढ़ने लगा और रेडीमेड दुकानों के आर्डर भी मिलने लगे। अब यह लोग थान कि थान कपड़े खरीद कर रेडीमेड कपड़े बना कर थोक–सप्लाई करने लगे । माँ जी भी घर के काम में पूरा सहयोग देती थीं, ताकि वसुधा को अपने काम के लिए अधिक समय मिले।
अब वसुधा के यहाँ कई दर्जी काम कर रहे थे। इस प्रकार जो बीज उसने घर की सिलाई–मशीन से काम करके डाला था, वह अब विशाल–वृक्ष के रूप में पुष्पित–पल्लवित हो गया था।
आज अनन्त के घर में सब लोग बहुत प्रसन्न थे। घर में उत्सव जैसा वातावरण था। अनन्त के भाई विपुल का चयन आई.आई.टी. में इंजीनियरिंग के लिए हो गया था। वसुधा आगन्तुकों का स्वागत मिठाई से कर रही थी और विपुल की पढ़ाई के लिए आर्थिक समस्या तो थी ही नहीं।
और––––विपुल ने भाभी के चरणों में बैठ कर कहा–‘भाभी! अगर सभी महिलाएँ आपकी तरह हों तो हर घर स्वर्ग बन
जाए।’
त्याग, प्रेम व परिश्रम ही जीवन के सर्वोच्च गुण हैं।


मान–प्रतिष्ठा की सही परिभाषा


ठाकुर दानबहादुर सिंह के दिन तंगहाली में गुज़र रहे थे। ज्यादातर जमीन भाई बहनों व बच्चों की शादी की भेंट चढ़ गयी थी। थोड़ी सी जमीन बची थी, उससे सारे खर्चे नहीं निकलते थे।
थक हार कर वह शहर आ गए व रिक्शा चलाने लगे। लेकिन अधिक दिन तक रिक्शा नहीं चला सके क्योंकि इतनी मेहनत की आदत तो थी नहीं। शहर में ही एक मंदिर में शरण मिल गयी थी। रात में वह वहीं सो जाते थे। उनके अच्छे आचरण से प्रभावित होकर मन्दिर के ट्रस्टी श्री कुमार साहू जी ने उन्हें एक कपड़े की दुकान में नौकरी दिलवा दी। वह अपने खाने–पीने में बहुत थोड़ा खर्च करते थे। कोशिश यह करते थे कि अधिक से अधिक पैसा बचा कर घर में दिया जाय।
उनके छोटे बेटे की शादी थी। पास में पैसा नहीं था। उन्होंने ठकुराइन से कहा–‘अपने पास थोड़ी सी ज़मीन बची है, उसे बेच दिया जाए क्या?’
ठकुराइन ने माथा ठोकते हुए कहा–‘शादी–ब्याहों में पानी की तरह पैसा बहाने के परिणामस्वरूप ही तो हमारी ये दशा हो गयी है। अब बाकी बची जमीन मैं नहीं बिकने दूँगी।’
‘ठकुराइन! आखिर शादी में दावत देनी होगी, बहू को जेवर कपड़ा देना होगा। बारात का खर्च आदि कहाँ से आएगा?’
‘आजकल सभी वर्गों में सामूहिक विवाह का प्रचलन हो गया है। इसमें आदमी अपनी सामर्थ्यानुसार अंशदान करता है। आप ठाकुर शमशेर सिंह जी से मिलिए न।’
शाम को वह ठाकुर शमशेर सिंह जी के यहाँ इस प्रस्ताव को लेकर गए। ठाकुर शमशेर सिंह धनी तो थे ही, उनसे आयु में भी बहुत बड़े थे। अत: ठाकुर दानबहादुर सिंह ने उनके पैर छूते हुए कहा–‘ठाकुर साहब! आपसे तो हमारी माली हालत छिपी नहीं है। ठकुराइन कह रही थीं कि छोटे लड़के का विवाह सामूहिक–विवाह में कर दिया जाए।’
  ‘बिल्कुल ठीक! बहुत अच्छा सोचा है। लेकिन सामूहिक विवाह किसी मजबूरीवश न किया जाए तो अच्छा है। मैं भी अपने लड़के का विवाह इसी पच्चीस मार्च को होने वाले सामूहिक विवाह में कर रहा हूँ।’
‘ठाकुर साहब! आपको क्या आवश्यकता पड़ गयी, सामूहिक विवाह में लड़के की शादी करने की?’ दानबहादुर सिंह ने आश्चर्य से पूछा।
‘दानबहादुर! ठाकुरों ने अपनी सारी सम्पत्ति झूठी शान–प्रतिष्ठा में खत्म कर दी। उससे न तो अपना हित हो पाया, न ही दूसरों का। यदि हमारे पास सामर्थ्य है तो हम दूसरों का हित क्यों न करें?’
‘मैं अपने बेटे की शादी में चार–पाँच लाख तो खर्च करता ही। मैं अभी भी चार–पाँच लाख ही खर्च करूँगा, लेकिन उससे केवल मेरे लड़के की शादी न होकर अन्य निर्धन जोड़ों का भी विवाह होगा। सबका विवाह एक ही स्तर से होगा। यह मैं अपनी मान–प्रतिष्ठा मे लिए नहीं कर रहा हूँ, वरन् समाज को सही दिशा दिखा रहा हूँ क्योंकि खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र बनाती हैं।’
जब दानबहादुर सिंह ठाकुर शमशेर सिंह जी के यहाँ से लौट रहे थे तो उन्हें मितव्ययिता और मान–प्रतिष्ठा की नई परिभाषा समझ में आ गई थी।
मितव्ययिता कर दूसरों की मदद करो।


Friday, November 30, 2018

जैसा जमा, वैसा ब्याज


रमेश, विमल और अतुल का चयन बेसिक शिक्षा परिषद द्वारा संचालित नए खुले हुए प्राथमिक विद्यालय में हुआ। तीनों की आयु लगभग बराबर थी।
घर से बाहर होने के कारण तीनों ने एक कमरा किराए पर ले लिया व एक साथ रहने लगे। साथ ही खाना बनाते, खाते व विद्यालय जाते। रमेश अपना आधा वेतन बैंक में जमा कर देता था, विमल पूरा वेतन खर्च कर देता था व अतुल का अपने वेतन से पूरा नहीं पड़ता था। अत: उसे अपने घर से भी पैसा माँगना पड़ता था।
इस प्रकार धीरे–धीरे तीनों का विवाह हुआ, सन्तानें हुर्इं, पदोन्नति हुई किन्तु उनके धन खर्च करने का तरीका यही रहा। समय बीतता गया। सबके बच्चे बड़े होकर अपने–अपने काम में लग गए। सेवानिवृत्त होने पर तीनों अपने–अपने गाँव चले गए। आदत के अनुसार रमेश ने सेवानिवृत्ति पर मिले पैसे में से कुछ पैसे से गाँव के मकान की मरम्मत करवाई, बाकी पैसा बैंक में जमा कर दिया। उसे विभाग से पेंशन भी मिलती थी।

उधर विमल व अतुल ने अपनी पेंशन का एक बड़ा भाग विभाग को बेच दिया। अत: अपेक्षाकृत उन्हें रमेश से अधिक धन मिला लेकिन पेंशन बहुत थोड़ी मिलती थी। उन्होने उस पैसे से गाँव में खूब अच्छा मकान बनवाया, अपनी सुख–सुविधा के सामान इकट्ठे किए। अतुल ने तो बची हुई खेती बेचकर भी मकान और सामान में लगा दी।
अब रमेश तो आराम से रह रहा था। उसे पैसे की कोई चिन्ता न थी। जब मन होता बच्चों के पास चला जाता, जब मन होता गाँव में रहता व सामाजिक–कार्य करता था व भजन–पूजन करता।
विमल जिसे थोड़ी पेंशन मिलती थी, उसको अपने गुज़ारे के लिए कुछ तो खेती पर निर्भर रहना पड़ता, कुछ ट्यूशन करनी पड़ती। अतुल को भी थोड़ी पेंशन मिलती थी। इसके अतिरिक्त उसके पास न तो पुरखों की खेती थी, न जमा पूँजी, उसे दिनभर ट्यूशन करनी पड़ती थीं।
अब देखें रमेश, विमल और अतुल तीनों ने एक साथ नौकरी शुरू की, समान वेतनमान होते हुए भी सेवानिवृत्त होने पर आज  रमेश आर्थिक रूप से काफी समृद्ध है, नियमित पेंशन भी पा रहा है। विमल ने अपने पुरखों की जायदाद खत्म नहीं की है। अत: उसे अपने गुजारे के लिए अपेक्षाकृत कम मेहनत करनी पड़ती है। अतुल जो अपनी व पुरखों दोनों की ही सम्पत्ति खर्च कर चुका थाय उसे गुज़ारे के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी।
इसी प्रकार जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसका पुण्य संचित होता जाता है। उसी मात्रा में उसकी समृद्धि होती है । ऐसा क्यों होता है कि किसी का जन्म अमीर घर में होता है, किसी का गरीब घर में। जिसने पूर्वजन्म में जैसा कर्म (जमा) किया है, उसे वैसा ही फल (ब्याज) मिलता है।
इस जन्म में भी जो जैसा बैंक बैलेंस (कर्म) करता है, उसे वैसा ही परिणाम मिलता है। यथोचित बैंक बैंलेंस (सेवा) के फलस्वरूप उसका जीवन सुखी व समृद्ध होगा।
सत्कर्म करो


जंगल में मंगल

सुयोग्य प्राकृतिक चिकित्सक रमेश जिस मरीज़ को हाथ लगाता, वह ठीक हो जाता किन्तु प्राकृतिक–चिकित्सा के लिए स्थान की काफी आवश्यकता होती है। उसके घर में स्थान का अभाव था। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक–चिकित्सा के मूल आधार शुद्ध मिट्टी, पानी, धूप, हवा के लिए भी गहरी मशक्कत करनी पड़ती थी।
रमेश के पिता अल्प वेतन भोगी थे। रमेश घर की स्थिति से अच्छी तरह से परिचित था। उसने अपने पिताजी से कहा–
‘पिताजी! मुझे एक योजना समझ में आ रही है, मैं जंगली नरभक्षी पशुओं से रहित जंगल में चला जाऊँ। वहीं कुटिया बना कर साधना करूँ, कन्द मूल, फल तो पेट भरने के लिए मिल ही जाएँगे। मेरी साधना तो होगी ही, भगवान ने चाहा तो प्राकृतिक चिकित्सा भी चल जाएगी।’
‘बेवकूफी की बात मत करो। एक तो तुम शहर में रहने के आदी हो चुके हो, दूसरे इतनी दूर जंगल में इलाज करवाने कौन जाएगा।’

 ‘पिता जी! आप एक बार अनुमति तो दें। आखिर हमारे ऋषि–मुनि भी तो जंगल में रह कर ही साधना करते थे। रही मरीज़ों के इतनी दूर जंगल में जाने की बात तो जब एक, दो मरीज़ ठीक होंगे, तब बाकी मरीज़ स्वयं आने लगेंगे। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए मनुष्य कहाँ–कहाँ नहीं जाता है।’
माँ ने कहा–‘मैं तुझे नहीं जाने दूँगी।’
रमेश बोला–‘माँ! मैं गाँधी जी के सपनों को साकार करना चाहता हूँ। उन्होंने रामनाम और प्राकृतिक चिकित्सा को ही स्वास्थ्य का मूल आधार बताया था।’
अब गाँधीवादी माता कुछ बोल न सकीं। पिता जी व माँ ने उसे जंगल में जाने की अनुमति दे दी। वह अपने साथ मात्र एक जोड़ कपड़े, रस्सी, चाकू, एक कुल्हाड़ी, एक बाल्टी, गिलास तथा मार्ग–व्यय के लिए एक हजार रुपए लेकर गया था।
जंगली लोगों के सहयोग से उसने धीरे–धीरे एक कुटिया बना ली। अब वह उनकी भाषा भी समझने लगा। साधना से तेज भी आ गया।
अब वह अपने घर आया। शहर के अस्पतालों में मरणासन्न मरीजों को अपनी कुटिया में आने का निमंत्रण दिया। इलाज पूरी तरह नि:शुल्क था।


जीवन से निराश हो चुके दो मरीज़ों ने सोचा कि वह यों भी ठीक नहीं हो रहे हैं। यह इलाज भी करके देख लिया जाए। अगर नहीं भी ठीक हुए तो अस्पताल की सूइयों से तो बेहतर है कि प्रकृति के समीप ही रहा जाए।
इस प्रकार दो मरीज़ तथा मरीज़ों के घर के दो–दो सदस्य रमेश के साथ गए। वह अपने साथ बनाने, खाने का सामान, कपड़े, बर्तन, बिस्तर आदि भी ले गए।
प्रार्थना, उपवास, साधना व प्राकृतिक चिकित्सा से दोनों मरीज पूर्ण स्वस्थ हो गए। साथ ही उनके घरवाले भी जो उनके साथ गए थे, सच्चे अर्थों में पूर्ण स्वस्थ हो गए।
अब तो रमेश के यहाँ मरीज़ों की भीड़ लगने लगी । मरीज़ों से मिले हुए पैसों से रमेश ने वन–विभाग से थोड़ी सी जमीन खरीद ली व टैक्स भी देने लगा। हालांकि चिकित्सा का कोई निर्धारित शुल्क नहीं था किन्तु लोग अपने सामर्थ्यानुसार धन देने में चूकते नहीं थे।
धीरे–धीरे गाँधीजी के सपनों के अनुरूप उसका आश्रम बहुत बड़े प्राकृतिक चिकित्सालय के रूप में परिवर्तित हो गया। उसने सोचा अगर पूरे देश में इसी प्रकार के आरोग्य–मंदिर बन सकें तो गाँधी जी का स्वास्थ्य सम्बन्धी सपना तो पूरा हो ही जाएगा।
रमेश के माता–पिता उसके आश्रम में आए हुए थे। उन्होंने कहा–‘बेटा! तूने तो जंगल में मंगल कर दिया।’
त्याग व परिश्रम से सब कुछ पाया जा सकता है।


मुक्तक


दर्द इतना बढ़ा कि पता ही न चला ।
अंगुली कटी मेरी कि गला भी कट चला । ।
दोस्तों की खोज में भटकते चले गए ।
न मिले दोस्त ख्वाब दोस्ती का लिए रहे । ।

तुम चरणों की रज से माँ, अब मुझको जीवन दे देना ।
ज्ञान ज्योति की उस तरंग से, आपूरित कर मन देना । ।

प्रेम की वीणा के प्रिय कर तार झंकृत गीत दे दो ।
गीत के संगीत को प्रिय, तान दे कर मोल दे दो । ।

कुछ नशा ऐसा चढ़ा कि दुनिया का नशा भूल गया ।
‘शिखा’ को दीपक ही याद रहा, बाकी सहारा छूट गया । ।

मैने जगना सीख लिया है, तोड़ दिया सोने का हार ।
जिस चुप को राज कहती हो, वही तो बोलता हरदम । ।

रात को ले कर सोए थे, प्यार भरे नयनों को तेरे ।
स्वप्न ने आ कर तोड़ दिया, अहसास दिलाया सत्य मुझे । ।
स्वप्न तो आया था मन में, बीत गया वह जीवन में ।
दूर हो गई सुखद अरुणिमा, दूर हो गए तुम मुझसे । ।
पड़े रहे हम निपट अकेले, घूम रहे मन को कलपाते ।
भटक रहे हैं राहों में अब, जीवन को कुछ–कुछ समझाते । ।

आँसू तुम अब हो क्यों बहते, दुनिया की सब बातें सहते ।
कोई न समझ पाया गरिमा, यूँ ही बहते हैं सब कहते । ।
ठोकर मार हृदय–मन में प्रिय, छोड़ दिया है एकाकी ।
टूटेगा जीवन कलपन से, है इसका एहसास नही ।
घृणा स्वयं आश्चर्ययुक्त हो, अविचल हो साकार हुई ।
श्रद्धा का प्रतिफल जीवन में, नफरत का अवलम्ब बनी । ।

अपमानित कर प्रेम अतुल, क्या पाओगे तुम मेरे जीवन ।
पाकर यह सौन्दर्य विमल, क्यों नहीं हुआ उल्लसित हृदय मन । ।

मैने जगना सीख लिया है, तोड़ दिया सोने का हार ।
जिस चुप को राज कहती हो, वही तो बोलता हरदम । ।

हमारी अंगूठी नगीने बिना है, सही ज्ञान की यह अभिज्ञान मेरी ।
मेरी याद को तुम भुला न सकोगे, संस्मृति सदा ही हमारी रहेगी । ।


यौन–वेदना


नैनों से नीर बहा जाता, यौवन है अंगड़ाई लेता ।
बस प्यार किया था यौवन में, क्या पाप किया था जीवन में ?
सब स्त्रोत प्यार का दे डाला, पर नदिया तो क्या सूखी थी ?
सब कुछ तो दे डाला तुमको, पर आशा तो क्यों टूटी थी ?
किस पौधे को अब सीचूँगी, किस आभा में मैं डूबूँगी ?
क्या दीप जलेंगे जीवन में, किसको अपना तन–मन दूँगी ?
यह प्रेम पथिक आशा करती, मैं आऊँगी तेरे मन में ।
सपनों में तो आते हो तुम! कब आओगे इस जीवन में ।
यदि आओ तो तब ही आना, जब प्रेम स्त्रोत में डूबे हो ।
जब पुष्प खिले होवें मन में, तन–मन–धन सब अर्पित होवें ।
अब और कहूँ मै क्या तुमसे, जीवन के तुम ही साथी हो । ।




व्यथित हृदय

टूट गया मेरा मन प्रियतम ।
व्यथित हृदय हो स्वयं मधुरतम । ।
अम्बर की छाया के संग–संग ।
महके प्रियतम तेरा अंग–अंग । ।
वृक्षों के पतझड़ सम झरता ।
नयन अश्रु का दरिया गिरता । ।
स्वयं प्रफुल्लित हृदय उल्लसित ।
पीड़ा से मन हो गया पल्लवित । ।
प्यार की आवाज आती मानसिक तल से ।
सोच कर राहत, अभी है प्रेम के बल से । ।



उपहास



उपहास बनाने को मैं ही, बस निर्धन अबला शेष रही ।
हर घड़ी रुलाने को मैं ही, बस एक अभागन शेष रही ।
तुम पर मैंने विश्वास किया स्नेहयुक्त निर्मल मन से
इस अस्तव्यस्त जीवन–पथ पर विश्वास किया अन्तर्तम से
माँ वाणी का अधिकार दिया तुमको अपने मन उपवन में,
माँ शारदा समझ मैंने तुमको बैठाया था सिंहासन में ।
उपहास बनाने को मैं ही, बस निर्धन अबला शेष रही ।
हर घड़ी रुलाने को मैं ही, बस एक अकेली रुकी रही ।
कन्दुक–सम ठोकर खाने को, क्यों छोड़ दिया अब एकाकी ।
मेरी उस जीवन–ज्योति को, क्यों छीन लिया ए मन पापी ।
‘शिखा’ के करुण–क्रन्दन को, पहचान न पाया तव मानस
उपहास बनाने केा मैं ही, बस निर्धन–अबला शेष रही ।
हर घड़ी रुलाने को मैं ही, बस एक प्रेम की बेल रही । ।


अन्तर्बोध


मैं तुमको देखती हूँ, सोंचती हूँ, डूब जाती हूँ कहीं,
अव्यक्त प्राप्य स्नेह हृदय स्थित हो रहा यहीं ।
आँखों में है स्नेह का सागर, चेहरे से वात्सल्य टपकता है ।
जी चाहता है इस घन को, इस स्नेह हो अपने में ही समेट लूँ ।
कभी न हो अलग मेरे जीवन से सदा रहे यह स्नेहिल किरण,
जिसका आलम्बन ले कर ही मै जी सकूँ, कुछ कर सकूँ । ।
करुँगी भी क्या मेरा अस्तित्व ही कहाँ,
मिट जाए मेरा अस्तित्व यही कामना है,
नहीं यह भी कामना नही, केवल शान्ति पा सकूँ ।
इस विशाल वटवृक्ष की छाया में शान्ति पा सकूँ चिरशान्ति ।
जब छायाप्रद वृक्ष होगा तो पत्ते भी झड़ेंगें ही ।
जहाँ स्नेह का सागर होगा, वहाँ कठोरता भी होगी ही ।
क्यों विचलित होता है मन, इतनी सी कठोरता से,
समद्र में रत्न ढ़ूँढ़ोगे तो कष्ट तो होगा ही ।
ढ़ूँढ़ने भी कहाँ चले, जब मिल रहे हैं स्वयं ही,
बिखरे हुए हैं रत्न चुन सको तो चुन लो।
है विशाल समुद्र सामने फिर प्यास की तृष्णा क्यों?
जब हो विशाल जलाशय सामने, फिर उदपान में क्यों जाते हो?
होता है संस्पर्श मन का मन से,
मन का ही मन से क्यों, अन्तरतम से क्यों नहीं?
अन्तरतम ही क्यों, जब विभेदरेखा ही नही?
क्यों मैं चाहूँ मुझे कोई जाने, क्यों मैं चाहूँ मैं कुछ पाऊँ ?
पाना ही क्या है, जब सब कुछ मिला हुआ है,
मिला ही नहीं वह मेरा अपना है,
अपना भी क्या है, जब मैं ही कुछ नहीं ।
काश! अब प्यास न रहे, थकान न रहे,
इस विशाल छत्रछाया में जो सदा मेरे पास है
शान्ति पा सकूँ, केवल शान्ति, चिरशान्ति ।

अन्तर्साथी


अकेलेपन की व्यथा ने खोजा, साथी का साथ ।
व्यथित मन की खोज ने,
एकाकीपन की व्यथा को और भी बढ़ाया था ।
घर की चारदीवारी में बंद, रात्रि की नीरवता ने–
मनुज के साथ की आकांक्षा को, और भी बढ़ाया था ।
पड़ोसियों के व्यंग्यबाणों ने, समाज की रीतिरिवाजों ने–––
दूसरे के साथ की इच्छा को, और भी बढ़ाया था ।
काम से लौट कर ढोते हुए, सब्जी के थैले ने–––
जीवन साथी की खोज को, और भी बढ़ाया था ।
किन्तु–––––
अन्तर की  शान्ति ने मुझे चेताया–––
अकेलेपन की व्यथा को दूर भगाया–––
और कहा–
आत्म को पहचान कर यदि, पा सके अब शान्ति मन तो,
ज्ञान की गति क्या, स्वयं ही ज्ञान मय हो मन–सरोवर ।
प्राणगति, प्राण कराण, जीवनी है शक्ति अनुपम ।
वात्सल्ययुक्ता प्रेममय वह, स्नेहशीला है अव्यक्ता ।
व्यथितमन की वेदना को, है वही अवलम्ब देती ।
है सदा सहयोगिनी वह, मातृवत् औषधि लगाती ।
मनुज का तो साथ दुर्लभ, चेतना सबको सुलभ है ।
मनुज का जीवन क्षणिक है, एक केवल नित्य वह है ।
नाश हो यदि स्वयंवपु का, चेतना फिर भी सदा है । ।







विकल सौन्दर्य

मधुमय हो मधुमास बनी तुम मधु का ही तो पान करातीं ।
मधु की मधुर मधुरता क्या हो, जो तुम अमृतपान कराती । ।
मधुमय हो–––––
विकल हुआ मन जभी तुम्हारा दिया जगत को तभी सहारा,
निज दु:ख दु:खी मनोगति हो जब, सुख सरिता को तभी लुटाती ।
मधुमय हो––––––
अन्तर का सौन्दर्य तुम्हारा, है बिखेरता रत्न अनोखे,
रत्नों के तो मोल कहो तब, क्या प्रकाश का मोल भला है ?
मधुमय हो–––––
हो प्रकाश की मूर्तिमान तुम, अंधकार को खुद पी जातीं ।
क्यों दु:ख में तुम दु:खित हृदय हो, अपने को ही दु:ख पहुँचाती । ।
मधुमय हो––––––
क्या समाज इस ‘मधु’ को पाकर, निज विष को देने से चूका ।
यह तो दयामूर्ति तुम ही हो, शीतलता से सबको सींचा । ।
मधुमय हो––––––
व्यथित हृदय, मन स्वयं प्रकाशित, आत्मज्ञान की हो अभिलाषी ।
मातुपिता की आज्ञाकारी, ‘शोभा’ ही हो जग की सारी । ।
मधुमय हो–––––––










चेतना


इस अहंबुद्धि में डूब कर क्या होगा ?
जब अहं पर मन का प्रभाव है,
मन पर इन्द्रियों का,
इन्द्रिय में ही कामना है,
कामना ही बन्धन का कारण है ।
फिर अहं के पीछे क्यों भागो ?
जब तक अहं को माना कुछ न मिला
अहंवान गहरी खाई में गिर पड़ता है
और आत्मवान ?
वह बढ़ता है सदा ऊँचाई की ओर ।
इस जगत में प्राणी–
अहं को प्रधानता दे कर, आत्मवान बनना चाहता है ।
और फिर ?
संतुलन खो बैठता है ।
वास्तव और अवास्तव मिल कर–
अवास्तव ही बनता है ।
फिर भी–
वास्तव की ओर मुड़ो अवास्तव को छोड़ो ।
वह वास्तव है, सत् है, उस सत् में आनन्द है ।
अवास्तव असत् है ।
पुन: अहं को छोड़ कर आत्म ही सब कुछ है ।
फिर असफलता में आत्मदोष क्यों ?
आत्म में रहो सफलता स्वयं सिद्ध है ।
असफलता का कारण अहं है आत्म नही ।
मैं आत्मदोषी नहीं अहं दोषी हूँ ।



Thursday, November 29, 2018

आत्मबोध


तेरा प्रकाश सर्वत्र होने पर भी–––
मैं बार–बार क्यों विचलित हो जाती हूँ ?
जब तूने इतना दिया तो अब, मैं अलग कैसे ?
सर्वत्र प्रकाश, शान्ति व आनन्द है, फिर दु:ख, चिन्ता क्यों ?
जो तू दे रहा है, कर रहा है, वह उचित ही है ।
फिर मैं क्यों अहंरूप में सोंचती हूँ ?
आत्म ही नित्य है, आत्म में ही क्यों न स्थित हो ।
आत्मदोष असम्भव है, अहंदोष हो सकता है ।
फिर–––––
अहं को विलग कर मैं––––
बार–बार विनती करती हूँ
अहंभाव न आने पावे,
कर्म समर्पित होवें तुझमें । ।


भारतमाता


यह देश, क्या बना है यह देश?
लाखों बलिदानें, मौते हुर्इं।
माँ–बहनें हुयीं सुहाग–विहीन,
पायी आजादी, छूटे बन्धन,
पर क्या हम छुटा सके बन्धन।
परायों से जकड़ी थी माँ पहले,
अब अपने ही बेटों ने,
बाँधा है जंजीरों से ।

नया राष्ट्र निर्माण करो

याद करो अपनी गरिमा को,
नया राष्ट्र निर्माण करो ।
आस लगाता देश तुम्ही से,
निज दायित्व निर्वाह करो । ।
जीवन की आशा में बालक,
खड़े हुए अपलक, अविचल से,
दूर निराशा, अन्धकार कर, आशा का विश्वास भरो ।
अन्तर्मन को जागृत कर तुम,
नैतिकता का भाव भरो ।
याद करो–––––




मानव सम्बन्ध

मानव सम्बन्धों में अटकी,
मैं घूम रही भटकी–भटकी।
आनन्दित मन–अन्तरतम हो,
प्रभु प्रेम लगन ही जीवन हो । ।

विरह–वाणी

द्वार की ओर प्रिय की राह क्यों देखते?
क्या कोई आस अब भी बची है सखे?
क्यों न तू भी अकेले चले हे––मने ।
क्यों कली सोंचती है कि अलि ही आए?
पुष्प क्यों सोंचता है कि माली आए?
क्यों नहीं जी सके वे अकेले सखे?
क्यों न आता है भौंरा चुराने को मधु?
क्या सूख जाएगा सब रूप यों ही प्रभु?






दीपशिखा


शिखे! तुम अविरल मौन जलो ।
तम का गले हिमालय निशि भर,
भले स्वयं पिघलो । ।
शिखे!––––
अँधियारों के टूटे बन्धन,
नवप्रकाश का हो अभिनन्दन
अंधकार वाली बगिया का
करो उर्मियों से नित सिंचन
झंझाओं में भी न रुकें पग
सतत सदैव चलो । ।
शिखे!––––
बीज किरण के तुम नित बोना,
जगमग हो जग का हर कोना
अपने अन्तर की माला में–––
नई ज्योति के सुमन पिरोना
सुधा बाँटना सदा जगत को
गरल भले निगलो––– ।
शिखे!––––
जब भी कभी उदासी छाए
अंधकार से मन घबराए
तब आवाज मुझे देना मैं–––
आऊँगा दिनमान उठाए
मधु ऋतु की बन नयी भोर तुम–
यह मौसम बदलो । ।
शिखे!––––




पीड़ा



अपनी पीड़ा में मुझको, आँसू बनकर घुलने दो ।
मेरी पीड़ा बस मेरी है, एकाकी ही सहने दो ।
क्या समझेगा कोई मेरे मन की पीड़ा को,
न समझ पाई मैं ही, अपनी जीवन क्रीड़ा को ।
इस वेदनाभयी हृदय को, अब दीपक बन जलने दो ।
मेरी पीड़ा बस मेरी है, एकाकी ही सहने दो ।
बाँध रहा मन आशाएँ अब और किसी जन से है क्यों ?
इस जीवन पथ मुझको अवलम्ब बिना चलने दो । ।
मेरी पीड़ा बस––




सूखे घन

कुछ उमड़–उमड़, कुछ घुमड़–घुमड़,
आते हैं सावन के घन ।
मेरा मन, प्यासा मन,
चातक सा मन, देखे जीवन–घन । ।
क्यों कास–कास सा होता है गगन,
जाने कब बरसेगा ये मेरे आँगन ?
खेतों में सूख गयी डारी–डारी,
धान की तो सूख गई क्यारी–क्यारी ।
अन्नदेवता रुष्ट हुए क्यों,
जल की हुई कमी भारी ।
तन भी सूख गया मेरा,
मन भी तो है भारी–भारी । ।


Tuesday, November 27, 2018

मौन–प्रतीक्षा

तुम्हारे मौन में कैसा आनन्द है ?
मेरा मन जब तुमसे मिलता है–
मैं नहीं चाहती कि तुम मुझसे बोलो ।
तुम्हारा शब्द मुझे अच्छा नहीं लगता ।
अन्तरतम का हो संस्पर्श निरन्तर । ।
तुम्हारे मौन में–––
तुम मेरी ओर एक बार देख लेते हो
मेरे मन में आनन्द की हिलोरें उठने लगती हैं ।
पर––––
कभी–कभी लगता है, मैं टूट गई हूँ ।
मेरा कुछ खा गया है ।
तुम्हारी आँखों की वात्सल्य की किरण,
मेरा सब कुछ बेंध जाती है ।
मैं करती हूँ गल्तियाँ, तुम सुधार देते हो ।
पर कभी–कभी इतने कठोर क्यों ?
तुम्हारे मौन में––––
मैं प्रतीक्षा करती हूँ, उस मौन की, उस आनन्द की ।
एक बार जब तुम छूटे थे, मैं दु:ख में डूब गयी थी ।
तुम सामने थे, पर वह शान्ति नहीं थी ।
मैं प्यासी थी, मैने उस जल को पाना चाहा ।
तुमने उसे समेट लिया, मेरी प्यास बढ़ गई––––
फिर जब जल मिला तो मैं नहीं छोड़ना चाहती ।






मित्र

मित्र! मैंने तो तुम्हें चाहा बहुत था ।
पर कभी चाहा तुमने मुझे?
मित्र! मैंने तो तुम्हें समझा बहुत था ।
पर कभी समझा तुमने मुझे?
सोचती थी, झर रहा, अमृत मनोरम ।
आ गया मधुमास सुन्दर–
अमिय, शीतल, मधुर, मोहक ।
बह रहा था पवन सुरभित ।
पी मधुर आनन्द के क्षण ।
झूमती सी आ रही थी ।
ले तभी तुम आ गए क्यों ?
कंकड़ी डाली हृदय में,
तोड़कर तुम मधुर बन्धन–
छोड़ते से विगत जीवन ।

अनन्तानन्द

मैं बैठी रहती हूँ–
तुम आते हो, मौन सन्देश ले कर ।
मैं सोती हूँ,
निद्रा में मिलती है, अविचल शान्ति ।
तुम होते हो सामने, मैं अपने को भूल जाती हूँ ।
तुम्हारी झलक से शान्ति मिलती है ।
मैं कहीं अलग चली जाती हूँ ।
जब क्षणमात्र के लिए भी तुम चले जाते हो,
तो जीवन अधूरा रह जाता है ।
कैसी कल्पना है मेरी–
तुम कहाँ जाते हो,
तुम तो सदा–सर्वदा साथ हो ।
बस इसी सागर में डूब कर हिलोरें लेती रहूँ ।
बस डूब सकूँ तुम्हारे में ही–
पूरी तरह-
मैं मैं न रहूँ-
बस तुम ही तुम हो सर्वत्र सर्वदा ।











ममाभीप्सित

मैं त्याग करूँ या प्यार करूँ,
विरह में डूबूँ या भोग करूँ,
सदा अन्धड़ चलता रहता,
आँधी आती, तूफान आता ।
न थमता समीर का क्रोध कभी,
न आती बसन्त की हरियाली ।
चाहा आदर सत्कार करूँ,
नित प्यार करूँ, सम्मान करूँ ।
सब ओर व्याप्त हो शांति सदा,
यज्ञाग्नि धूम्र प्रसरित होवे ।
न प्यार मिला, न शांति मिली ।
पीड़ित विचलित जीवन है यह।
इस तुच्छ समर्पित तन–मन से–
क्या चरमलक्ष्य उपलब्धित है ?
उदासीन मन क्षोभित है।
सम्पूर्ण समर्पित जीवन हो,
यही ममाभीप्सित है।



ज्ञान

सर्वत्र प्रकाश है, शुभ है ।
उसी लक्ष्य की ओर देखो, अज्ञान समाप्त हो जाएगा ।
ज्ञान का प्रकाश, सर्वत्र फैल जाएगा ।
अज्ञान में कामना, दु:ख, चिन्तन, परचिन्तन आदि है ।
ज्ञान में आत्मचिन्तन है, प्रकाश है, आनन्द है, विद्या है ।
स्वाध्याय में आनन्द है, ज्ञान है ।
अहंकार नहीं, सर्वत्र आनन्द है ।
उस प्रकाश की ओर देखो–
अज्ञान दूर हो कर एकाग्रता बढ़ेगी ।
अज्ञान दूर होगा, तो शांति भी मिलेगी ।
बस उसी शांति की याचना है ।


Monday, November 26, 2018

नित्यानन्द



हे ईश्वर! हे प्रभु!
तू क्यों मेरी परीक्षा लेने के लिए कटिबद्ध है ।
मैं तेरे समक्ष निरी शिशु हूँ ।
मेरी याचना को स्वीकार कर,
मेरे अपराधों को क्षमा कर ।
अपराध, त्रुटियाँ मनुष्य का स्वभाव है ।
त्रुटियों पर ध्यान न देकर–
मुझे अपने चरणों में लगाए रख ।
तेरे चरणों में ही मेरी प्रीति लगी रहे ।
मेरे में कोई फल–कामना न हो,
मैं फल के विषय में चिन्तन न कर सकूँ ।
तू जो चाहे कर,
मैं उस आनन्द, उस सत्य के विषय में तर्क न कर सकूँ । ।
वह आनन्द नित्य है, वही सत्य है ।
मैं उस आनन्द को समझ नहीं पाती ।
जब मिलता है तो सोचती हूँ–––– क्यों मिल रहा है ?
उस आनन्द को छोड़कर अन्य सब मरीचिका है, आवरण है ।
वह आनन्द प्राप्त है तो अन्य की ओर क्यों भागूँ ?
उस प्रकाश में प्रकाशित रहूँ,
नित्य सत्यानन्द प्रकाश में सदा सर्वदा । ।

अभिज्ञान


प्रेम में दे मान मुझको ।
हो गया अभिमान मुझको । ।
कर विलीन अस्तित्व मेरा ।
समा कर व्यक्तित्व मेरा । ।
माँगती हो दान अब तुम ।
प्रेम का प्रतिदान हो तुम । ।
हूँ समर्पित, स्वयं अर्पित ।
हो गया प्रिय प्रेम चर्चित । ।
आ सखी अब ज्ञान दो तुम ।
प्रेम का अभिज्ञान दो तुम । ।


सत्य उद्भव


अन्त कर सम्बन्ध को भी हो गयी निश्चिन्त हूँ मैं ।
टूटते कर्तव्यबन्धन देख कर विचलित हुई मैं । ।
जानना तुम चाहते हो, जाग कर मैं क्या करुँगी ।
रात भर पीड़ा तुम्हारे प्यार की, गिनती करुँगी । ।
तुम्हें पा कर सोचती थी, यही सुन्दर सत्य सम्भव ।
उपेक्षा पा कर तुम्हारी, हो गया है सत्य उद्भव । ।
क्या सिखाना चाहते थे, प्रेम की उन्मुक्त भाषा ।
जान गयी हूँ प्रिय,तुम्हारे प्रेम में है निराशा । ।






विलीन अस्तित्व



हे प्रभु!

मैंने तुझसे कभी कुछ नही माँगा ।
माँगा तो, केवल तेरे चरणों में प्रेम ।
तू मुझे क्यों बार–बार अपने से अलग करता है ।
शायद इसलिए कि मैं तुझे भूल न जाऊँ ।
मेरे में अहंभाव न आ जाए ।
कर्तापन और कामना न आ जाए,
मेरे में क्यों अहंभाव आता है,
क्यों कर्तापन आता है ?
मैं समझ नहीं पाती ।
हे प्रभु!
तू मुझसे जो चाहे कराए ।
मेरा तुझसे अलग कोई अस्तित्व न हो ।
मैं क्यों किसी से कुछ चाहूँ,
तेरा सौन्दर्य तो सर्वत्र है ।
अब तू मुझे अपने से अलग न कर,
मेरे में अहंभाव न आने दे ।
क्या सूर्य उदित होने पर–
मुझे प्रकाश ढ़ूँढ़ना पड़ता है ?











अन्तर्व्यथा

चले थे, सोचते थे,
कुछ करने को, आगे बढ़ने को,
रूक गए बीच में ही,
किस रास्ते जाऊँ, कुछ समझ में आता नहीं ।
लक्ष्य दिखता है, दूर है–
दूर हो कर भी पास ही है,
साधन भी है, पर उपयोग नहीं,
साधन मैं ही हूँ, पर उपयोगकर्ता नहीं,
उसी उपयोगकर्ता की खोज है।
बहाना बना लिया, मैं कर नहीं सकती,
सदा आकांक्षा है सहायता की,
सहायता न मिली है, न मिलेगी
नाव को ठेलते जाओ, समुद्र पार हो जाएगा।
किनारे पर जाकर स्वयं सन्तोष हो जाएगा।
संतोष, शान्ति और आनन्द का सम्मिश्रण–
व्यथाओं का चिन्तन ही असत्य है।
दु:ख न था, न है और न रहेगा।
दु:ख एक मरीचिका है।
इसी भ्रमजाल में डूब कर–
व्यथाओं का गान अभीष्ट नहीं।







निवेदन

कैसा आनंद है, शांति है, विश्राम है,
फिर भी अज्ञानता का सागर हूँ ।
मैंने अपने को समझा, कुछ पाया, सब कुछ पाया ।
सर्वत्र शून्य आकाश में–
जिसे हम शून्य कहते हैं, कुछ बिखरा हुआ है ।
सर्वत्र शांति है, इसे मैंने समेटा–
पर क्यों ?
जब तूने इतना दिया तो अब सौन्दर्य से अलगाव क्यों ?
मेरी अग्निपरीक्षा क्यो ?
हे परब्रह्म! तूने मुझे जो कर्म दिया है, उसे मैं कर सकूँ ,
मैं और तू एक हैं, मैं तुझे अलग न समझूँ ।
मुझे इतनी योग्यता दे कि डूब सकूँ, उस अनन्तसागर में!
मुझे कोई आकांक्षा न हो, त्याग हो, सर्वत्र त्याग ।
कोई बन्धन न हो, तू ही कर्ता हो और मैं माध्यम
मैं चाहूँ किसी में तो तेरे ही रूप को, मैं पाऊँ किसी में तो तेरे ही रूप को ।
किसी के शब्दों का, कम्पन का, उसकी स्मृति अथवा चिन्तन का–
मेरे ऊपर कोई प्रभाव न हो ।
सर्वत्र शांति हो, केवल शांति, अद्भुत शांति ।
जहाँ कोई न हो, बस मैं और तू हों ।
मेरा चिन्तन, मेरी धारणा, मेरे विषय, मेरे काम–
सब तेरे में ही समर्पित हों ।
अब तू परीक्षा न ले–
मैं किसमें और कुछ पा सकूँगी,
किसकी सहायता पा सकूँगी ।
तेरा राज्य सर्वत्र है ।
मुझे कर्म योग्यता दे,
मैं निरपेक्ष रूप से कर्म करूँ और–
तेरे में डूब सकूँ ।
सदा–सर्वदा सर्वत्र शांति का साम्राज्य है ।

अन्तर्ज्ञान

अब तो दिया जल गया है, प्रकाश ही प्रकाश है ।
अन्धकार का स्मरण क्यों ?
कहीं भी अन्धकार हो, तो रुदन क्यों ?
चिन्गारी पास है तो प्रकाश की अल्पता कहाँ ?
यदि पहले नहीं अनुभव हुआ–
तो व्यर्थ तपन क्यो ?
तपना ही है तो अग्नि के ताप में तपो,
उस प्रकाश में तपो ।
वह ही कर्ता है,
फिर किसी की सहायता की आकांक्षा क्यों ?
सदा प्रकाश की ओर बढ़ते जाओ–
लक्ष्य स्वयं मिल जाएगा ।
क्या कोई प्रकाश से अन्धकार की ओर जाता है ?
तो फिर–
पूर्व जीवन में प्रवेश क्यों ?
पीछे अन्धकार था अब प्रकाश है ।
सर्वत्र पुष्पों का सौन्दर्य है, शांति है ।
इस बगिया में ही प्रवेश करके–
सर्वत्र पुष्पों का चयन करो ।











जीवन की परिभाषा

जीवन क्या यही है जीवन ?
प्रेम नही है, प्यार नही है ।
मातृ में, पितृ में, भ्रातृ में, मित्र में,
सब कहीं देखा पर नही मिली वह प्रेम की किरण,
मिली तो थी पर शायद नहीं मिली ।
प्राप्य भी क्यों हो ?
प्राप्य तो उनको है जो सत्पात्र हैं ।
जो चाहता है, शायद उसे अँधेरा ही मिलता है ।
जो भागता है, शायद उसे काँटे ही मिलते हैं ।
इन काँटों में ही सुख है ।
अँधेरे में ही प्रकाश है ।
विरह ही प्रेम है,
कामना ही दु:ख है,
आशा में ही निराशा है,
जीवन एक कसौटी है,
यही जीवन की परिभाषा है ।

अंग्रेजी की महिमा


ई अंग्रेजी हमरा पीछा नाहीं छोड़त है ।
हम आगे भागत जावत हैं, ऊ पीछे आवत–जावत है ।
हम तीन साल फेल हुई कर, तब दसवीं कक्षा पास किहेन ।
फिर राहु रूप अंग्रेजी की पूजा कइके हम शान्त किहेन
अब आए जब स्नातक मा––––––
ई दर्शन की मोटी–मोटी औ साइको की काली–काली किताबन मा–
ई थियालॉजी और हिडोनिज्म, साइकोसिस और न्यूरासिस तो–
हमका नहीं समझ में आवत है ।
जब टीचर गिटपिट–गिटपिट मा बोलत हैं–
यू आर ईडियट ।
‘शोभा’ फूल कर कुप्पा भर्इं, ऊ समझत हैं–
तुम हौ इन्टरमीडिएट ।
ई अंग्रेजी––––––

स्मृति

लगता है कुछ पाना चाहती हैं,
कुछ ढूँढ़ रही हैं, दूर आकाश में–
क्षितिज में कहीं ।
क्या कुछ खो गया है ?
कुछ प्यासी सी हैं, कुछ अतृप्त सी,
क्या ज्ञान की प्यास भी कभी बुझी है ?
इन प्यासी आँखों में, मैं क्यों डूब जाती हूँ ?
हाँ–
शायद इस सागर में डूब जाने के लिए ।
अद्भुत संयोग है, सागर स्वयं प्यासा है,
ठीक ही है,
क्या सूर्य को भी कभी विश्राम मिला है ?
अन्दर कहीं कुछ और है, पाने की कोशिश करती हूँ,
मैं अतृप्त रह जाती हूँ ।
दोनों की ही अतृप्ति में कैसा अद्भुत आनन्द है ।

जनजीवन

क्यों दु:ख मैने पाया था, क्यों सुख को मैने खोजा,
सुख–दु:ख के इस बन्धन में, क्यों पड़ा हुआ है मानव,
जब मैने देखा निश्चल, इस सूर्य किरण की ऊष्मा–
इसमें तो है जन–जीवन, फिर क्यों तपती जाती है?
इस प्राणकिरण के पीछे, है एक अलौकिक आभा–
उस आभा के छुपते ही, किरणों का विनाश निश्चित है।
निश्चित तो जीवन भी है, वह शाश्वत और अनुपम है ।
जब उषाकाल आता है, जीवन की छाती लाली ।
अपरान्ह के बढ़ते ही, यौवन तो मदमाता है ।
फिर आती वृद्धावस्था, तब रश्मि अस्त हो जाती ।
प्रात: के होते ही फिर–पुनर्जन्म हो जाता ।
इन किरणों के जीवन में, नितप्रति है यह सब घटता ।
यह उदय–अस्त तो होता, पर स्त्रोत सूर्य निश्चित है । ।

एक बूँद

सघन घन समूह से टूटी हुई–
अपने अनगिनत साथियों से छूटी हुई–
एक बूँद हूँ मैं!
अपने निर्धारित भाग्य को जानते हुए,
नियति की इच्छा को मानते हुए,
हौले–हौले, धीरे–धीरे –
अम्बर से निकल कर असीम जल में,
विशाल सागर की मधुर कल–कल में,
विलीन हो जाती हूँ ।
अपने मूल अस्तित्व को बनाए हुए–
एक अतृप्त इच्छा दिल में बसाए हुए ।
काश! ऐसा न हुआ होता–
कुछ और होता–
जैसे–
अपने अनगिनत साथियों को छोड़–
अपने अस्तित्व की सीमाओं को तोड़–
समुद्र के किनारे पर पड़ी –
एक सीपी में जा पड़ी होती,
स्वयं को नष्ट कर मोती बन गई होती,
तो क्या ही अच्छा होता ।
मानव का मूल अस्तित्व ही सब कुछ नहीं,
अपना अस्तित्व खो कर–
परमशक्ति का हो कर–
अपने को ऊपर उठाना सीखो ।
इसी में सार्थकता है ।

Sunday, November 25, 2018

बूँद-बूँद टपकता नल


पात्र-परिचय
करण                          :           बारह वर्षीय लड़का प्रमुख पात्र
करण की माँ                 :           लगभग पैंतीस-चालीस वर्षीया महिला
पुजारी जी                     :           आयु लगभग पचास वर्ष
प्रबंधक जी                    :           आयु लगभग साठ वर्ष

मंदिर आने वाले अन्य स्त्री-पुरुष बच्चे।
वेशभूषा
पात्र-अभिनय के अनुकूल वेशभूषा





(पर्दा खुलता है)
(प्रथम दृश्य)
(मंच के प्रवेश द्वार पर गणेश मन्दिर का बैनर लगा है। नेपथ्य से घंटा ध्वनि आरती की आवाजें रही हैं। मंच पर एक नल लगा है वह टपक रहा है। मंच पर लगभग बारह वर्षीय लड़का अपनी माँ के साथ नल के पास खड़ा है। कुछ अन्य लोग भी हैं, वह मन्दिर के अन्दर जा रहे हैं या रहे हैं।)
करण                : (नल बन्द करने का प्रयास करता है।) माँ! यह   नल तो बन्द नहीं हो रहा है।
माँ                    : बेटा करण! इसका वासर खराब हो गया है। इसलिए नल टपक रहा है। इसका वासर                               बदलवाना पड़ेगा।(पुजारी जी का मंच पर प्रवेश)
माँ                                : अरे, पुजारी जी गए। (हाथ जोड़कर) पुजारी जी! प्रणाम।



पुजारी जी         : (हाथ ऊपर उठा कर) आशीर्वाद!
करण                : (हाथ जोड़कर) प्रणाम, पुजारी जी!
पुजारी जी         : (करण के सिर पर हाथ रखकर) खुश रहो बेटा! सदा सुखी रहो।
करण                : पुजारी जी! नल टपक रहा है, ठीक करवा दीजिए।
पुजारी जी         : (हँसते हुए) अरे बेटा! पानी ही तो है, टपकने दो।
करण                : पुजारी जी! पानी तो बहुत कीमती होता है। एक बूँद पानी भी बहुत कीमती होता है।

(अन्य आने-जाने वाले लोग भी वहाँ पर आकर खड़े हो गए। प्रबंधक जी भी जाते हैं )

प्रबंधक जी        : क्या बात हो रही है पंडित जी!
पंडित जी        : प्रबंधक जी! यह नल थोड़ा टपक रहा है। यह बच्चा कह रहा है कि इसे ठीक करवा दीजिए। पानी बहुत कीमती होता है।


प्रबंधक जी        : (करण के सिर पर हाथ फेरते हुए) बड़ा प्यारा बच्चा है। (करण की माँ से पूछते हुए) आप इसकी माँ हैं?
माँ                    : (हाथ जोड़कर) जी हाँ!
प्रबंधक जी         : आपने बच्चे को बड़े अच्छे संस्कार दिए हैं। मैं  आज ही नल ठीक करवाता हूँ।
करण                : धन्यवाद अंकल! अगर कहीं भी नल टपकता देखें तो तुरन्त ठीक करवा दें। अगर इसी तरह नल टपकते रहे तो धरती का भूजल स्तर नीचे चला जा सकता है। तब हमें बूँद-बूँद पानी के लिए तरसना पड़ सकता है।

पुजारी जी         : (गम्भीर मुद्रा में) ठीक कहते हो बेटा! अगर पानी मिले तो प्राणी मर भी सकता है। खाने के बिना तो हम कुछ दिन जीवित भी रह सकते हैं।अब मैं कथा में पानी के महत्त्व का प्रचार-प्रसार करूँगा।
माँ                    : बहुत अच्छा पंडित जी! (करण से) चलो बेटा मंदिर चलें!

(सबका मंदिर में प्रवेश)
(पर्दा गिरता है।)